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________________ १२० सत् द्रव्य सता । पर्यायका गेंद और अमेद माना गया है वहाँ आचार्य स्पष्टीकरण करते हैं कि द्रव्य और पर्याका भेद व्यवहारके आश्रय से है जबकि निश्वयसे दोनोंका अभेद है'। आगममें वर्णादिका सद्भाव और असद्भाव आत्मामें माना है उसका स्पष्टीकरण करते हुए आचार्य कहते है कि व्यवहारसे तो ये सब आत्मामें हैं, निश्चयसे नहीं, इत्यादि । आगममें शरीर और आत्माका भेद और अमेद माना गया है। इस विषयमें आचार्य ने कहा है कि देह और आत्माका ऐक्य यह व्यवहारनयका वक्तव्य है और दोनोंका भेद यह निश्चयनयका वक्तव्य है।' इत्यादि । ६३ द्रव्यका स्वरूप । वाचकके 'उत्पादव्ययधौन्ययुक्तं सत्' 'गुणपर्यायाव्यम्' और 'तद्भावाव्ययं निस्पम्' इन तीन सूत्रों ( ५.२९,१०,१७) का संमिलित अर्थ आ० कुन्दकुन्दके द्रव्यलक्षणमें है । "अपरिचत्तसहावेणुष्पादव्ययधुवत्तसंजुतं । गुणवं सपज्जायं अं तं दव्वंति दुयंति ॥" प्रवचन० २.३ । द्रव्य ही जब सत् है तो सत् और द्रव्यके लक्षणमें मेंद नहीं होना चाहिए । इसी अभिप्रायसे 'सद्' लक्षण और 'द्रव्य' लक्षण अलग अलग न करके एक ही द्रव्यके लक्षणरूपसे दोनों लक्षणोंका समन्वय आ० कुन्दकुन्दने कर दियां हैं । ६४ सत् = द्रव्य सचा । द्रव्यके उक्त लक्षण में जो यह कहा गया है कि द्रव्य अपने खभावका परित्याग नहीं करता' वह 'तद्भावाव्ययं नित्यम्' को लक्ष्य करके है । दिव्यका यह भाव या खभाव क्या है जो त्रैकालिक है ! इस प्रश्नका उत्तर आ० कुन्दकुन्दने दिया कि 'सम्भावो हि सभाषो..दम्बस्स esent' (प्रवचन० २.४ ) तीनों कालमें द्रव्यका जो सद्भाव है, अस्तित्व है, सचा है वही स्वभाव है। हो सकता है कि यह सत्ता कभी किसी गुणरूपसे कभी किसी पर्यायरूपसे, उत्पाद, व्यय और धौव्य रूपसे उपलब्ध हो' । . यह भी माना कि इन समीमें अपने अपने विशेष लक्षण हैं तथापि उन सभीका सर्वगत एक लक्षण 'सत्' है ही इस बातको स्वीकार करना ही चाहिए । यही 'सत्' द्रव्यका स्वभाव है अंत एव द्रव्य को स्वभावसे सत् मानना चाहिएँ । यदि वैशेषिकोंके समान द्रव्यको स्वभावसे सत् न मानकर द्रव्यवृत्ति सत्तासामान्यके कारण सत् माना जाय तब स्वयं द्रव्य असत् हो जायगा, या सत्से अन्य हो जायगा । अतएव द्वव्य स्वयं सत्ता है ऐसा ही मानना चाहिए । - समयसार ७ इत्यादि । २ समयसार ६१ से । ३ समयसार ३१,६७ । ४ वाचकके दोनों क्षणको विकरूपसे भी - द्रव्यके लक्षणरूपसे भा० कुन्दकुन्दने निर्दिष्ट किया है-पंचास्ति० १० । ५ 'गुणेहि सहजहिं चितेहिं उप्पादव्ययधुबत्तेहिं' प्रवचन० २.४ ॥ ६ प्रवचन० २.५ १ ७ वही २.६ । ८ प्रवचन० २.१३ । २.१८ । १.९१५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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