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________________ स्याद्वादके भंगोंका प्राचीन रूप । (४) स्थाबादके भंगोंका प्राचीन रूप । अब हम स्याद्वादका खरूप जैसा आगममें है उसकी विवेचना करते हैं । भगवान्के स्यावादको ठीक समझनेके लिये भगवती सूत्रका एक सूत्र अच्छी तरहसे मार्गदर्शक हो सकता है। अत एव उसीका सार नीचे दिया जाता है। क्योंकि स्याद्वादके भंगोंकी संख्याके विषयमें भगवान्का अभिप्राय क्या था, भगवान् के अभिप्रेत भंगोंके साथ प्रचलित सप्तभंगीके भंगोंका क्या संबंध है तथा आगमोत्तरकालीन जैन दार्शनिकोंने भंगों की सात ही संख्याका जो वाग्रह रखा है उसका क्या मूल है - यह सब उस सूत्रसे मालूम हो जाता है । गौतमका प्रश्न है कि रनप्रभा पृथ्वी आत्मा है या अन्य है ! उसके उत्तरमें भगवान्ने कहा १ रत्नप्रभापृथ्वी स्यादात्मा है। २ रत्नप्रभापृथ्वी स्यादात्मा नहीं है। ३ रत्नप्रभापृथ्वी स्यादवक्तव्य है । अर्थात् आत्मा है और आत्मा नहीं है, इस प्रकारसे वह वक्तव्य नहीं है। इन तीन भंगोंको सुन कर गौतमने भगवान् से फिर पूछा कि-आप एक ही पृथ्वीको इतने प्रकारसे किस अपेक्षासे कहते हैं ! भगवान्ने उत्तर दिया १ आत्मा-खके आदेशसे आस्मा है । २ परके आदेशसे आत्मा नहीं है । ३ तदुभयके आदेशसे अवक्तव्य है। रत्नप्रभाकी तरह गौतमने समी पृथ्वी, सभी देवलोक और सिद्धशिलाके विषयमें पूछा है भौर उत्तर मी वैसा ही मिला है । उसके बाद उन्होंने परमाणु पुद्गलके विषयमें भी पूछा । और वैसा ही उत्तर मिला । किन्तु जब उन्होंने द्विप्रदेशिक स्कन्धके विषयमें पूछा तब उसके उत्तरमें भंगोंका भाधिक्य है सो इस प्रकार१ द्विप्रदेशी स्कन्ध स्यादात्मा है । , नहीं है। स्यादवक्तव्य है। ४ , , स्यादात्मा है और आत्मा नहीं है। ५ , " स्यादात्मा है और अवक्तव्य है। ६ , , स्यादात्मा नहीं है और अवक्तव्य है। इन भंगोंकी योजना के अपेक्षा कारणके विषयमें अपने प्रश्नका गौतमको जो उत्तर मिला है वह इस प्रकार - १ विप्रदेशिक स्कन्ध आत्माके आदेशसे आत्मा है । २ परके आदेशसे आत्मा नहीं है । ३ तदुभयके आदेशसे अवक्तव्य है। ४ 'देश आदिष्ट है सद्भावपर्यायोंसे और देश आदिष्ट है असद्भावपर्यायोंसे अत एव द्विप्रदेशिक स्कन्ध आत्मा है और आत्मा नहीं है । एकही स्कन्धके जुदे जुदे अंशों में विवक्षाभेदका भाश्रय लेनेसे चौथेसे भागेके सभी भंग निष्पक्ष होते है। इन्ही विकलादेशी भंगोंको दिखाने की प्रक्रिया इस वाक्यसे प्रारंभ होती है। س سم Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001047
Book TitleNyayavatarvartik Vrutti
Original Sutra AuthorSiddhasen Divakarsuri
AuthorShantyasuri, Dalsukh Malvania
PublisherSaraswati Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year2002
Total Pages525
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Nyay, Philosophy, P000, & P010
File Size11 MB
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