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________________ बुद्धका जनकारवाद। इस वोपनिषद मतका निराकरण किया है । क्षेत्रकी दृष्टिसे आत्माकी व्यापकता यह भगवान् का मन्तव्य नहीं । और एक आत्मद्रव्य ही सब कुछ है यह मी भगवान् महावीरको मान्य नहीं । किन्तु आत्मद्रव्य वपर्याप्त है और उसका क्षेत्र मी मर्यादित है इस बातका स्वीकार करके उन्होंने उसे सांत कहते हुए भी कालकी दृष्टिसे अनन्त मी कहा है । और एक दूसरी दृष्टिसे भी उन्होंने उसे अनन्त कहा है-जीवके ज्ञान पर्यायोंका कोई अन्त नही, उसके दर्शन और चारित्र पर्यायोंका भी कोई अन्त नहीं । क्योंकि प्रत्येक क्षणमें इन पर्यायोंका नयानया आविर्भाव होता रहता है और पूर्वपर्याय नष्ट होते रहते हैं । इस भाव-पर्याय दृष्टिसे भी जीव अनन्त है। (७) म० बुद्धका भनेकान्तवाद । इस प्रकार हम देखते हैं कि भगवान् बुद्धके समी अव्याकृत प्रश्नोंका व्याकरण भ० महावीरने स्पष्टरूपसे विधिमार्गको खीकार करके किया है और अनेकान्तवादकी प्रतिष्ठा की है। इसका मूल आधार यही है कि एक ही व्यक्तिमें अपेक्षाके भेदसे अनेक संमवित विरोधी धर्मोंकी घटना करना। मनुष्य खभाव समन्वयशील तो है ही किन्तु सदा सर्वदा कई कारणोंसे उस खभावका आविर्भाव ठीक रूपसे हो नहीं पाता । इसी लिये समन्वयके स्थानमें दार्शनिकोंमें विवाद देखा जाता है । और जहाँ दूसरोंको स्पष्टरूपसे समन्वयकी संभावना दीखती है वहाँ भी अपने अपने पूर्वग्रहों के कारण दार्शनिकोंको विरोधकी गंध आती है । भगवान् बुद्धको उक्त प्रश्नोंका उत्तर अव्याकृत देना पड़ा उनका कारण यही है कि उनको आध्यात्मिक उन्नतिमें इन जटिल प्रश्नोंकी चर्चा निरर्थक प्रतीत हुई । अतएव इन प्रश्नोंको सुलझानेका उन्होंने कोई व्यवस्थित प्रयत नहीं किया । किन्तु इसका मतलब यह कमी नहीं कि उनके स्वभावमें समन्वयका तत्व बिलकुल नहीं था। उनकी-समन्वयशीलता सिंह सेनापति के साथ हुए संवादसे स्पष्ट है । भगवान् बुद्धको अनात्मवादी होने के कारण कुछ लोग अक्रियावाबी कहते थे । अत एव सिंह सेनापतिने भ० बुद्धसे पूछा कि आपको कुछ लोग भक्रियावादी कहते हैं तो क्या यह ठीक है ? इसके उत्तरमें उन्होंने जो कुछ कहा उसीमें उसकी समन्वयशीलता और अनेकान्तवादिता स्पष्ट होती है । उत्तर में उन्होंने कहा कि सच है मैं भकुमार संस्कारकी अक्रियाका उपदेश देता हूँ इसलिये मैं भक्रियावादी हूँ और कुशल संस्कारमी क्रिया मुझे पसंद है और मैं उसका उपदेश देता हूँ इसी लिये मैं क्रियावादी मी हूँ। इसी समन्वयप्रकृतिका प्रदर्शन अन्यत्र दार्शनिक क्षेत्रमैं भी यदि भ० बुद्धने किया होता तो उनकी प्रतिभा और प्रज्ञाने दार्शनिकोंके सामने एक नया मार्ग उपस्थित किया होता । किन्तु यह कार्य म० महावीरकी शान्त और स्थिर प्रकृतिसे ही होनेवाला था इस लिये भगवान् बुद्धने आर्य चतुःसत्यके उपदेशमें ही कृतकृत्यताका अनुभव किया । तब भगवान् महावीरने जो बुद्धसे न हो सका उसे करके दिखाया और वे अनेकान्तवादके प्रज्ञापके हुए। अब तक मुख्य रूपसे भगवान् बुद्धके अव्याकृत प्रश्नोंको लेकर जैनागमाश्रित अनेकान्तवादकी चर्चा की गई है। आगे अन्य प्रश्नोंके सम्बन्धमें अनेकान्तवादके विस्तारकी चर्चा करना इष्ट है । परंतु इस चर्चा के प्रारंभ करनेके पहले पूर्वोक्त 'दुःख स्वकृत है या नहीं' इत्यादि प्रश्नका समाधान म. महाबीरने क्या दिया है उसे देख लेना उचित है । भ० बुद्धने तो अपनी प्रकृतिके विवापिट महावग VI.31.और गुत्तर निकाय Part IV.p.1791 ३. पृ..। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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