SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 460
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १० १०१.५० १०] टिप्पणानि । व्याख्या- "व्यवहारकालात् पूर्व यथोकरूपेण श्रुतेन परिकर्मिता-आहितसंस्कारा मतिर्यस्य स तथा तस्य साध्वादेर्यत् सांप्रतं व्यवहारकाले श्रुतातीतं श्रुतनिरपेक्षंज्ञानमुपजायते तच्छुतनिश्रितमवप्रहादिकं सिद्धान्ते प्रतिपादितम् । इतरत् पुनरश्रुतनिश्रितम्, तबोत्पत्तिक्यादिमतिचतुष्कं द्रव्यम् , श्रुतसंस्कारानपेक्षया सहजत्वात् तस्य।" विशेषा० बृ० १६९। पृ० १००.पं०१५. 'तदेकघा वार्तिककारको यह खातय है कि वह मूलकारका विरोध मी करे । इसी खातभ्यका उपयोग प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य ने किया है । न्यायावतार मूलमें प्रत्यक्ष और अनुमान इन दोनों प्रमाणोंके खार्य और परार्थ ऐसे दो भेद किये गये हैं। शान्याचार्यने प्रत्यक्षका तो क्या सर्वसंमत अनुमानका द्वैविध्य मी खण्डित किया है । उनका कहना है कि लिङ्गके बलसे जैसे खयं वादी परोक्ष अर्थका ज्ञान करता है वैसे ही प्रतिवादी श्रोता मी करता है फिर अनुमानके खार्य और पदार्थ ऐसे मेद करने की क्या आवश्यकता है। शान्त्याचार्यने वचनरूप परार्थ अनुमानको उपचारसे मी प्रमाण मानने पर आपत्ति की है कि ऐसा मानने पर अनवस्था होगी । उनकी वह आपत्ति एक वैतण्डिकको शोमा देनेवाली है । परार्थानुमानके प्रामाण्यमें किसी भी वादीका विवाद नहीं । अनुमानके विशेष विवेचनके लिये देखो प्रमाणमी० भाषा० पृ० १३८ । पृ० १०२. पं० ७. 'अन्यस्यासाधनाद्' न्या या व तार मूलमें हेतुवचनको परार्थानुमान कह करके फिर पक्षादिवचनात्मक मौ कहा "साध्याविनाभुषो हेतोचो यत् प्रतिपादकं । पराधमनुमानं तत् पक्षादिषचनात्मकम् ॥" न्याया० १३ ॥ इस विरोधका निरास करते हुए टीकाकार सिद्ध र्षि ने कहा है कि पराजुमानके अवयवोंका अनियम न्यायावतारकारको इष्ट है। खयं मूलकारने पक्ष, हेतु और दृष्टान्तके लक्षणों का प्रणयन किया है और अन्तर्व्याप्तिस्थलमें दृष्टान्तकी अनावश्यकता मी प्रदर्शित की है इससे मी यही प्रतीत होता है कि न्यायावतारकारको अषयवका नियम करना अमीष्ट नहीं किन्तु टीकाकारने जैसा तात्पर्य निकाला है वही ठीक है। किन्तु प्रस्तुतमें शान्त्या चार्य अपना खातव्य दिखाते हैं । उनका कहना है कि अनुमानके हेतु और साध्य सिर्फ ये दोनों ही अवयव हैं अन्य नहीं । अन्य दार्शनिकोंके अवयव सबन्धी मन्तव्यके विषयमें देखो प्रमाणमी० भाषा० पृ० ९४ । पृ० १०२. पं० १. 'प्रतिपादयिष्यमाणत्वात् देखो, का० ५४. पृ० ११२। पृ० १०२. पं० १०. 'ननु प्रतिज्ञामन्तरेण प्रतिज्ञाका प्रयोग अनावश्यक है ऐसा धर्मकीर्तिका मन्तव्य है "अथवा तस्यैव साधनस्थ या प्रतिमोपनयनिगमनादि तस्यासाधनाजस्य साधनवाक्ये उपादानं वादिनो निग्रहस्थानं व्यर्थाभिधानात् । ननु च विषयोपदर्शनाय प्रतिबावचनमसाधनागमपि उपादेयमेव । न । वैयर्थ्या, असत्यपि प्रतिज्ञावचने यथोकाद बामवाल्यालयलेवेशार्थसिद्धिरित्यपार्यकं तस्योपादानम् ।" वादन्याय पृ० ११-१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy