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________________ पृ० १७. पं० २३] टिप्पणानि । १५१ पूर्वोक्त तीनों प्रामाण्य नियामक तत्त्वोंका खण्डन शान्त्या चार्य ने किया है और अपनी ओरसे व्यवसायको ही नियामक तत्त्व माना है। इसके अलावा अन्य जैना चार्यों ने जिन नियामक तत्त्वोंका स्वीकार किया है उनका उल्लेख भी यहाँ आवश्यक है । अकलंक और विधा नन्द आप्त मी मां सा की टीकामें (का०६) तर्कका प्रामाण्य सिद्ध करते हुए विचारकत्व, संवादकत्व, और समारोपव्यवच्छेदकत्व ऐसे तीन हेतु देकर इन तीनोंकी प्रामाण्य नियामकता सूचित करते हैं । वैसे ही साधकतमत्व और स्वार्थाधिगमफलत्वकी भी सूचना उन्होंने उसी प्रसंगमें दी है । आप्त मी मां सा मूलमें तत्त्वज्ञानको ही प्रमाणका लक्षण कहा गया है ( का० १०१)। उसीके समर्थनमें विद्या नन्दने एक और लक्षणकी भी सूचना की है। वह है - सुनिश्चितासम्भवद्बाधकत्व । तत्त्वार्थ श्लोक वा र्तिक में भी उसका उल्लेख है (पृ० १७५); और तत्त्वोपप्लवकारको उत्तर देने के लिए भी विद्यानन्द ने उसी लक्षण की कल्पना करके कहा है कि अदुष्टकारणारब्धत्वादि अन्यसंमत प्रमाण लक्षण भले ही असंगत हों किन्तु सुनिश्चितासम्भवद्बाधकत्व असंगत नहीं और वही स्वार्थव्यवसायरूप है-अष्टस० पृ० ४१ । । परन्तु सन्म ति टी का कार अभय देव को सुनिश्चितासम्भवद्बाधकत्वरूप प्रमाण लक्षण इष्ट नहीं । उनका कहना है कि बाधकामावका निर्णय करना संभव नहीं । अत एव वह प्रमाणलक्षण नहीं हो सकता - सन्मतिटी० पृ० ६१४ । यहाँ हमें एक बात अवश्य ध्यानमें रखनी होगी कि अभय देव ने भी प्रमाण लक्षणरूपसे स्वार्थनिर्णितिको' ही माना है और विद्यानन्द ने खार्थनिर्णिति और सुनिश्चितासम्भवद्वाधकत्वकी एकता सिद्ध की है । ऐसी स्थितिमें दोनों के बीच कोई मौलिक भेद नहीं रहता। तत्त्वोपप्लव कारने प्रमाणके खण्डन प्रसंगमें जिन प्रामाण्य नियामक तत्त्वोंका उल्लेख किया है वे ये हैं - अदुष्टकारकसन्दोहोत्पाद्यता, बाधारहितत्व, प्रवृत्तिसामर्थ्य (पृ०२), अनधिगतार्थगन्तृत्व (पृ० २२) और अविसंवादित्व (पृ० २८)। विद्यानन्द ने तत्त्वोपप्लवके इस पूरे पूर्वपक्ष को उद्धृत करके अपनी ओरसे सुनिश्चितासम्भवद्बाधकत्वको नियामकतत्त्व सिद्ध किया है- अष्टस० पृ० ३८-४१ । और वही शान्त्या चार्य संमत व्यवसाय है । पृ० १७. पं० १६ 'ज्ञानाभिधान' तुलना- “प्रत्यक्षस्यापि प्रामाण्यं व्यवहारापेक्षं । स पुनः अर्थामिधानप्रत्ययात्मकः” लघी० स्व० ४२ । पृ० १७. पं० १९. 'वयमेव' शान्त्या चार्य ने खसंवेदनको सिद्ध करनेके लिए यह पूर्वपक्ष उठाया है । खसंवेदनके विषयमें दार्शनिक मतभेदोंके वर्णनके लिए देखो-प्रमाण० भाषा० पृ० १३० । पृ० १७. पं० २३ 'सुशिक्षितो' तुलना - "न हि सैवासिधारा तयैव च्छिद्यते" प्रमाण १. "तस्मात् प्रमाण स्वार्थ निर्णितिस्वभावं ज्ञानम्" सन्मतिटी० पृ०४७५। २. इस के साथ प्रमेय कमलमार्तण्ड गत (पृ. ३६) अप्रामाण्यनियामकतत्वोंके संचयकी तुलना करना चाहिए । इन तस्वोंकी गिनती बौद्ध दृष्टिसे प्रभा चन्द्र ने की है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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