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________________ १० भगवान् महावीरकी देन । और इस धाराका मवतत्वका जो व्यवस्थित निरूपण है उसको देखते हुए यह कहा जा सकता है कि जैन तत्वविचारधारा भगवान महावीरसे पूर्व की कई पीढियोंके परिश्रमका फल उपनिषद्प्रतिपादित अनेक मतों से पार्थक्य और स्वातंत्र्य स्वयंसिद्ध है । १२ भगवान् महावीरकी देन - अनेकान्तवाद । प्राचीन तव व्यवस्था में भगवान् महावीर ने क्या नया अर्पण किया इसे जाननेके लिये भागमोंसे बढ़कर हमारे पास कोई साधन नहीं है । जीव और अजीवके मेदोपमेदोंके 1 विषयमें, मोक्षलक्षी आध्यात्मिक उत्क्रान्तिक्रमके सोपानरूप गुणस्थानके विषयमें, चार प्रकारके ध्यानके विषयमें या कर्मशास्त्रके सूक्ष्म भेदोपभेदोंके विषयमें या लोकरचनाके विषय में या परमाणुओंकी विविध वर्गणाओंके विषय में भगवान् महावीरने कोई नया मार्ग .दिखाया हो यह तो आगमोंको देखने से प्रतीत नहीं होता । किन्तु तत्कालीन दार्शनिक क्षेत्र तव खरूपके विषयमें जो नये नये प्रश्न उठते रहते थे उनका जो स्पष्टीकरण भगवान् महावीरने तत्कालीन अन्य दार्शनिकोंके विचारके प्रकाशमें किया है वही उनकी दार्शनिक क्षेत्र में देन समझना चाहिए। जीवका जन्म-मरण होता है यह बात नई नहीं थी । परमाणुके नाना कार्य बाह्य जगतमें होते हैं और नष्ट होते हैं यह भी स्वीकृत था । किन्तु जीव और परमाणुका कैसा खरूप माना जाय जिससे उन भिन्न भिन्न अवस्थाओं के घटित होते रहने पर मी जीव और परमाणुका उन अवस्थाओंके साथ सम्बन्ध बना रहे । यह और ऐसे प्रश्न तत्कालीन दार्शनिकोंके द्वारा उठाये गये थे और उन्होंने अपना अपना स्पष्टीकरण भी किया था। इन नये प्रश्नोंका भगवान् महावीरने जो स्पष्टीकरण किया है वही उनकी दार्शनिक क्षेत्रमें नई देन है । अत एव आगमों के आधार पर भगवान् महावीरकी उस देन पर विचार किया जाय तो बादके जैन दार्शनिक विकासकी मूल भित्ति क्या थी यह सरलतासे स्पष्ट हो सकेगा । ईसाके बाद होनेवाले जैनदार्शनिकोंने जैनतस्वविचारको अनेकान्तवादके नामसे प्रतिपादित किया है और भगवान् महावीरको उस वादका उपदेशक बताया है। उन आचार्योंका उक्त कथन कहाँतक ठीक है और प्राचीन आगमोंमें अनेकान्तवादके विषय में क्या कहा गया है उसका दिग्दर्शन कराया जाय तो यह सहज ही में मालूम हो जायगा कि भगवान् महावीर ने समकालीन दार्शनिकों में अपनी विचारधारा किस ओर बहाई और बादमें होनेवाले जैन आचार्योंने उस विचारधाराको लेकर उसमें क्रमशः कैसा विकास किया । (१) चित्रविचित्र पक्षयुक्त पुंस्कोकिल का स्वप्न । भगवान महावीर को केवलज्ञान होनेके पहले जिन दश महाखमोंका दर्शन हुआ था उनका उल्लेख भगवती सूत्रमें आया है। उनमें तीसरा खम इस प्रकार है: एगं च णं महं चित्तविचिचपक्खगं पुंस कोइलगं सुविणे पासिता णं पडिबुजे ।" अर्थात- एक बडे चित्रविचित्र पांखवाले पुंस्कोकिलको खनमें देखकर वे प्रतिबुद्ध हुए । इस महाखनका फल बताते हुए कहा गया है कि: "जणं समणे भगवं महावीरे एवं महं चित्तविचित्तं जाव पडिबुध्धे तष्णं समणे भगवं महावीरे विश्चित्तं ससमयपरसमइयं दुबालसंगं गणिपिडगं आघवेति परूवेति...... ।” पनवेति Jain Education International १ भीमरूप का० ५० । २ भगवती शतक १६ उद्देशक ६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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