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तित्थोगाली-पइण्रणय
पंन्यास कल्याण विजय गणिवर ठा. गजसिंह राठोड़, न्याय व्याकरणतीर्थ
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अज्ञात प्राचीन आचार्यकृत तित्थोगाली-पइण्रणय
(तीर्थ ओगाली प्रकीर्णक)
शोधक, छायाकार, अनुवादक
एवं सम्पादक:पंन्यास कल्याणविजय गणिवर ठा० गजसिंह राठोड़, न्यायव्याकरणतीर्थ
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प्रकाशक:
श्वेताम्बर (चार थुई) जैन संघ, जालोर श्वेताम्बर (चार थुई) जैन संघ तखतगढ (पाली) श्री अचलचन्द, जोइतमल बालगोता
मोठवाड़ा (जालोर)
प्रथम संस्करण ५००
महावीर निर्वाण जयन्ती २५०० वाँ वर्ष
रु. १५
प्राप्ति स्थान : (१) श्री कल्याण विजय शास्त्र समिति,
जालोर (२) श्री नन्दीश्वर तीर्थ कार्यालय, जालोर
मुद्रक : अर्चना प्रकाशन, १ कालापाग, अजमेर
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अहिंसा सत्याऽस्तेयादि, ब्रह्माऽपरिग्रहात्मकः । प्रोक्तो पंचशिखो धर्म-स्तं वीरं प्रणमाम्यहम् ।।
मुक्ते : शताब्दिसुमहे तव पञ्चविंशे, ____ भक्तया प्रष्ट मनसा च समर्पयामि । तीर्थप्रवाहविषये स्फुटमर्थ पूर्ण,
तुभ्यं प्रकीर्णकमिदं श्रमणेन्द्र वीर ।
जालोर, १ मई, १९७५
पन्यासः गणिः कन्याणविजयः
परस्परोपवही जीवानाम
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पं० कल्याण विजय जी महाराज
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प्रकाशकीय
हमें अपार हर्ष का अनुभव हो रहा है कि भारतीय एवं पाश्चात्य जैन नेतर विद्वान् विगत एक शताब्दी से जिस ग्रन्थरत्न "तित्थोगाली पइन्नय" (तीर्थोद्गारिक अथवा तीर्थोग्गाली प्रकीर्णक) की तीव्र उत्कण्ठा के साथ प्रतीक्षा कर रहे थे, उस ग्रन्थराज को भारतीय पुरातन संस्कृति के प्रेमियों की सेवा में प्रस्तुत करने का सौभाग्य प्राप्त हो रहा है। किन-किन सुविशाल एवं महान द्वीपों के किन-किन भाग्यशाली विशाल क्षेत्रों में जैन धर्म का पुनीत प्रवाह प्रनादि काल से सदा एक सा प्रविच्छिन्न अबाध गति से कल-कल निनाद करता हुमा कोटि-कोटि ही नहीं, असंख्य भी नहीं अपितु अनन्तानन्त भव्य प्राणियों के कलिमल को धोता चला आ रहा है, अनन्तकाल तक. धोता ही चला जायगा तथा किन-किन महान् द्वीपों के किन-किन प्रतिविशाल भूभागों में धर्मतीर्थों का किस-किस समय उद्गम होता है, कब तक वह तीर्थ प्रवाह प्रमन्द गति से प्रवाहित होता रहता है तथा वह तीर्थ-प्रवाह कब किस प्रकार कितने समय के लिए तिरोहित हो जाता है, इन सब तथ्यों शाश्वत सत्यों का विवरण बड़े ही संक्षेप में पर नितान्त सहज सुबोध प्रति सुन्दर शैली में दिया गया है। ..
.......
.. . ... यदि संक्षेप में कहा जाय तो यह ग्रन्थ जैन धर्म के विराट स्वरूप का सजीव शब्द चित्र है । हमें यह देख कर बड़ा माश्चर्य हो रहा था कि इस प्रकार के अनमोल ग्रन्ध का प्रकाशन मुद्रण प्रणाली का प्राविष्कार होते ही किस
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[प्रा]
कारण नहीं करा दिया गया पर जब कारणों की तह में गये सहज ही कारण समझ में प्रा गया। वास्तविकता यह है कि इस ग्रन्थ की प्रतियां बड़ी दुर्लभ हैं और जो हैं भी वे इतनी अशुद्ध पोर प्रस्पष्ट हैं कि उसका हिन्दी अनुवाद करना तो दूर, शुद्ध स्वरूप में लिखना भी बड़ा जटिल भौर दुस्साध्य कार्य है।
__ जैन इतिहास और जैनागमों के उद्भट विद्वान् पंन्यास कल्याण विजयजी महाराज साहब ने बहुत वर्षों पहले अपने भण्डार के लिए इस ग्रन्थ की एक प्राचीन ताड़पत्रीय प्रति से लिखित प्रति अपने गुरुदेव से प्राप्त को . पौर उसमें संशोधन करने का तथा उसे प्रकाशित करवाने का प्रयास किया । अन्यान्य प्रत्यावश्यक कार्यों में व्यस्त रहने के कारण वे उस कार्य को सम्पन्न न कर सके पोर इस प्रकार इस ग्रन्थ का प्रकाशन स्थगित ही रहा।
इसी वर्ष जैन मागम-साहित्य तथा प्राकृत एवं संस्कृत आदि भारतीय प्राच्य भाषामों के विद्वान् ठाकुर गजसिंहजी राठौड़ का जैन इतिहास विषयक खोज हेतु पंन्यासप्रवर श्री कल्याणविजयजी महाराज साहब की सेवा में जालोर पाना हुप्रा । श्री केसरविजय जैन ग्रन्थागार की हस्तलिखित ऐतिहासिक प्रतियों का अवगाहन करते समय ठाकुर साहब की शोधप्रधान दृष्टि तित्थोगाली पइन्नय की उक्त हस्तलिखित प्रति पर पड़ी और उन्होंने पं० कल्याणविजयजी महाराज के निर्देश एवं मार्ग दर्शन में इस ग्रन्थ का विशुद्ध रूप में पुनलेखन, संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद करन। मई, १९७५ में प्रारम्भ किया। इस ग्रंथ की अन्य प्रतियों के अभाव में पं० श्री कल्याणविजयजी मोर ठाकुर साहब को इस ग्रंथ के प्रशुद्ध पाठों को शुद्ध करने में अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। ठाकुर साहब की प्रार्थना पर स्थानकवासी परम्परा के प्राचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब ने ठाकुर साहब द्वारा लिखित इस ग्रन्थ को प्रतिलिपि का अवलोकन कर स्थान-स्थान पर विवादास्पद एवं प्रशुद्ध पाठों को शुद्ध किया।
पंन्यासप्रवर श्री कल्याण विजयजी महाराज साहब, प्राचार्य श्री हस्ती मलजी महाराज साहब और ठा० श्री गजसिंह जी राठौड़ द्वारा इस ग्रन्थ को विद्वद्भोग्य बनाने में जो परिश्रम किया गया है, उसके लिये हम इनके प्रति हार्दिक कृतज्ञता प्रकट करते हैं । इस ग्रन्थ के प्रकाशन, साज-सज्जा मादि में श्री कान्तीलालजी चौथमलजी, जालोर ने बड़ी ही रुचि के साथ परिश्रम किया। प्रतः हम श्री कान्तिलालजी के प्रति भी अपना हार्दिक पाभार प्रकट करते हैं ।
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[इ]
यह ग्रंथ प्रेस में छपना प्रारम्भ हो गया था उसके पश्चात् स्वनामधन्य स्व० श्राचार्य श्री राजेन्द्रसूरीजी महाराज के माहोर नगर स्थित ज्ञान भण्डार से इस ग्रंथ की एक प्रति प्राचीन प्रति मिली । प्राहोर भण्डार के व्यवस्थापकों के सौजन्य से श्री राठौड़ को उस प्रति की फोटोस्टेट कापी करवाने की सुविधा मिली और उस फोटो कापी की सहायता से इस ग्रन्थ के कतिपय पाठों को शुद्ध स्वरूप प्रदान करने में बड़ी सुविधा हुई । इसके लिए हम प्रभिधान राजेन्द्र नामक विशाल ग्रंथराज के रचनाकार स्व० श्री राजेन्द्रसूरी जी के प्राहोर स्थित ग्र ंथागार के व्यवस्थापकों के प्रति भी प्राभार प्रकट करते हैं ।
हमारी यह प्रांतरिक उत्कट अभिलाषा थी कि इस ग्रंथ को प्रकाश में लाने वाले पंन्यासप्रवर श्री कल्याणविजयजी महाराज साहब के कर-कमलों में इस ग्रंथ की मुद्रित प्रति शीघ्रातिशीघ्र समर्पित करें पर कराल काल ने हमारी सब प्राशानों-प्रभिलाषात्रों को कठोर वज्राघात कर कुचल डाला । केवल जैन जगत् ही नहीं, प्रपितु इतिहास क्षितिज के प्रकाशमान प्रचण्ड मार्तण्ड पन्यामप्रवर श्री कल्याण विजयजी महाराज इहलीला समाप्त कर स्वर्गस्थ हो गये । हमें केवल इतना ही संतोष है कि इस ग्रन्थ के कतिपय मुद्रित फार्म उनके कर-कमलों में उनके स्वर्गस्थ होने से एक मास पूर्व पहुंच गये थे श्रीर उन्होंने इस ग्रन्थ के फार्म देखकर प्रान्तरिक सन्तोष प्रभिव्यक्त किया था ।
हम अर्चना प्रकाशन, अजमेर के अधिष्ठाता और कर्मचारी वर्ग के प्रति भी अपनी कृतज्ञता प्रकट करते हैं कि उन्होंने इस ग्रन्थ के प्राकृत मूल पाठ, संस्कृत छाया को भी यथाशक्ति शुद्ध रूप में मुद्रित करने में पूर्ण परिश्रम किया ।
सदस्यगण,
श्री श्वेताम्बर जैन ( चार थुई) संघ, जालौर
एवं
श्री श्वेताम्बर जैन ( चार बुई) संघ तखतगढ़ । जिला पाली
स्व. श्री जोइतमलजी बालगोता के सुपुत्र :— सर्व श्री अचलचन्दजी प्रौर मांगीलालजी ललितकुमारजी और महेन्द्रकुमारजी प्रोठवाड़ा जिला जालोर
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पंन्यास प्रवर श्री कल्याणविजय जी महाराज साहब
का जीवन परिचय
मेरे परम श्राराध्य गुरुदेव पंन्यास श्री कल्याण विजय जी महाराज साहब जैन जगत् के महान् प्रभावक सन्त हुए हैं। उन्होंने जिन शासन की उन्नति और समाज के नैतिक एवं धार्मिक धरातल के उत्कर्ष के लिए अपने
६८ वर्ष के उत्कट साधनापूर्ण श्रमण जीवन में जो महान कार्य किये हैं, वे जैन धर्म के इतिहास में सदा सर्वदा स्वर्णाक्षरों में लिखे जाते रहेंगे । "वीर निर्वारण संवत् और जैनकाल गणना" नामक ग्रन्थ लिखकर इस महासन्त ने भारतीय इतिहासविदों ही नहीं अपितु पाश्चात्य विद्वान् इतिहासज्ञों में भी विपुल - यश मूर्धन्य स्थान प्राप्त किया है। जैनागमों, नियुक्तियों, चूणियों, टीकानों, भाष्यों एवं इतिहास ग्रन्थों का बड़ा ही गहन प्रौर सूक्ष्म अध्ययन कर आपने विविध विषयों पर अधिकारिक विद्वत्ता प्राप्त कर ली थीं। ज्योतिषशास्त्र स्थापत्य और मूर्तिकला के तो वे विशिष्ट विद्वान् माने जाते थे । जैन इतिहास के सम्बन्ध में ग्रन्थों, शोधपूर्ण लेखों, पट्टावलियों श्रादि के माध्यम से प्रापने प्रमाण पुरस्सर जो नवीन खोजपूर्ण तथ्य रखे, उनसे प्रभावित हो भनेक इतिहासविदों ने उन्हें समय-समय पर " इतिहास मार्तण्ड" के सम्मानपूर्ण सम्बोधन से सम्बोधित किया है ।
जैन साहित्य और इतिहास के सम्बन्ध में शोध हेतु एक विद्वान् श्रद्धेय पंन्यास प्रवर की सेवा में प्राये । उन्होंने प्रापके बहुमुखी प्रतिभापूर्ण पांडित्य, आपके द्वारा रजिस्टरों पुस्तकों एवं डायरियों में विविध विषयों के विभिन्न ग्रन्थों पर निरन्तर श्रद्ध शताब्दी से लिखे जाते रहे खोजपूर्ण नोट्स प्रापके द्वारा सैंकड़ों बड़ी-बड़ी कापियों में लिखवाकर सुरक्षित किये गये, जैन परंपरा के सैंकड़ों मूल्य हस्तलिखित ग्रन्थों, धापके द्वारा संग्रहीत हस्तलिखित शास्त्रों एवं पुस्तकों के भण्डार, श्री कल्याण शास्त्र समिति संग्रह (भंडार) (इनकी कुछ हस्तलिखित प्रतियाँ प्रहमदाबाद में शा किस्तुरभाई लालभाई लाइब्र ेरी में संग्रह की गई हैं) मोर प्रति समृद्ध एवं विशाल श्री केसर विजय जैन
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लाइब्र ेरी भण्डार को देखा । वे गुरुदेव के प्रगाध ज्ञान एवं गरिमापूर्ण बहुमुखी प्रतिभा से प्रत्यन्त प्रभावित हुए। उस समय जो उनके मुख से उनके हृदय के जो उद्गार निकले, उनसे पंन्यासप्रवर कल्याणविजय जी म० सा० की अतिमानव महानता का सहज ही प्राभास हो जाता है । प्रतः प्रति संक्षेप में उनके उन उद्गारों का उल्लेख किया जा है। उन विद्वान ने कहा
-
"महाभारत के शान्ति पर्व में एक बड़ा ही हृदयग्राही उल्लेख उपलब्ध होता है । भीष्म पितामह कुरुक्षेत्र के रंगांगण में शरशय्या पर लेटे हुए हैं । शिखण्डी M को आगे कर अर्जुन द्वारा किये हुए गांडीव धनुष के शरंप्रहारों से संसार के इस अप्रतिम योद्धा के पृष्ठभाग का रोम-रोम छलनी के छेदों के समान बिधा हुआ है । देह के पिंजरे में इतने गहरे इतने अधिक मर्मान्तिक व्रण गाण्डीव के अमोघ बाणों से हो रहे हैं कि प्रारण पखेरू को उस पिंजरे में से उड़ जाने के लिए कोई किचित्मात्र भी बाधा नहीं है । पर बालब्रह्मचारी भीम इच्छामृत्यु का वरण करने के लिए कृतसंकल्प हैं और सूर्य के दक्षिणायन माने की प्रतीक्षा कर रहे हैं ।
कृष्ण ने युधिष्ठिर से कहा— कौन्तेय ! संसार का ज्ञानसूर्य प्रस्त होना ही चाहता है । महान् रणयोगी भीष्म सूर्य के उत्तरायण में प्राते ही देह त्याग देंगे । तुम्हें संसार के किसी भी विषय का; धर्म के मर्म का प्रथवा विमुक्ति का ज्ञान प्राप्त करना हो तो उनके चरणों में बैठ कर सूर्य के उत्तरायण में आने से पहले-पहले, वह ज्ञान प्राप्त कर सकते हो। उस नरश्रेष्ठ भीष्म के दिवंगत होते ही विशिष्ट ज्ञान का सूर्य अस्त हो जायगा -
