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________________ टिप्पणानि । १६२ [ पृ० २३. पं० १४ यह पदार्थोंकी' व्यावहारिक सत्ता मानकर उनकी परीक्षा करता है और अन्तमें सभी की असता सिद्ध करता है । माध्यमिक की कोई प्रतिज्ञा या स्थापना नहीं है । दूसरोंकी प्रसिद्धिको असंगत बताना ही उसका कार्य है। अत एव उसके मतानुसार सभी सविषयक ज्ञान मिथ्या - भ्रम ही हैं । व्यावहारिकसस्यके आधार पर ज्ञानोंमें भ्रमा भ्रम विवेक भले ही हो पर परमार्थहम सभी ज्ञान भ्रम हैं । (३) सांख्यसंमत प्रसिद्धार्थख्याति । माध्यमिक से ठीक विरुद्ध बात सांख्य कहता है। माध्यमिक के मतसे सभी शून्य है असत् है निःखभाव है । तब सांख्य के मतसे सर्व वस्तुकी सर्वत्र सत्ता है । माध्यमिक के मतसे बाह्यार्थको विषय करनेवाले सभी ज्ञान परमार्थतः भ्रान्त हैं तब सांख्य के मतसे कोई ज्ञान परमार्थतः भ्रान्त नहीं । अर्थात् स्थूलदृष्ट्या ही कुछ ज्ञानोंमें भ्रान्तताका व्यवहार होता है । सांख्य का कहना है कि यदि वस्तु सर्वथा असत् हो तो आकाश कुसुमवत् वह प्रतिभासका विषय बन ही नहीं सकती । ज्ञानमें जब और जहाँ अर्थ प्रतिभासित होता है तब और तहाँ वह अर्थ प्रमाणप्रसिद्ध ही है । अत एव जिसे भ्रमज्ञान कहा जाता है वह प्रसिद्ध अर्थकी ही ख्याति होनेसे प्रसिद्धार्थख्याति है । बादमें जब अर्थ अव्यक्त हो गया तब व्यवहार में उसकी अनुपलब्धि होनेसे हम उस ज्ञानको भ्रम भले ही कहें पर वस्तुतः वह भ्रम नहीं है। क्योंकि विद्युत् आदि क्षणिक पदार्थकी तरह उत्तरकालमें उसकी उपलब्धि न मी हो तो भी ज्ञान कालमें उसका अस्तित्व सिद्ध ही है । अभ्यथां विद्युदादि ज्ञानोंको भी भ्रम मानना होगा। सांख्य का यह मत उसके सिद्धान्तानुकूल ही है । तथापि उसे प्रस्तुतमें नैया यि का दि के 1 प्रभावसे मुक्त नहीं माना जा सकता। क्योंकि 'ज्ञान निरालम्बन हो नहीं सकता' इस नै या यि क आदिके सिद्धान्तको अर्थतः स्वीकार करनेके बाद ही अपनी ज्ञेय-मीमांसा के आधार पर उसे यही कहना पड़ा कि भ्रममें भी ख्याति प्रसिद्धार्थकी ही होती है । सांख्य के मतसे किसी वस्तुका कहीं भी अभाव नहीं है। इसी लिये वह सत्कार्यवादी है । सांख्यमत के साथ रामानुज संमत भ्रमका निरूपण तुलना के योग्य है । रामानुज ने भ्रम स्थलमें सत्ख्याति मानी है। उनका कहना है कि जिसे हम शुक्तिका समझते हैं वस्तुतः उसमें रजतांश और शुक्तिकांश दोनों हैं । शुक्तिकामें शुक्तिकांश का बाहुल्य होनेसे वह शुक्तिकाके नाम से व्यवहृत मात्र होती है । अत एव शुक्तिकामें जब रजत प्रत्यय होता है तब वह यथार्थ ही है । फिर भी व्यवहारमें मिथ्या - भ्रम इस लिए कहा जाता है कि चक्षुरादिके दोष के कारण मात्र रजतांशका दर्शन हुआ और शुक्तिकांशका नहीं हुआ । दोषके हट जाने से 1 १. "संव्यवहार च वयं नानभ्युपगम्य कथयामः ।" विग्रह० २८ । "व्यवहारमनाश्रित्य परमार्थों न देश्यते । परमार्थमनागम्य निर्वाणं नाधिगम्यते ॥ " माध्य० २४.१० । २. "यदि काचन प्रतिज्ञा तत्र स्यात् एष मे भवेद् दोषः । नास्ति च मम प्रतिज्ञा तस्मा चैवास्ति मे दोषः ॥" विप्र६० २९ । माध्य० वृ० पृ० १६ । ३. "यदि किञ्चिदुपलभेयं प्रवर्तयेयं निवर्तयेयं वा प्रत्यक्षादिभिरर्थैस्तदभावान्मेऽनुपालम्भः ॥" विग्रह० ३० । ४. प्रमेयक० पृ० ४९ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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