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________________ प्रस्तावना। १०१ वस्तुतः देखो तो भन्जयन्तरसे हेतुकी अनैकान्तिकताका उद्भावन करना ही तद्वस्तूपन्यास और प्रतिदृष्टान्तसमा जातिका प्रयोजन है । उपायहृदयगत प्रतिदृष्टान्तसम दूषण (पृ० ३०) और तर्कशास्त्रगत प्रतिदृष्टान्तखण्डनसे यह तुलनीय है -पृ० २६ । (२) तदन्यवस्तूपन्यास- उपन्यस्त वस्तुसे अन्यमें भी प्रतिवादीकी बातका उपसंहार कर पराभूत करना तदन्यवस्तूपन्यास है - जैसे जीव अन्य है शरीर अन्य है । तो दोनों अन्यशब्दवाच्य होनेसे एक हैं ऐसा यदि प्रतिवादी कहे तो उसके उत्तरमें कहना कि परमाणु अन्य है, द्विप्रदेशी अन्य है तो दोनों अन्यशब्दवाच्य होनेसे एक मानना चाहिए - यह तदन्यवस्तूपन्यास है - दशवै० नि० गा० ८४ । यह स्पष्टरूपसे प्रसंगापादन है। पूर्वोक्त व्यंसक और लूषक हेतुसे क्रमशः पूर्वपक्ष और उत्तर पक्षकी तुलना करना चाहिए। (३) प्रतिनिभोपन्यास-वादीके 'मेरे वचनमें दोष नहीं हो. सकता' ऐसे साभिमान कथनके उत्तरमें प्रतिवादी भी यदि वैसा ही कहे तो वह प्रतिनिभोपन्यास है । जैसे किसीने कहा कि 'जीव सत् है' तब उसको कहना कि 'घट मी सत् है तो वह मी जीव होजायगा । इसका लौकिक उदाहरण नियुक्तिकारने एक संन्यासीका दिया है । उसका दावा था कि मुझे कोई अश्रुत बात सुनादे तो उसको मैं सुवर्णपात्र दूंगा । धूर्त होनेसे अश्रुत बातको भी वह श्रुत बता देता था। तब एक पुरुषने उत्तर दिया कि तेरे पितासे मेरे पिता एक लाख मांगते हैं। यदि श्रुत है तो एक लाख दो, अश्वत है तो सुवर्णपात्र दो। इस तरह किसीको उभयपाशारज्जुन्याय से उत्तर देना प्रतिनिभोपन्यास है-दशवै०नि० गा०८५। यह उपन्यास सामान्यच्छल है । इसकी तुलना लूषक हेतुसे भी की जा सकती है । अविशेषसमा जातिके साथ भी इसकी तुलना की जा सकती है, यद्यपि दोनों में थोडा मेद अवश्य है। (४) हेतूपन्यास-किसीके प्रश्नके उत्तरमें हेतु बता देना हेतूपन्यास है। जैसे किसीने पूछा-आत्मा चक्षुरादि इन्द्रियग्राह्य क्यों नहीं ! तो उत्तर देना कि वह अतीन्द्रिय है-दशवै० नि० गा०८५। ___ चरकने हेतुके विषयमें प्रश्नको अनुयोग कहा है और भद्रबाहुने प्रश्नके उत्तरमें हेतुके उपन्यासको हेतूपन्यास कहा है-यह हेतूपन्यास और अनुयोगमें भेद है। "अनुयोगो नाम स यत्तद्विद्यानां तद्विधैरेव साधं तत्रे तमौकदेशे या प्रश्न प्रकदेशों बाहान विज्ञानवधनप्रतिवचनपरीक्षार्थमादिश्यते यथा नित्यः पुरुषः इति प्रतिसाते यत् परः 'को हेतुरित्याह' सोऽनुयोगः । चरक विमान० १०८-५२ पूर्वोक्त तुलनाका सरलतासे बोध होनेके लिये नीचे तुलनात्मक नकशा दिया जाता है उससे स्पष्ट है कि जैनागममें जो वादपद बताये गये हैं यद्यपि उनके माम अन्य सभी परंपरासे भिन्म ही हैं फिर भी अर्थतः सादृश्य अवश्य है । जैनागमकी यह परंपरा वादशास्त्रके अव्यवस्थित और अविकसित किसी प्राचीन रूपकी ओर संकेत करती है । क्यों कि जबसे वादशास्त्र व्यवस्थित हुआ है तबसे एक निश्चित अर्थमें ही पारिभाषिक शब्दोंका प्रयोग समान रूपसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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