तस्मिन् हि पुरुषव्याघ्रे कर्मभिर्व दिवंगते । भविष्यति मही पार्थ, नष्टचन्द्र व शर्वरी || २० तद् युधिष्ठिर गांगेय, भीष्मं भीमपराक्रमम् । प्रभिगम्योपसंगृह्य पृच्छ यत्ते मनोगतम् ॥ २१ तस्मिन्नस्तमिते भीष्मे, कोरवाणां धुरंधरे ।
ज्ञानान्यस्तं गमिष्यन्ति तस्मात्त्वां चोदयाम्यहम् ॥ २३
,
-- शान्तिपर्व, प्रध्याय ४६
भीष्म को महाभारत में योगेश्वर कृष्ण ने ज्ञान का पूर्णचन्द्र अथवा दिनमरिण बताया है, उसी प्रकार आज के युग में ये महासन्त पंन्यासप्रवर कल्याण विजय जी विविध विषयों के पारद्रष्टा ज्ञानसूर्य हैं । जैन विद्वान् ही
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ही नहीं सभी विषयों के शोधार्थी इस ज्ञानसूर्य से प्रकाश और मार्गदर्शन प्राप्त कर अपने लक्ष्य में सफल काम हो सकते हैं । लाख-लाख प्रणाम है इम ज्ञान सूर्य को सरस्वती के महान् उपासक को।
ये उद्गार हैं पंन्यासप्रवर श्री कल्याणविजय जी महाराज के पांडित्य एवं प्रतिभापूर्ण महान व्यक्तित्व से प्रभावित एक उच्चकोटि के विद्वान के।
जन्मना प्रभावों प्रौर अभियोगों में पला हुषा निराश्रित शिशु.अपने दृढ़ संकल्प और सतत परिश्रम से इतना महान् बन गया, यह अपने पाप में एक बड़ी ही अद्भुत, बड़ी ही प्रेरक कहानी है. जो प्रत्येक मानव को यह विश श्वास दिलाती है, उसकी धमनियों में कुछ कर गुजरने के लिये एक अद्भुत विद्य त का संचार करती है । अति संक्षेप में उस कर्मयोगी महासन्त का जीवन परिचय 'स्वान्तःसुखाय परहिताय च' दिया जा रहा है
पंन्यासप्रवर श्री कल्याणविजयजी महाराज साहब का जन्म विक्रम सं० १९४४ में भूतपूर्व सिरोही राज्य के लास नामक ग्राम में प्राषाढ़ कृष्ण अमावस्या को मृगशिरा नक्षत्र में हुप्रा । अापके पिता का नाम किशनरामजी और माता का नाम कदीबाई था। पाप ब्राह्मण जाति के जागरवाल पुरोहित नाम से विख्यात उच्च कुल में उत्पन्न हुए । जिस समय पाप १२ वर्ष के प्रबोध बालक थे उसी समय वि० सं० १६५६ मैं आपके पिता का स्वर्गवास हो गया । वि० सं० १९५६ में भारत में बड़ा ही भयानक दुष्काल पड़ा, जिसमें भूख ने ताण्डव नृत्यकर भीषण नरसंहार किया। छपना काल का नाम सुनते ही सिहर उठने वाले भुक्तभोगी प्राज भी विद्यमान हैं । असहाय विधवा को अपना और अपने बच्चों का पेट भरने के लिये लास गांव छोड़ना पड़ा। चरित्रनायक के जन्म से पूर्व ही इनके प्रग्रज का अल्पायु में अवसान हो गया था अतः माता-पिता ने इन्हें जन्म के पश्चात् तराजू में इस विश्वास से तोला कि रूढ़िवादी इस प्रकार की प्रक्रिया से उनकी संतान जीवित रह जाय। उस अन्धविश्वास का प्रतिफल भी विश्वासजनक ही रहा। पापके पश्चात् आपको एक बहिन पौर उसके पश्चात् एक भाई का जन्म हुमा ।
प्रापको जन्म ग्रहण करते ही तराजू में तोला गया था अतः प्रापका नाम तोलाराम रखा गया। छपने काल में मापकी माता इन्हें, इनकी छोटी बहिन और उससे छोटे भाई हेमाजी को लेकर देलदर नामक ग्राम में पहुंची।
चिन्तकों ने कहा है--मापत्ति जब पाती है तो अकेली नहीं पाती, अपने पूरे लश्कर के साथ पाती है। इधर पिता को मृत्यु, पेट भरने के लिए
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जन्मभूमि का त्याग और उधर एक मात्र प्राश्रय माता की रुग्णता। वि. सं. १६५७ में आपकी माता कदीबाई भी अपने प्रबोध बच्चों को प्रसहाय छोड़ परलोकवासिनी बन गई। १३ वर्ष की छोटी वय में ही हमारे चरित्रनायक को किस प्रकार की भीषण प्रापत्तियाँ सहनी पड़ीं, इसका अनुमान प्रत्येक पाठक सहज ही लगा सकता है। पर वस्तुतः विपत्ति हो वीरों और विचारकों को जन्म देती है। एक राजस्थानी कवि ने कहा भी
संग जल जावे नारियाँ, अर नर जावे कट्ट ।
घर बालक सूना रमै, उरण घर में रजवट्ट ।। हमारे चरित्रनायक उस समय के तोलाराम ने भी प्रापत्तियों से घबराकर धैर्य नहीं छोड़ा। उतर पड़े वे कर्मक्षेत्र में। माता की मृत्यु के पश्चात् प्रापने देलदर के सेठ हंसराजजी प्रेमराज जो पोरवाल के यहाँ पाजीविकोपार्जन हेतु कार्य करना प्रारम्भ किया । बारह-तेरह वर्ष की प्रायु का बालक तोलाराम श्रेष्ठी के घर के काम में जूझने लगा। घर के छोटे बच्चों को रखना, गाय और भंस को चारा, बांटा नीरना, गाय भैस का दूध निकालना और दधिमन्थन करना, य बालक तोलाराम के जिम्मे मुख्य काम थे। इनके अतिरिक्त घर के और भी प्रावश्यक कार्यों को करने में हमारे चरित्रनायक ने किसी प्रकार की प्रानाकानी नहीं की। "सब को काम प्रिय हैं न कि चाम (सुन्दर गौरवर्ण)" इस कहावत के अनुसार बालक तोलाराम ने घर भर के लोगों का मन जीत लिया। सभी तोलाराम को अपने घर का हो एक सदस्य समझने लगे।
अध्यापक के पास घर के बालकों को पढ़ते देखकर तोलाराम भी उनके पास बैठ जाता। तीवबुद्धि तोलाराम थोड़े ही दिनों में प्रारम्भिक लिखना पढ़ना मोर गणना सीख गया। . जिस घर में बालक तोलाराम रह रहा था वह घर जैन धर्मावलम्बी था। विविध क्षेत्रों में विचरण करते हुए जैन साध-साध्वियों का देलदर में प्रानाजाना रहता ही था। तोलाराम पर स्नेहातिरेक से घर के लोग बहुधा साधुसाध्वियों को बालक तोलाराम के हाथ से ही प्राहार-पानी प्रादि वहराते थे।
संयोग से कीर्तिचन्द्रजी महाराज का देलदर में पदार्पण हुा । उनके साथ गुलाबचन्दजी नामक एक वैरागी थे जो आज भी महान सौभाग्यशाली
भाग्यविजय नी के नाम से महासन्त के रूप से विराजमान हैं। वैरागी गुलाबचन्द जी को श्री कीर्तिचन्द्रजी महाराज के पास पढ़ते हुए देख कर बालक
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तोलाराम के अन्तर्मन में भी अध्ययन और ज्ञानार्जन की भूख बड़े ही तीव्र वेग से जागृत हुई । बालक तोलाराम ने श्रेष्ठीपरिवार के समक्ष अपनी श्रान्तरिक प्रभिलाषा प्रकट की । उदार श्रेष्ठि-परिवार ने अपना अहोभाग्य समझ तोलाराम को श्रमरणश्रेष्ठ कान्तिचन्द्रजी महाराज की सेवा में रहने की अनुमति सहर्ष दे दी ।
