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________________ प्रस्तावना। (8) शेषवत् । . अनुयोगद्वारका पूर्वचित्रित नकशा देखनेसे स्पष्ट होता है कि शेषवत् अनुमानमें पांच प्रकारके हेतुओंको अनुमापक बताया गया है । यथा "से कि त सेसवं? सेसवं पंचषिहं पण्णत्तं तं जहा कजेणं कारणेणं गुणेणं अषयवेणं भासएणं।" १ कार्येण-कार्यसे कारणका अनुमान करना । यथा शब्दसे शंखका, ताडनसे भेरीकाढक्कितसे वृषभका, केकायितसे मयूरका, हणहणाटसे (हेषित ) अश्वका, गुलगुलायितसे गजका और घणषणायितसे रथका । २ कारणेन- कारणसे कार्यका अनुमान करना । इसके उदाहरण में अनुमान प्रयोगको तो नहीं बताया किन्तु कहा है कि 'तन्तु पटका कारण है, पट तन्तुका कारण नहीं, वीरणा कटका कारण है, कट वीरणाका कारण नहीं, मृत्पिण्ड घटका कारण है, घट मृत्पिण्डका कारण नहीं । इस प्रकार कह करके शास्त्रकारने कार्यकारणभावकी व्यवस्था दिखा दी है। उसके आधारपर जो कारण है उसे हेतु बनाकर कार्यका अनुमान कर लेना चाहिए ऐसा सूचित किया है। ३ गुणेन-गुणसे गुणीका अनुमान करना यथा, निकषसे सुवर्णका, गन्धसे पुष्पका, रससे लवणका, आखादसे मदिराका, स्पर्शसे वस्त्रका' । ४ अवयवेन-अवयवसे अवयवीका अनुमान करना । यथा', सींगसे महिषका, शिखासे कुक्कुटका, दांतसे हस्तिका, दाढासे वराहका, पिच्छसे मयूरका, खुरासे अश्वका, नखसे ज्याप्रका, बालाप्रसे चमरी गायका, लांगूलसे बन्दरका, दो पैरसे मनुष्यका, चार पैरसे गो आदिका, बहु पैरसे गोजर आदिका, केसरसे सिंहका, ककुभसे वृषभका, चूडीसहित बाहुसे महिलाका; बद्ध परिकरतासे योद्धाका, वनसे महिलाका, धान्यके एक कणसे द्रोणपाकका और एक गाथासे कविका। ५ आश्रयेण-(आश्रितेन) आश्रित वस्तुसे अनुमान करना, यथा धूमसे अग्निका, बलाकासे पानीका, अभ्रविकारसे वृष्टिका और शील समाचारसे कुलपुत्रका अनुमान होता है। , "संखं सहेणं, मेरि ताडिएणं, घसमं दकिएणं, मोरं किंकाइएणं, हयं हेसिएणं, गयं गुलगुलाइएणं, रहं घणघणादणं।" . "तंतयो पडस्स कारणं ण पडो तंतुकारणं, धीरणा कडस्स कारणं ण कडो वीरणाकारणं, मिपिडो घडस्स कारणं ण घडो मिपिडकारणं।" ३ "सुवणं निकसेणं, पुष्पं गंधेणं, लवणं रसेणं, महरं आसायएणं, वत्थं फासेणं।" ४ “महिसं सिंगेण, कुक्कुडं सिहाएणं, हस्थि विसाणेणं, वराहं दाढाए, मोरं पिच्छेणं, आसं खुरेणं, वग्धं नहेणं, चरिं वालग्गेणं, पाणरं लंगुलेणं, दुपयं मणुस्सादि, चउपयं गवमादि, बहुपयं गोमिमादि, सीहं केसरेणं, वसह कुकुहेणं, महिलं वलयबाहाए, गाहा-प. रिअरबंधेण भडं जाणिजामहिलिअंनिवसणेणं। सित्थेण दोणपागं, कविं च एकाए गाहाए ॥" ५“अग्गि धूमेणं, सलिलं बलागेणं वुट्टि अभविकारेणं, कुलपुत्तं सीलसमायारेणं।" न्या. प्रस्तावना १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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