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________________ प्रस्तावना । जीव और कायका यदि अभेद न माना जाय तो इन परिणामोंको जीवके परिणामरूपसे नहीं गिनाया जा सकता। इसी प्रकार भगवतीमें ( १२.५.४५१ ) जो जीवके परिणामरूपसे वर्ण गन्ध स्पर्शका निर्देश है वह भी जीव और शरीरके अमेद को मान कर ही घटाया जा सकता है। १९ अन्यत्र गौतमके प्रश्नके उत्तर में निश्चयपूर्वक भगवान् ने कहा है कि- "गोयमा ! अहमेयं जाणामि अमेयं पासामि अहमेयं बुज्झामि जं णं तहागयस्स जीवस्स संरूविस्स सकम्मस्स सरागहल सवेदगस्स समोहस्स सलेसहल ससरीरस्स ताओ सरीराभो भविष्यमुक्कस्स एवं पनयति - तं जहा कालचे वा जाव सुकिलसेवा, सुम्भि गंध या भगंधवा, तिथे वा जाब मधुरते वा, कक्खडसे वा जाव लुक्लते वा ।" भग० १७.२. । अन्यत्र जीव कृष्णवर्णपर्यायका भी निर्देश है —— भग०२५.४ । ये सभी निर्देश जीवशरीरके अभेदकी मान्यतापर निर्भर हैं । इसी प्रकार आचारांग में आत्माके विषयमें जो ऐसे शब्दों का प्रयोग है - "सब्षे सरा नियति तक्का जस्थ न विजति मई तस्थ न गाहिया। ओए अप्पाणस्स श्रेयसे । से न दीहे न हस्से न बट्टे न तसे न चडरंसे न परिमंडले न किन्हे न नीले न इत्थी न पुरिसे न अजहा परिने समे उबमा न विजय अरुवी सत्ता अपयस्स पयं मस्थि ।" आचा० सू० १७० । वह भी संगत नहीं हो सकता यदि आत्मा शरीर से भिन्न न माना जाय । शरीरभिन्न आत्माको लक्ष्य करके स्पष्टरूप से भगवान् ने कहा है कि उसमें वर्ण- गन्ध-रस-स्पर्श नहीं होते - "गोयमा ! अहं एवं जाणामि, जाव जं णं तहागयस्स जीवस्स मरुविस्स अकरमस्स अरागस्स भवेदस्स अमोहस्स अकेलस्स मसरीरस्स ताओ सरीराओ विप्यमुकस्स मो पयं पचायति - तं जहा कालचे वा जाय लुक्खन्ते वा ।" भगवती० १७.२. । चार्वाक शरीरको ही आत्मा मानता था और औपनिषद-ऋषिगण आत्मा को शरीर से अव्मन्त भिन्न मानते थे । भ० बुद्धको इन दोनों मतोंमें दोष तो नजर आया किन्तु वे विधिरूपसे समन्वय न कर सके । जब कि भगवान् महावीर ने इन दोनों मतों का समन्वय- उपर्युक्त प्रकारसे भेद और अभेद दोनों पक्षोंका स्वीकार करके किया । (५) जीवकी नित्यानित्यता - मृत्युके बाद तथागत होते हैं कि नहीं इस प्रश्नको भ० बुद्धने अव्याकृत कोटिमें रखा है क्योंकि ऐसा प्रश्न और उसका उत्तर सार्थक नहीं, आदि ब्रह्मचर्यके लिये नहीं, निर्वेद, निरोध, अभिज्ञा, संबोध और निर्वाण के लिये भी नहीं' ।. । जिन प्रश्नोंको आत्माके विषय में चिन्तन करना यह भ० बुद्धके मतसे अयोग्य है भ० बुद्धने 'अयोनिसो मनसिकार' - विचारका अयोग्य ढंग - कहा है वे ये - "मैं भूतकालमें था कि नहीं था ! मैं भूतकालमें क्या था ! मैं भूतकालमें कैसा था ? मैं भूतकालमें क्या होकर फिर क्या हुआ ! मैं भविष्यत् कालमें होऊंगा कि नहीं ? मैं भविष्यत् कालमें क्या होऊंगा ! मैं १. संयुतनिकाय XVI 12, XXII 86; मण्झिमनिकाय चूलमा ६६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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