बालक तोलाराम वैरागी गुलाबचन्द्र के साथ-साथ कान्तिचन्द्र जी महाराज से शिक्षा ग्रहण करने लगा । प्रहर्निश पात्मार्थी साधुओं के सम्पर्क में रहने के फलस्वरूप बालक तोलाराम भी वैराग्य के गहरे रंग में रंग गया । अनेक वर्षों तक वैरागी शिक्षार्थी के रूप में मुनि कीर्तिचन्द्रजी के पास शास्त्रों का प्रोर लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् आशुकवि नित्यानन्दजी श्रीमाली के पास सारस्वत चन्द्रिका, सिद्धान्त कौमुदी, सिद्ध हेम शब्दानुशासन, धर्मशर्माभ्युदय कादम्बरी, रघ ुवंश, श्रुतबोध, वृहद्रत्नाकर एवं ज्योतिष, न्याय प्रादि विषयों के अनेक ग्रन्थों का मार्मिक अध्ययन किया ।
विक्रम सं० १६६४ में वैशाख शुक्ला ६ के दिन सिंह लग्न में ऐतिहासिक नगर जालोर में महामुनि केसरविजयजी महाराज के पास हमारे चरित्रनायक वैरागी तोलाराम पुरोहित ने २० वर्ष की युवा वय में अपने साथी वैरागी गुलाबचन्द के साथ निर्ग्रन्थ श्रमरण धर्म की दीक्षा ग्रहण की । दीक्षा के समय केसरविजयजी महाराज ने तोलाराम का नाम कल्याणविजय . और गुलाबचन्द का नाम सौभाग्यविजय रखा ।
श्रमण धर्म में दीक्षित होने के पश्चात् मुनि कल्याणविजयजी ने प्रमाण नयतत्वालोंक, स्याद्वादमंजरी, रत्नाकरावतारिका प्रादि नेक न्यायशास्त्रों, आगमों, नियुक्तियों, चूणियों, महाभाष्यों, ज्योतिषविद्या के ग्रन्थों श्रौर इतिहास ग्रन्थों का बड़ी ही सूक्ष्म दृष्टि से अध्ययन किया ।
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मुनि कल्याण विजयजी के अध्ययन की एक बहुत बड़ी विशेषता यह रही कि विविध विषयों के ग्रन्थों का अध्ययन करते समय जो भी विशिष्ट, पूर्व और किसी भी दृष्टि से प्रत्यन्त महत्त्वपूर्ण बात किसी भी ग्रन्थ में दृष्टिगोचर हो गई तो उसे उसी समय डायरी में लिख लिया । सरस्वती के इस महान् उपासक सन्त ने जीवन भर अध्ययन करते समय यही क्रम जारी रखा। उनके इस अथक परिश्रम का ही फल है कि उनके हाथ की लिखी हुई सैंकड़ों डायरियां, नोटबुकें, रजिस्टर, ज्ञानभण्डार में विद्यमान हैं, जो अनेक विद्वानों के
लेख प्रादि आज भी उनके प्रभिमत के अनुसार विविध
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[ो विषयों के शोधाथियों के लिए बड़े ही उपयोग और मार्गदर्शक हो सकते हैं।
६८ वर्ष के अपने साधनापूर्ण जीवन में इस महासन्त ने भारत के सुदूरस्थ विभिन्न क्षेत्रों में घूम-घूम कर नगर नगर, ग्राम-ग्राम और घर-घर में भगवान महावीर का दिव्य सन्देश पहुंचाया। अपने प्रमोघ उपदेशों से समाज में व्याप्त कुरूढियों और प्रज्ञान को दूर करते हुए, अपने लेखों और ग्रन्थों से भावी पीढ़ियों को सदा के लिए सत्पथ का दिशानिर्देश करते हुए अपना स्वयं का मौर पर का भी कल्याण कर अपने कल्याण विजय नाम को सार्थक किया।
विक्रम सं० १९९४ में मार्गशीर्ष शुक्ला ११ के दिन अहमदाबाद में प्रापको तथा मुनि सौभाग्यविजयजी महाराज को प्रापके गुरू एवं संघ द्वारा 'गणिपद प्रदान किया गया। उसी दिन हमारे चरित्रनायक को गणिपद्ध के साथ पंन्यासपद भी प्रदान किया गया।
पंन्यासप्रद ग्रहण करने से पूर्व और पश्चात प्रापने स्थान-स्थान पर अनेक मन्दिरों की प्रतिष्ठाएं करवाई। जालोर में प्रापकी प्रभावपूर्ण प्रेरणा से जालोर मे नन्दीश्वर तीर्थ की स्थापना एवं समाज कल्याण के विविध कार्यों के लिए एक प्रति विशाल भूखण्ड खरीदा गया । प्रापकी प्रेरणा से ही संघ ने उस भूखण्ड में प्रापके प्रमूल्य निर्देशन में एक प्रति भव्य और विशाल नन्दीश्वर तीर्थ का निर्माण करवाग, जो भारतवर्ष में सबसे बड़ा नन्दीश्वर तीर्थ है। इस नन्दीश्वर तीर्थ का निर्माण कार्य वर्षों तक चलता रहा और मन्ततोगस्वा वि. सं. २००५ को माघ शुक्ला ६ के दिन प्रापश्री के करकमलों से ही इस महान् तीर्थ की प्रतिष्ठा करवाई गई। प्रतिष्ठा के समय इस तीर्थ में ५०० मूर्तियों की प्रतिष्ठा कराई गई।
इसी भूखण्ड में समाज के लोगों की सुविधा के लिए तथा इस तीर्थ की यात्रा करने हेतु प्राये हुए यात्रियों की सुविधा के लिए एक विशाल धर्मशाला का निर्माण करवाया गया। इसी भूखण्ड में सद्विद्या के प्रचार प्रसार के लिए सर्वप्रथम एक भव्य छात्रावास का निर्माण करवा कर छात्रों को सभी प्रकार की सुविधाएं प्रदान की गई थीं।
यह सब विशाल भूखण्ड भूतपूर्व मारवाड़ राज्य के प्रजावत्सल महाराजा श्री उम्मेसिंहजी महाराज साहब के कृपाप्रसाद व लाला श्री हरिश्चन्द्रजी की सहायता से प्राप्त हुमा था।
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[ श्री ]
वाणी की ही तरह पंन्यासप्रवर श्री कल्याणविजयजी महाराज की लेखनी में भी बड़ा चमत्कार धौर प्रद्भुत प्रभाव था । सच्ची बात को सयोक्तिक रूपेण डंके की चोट के साथ कहना और लिखना यह उनकी जन्मजात विशेषता थीं। सच्ची बात को समाज के समक्ष रखने में उन्होंने अपने जीवन में कभी किसी से किंचितमात्र भी भय का अनुभव नहीं किया ।
एक प्रर्जन कुल में उत्पन्न हुए शिशु ने घपने दृढ़ संकल्पों एवं asों के बल पर कालान्तर में एक विशाल कल्पतरु के समान विराट् स्वरूप धारण किया, धर्मप्र ेमी मानव समाज को अपने प्रमृतोपम त्रिविधताप से संतप्त मानव समाज को और विशेषतः धर्मप्रेमी समाज को शीतल सघन छाया से शान्ति पर उपदेशामृतफनों से तृप्ति प्रदान की और इस प्रकार ६८ वर्ष तक समाज को शान्ति पहुंचाने के अनन्तर इस महासन्त ने विक्रम सं• २०३२ आषाढ़ शुक्ला १३ के दिन प्रातः काल ६.१५ बजे ८८ वर्ष की आयु में इहलीला समाप्त कर स्वर्गारोहण किया । ज्ञान का सूर्य अस्त हो गया ।
