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प्रस्तावना
२१
"इह आगई गई पारित्राय अञ्चेह जाइमरणस्स वइमगं विवायरर" आचा० १.५.६.
यदि तथागतकी मरणोत्तर स्थिति-अस्थितिके प्रश्नको ईश्वर जैसे किसी अतिमानव के पृथकू अस्तित्व और नास्तित्वका प्रश्न समझा जाय तब भगवान् महावीरका इस विषयमें मन्तव्य क्या है यह भी जानना आवश्यक है । वैदिक दर्शनोंकी तरह शाश्वत सर्वज्ञ ईश्वरको-जो कि संसारी कभी नहीं होता, जैन धर्म में कोई स्थान नहीं । भ० महावीरके अनुसार सामान्य जीव ही कर्मों का नाश करके शुद्ध खरूपको प्राप्त होता है जो सिद्ध कहलाता है । और एक बार शुद्ध होने के बाद वह फिर कभी अशुद्ध नहीं होता। यदि भ. बुद्ध तथागतकी मरणोत्तर स्थितिका स्वीकार करते तब ब्रह्मवाद या शाश्वतबादकी आपत्ति का भय था और यदि वे ऐसा कहते कि तथागत मरणके बाद नहीं रहता तब भौतिकवादिओंके उच्छेदवादका प्रसंग आता । अत एव इस प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा । परन्तु भ० महावीरने अनेकान्तवादका आश्रय करके उत्तर दिया है कि तथागत या अर्हत् मरणोत्तर भी है क्योंकि' जीव द्रव्य तो नष्ट होता नहीं, वह सिद्ध खरूप बनता है। किन्तु मनुष्यरूप जो कर्मकृत है वह नष्ट हो जाता है । अत एव सिद्धावस्थामें अर्हत् या तथागत अपने पूर्वरूपमें नहीं भी होते हैं । नाना जीवोंमें आकार प्रकारका जो कर्मकृत भेद संसारावस्था में होता है वह सिद्धावस्थामें नहीं क्योंकि वहाँ कर्म भी नहीं__ "कम्मओ णं भंते जीवे नो अकरमओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मओ णं जए णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमह?" "हंता गोयमा"
भगवती १२.५.४५२। इस प्रकार हम देखते हैं कि जिन प्रश्नों को भगवान् बुद्धने निरर्थक बताया है उन्हीं प्रश्नोंसे भगवान् महावीरने आध्यात्मिक जीवनका प्रारंभ माना है । अत एव उन प्रश्नोंको भ० महावीरने भ० बुद्धकी तरह अव्याकृत कोटिमें न रखकर व्याकृत ही किया है । इतनी सामान्य चर्चाके याद अब आत्माकी नित्यता-अनित्यता के प्रस्तुत प्रश्न पर विचार किया जाता है___ भगवान् बुद्धका कहना है कि तथागत मरणानन्तर होता है या नहीं-ऐसा प्रश्न अन्यतीर्थिकोंको अज्ञानके कारण होता है। उन्हें रूपादि का अज्ञान है अत एव वे ऐसा प्रश्न करते हैं। वे रूपादिको आत्मा समझते हैं, या आत्माको रूपादियुक्त समझते हैं, या आत्मामें रूपादिको समझते हैं, या रूपमें आत्माको समझते हैं जब कि तथागत वैसा नहीं समझते । अत एवं तथागत को वैसे प्रश्न भी नहीं उठते और दूसरोंके ऐसे प्रश्नको वे अव्याकृत बताते हैं। मरणामन्तर रूप वेदना आदि प्रहीण हो जाताहै अत एव अब प्रज्ञापनाके साधन रूपादि के न होनेसे तथागतके लिये 'है' या 'नही है। ऐसा व्यवहार किया नहीं जा सकता। अत एव मरणानन्तर तथागत 'है' या 'नहीं है' इत्यादि प्रश्नोंको मैं अव्याकृत बताता हूँ।' __ हम पहिले बतला आये हैं कि, इस प्रश्नके उत्तर में भ० बुद्धको शाश्वतवाद या उच्छेद वाद में पड जानेका डर था इसीलिये उन्होंने इस प्रश्नको अव्याकृत कोटिमें रखा है। जब कि भ० महावीरने दोनों वादोंका समन्वय स्पष्टरूपसे किया है । अत एव उन्हें इस प्रश्नको १. तुलना-"अस्थि सिद्धी प्रसिद्धी वा एवं सत्रं निवेसए।" सूत्रकृतांग २.५.२५। २. संयुत्तनिकाय XXXIII 1। ३ वही XLIV.8। ४ वही XLIV. 1
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