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________________ ८५ स्वगणमें दर्शनप्रभावक' शास्त्र ( सन्मत्यादि ) का कोई ज्ञाता न हो तो जिस गणमें उसका ज्ञाता हो वहाँ जाकर पढ सकता है। इतना ही नहीं किन्तु दूसरे आचार्यको अपना गुरु या उपाध्यायका स्थान भी हेतुविद्या के लिये दे तो अनुचित नहीं समजा जाता । ऐसा करनेके पहले आवश्यक है कि यह अपने गुरु या उपाध्यायकी आज्ञा ले ले । बृहत्कल्पभाष्य में कहा है कि " विज्जामंत निमित्ते हेउसत्थट्ठ दंसणट्टाए" बृहत्कल्पभाष्य गा० ५४७३ । अर्थात् दर्शनप्रभावना की दृष्टिसे विद्या - मन्त्र-निमित्त और हेतुशास्त्र के अध्ययन के लिये कोई साधु दूसरे आचार्योपाध्यायको भी अपना आचार्य वा उपाध्याय बना सकता है । अथवा जब कोई शिष्य देखता है कि तर्कशास्त्र में उसके गुरुकी गति न होनेसे दूसरे मतवाले उनसे वाद करके उन तर्कानभिज्ञ गुरुको नीचा गिरानेका प्रयत्न करते हैं तब वह गुरुकी अनुज्ञा लेकर गणान्तरमें तर्कविद्यामें निपुण होनेके लिये जाता है या स्वयं गुरु उसे भेजतें है । ' अंतमें वह तर्कनिपुण होकर प्रतिवादिओंको हराता है। और इस प्रकार दर्शनप्रभावना करता है । यदि किसी कारणसे आचार्य दूसरे गणमें जानेकी अनुज्ञा न देते हों तब भी दर्शनप्रभा - वना की दृष्टिसे बिना आज्ञाके भी वह दूसरे गणमें जाकर वादविद्यामें कुशलता प्राप्त कर सकता है । सामान्यतः अन्य आचार्य विना आज्ञा के आये हुए शिष्यको स्वीकार नहीं कर सकते किन्तु ऐसे प्रसंग में वह भी उसे स्वीकार करके दर्शनप्रभावना की दृष्टिसे तर्क विद्या पढानेके लिये बाध्य हैं। प्रस्तावना । विना कारण श्रमण रथयात्रामें नहीं जासकता ऐसा नियम है। क्योंकि रथयात्रामें शामिल होनेसे अनेक प्रकारके दोष लगते हैं - ( बृहत् गा० १७७१ से ) । किन्तु कारण हो तो रथयात्रामें अवश्य जाना चाहिए यह अपवाद है । यदि नहीं जाता है तो प्रायश्चित्तभागी होता है ऐसा स्पष्ट विधान है - "कारणेषु तु समुत्पन्नेषु प्रवेष्टव्यम् यदि न प्रविशति तदा चत्वारो लघवः ।" बृहत्० टी० गा० १७८९ । रथयात्रामें जानेके अनेक कारणोंको गिनाते हुए बृहत्कल्पके भाग्य में कहा गया है कि" मा परवाई विग्धं करिज वाई अओ विसह ॥ १७९२ ॥" अर्थात् कोई परदर्शनका वादी रथयात्रामें विघ्न न करे इस लिये वादविद्यामें कुशल वादी श्रमणको रथयात्रामें अवश्य जाना चाहिए । उनके जानेसे क्या लाभ होता है उसे बताते हुए कहा है "नवधम्माण थिरक्तं पभावणा सासणे य बहुमाणो । अभिगच्छन्ति य विदुसा अविग्धपूया य सेयार ॥ १७९३ ॥" वादी श्रमणके द्वारा प्रतिवादीका जब निग्रह होता है तब अभिनव श्रावक अन्य धार्मिकका पराभव देखकर जैन धर्ममें दृढ हो जाते हैं। जैन धर्मकी प्रभावना होती है। लोक कहने लग जाते हैं कि जैन सिद्धांत अप्रतिहत है इसी लिये ऐसे समर्थ वादिने उसे अपनाया है । दूसरे लोग भी वादको सुनकर जैन धर्मके प्रति आदरशील होते हैं । वादीका वैदग्ध्य देखकर दूसरे विद्वान् उनके पास आने लगते हैं और धीरे धीरे जैन धर्मके अनुयायी हो जाते हैं । इस प्रकार इन आनुषंगिक लाभोंके अलावा रथयात्रामें श्रेयस्कर पूजाकी निर्विघ्नता का लाभ भी हैं । अत एव वादीको रथयात्रामें अवश्य जाना चाहिए । Jain Education International १ वही ५४२५ । २ वही ५४२६-२७ । ३ वही गा० ५४३९ । For Private & Personal Use Only ४ गा० १७९० । www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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