प्राज इन महासन्त का भौतिक शरीर हमारे समक्ष नहीं है पर इनके द्वारा किये गये समाजहित, संघहित श्रोर जनकल्याण के कार्य शताब्दियों तक भावी पीढ़ियों को मार्गदर्शन कराते हुए प्र ेरणा देते रहेंगे ।
कोटि-कोटि प्रणाम है उस महान विभूति को ।
मुनि मुक्तिविजय
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सम्पादकीय
'तित्थोगाली पइन्ना'-नामक इस सैद्धान्तिक एवं इतिहास ग्रन्थ के सम्पादन, छाया एवं हिन्दी अनुवाद करने की इसी वर्ष (१९७५) के प्रथम चरण में पंन्यास श्री कल्याणविजयजी महाराज साहब ने मुझे प्रेरणा की। मैंने उन महासन्त की प्राज्ञा शिरोधार्य कर उनके द्वारा अर्द्धशोधित प्रति के प्राधार पर अपने लिए प्रति दुस्साध्य इस कार्य को मई १९७५ में प्रारम्भ किया। प्रति बड़ी ही अशुद्ध थी। अनेक स्थलों को देखकर तो भयकर निराशा भी हुई । दुविधा में भी पड़ा कि इस प्रकार का असाध्य कार्य में सम्पन्न कर भी सकूगा अथवा नहीं । पर जिस कार्य को एक बार हाथ में ले लिया उसे पंधूरा छोड़ने की आत्मसम्मान ने स्वीकृति नहीं दी।
यों तो मैं इस ऐतिहासिक ग्रन्थ से पूर्णतः अपरिचित नहीं था। इसके अनेक उदाहरण अनेक ग्रन्थों और इतिहास विषयक लेखों में वर्षों से पढ़ता पा रहा था। सन १९७१-७२ में श्रद्धेय पण्डित दलसुख मालवरिणया के सौजन्य से मुझे 'कहावलो' के साथ-साथ तित्थोगाली पइन्ना का अन्तिम प्रभाग भी एल० दी० इन्डोलोजिकल इन्स्टीट्यूट अहमदाबाद में पड़ने को मिला था। उन दोनों ग्रन्थों के सम्पादन की उमंगें भी उस समय मानस में तरंगित हुई थीं। तित्थोगाली पइन्ना की जैन धर्म और भारतीय इतिहास से सम्बन्ध रखने वाली कतिपय गाथाएं मेरी जागृत एवं सुषुप्ति दोनों ही
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अवस्थाओं में कतिपय अहोरात्रों तक चिन्तन का विषय भी रह चुकी थीं । विद्यार्थी जीवन में कुछ प्रागमों का अध्ययन करते समय प्रन्तःस्थल में एक तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न हुई थी कि सौभाग्य से यदि कभी सुधवसर मिला तो नागमों का सुन्दर अनुवाद प्रोर विवेचन करूंगा । चालीस वर्षों के लम्बे व्यवधान पश्चात् उस उत्कण्ठा के अनुरूप अवसर मिला है तो इस अवसर को निराशा के घने कोहरे खो देना उचित नहीं इस विचार से मनोबल जागृत हुप्रा और इस कार्य को पूर्ण करने का दृढ़ संकल्प किया । उत्कट चिन्तन और अहर्निश प्रयास से उत्तरोत्तर सफलताएँ मिलती गईं, उत्साह बढ़ता गया । प्रन्ततोगत्वा ढाई मास के कठोर बौद्धिक परिश्रम से ग्रन्थ की मूल गाथानों, संस्कृत छाया और हिन्दी अनुवाद का प्रालेखन पूरा हुम्रा । मेरे श्राराध्य गुरुदेव प्राचार्य श्री हस्तीमलजी महाराज साहब ने अपनी प्रत्यधिक व्यस्त दैनन्दिनो में से पर्याप्त समय निकाल कर इस ग्रन्थ के पाठों में अपेक्षित संशोधन किया। वास्तविकता तो यह है कि श्राचार्य श्रों की असीम अनुकम्पा से ही मैं इस कार्य को कर सका हूँ ।
इस ग्रन्थ की ८०० गाथानों की छाया धौर धनुवाद कर लेने के पश्चात् श्री राजेन्द्रसूरिजी महाराज के प्राहोर भण्डार से इस ग्रन्थ की एक प्राचीन हस्तलिखित प्रति भी मिल गई । जोधपुर में २५ ६-७५ को इस प्रति की फोटोस्टेट कापियाँ तैयार करवाई । यद्यपि यह प्रति भी प्रशुद्धियों से भरी थी पर दो प्रतियां हो जाने के कारण पाठों के मिलान श्रौर शुद्धीकरण में पर्याप्त सहायता मिली।
इस ग्रन्थ के संपादन के लिये इसकी अनेक प्रतियों की श्रावश्यकता के साथसाथ एतद्विषयक शोध के लिये गहन प्रध्ययन, विपुल ऐतिहासिक सामग्री, कठोर श्रम और पर्याप्त समय की आवश्यकता थी और है । क्योंकि इसकी अनेक गाथाएं अव्यवस्थित और प्रत्यधिक प्रशुद्ध होने के साथ साथ समवायांग श्रादि प्रागमों में और प्रन्यान्य ग्रन्थों में भी थोड़े परिवर्तित स्वरूप में उपलब्ध होती हैं। जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के मूल तथा टीकागत प्रनेक शब्द प्रौर वाक्यांश भी इसकी गाथानों में यथावत् स्वरूप में दृष्टिगोचर होते हैं। ये सब तथ्य इस ग्रन्थ के रचनाकार के समय आदि के सम्बन्ध में निर्णय करने के लिये बड़ े सहायक हो सकते हैं । इन सब गहराइयों में उतरने के लिये आवश्यक अध्ययन क्षमता, समय सामग्री प्रादि साधनों का मैं अपने भाप में प्रभाव अनुभव करता हूं ।
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इस ग्रन्थ के विहंगमावलोकन से ही प्रत्येक पाठक को विश्वास हो जायगा कि यह श्वेताम्बर परम्परा का ही ग्रंथ है न कि किसी अन्य परम्परा का । यह श्वेताम्बर परम्परा का ही ग्रंथ है, इस तथ्य को सिद्ध करने वाले प्रमाण इस ग्रन्थ में स्थान-स्थान पर एक नहीं अनेक भरे पड़े हैं। उदाहरण के तौर पर हण्डावसर्पिणी काल में होने वाले १० पाश्चर्यों का इसमें विशद विवेचन किया गया है। इन दस प्राश्चर्यो का उल्लेख करने वाली जो गाथा श्वेताम्बर परम्परा के मान्य ग्रन्थों में उपलब्ध होती है, वह उसी रूप में इस ग्रन्थ में विद्यमान है। प्रागम साहित्य के प्रध्ये तानों में से प्राज अधिकांश को यही धारणा है कि दश प्राश्चर्य केवल जम्बद्वीप के भरतक्षेत्र में प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल की चोवोसी के काल में ही हुए। पर प्रस्तुत ग्रन्थ तित्थोगाली पइन्नय में स्पष्ट उल्लेख है कि ये दश प्राश्चर्य प्रवर्तमान हुण्डावपिणी काल में ढाई द्वीप के ५ भरत और पांच ऐरवत-- इन दशों क्षेत्रों में हुई दशों ही चौवीसियों के काल में हुए और उसके परिणामस्वरूप जिस समय भरत क्षेत्र में १९वें तीर्थंकर भगवान् मल्लिनाथ स्त्रीरूप में उत्पन्न हुए उसी समय अन्य ४ भरत और ५ ऐरवत क्षेत्रों में ये भी १६ वें तीर्थंकर स्त्री रूप में ही उत्पन्न हुए। .
