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पृ० ४५. पं० १८] टिप्पणानि ।
२०३ द्रव्य पुद्गलपरावर्तका खरूप इस प्रकार है-संसारमें भ्रमण करता हुआ एक जीव जितने ' कालमें समस्त परमाणुओंको ग्रहण करके छोड देता है उतने कालको बादर पुद्गल परावर्त और औदारिकादि किसी एक शरीरके द्वारा जितने कालमें समस्त परमाणुओंको ग्रहण करके छोड देता है उतने कालको सूक्ष्म पुद्गल परावर्त कहते हैं।
इसी प्रकार क्षेत्र, काल और भाव पुद्गल परावतों के खरूप वर्णनके लिये देखो-पञ्चसं० ७३-७५ | पञ्चप्रकर्मग्रन्थ गा०८६-८८।।
दिगम्बर शास्त्रोंमें उक्त चारके अतिरिक्त भवपरिवर्तनका वर्णन आता है । और द्रव्यादि पुद्गलपरिवर्तके खरूपमें मी थोडा मतभेद है । देखो-षट्खण्डागम पुस्तक ४. पृ० ३२५ । सर्वार्थ० २.१० । पञ्चमकर्मग्रन्थ पृ० २८१ । __ पृ० ४५. पं० १४. 'रलत्रय सम्यग्दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यक् चारित्र ये तीन रन यहाँ अभिप्रेत हैं।
यह कारिका उत्पादा दि सिद्धि में उद्धृत है-पृ० २१४ ।
पृ० १५. पं० १६. 'शरीराविध यहाँ से पृथिव्यादिभूतातिरिक्त आत्मतत्त्वके तथा अनुमानप्रामाण्यके निषेधक चार्वा क के खण्डनका प्रारंभ किया गया है।
पृ० १५. पं० १८. 'नानुमानं प्रमा'- जिस प्रकार माध्यमिक के सर्वशून्यवादका निषेध करनेके लिये खवचनविरोध' नामक दोष दिया जाता है उसी प्रकार चार्वा क संमत अनुमानाप्रामाण्यका खण्डन करनेके लिये मी वही दोष दिया जाता है-"खवचननिराकतो यथा नानुमान प्रमाणम्" न्यायबि० पृ० ८५।
'अनुमानप्रमाण नहीं है' चार्वाक की इस मान्यताका स्पष्टीकरण पुरन्दर नामके किसी चार्वा कानुगामी ने किया है कि लोकप्रसिद्ध अनुमान चार्वाक को सम्मत है। किन्तु दूसरे लोग लौकिक मार्गका अतिक्रमण करके अनुमान का निरूपण करते हैं अत एव उस बलौकिक अनुमानका प्रामाण्य खण्डित करना ही वृहस्पति को अभिमत है।
सारांश यह है कि प्रत्यक्षगम्य वस्तुओंका परस्पर सम्बन्ध जान कर अनुमान किया जा सकता है। किन्तु यदि उस अनुमानका क्षेत्र परोक्ष परलोक आदि तक विस्तीर्ण किया जाय तब वह अनुमान अलौकिक हो जाता है।
अनुमानकी मर्यादित शक्ति सिर्फ चार्वाक ने ही मानी है यह बात नहीं है । भर्तृहरि ने भी एक ही विषयमें परस्पर विरोधी अनुमानों की प्रवृत्ति देखकर अनुमान प्रामाण्यमेंसे अपना . विश्वास खो दिया।
पृ० ४५. पं० १८. 'चार्वाक' चार्वाक भूतवादी है। भौतिकवादका प्रारंभ दार्शनिक
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पसं०७२। २. विग्रहव्या० का०१।१. "पुरन्दरतु माह-कोकप्रतिदमदुमान चार्वाकरपि इयत एव, यत्तु कैबिष्ौकिकं मार्गमतिकम्यानुमानमुच्यते तनिनिभ्यत इति"-तस्वसं०५० पृ०४३१ । १. "अवस्थादेशकाकाना मेदात् भिवासु शक्तिषु । भावानामनुमानेन प्रसिबिरति दुभा ॥ यसेनानुमिवोऽप्यर्थः कुशखैरनुमातृभिः । अभियुकवरैरम्बैरन्ययैवोपपद्यते ॥" वाक्यंपाकाण्ड तत्त्वसं० का १४६०-१४६२ ।
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