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पृ० १०९, पं० २] टिप्पणानि ।
२७३ ७२,७३,८२,८९ । न्यायमं० वि० ११९ । शास्त्रदी० पृ० ६३ । प्रकरणपं० पृ० ७१ । सन्मति० टी० पृ० ५५४ । न्यायकु० पृ० ६९ । स्याद्वादर० पृ० २६३ । प्रमाणवा० कर्ण० पृ० ३५१ ।
प्रमेय क म ल मा त ण्ड में इसके उत्तरार्धकी पूर्ति टिप्पणमें की गई है, यथा"नानुमान प्रमाणं स्यानिश्चयाभावतस्ततः।" प्रमेयक० टि० पृ० १७७।
पृ० १०६. पं० ८. 'पक्षलक्षणम्' विशेष विवेचनके लिये देखो,-प्रमाणमीमांसा-भाषाटि० पृ०८७-९०।
पृ० १०६. पं० २५. 'समानतत्रै दिगम्बरेरित्यर्थः । देखो-प्रमाणसं० पृ० ९७ पं०६ ।
पृ० १०६. पं० २९. 'हेत्वाभासान् विशेष विवेचनके लिये देखो-प्रमाणमी० भाषाटि० पृ० ९६,१४२।
पृ० १०७. पं० १६. 'असिद्ध दिगम्बराचार्य मकलंकने प्रमाण सं माह में कहा है कि
"असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो देवनन्दिनः।
द्वेधा समन्तभद्रस्य सत्वादिरचलात्मनि ॥" प्रमाणसं० का०५६ । सिद्धि वि निश्च य में भी यही कारिका है किन्तु वहाँ उसका अन्तिम पद प्रमाण संग्रह जैसा नहीं किन्तु प्रस्तुत वार्तिकसे मिलता हुआ होगा ऐसा सिद्धिविनिश्चयकी टीका देखनेसे प्रतीत होता है-सिद्धिवि० टी० पृ. ३२३ ।
यह कारिका न्याय विनिश्चय में उद्धृत है-पृ० ५०२। वहाँ भी उसका अन्तिम पाद हेतुरेकान्तसाधने' ऐसा है । अतएव वा ति क की प्रस्तुत कारिकाका सीधा सम्बन्ध सिद्धि विनिश्चय की कारिकासे हो तो कोई आश्चर्य नहीं।
वातिक कारने दिगम्बरा चार्य पूज्य पाद-देव नन्दी के स्थानमें श्वेताम्बराचार्य मल्ल वा दी का उल्लेख किया है। मलवा दीका नय च क प्रसिद्ध है । वह ग्रन्थ दोनों संप्रदायमें प्रमाणभूत माना जाता है-प्रमाणसं० का० ७७ । न्यायवि० का० ४७७ । तत्त्वार्थश्लो० पृ० २७६।
पृ० १०७. पं० १९. 'पूर्वमेव' देखो-पृ० ९६. पं० ३१ ।
४. आगमपरिच्छेदः। पृ० १०९. पं० २. 'ननु शब्दस्य बौद्ध आगम को प्रमाणभूत नहीं मानता है । उसीकी यह आशंका है।
बौद्ध का कहना है कि शब्दका अर्थके साथ कोई सम्बन्ध नहीं । अतएव शब्दसे किसी भी अर्यका बोध नहीं हो सकता ।
.."बाया अर्थाः शब्दस्य न रूपम् , नापि शब्दोऽर्थानाम् । येनाभिचारमतया व्यवस्थामेदेपि कृतकस्वा. नित्यत्ववद् भविनामाविता स्यात् । नापि शब्दा विवक्षाजन्मानो नायजन्मानो विवक्षाव्यंग्याः नार्यायत्ताः।" प्रमाणवा० खो० पृ०४१६। "शब्दानां बहिरय प्रतिबन्धामावाद"हेतु०टी०ए०२॥ हेतु० भालोक०पू०२३९ ।
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