जहां तक इस ग्रन्थ के प्रणयनकाल का प्रश्न है--इस समस्त ग्रन्थ में प्रतिपादित तथ्यों का गहराई से चिन्तन मनन करने पर भी इस प्रश्न का कोई स्पष्ट प्रामाणिक अथवा सर्वमान्य उत्तर नहीं मिलता।
इस ग्रन्थ की गाथा संख्या ८७१ में "निच्चानिच्च सियवादे" यह अन्तिम चरण और ८७२ पौर ८७३ में क्रमशः "जो सियवायं भासति" तथा "जो सियवायं निदंति" इन दो प्रथम चरणों को देखकर अनेक विद्वान् इस प्रन्थ के प्रणता का समय अनुमानित करने का प्रयास करते आये हैं पर मेरी स्वल्प बुद्धि के अनुसार इस प्रकार की अटकलबाजी से कोई सुनिश्चित सर्वमान्य निर्णय .प्रथवा निष्कर्ष नहीं निकलने वाला है जिस "सियवाय" (स्याद्वाद) शब्द के प्राधार पर अनुमान की दौड़ लगाई जा रही है वह स्वयं ही विवादास्पद है । सुनिश्चित रूप से प्रमाणपुररस्सर प्राज कोई विद्वान् यह नहीं कह सकता कि अमुक समय में "स्याद्वाद" शब्द का जन्म जैन वांग्मय में हुमा । जब स्याद्वाद शब्द के प्रादुर्भाव का समय ही अपने आप में निश्चित है तो उसके प्राधार पर अन्य तथ्य का समय किस प्रकार निकाला जा सकता है। अनिर्णीत और अनिश्चित तथ्य को प्राधार मान कर किसी बात
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इन सब प्रभावों की स्थिति में भी मैंने अपनी स्वल्प बुद्धि के अनुसार इस ग्रन्थ को सवाग सुन्दर और विद्वद्भोग्य बनाने का पूरी लगन के साथ प्रयास किया है। मैं इस कार्य में कितना सफल हो सका है, इसका निर्णय तो पाठकों पर ही निर्भर करता है।
इतिहास में थोड़ी अभिरुचि होने के कारण विगत अनेक वर्षों से इस ग्रन्थ को उपलब्ध करने और पढ़ने की तीव्र उत्कण्ठा थी। मैंने यह भी अनुभव किया कि इतिहास के अनेक विद्वान्, कतिपय शोधार्थी मोर इतिहास में थोड़ी बहत भी अभिरुचि रखने वाले विज्ञ इस ग्रन्थ को पढ़ने के लिये लालायित रहे हैं । पर अद्यावधि इसका प्रकाशन न होने के कारण उनकी इसे पढ़ने ही नहीं देखने तक भी उत्कण्ठा अपूर्ण हो रही है। पिछले चार पांच वर्षों से इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों के ये विचार भी पढ़ने को मिले कि यह ग्रन्थ न श्वेताम्बर परम्परा का है पोर न दिगम्बर परम्परा का ही, यह तो यापनीय परम्परा के समान किसी अन्य विलुप्त परम्परा का ग्रन्थ है। इतिहासप्रेमियों की इसे पढ़ने की जिज्ञासा को शान्त करने की इच्छा के साथ साथ यह ग्रन्थ किसी अन्य विलुप्त परम्परा का ग्रन्थ है, इस भ्रान्ति को दूर करने की प्रदृष्ट प्रेरणा भी न मालूम क्यों मेरे अन्तःकरण में स्फुरित हुई और उत्तरोत्तर बलवती होती ही गई। यह भी एक बहुत बड़ा कारण है कि अपनी सामर्थ्य से बाहर के इस ग्रन्थ के सम्पादन जैसे गुरुतर भार को अपने सिर पर वहन करने का मैंने साहस कर लिया।
इक्ष्वाकुवंश पर महाकाव्य का प्रणयन करते हुए महाकवि कालिदास जैसे समर्थ विद्वान् ने भी निम्नलिखित श्लोकार्द्ध द्वारा उस महान कार्य के निष्पादन के लिये अपने पापको अल्पमति बताते हुए कहा है:
'क्व सूर्यप्रभवो वंश, क्व मे प्रल्पविषया मतिः ।'
तो ऐसी दशा में अनादि अनन्त जिनेन्द्रवंश और उस जिनेन्द्र वंश द्वारा प्रतिपादित धर्मतीर्थ के प्रवाहों का विवरण प्रस्तुत करने वाले इस ग्रन्थ राज का सम्पादन प्रयास मेरे जैसे स्वल्पातिस्वल्पज्ञ अकिंचन व्यक्ति के लिये कितना हास्यास्पद है, इस विचारमात्र से ही किसी अन्य की तो क्या कहूं मैं स्वयं भी अपने पाप पर हंस पड़ता है। पर जो कार्य कर रहा हूँ वह प्रति श्रेष्ठ है, प्रति पुनीत है मौर कर्मकलुष को ध्वस्त करने वाला है, इस विचार से पुन: पाश्वस्त और प्रकृतिस्थ हो जाता हूँ।
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के किसी तथ्य के निर्णय पर पहुंचने का प्रयास किया जाय तो वह निर्णय भी अनिर्णीत, अनिश्चित, प्रप्रामाणिक और अस्वीकार्य ही होगा।
मैंने भी अपने सामर्थ्य के अनुसार इस ग्रन्थ के प्रणेता का समय सुनिश्चित करने का पर्याप्त प्रयास किया है। इस ग्रन्थ की एक एक गाथा का पर्यालोचन करते समय मेरी दृष्टि अनेक ऐसी गाथानों पर पड़ी, जिन्हें मैंने इस समस्या के समाधान करने में प्रांशिक रूपेण प्राधार बनाने की वात सोची ।उनमें से गाथा इस प्रकार है:
भगवं कह पुवामो, नट्ठामो उवरिमाई चत्तारि । एवं जहा विदिट्ठ, इच्छह सम्भावतो कहिउं ॥७०३।।
अर्थात् - "भगवन् ! ऊपर के (ग्यारहवां, बारहवां, तेरहवां प्रोर चौदहवां, ये अन्तिम) चार पूर्व किस प्रकार नष्ट हो गये ? इस सम्बन्ध में प्रापने अपने विशिष्ट ज्ञान के द्वारा जैसा देखा-जाना है, वह कृपा कर मुझे बताइये ।"
. यह गाथा इस ग्रंथ के रचनाकाल के सम्बन्ध में किसी निर्णय पर पहुंचने के लिये सहायक सिद्ध हो सकती है। इस गाथा में प्रश्नकर्त्ता स्वाध्यायी श्रमण ने सर्वशास्त्र निष्णात अपने गुरु से केवल अन्तिम चार (ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें और चौदह) पूर्वो के नष्ट होने का कारण ही पूछा है । इससे यह सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ में उल्लिखित अज्ञातनामा प्रश्नकर्त्ता भ्रमण के समय में दश पूर्व यथावत् पूर्णरूपेण विद्यमान थे। यदि दश पूर्वो में से पांच, चार, तीन, दो अथवा एक भी पूर्व उसके समय में विद्यमान नहीं होता तो वह चार पूर्वो के नष्ट होने का कारण पूछने के स्थान पर नो, दश, ग्यारह, बारह अथवा १३ पूर्वो' के नष्ट होने का कारण इसमें निर्दिष्ट अपने अज्ञातनामा गुरु से पूछता। इससे स्पष्टतः यह सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ के प्रणयनकाल में १० पूर्व यथावत विद्यमान थे।
