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प्रस्तावना ।
११
अर्थात् उस स्वप्नका फल यह है कि भगवान् महावीर विचित्र ऐसे खपर सिद्धान्तको बताने वाले द्वादशांग का उपदेश देंगे ।
प्रस्तुतमें चित्रविचित्र शब्द खास ध्यान देने लायक है । बादके जैन दार्शनिकोंने जो चित्रज्ञान और चित्रपट को लेकर बौद्ध और नैयायिक-वैशेषिकके सामने अनेकान्तवादको सिद्ध किया है वह इस चित्रविचित्र शब्दको पढते समय याद आ जाता है । किन्तु प्रस्तुतमें उसका सम्बन्ध न भी हो तब भी पुंस्कोकिलकी पांखको चित्रविचित्र कहनेका और आगमोंको विचित्र विशेषण देनेका खास तात्पर्य तो यही मालूम होता है कि उनका उपदेश अनेकरंगीअनेकान्तवाद माना गया है । चित्रविचित्र विशेषण से सूत्रकारने यही ध्वनित किया है ऐसा निश्चय करना कठिन है किन्तु यदि भगवान के दर्शनकी विशेषता और प्रस्तुत चित्रविचित्र विशेषण का कुछ मेल बिठाया जाय तब यही संभावना की जा सकती है कि वह विशेषण सामिप्राय है और उससे सूत्रकारने भगवान् के उपदेशकी विशेषताः अर्थात् अनेकान्तवादको ध्वनित किया हो तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।
६३. विभज्यवाद ।
सूत्रकृतांग में भिक्षु कैसी भाषाका प्रयोग करे, इस प्रश्न के प्रसंगमें कहा गया है कि विभयवाद का प्रयोग' करना चाहिए । विभज्यवादका मतलब ठीक समझनेमें हमें जैन टीकाप्रन्थोंके अतिरिक्त बौद्ध ग्रन्थ मी सहायक होते हैं । बौद्ध मज्झिमनिकाय (सुत्त ९९ ) में शुभ माणवक प्रश्न के उत्तरमें भ० बुद्धने कहा कि - "हे माणवक ! मैं यहाँ विभज्य - वादी हूँ, एकांशवादी नहीं ।" उसका प्रश्न था कि मैंने सुन रखा है कि गृहस्थ ही आराधक होता है, प्रत्रजित आराधक नही होता । इसमें आपकी क्या राय है ? इस प्रश्नका एकांशी हा या नहींमें उत्तर न देकर भगवान् बुद्धने कहा कि गृहस्थ भी यदि मिथ्यात्वी है। तो निर्वाणमार्गका आराधक नहीं और त्यागी भी यदि मिथ्यात्वी है तो वह भी आराधक नहीं । किन्तु यदि वे दोनों सम्यक् प्रतिपत्तिसम्पन्न हैं, तभी आराधक होते हैं । अपने ऐसे उत्तरके बल पर वे अपने आपको विभज्यवादी बताते हैं और कहते हैं कि मैं एकांशवादी नहीं हूँ ।
यदि वे ऐसा कहते कि गृहस्थ आराधक नहीं होता, त्यागी आराधक होता है या ऐसा कहते कि त्यागी आराधक होता है, गृहस्थ आराधक नहीं होता तब उनका वह उत्तर एकांशवाद' होता । किन्तु प्रस्तुत में उन्होंने त्यागी या गृहस्थकी आराधकता और अनाराधकतामें जो अपेक्षा या कारण था उसे बताकर दोनों को आराधक और अनाराधक बताया है । अर्थात् प्रश्नका उत्तर विभाग करके दिया है अतएव वे अपने आपको विभज्यवादी कहते हैं ।
यहाँ पर यह ध्यान रखना चाहिए कि भगवान् बुद्ध सर्वदा सभी प्रश्नोंके उत्तर में विभण्यवादी नहीं थे । किन्तु जिन प्रश्नों का उत्तर विभज्यवादसे ही संभव था उन कुछ ही प्रश्नोंका उत्तर देते समय ही वे विभज्यवादका अवलम्बन लेते थे ।
१. "मिक्खू विभजवायं च बियागरेजा" । सूत्रकृतांग १.१४.२२ । २ देखो -दीघनिकाय - ३३ संगितिपरियाय सुत्तमें चार प्रभध्याकरण | ३ वही ।
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