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________________ १०० उपन्यास | यह तो स्पष्टतया असिद्ध हेत्वाभास है । किन्तु चूर्णीकारने इसका स्पष्टीकरण घटमें व्यतिरेकव्याप्ति दिखाकर किया है, जिसका फल घटकी तरह एकेन्द्रियोंका भी निर्जीव सिद्ध हो जाना है क्यों कि जैसे घटमें श्वासोच्छ्वास व्यक्त नहीं वैसे एकेन्द्रियमें भी नहीं । "जहा को वि भणेजा - एगेन्दिया सजीवा, कम्हा जेण तेर्सि फुडो उस्सास निस्सासो दीसह । दितो घडो । जहा घडरस निजीवत्तणेण उस्सासनिस्सासो नत्थि । ताण उस्सासनिस्सासो फुडो दीसह तम्हा एते सजीवा । एवमादीहिं विरुद्धं न भासितव्यं ।" (४) दुरुपनीत - ऐसी बात करना जिससे स्वधर्मकी निन्दा हो यह दुरुपनीत है। इसका उदाहरण एक बौद्धभिक्षुके कथनमें है । यथा - "कथाssचार्याघना ते ननु शफरवधे जालमश्नासि मत्स्यान्, से मे मद्यपवंशान् पिबसि ननु युतो वेश्यया यासि वेश्याम् । कृत्वारीणां गलैहिं क नु तव रिपवो येषु सम्धि छिनभि, arreri धूतहेतोः कितव इति कथं येन दासीसुतोऽस्मि ॥” नि० गा० ८३ - हारि० टीका । यह भी चरकसंगत विरुद्ध वाक्यदोषसे तुलनीय है। उनका कहना है कि खसमय विरुद्ध नही बोलना चाहिए । बौद्धदर्शन मोक्षशास्त्रिक समय है । चरकके अनुसार मोक्षशास्त्रिक समय है कि - "मोक्षशास्त्रकसमयः सर्वभूतेष्वहिंसेति" वही ५४ । अतएव बौद्ध भिक्षुका हिंसाका समर्थन खसमय विरुद्ध होनेसे वाक्यदोष है । उपायहृदयमें विरुद्ध दो प्रकारका है दृष्टान्तविरुद्ध और युक्तिविरुद्ध - पृ० १७ । उपायनंदके मत से जो जिसका धर्म हो उससे उसका आचरण यदि विरुद्ध हो तो वह युक्तिविरुद्ध है' । जैसे कोई ब्राह्मण क्षत्रियधर्मका पालन करें और मृगयादिकी शिक्षा ले तो वह युक्तिविरुद्ध है । युक्तिविरुद्धकी इस व्याख्याको देखते हुए दुरुपनीतकी तुलना उससे की जा सकती है । (४) उपन्यास ( १ ) तद्वस्तूपन्यास - प्रतिपक्षीकी वस्तुका ही उपन्यास करना अर्थात् प्रतिपक्षीके ही उपन्यस्तहेतुको उपन्यस्त करके दोष दिखाना तद्वस्तूपन्यास है। जैसे- किसीने ( वैशेषिकने ) कहा कि जीव नित्य है क्यों कि अमूर्त है । तब उसी अमूर्तत्वको उपन्यस्त करके दोष देना कि कर्म तो अमूर्त होते हुए मी अनित्य हैं - दशवै० नि० चू० ८४ । आचार्य हरिभद्रने इसकी तुलना साधर्म्यसमा जातिसे की है। किन्तु इसका अधिक साम्य प्रतिदृष्टान्तसमा जातिसे है - "क्रियावानात्मा क्रियाहेतुगुणयोगात् लोष्टवदित्युक्ते प्रतिदृष्टान्त उपादीयते क्रियाहेतुगुणयुक्तं आकाशं निष्क्रियं दृष्टमिति । " न्यायभा० ५.१.९. । साधर्म्यसमा और प्रतिदृष्टान्तसमामें भेद यह है कि साधर्म्यसमामें अन्यदृष्टान्त और अन्य - हेतुकृत साधर्म्य को लेकर उत्तर दिया जाता है जब कि प्रतिदृष्टान्तसमा में हेतु तो वादिप्रोक्त ही रहता है सिर्फ दृष्टान्त ही बदल दिया जाता है। तद्वस्वपन्यासमें भी यही अभिप्रेत है । अतएव उसकी तुलना प्रतिदृष्टान्तके साथ ही करना चाहिए । १ "युक्तिविरुद्धो यथा ब्राह्मणस्य क्षत्रधर्मानुपालनम्, मृगयादिशिक्षा च । क्षत्रियस्य ध्यानसमाप• सिरिति युक्तिविरुद्धः । एवम्भूतौ धर्मों अशा अनुचैव स मम्बन्ते ।" उपाय० पृ० १७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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