इस अनुमान की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि प्रस्तुत 'तित्थोगाली पइन्नय' ग्रन्थ में भगवान् महावीर के आठवें पट्टधर प्रार्य स्थूलभद्र तक ही पट्टधरों के नाम का उल्लेख है। प्रार्य स्थूलभद्र के पश्चात किसी एक पट्टधर का भी इस ग्रन्थ में उल्लिखित पटपरम्परा में नहीं दिया गया है । यदि दशपूर्वधरों के पश्चाद्वर्ती काल में इस ग्रन्थ का प्रणयन किया जाता तो प्रार्य स्थूलभद्र के पश्चात हुए प्रार्य महागिरि, पार्य सुहस्ती, पार्य
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बलिस्सह प्रादि दशपूर्वधर महान् प्राचार्यों का तथा वीर नि० सं० ५२५ के अासपास स्वर्गस्थ हुए अन्तिम दशपूर्वधर प्राचार्य श्रार्यवज्र का और साढ़े नव पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने वाले एवं अनुयोगों का पृथक्करण करने वाले प्रार्य रक्षित का कहीं न कहीं अवश्य ही उल्लेख किया जाता ।
मेरे इस अनुमान की पुष्टि करने वाले मौर भी अनेक प्रमाण इस ग्रन्थ में विद्यमान हैं । इस पूरे ग्रन्थ को पढ़ने से ग्रन्थकार की एक विशिष्ट शैली पाठक के समक्ष साक्षात साकार हो उठती है । जो जो घटनाएं इस ग्रन्थ के रचनाकाल से पूर्व घटित हो चुकी थीं उनके लिए ग्रन्थकार ने प्रत्येक धातु का भूतकाल का प्रयोग किया है। उदाहरण स्वरूप निम्नलिखित गाथाएँ चिन्तनीय एवं मननीय हैं
एतेण कारणेन, पुरिसजुगे प्रठमम्मि वीरस्स । सवराहेण परणट्ठाई, जाण चत्तारि पुव्वाई ||८०३ तं एवमंगवंसो नंदवंसो मरुयवंसो य । वराहेण पणट्ठा, समय
सज्झायवं सेण ||५०५
इन गाथानों पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन मनन करने तथा 'परगट्ठाई' और 'पराठा' शब्दों के भूतकाल के प्रयोग पर विचार करने से स्पष्टतः प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ के प्ररणयन से पूर्व ही चार पूर्व- स्वाध्याय वंश ( अनवष्टप तप, पारंचित तप प्रोर चार पूर्व ) और नन्दवश नष्ट हो गये थे । यहां जो 'मरुयवंस' के नष्ट होने का उल्लेख है वह शोध का विषय है । मौर्य वंश का द्योतक तो यह नहीं हो सकता क्योंकि इसमें न तो कहीं मौर्यवंश काही उल्लेख है प्रोर न मौर्य काल की आदि से लेकर अन्त तक की किसी एक भी घटना का ही ।
जो घटनाएँ इस ग्रन्थ के उल्लेख करते समय ग्रन्थकार
रचनाकाल तक घटित नहीं हुई हैं उनका सर्वत्र प्रत्येक धातु का भविष्यत काल का रूप दिया है । स्थूलभद्र के समय तक की घटनाओं के सम्बन्ध में भूतकाल का प्रयोग कर चुकने के तत्काल पश्चात् की गाथा संख्या ८०७ के 'होही अपच्छिमो किर, दसपुथ्वी धारथो वीरों'
इस अन्तिम श्रद्धभाग में 'होही' पर्थात् 'भविष्यति' शब्द प्रयोग स्पष्टतः यही प्रकट करता है कि इस ग्रन्थ के निर्माण के बहुत काल पश्चात् यह घटना घटित होगी । शेष पूर्वो के विच्छेद तथा एकादशांगी के हास
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का प्रागे की जिन-जिन गाथानों में उल्लेख किया गया है वहाँ सब जगह भविष्यत्काल का ही प्रयोग है । गाथा संख्या ८०८--
एयस्स पुव्वसुय सायरस्स, उदहिव्व अपरिमेयस्स।
सुणसु जह प्रथ काले, परिहाणी दीसते प्रच्छा ।। में प्रयुक्त 'जह', 'प्रथ', 'काले' और 'पच्छा' शब्द साधारण से साधारण विचारक के हृदय पर यही छाप अंकित करते हैं कि इस गाथा से पूर्व की घटनाएँ इस ग्रन्थ के प्रणयन काल से पूर्व घटित हो चुकी थीं और इस गाथा से प्रागे जिन घटनामों का उल्लेख किया जा रहा है, वे सब घटनाएं इस ग्रन्थ के प्रणयन से पश्चात घटित होंगी।
इन सब प्रमाणों से यह अनुमान किया जाता है कि यह रचना दशपूर्वधर काल भी है। पर इसका स्वरूप थोड़ा विकृत हो चुका है। नन्दीसूत्र के प्राद्य मंगल में उल्लिखित संघस्तुति की तीन चार गाथाएं प्रस्तुत ग्रन्थ में भी यथावत् रूपेण विद्यमान हैं। इन गाथाओं से यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि यह रचना वीर निर्वाण सं० १००० में स्वर्गस्थ हुए आर्य देवद्धि गणी के पश्चादवर्ती काल की है । क्योंकि इस ग्रन्थ में अनेक गाथाएं प्रक्षिप्त हैं, यह बात तो इस ग्रन्थ की अन्तिम गाथा से ही सिद्ध हो जाती है। इस ग्रन्थ में कुल मिलाकर गाथाओं की संख्या १२५६ प्रकित की गई है जब कि इस ग्रन्थ की समाप्ति के पश्चात् दी गई इस गाथा में इस की मूल गाथानों की संख्या १२३३ ही दी गई है।
इन सब तथ्यों से यही सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ का रचना काल वीर नि० सं० २१५ के पश्चात् का दशपूर्वधर काल है और नन्दी सूत्र के प्राद्य मंगल की जो याथाएं इसमें उल्लिखित है वे वस्तुतः इसमें पश्चाद्वर्ती काल में प्रक्षिप्त की गई हैं। भाष्यों, चूणियों प्रादि अन्य जैन वाङमय में जो इसकी गाथाएं उपलब्ध होती हैं वे निश्चितरूपेण इसी ग्रन्थ से प्राचीन काल में ली गई हैं।
____ इस ग्रन्थ की जो ताड़पत्रीय प्रति पाटन के भण्डार में है वह भी प्रति प्राचीन (संभवत: वि० सं० १४०० के पास पास की-मेरे पास निश्चित लेखन संवत् है पर इस समय मेरे से १०० माइल की दूरी पर है, प्रतः निश्चित तौर पर मैं इस समय नहीं लिख सकता) है । उस ताडपत्रीय प्रति के प्रशुद्ध लेखन से ह अनुमान किया जाता है कि शताब्दियों तक कर्ण और
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कण्ठ परम्परा से श्राये हुए इस
के समय तक कतिपय अंशों में विस्मृत और विकृत हो चुके थे ।
