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________________ जीवकी नियता । भविष्यत् काल कैसे होऊंगा ? मैं भविष्यत् कालमें क्या होकर क्या होऊंगा ? मैं हूँ कि नहीं ! मैं क्या हूँ ? मैं कैसे हूँ ! यह सस्त्र कहांसे आया ? यह कहाँ जायगा ! २० भगवान् बुद्धका कहना है कि 'अयोनिसो मनसिकार' से नये आखन उत्पन्न होते हैं और उत्पन्न आसव वृद्धिंगत होते हैं । अत एव इन प्रश्नोंके विचारमें लगना साधक लिये अनुचित है'। इन प्रश्नोंके विचारका फल बताते हुए भ० बुद्धने कहा है कि 'अयोनिसो मनसिकार' के कारण इन छः दृष्टिओंमें से कोई एक दृष्टि उत्पन्न होती है उसमें फँसकर अज्ञानी पृथग्जन जरा - मरणाविसे मुक्त नहीं होता - - ( १ ) मेरी आत्मा है । (२) मेरी आत्मा नहीं है । (३) मैं आत्माको आत्मा समझता हूँ । (४) मैं अनात्माको आत्मा समझता हूँ । (५) यह जो मेरी आत्मा है वह पुण्य और पापकर्म के विपाककी भोक्ता है। ( ६ ) यह मेरी आत्मा निष्य है, ध्रुव है, शाश्वत है, अविपरिणामधर्मा है, जैसी है वैसी सदैव रहेगी। अत एव उनका उपदेश है कि इन प्रश्नोंको और दुःखनिरोधका मार्ग इन चार आर्यसत्योंके आव निरोध होकर निर्वाणलाभ हो सकता है । भ० बुद्धके इन उपदेशोंके विपरीत ही भगवान् महावीरका उपदेश है । इस बातकी प्रतीति प्रथम अंग आचारांगके प्रथम वाक्यसे ही हो जाती है - "इहमेोसि नो सन्ना भवर तं जहा- पुरस्थिमाओ वा दिलाओ आगओ अहमंसि दाहिणाओ या... अभयरीयाओ या दिसाओ वा अणुदिलाओ वा आगओ अहमंसि । एचमेलि मो नायं भवर - अस्थि मे आधा उववाइए । मत्थि मे आया उववाह । के आई जाती, के का हो चुओ इह पेचा भविस्सामि ? छोडकर दुःख, दुःखसमुदाय, दुःखनिरोध विषयमें ही मनको लगाना चाहिए । उसीसे "से अं पुण जाणेज्जा सहसम्मुद्दयाप परवानरर्ण बनेसिं वा अन्तिर सोबा वं जा पुरत्थिमाओ... एवमेगेर्सि नायं भवद्द - अत्थि मे आया उवबाहर जो इमाओ दिलाओ अणुदिसाओ वा अणुसंचरह सव्वाओ दिसाओ अणुदिसाओ सोहं से आयाबाई, लोगाषाई, कम्माबाई, किरियाबाई ।” भ० महावीरके मतसे जब तक अपनी वा दूसरेकी बुद्धिसे यह पता न लग जाय कि मैं या मेरा जीव एक गतिसे दूसरी गतिको प्राप्त होता है, जीव कहाँसे आया, कौन था और कहाँ जायगा ? - तब तक कोई जीव आत्मवादी नहीं हो सकता लोकवादी नहीं होसकता कर्म और क्रियावादी नहीं हो सकता । अत एम आत्मा के विषयमें विचार करना यही संवरका और मोक्षका भी कारण है। जीवकी गति और आगतिके ज्ञान से मोशलाभ होता है इस बातको म० महावीरने स्पष्टरूपसे कहा है - १. मामा Jain Education International २. १। For Private & Personal Use Only २. www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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