ग्रन्थ के पाठ उस ताड़पत्रीय प्रति में लेखन
प्रेस के व्यवस्थापक ने संशोधन हेतु मेरे पास प्रफ भेजने में असमर्थता प्रकट करते हुए प्रूफ देखने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर ही ले लिया था । प्राकृत और संस्कृत के प्रूफ देखने में तो कठिनाई प्रवश्यंभावी है । इस कारण इस पुस्तक की छपाई में कतिपय अशुद्धियां रह गई हैं जो इसलिए क्षम्य हैं कि संस्कृत छाया धौर हिन्दी अनुवाद को देखने पर किंचित अशुद्धियाँ रह गई हैं उन्हें प्रत्येक पाठक स्वतः ही ठीक कर सकता है ।
गजेन्द्र सदन, लोटोनी (पाली)
दि० २५-१०-७५
मेरे स्वयं के प्रमाद, बुद्धि व्यामोह सम्भव है अशुद्धियां रह गई हों। मुझे सहृदय वे मुझे इसके लिये श्रवश्यमेव क्षमा कर देंगे ।
प्रथवा समयाभाव के कारण भी पाठकों पर पूर्ण विश्वास है कि
ठाकुर गर्जासह राठौड़ न्यायव्याकरण - तीर्थं
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R
शुद्धि-पत्र
RRRRSS
शुद्ध
गाथा
पत्य
पल्य
११ छाया
नाम विति
नाम वित्ति
संतु
निच्चोउ य
निच्चोग
नित्यास्तु च
६८ छाया
प्रक्षय्य
नित्यक सब ऋतुषों के प्रक्षय्य ६८ अर्थ
सुतत्तेण ७१५
खुत्तत्येण
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तित्थोगाली पइन्नय तीर्थोद्गारिक प्रकीर्णक
जयइ ससिपाय - निम्मल - तिहुयण वित्थिण्ण- पुण्णजस-कुसुमो । उसभी केवल दंसण दिवायसे दिट्ठदट्ठव्वो । १।
( जयति शशिपाद - निर्मल त्रिभुवन विस्तीर्ण पुण्य-यश कुसुमः । ऋषभः केवल-दर्शन- दिवाकरः दृष्ट-द्रष्टव्यः । )
चन्द्रकिरण के समान समुज्ज्वल, जिनका पावन यश रूपी पुष्प सम्पूर्ण (ऊर्ध्व, श्रधः, तिर्यक्) लोकों में व्याप्त है, वे संसार के समग्र चर-अचर एवं रूपी अरूपी पदार्थों को देखने-जानने वाले अनन्तदर्शन के सूर्य प्रभु ऋषभदेव जयवन्त हैं । १ । बावीस च निज्जियपरीसह कसाय - विग्ध-संघाया । अजियाईया भवियारविन्द - रविणो जयंति जिणा |२| ( द्वाविंशति च निर्जित - परीषह - कषाय - विघ्न - संघाता । अजितादिका भविकारविन्दरवयः जयंति जिनाः ।। )
परीषहों, कषायों और विघ्नों के (सम्पूर्ण) समूहों पर ( पूर्णतः ) विजय प्राप्त करने वाले एवं कमलपुष्प स्वरूप भव्य प्राणियों के लिये सूर्यों के समान (सुखप्रद ) भगवान् अजितनाथ आदि बावीस तीर्थ कर जयवन्त हैं |२|
जयइ सिद्धत्थ- नरिंद- विमल - कुल विपुल नहयल - मयंको । महिपालस सिमहोरगमहिंद महिओ महावीरो | ३ | (जयति सिद्धार्थ नरेन्द्र विमलकुल विपुल नभस्तल - मयंकः । महिपाल - राशि -महोरग - महेन्द्र - महितो महावीरः । )
महाराज सिद्धार्थ के उज्ज्वल कुलरूपी गगन मण्डल के पूर्णचन्द्र तथा नरेन्द्रों, नक्षत्रेन्द्रों, नागेन्द्रों और महेन्द्रों द्वारा पूजित भगवान महावीर जयवन्त हैं । ३ ।
* शशिपाद - शशिकिरण इत्यर्थः
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२ ]
नमिऊण समण-संघ सुनाय - परमत्थ- पायडं वियङ । वोच्छं निच्छययत्थं, तित्थोगालीए संखेवं | ४ | (नव्वा श्रमण-संघ मुज्ञात-परमार्थ-प्राकृतं विकटं ।' वक्ष्यामि निश्चितार्थं, तीर्थोद्गालिकस्य संक्षेपम् ।)
परमार्थ के पूर्णरूपेण ज्ञाता, अनादि और विराट श्रमण संघ को नमन कर मैं तीर्थोद्गार ' ( तीर्थोद्गम ) अथवा तीर्थ के ओग्गालों (दश क्षेत्रों में) प्रवाहों के सुनिश्चित अर्थ का संक्षेपतः कथन
करूँगा ।४।
[ तित्थोगाली पइन्नय
रायगिहे गुण - सिलए भणिया वीरेण गणहराणं तु । पय सयमहरूसमेयं, वित्थरओ लोगना हेणं | ५ |
(राजगृहे गुणशीलके, भणिता वीरेण गणधरेभ्यस्तु | पदशत - सहस्रमेतं विस्तरतः लोकनाथेन ।)
,
त्रिलोकीनाथ भगवान् महावीर ने राजगृह नगर के गुरणशीलक नामक उद्यान में विस्तारपूर्वक एकलाख पद - प्रमाण तीर्थोद्गारिक अथवा तीर्थ प्रवाहों के प्रकीर्णक का कथन गरणधरों को किया । ५। अइ संखेवं मोत्त, मोत ण पवित्थरं अहं भणिमो । अप्पक्खरं महत्थं, जह भणियं लोगनाहेण | ६ |
-
( अति संक्षेपं मुक्त्वा, मुक्त्वा प्रविस्तरं अहं भणामि ।
अल्पाक्षरं महार्थं यथा भणितं लोकनाथेन ।)
,
अति संक्षेप और अति विस्तार इन दोनों पद्धतियों का परित्याग कर मैं प्रगाढ़ अर्थ भरे स्वल्पाक्षरों में उसका उसी प्रकार वर्णन करूँगा जिस प्रकार कि विश्वनाथ ( प्रभु महावीर ) ने कहा था | ६ | कालोउ अणाईओ, पवाहरूवेण होइ नायव्वो । निविहूणो सो च्चिय, बारस अरगेहिं निद्दिट्ठो ७ (कालस्तु अनादिकः, प्रवाहरूपेण भवति ज्ञातव्यः । निधन - विहीनः स खलु द्वादशारकैः निर्दिष्टः । )
1
१ महान्तम् । २ - ३ देखिये 'पाइयसद्द - महण्णवो
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[३ काल अनादिकाल से (नदी के) प्रवाह के समान निरन्तर गतिशील है, यह जानना चाहिए। वह (काल) अन्तरहित है
और बारह अरों ( काल विभागों ) द्वारा उसका निर्देश किया गया है ।७। दव्वट्ठयाए निच्चो, होई अणिच्चो अ नयमए बीए । एगत्तो मिच्छत्त, जिणाण आणा अणेगंता ।८। (द्रव्यार्थतया नित्यः भवति अनित्यश्च नयमते द्वितीये । एकान्तो मिथ्यात्वम् , जिनानां आज्ञा अनेकान्ता ।)
वह कालद्रव्य द्रव्याथिक नय अर्थात् द्रव्य को अपेक्षा नित्य. शाश्वत और द्वितीय पर्यायार्थिक नय अर्थात् पर्याय की अपेक्षा अनित्य (विनाशशील) है । इसे एकान्तरूप से नित्य अथवा अनित्य मानना मिथ्यात्व है. क्योंकि जिनेश्वरों ( वीतराग सर्वज्ञों) ने अनेकान्त (स्याद्वाद) सिद्धान्त को स्वीकार करने की आज्ञा प्रदान की है ।८।
ओसप्पिणी य उस्सप्पणी य, भरहे तहेव एरवए । परियत्तति कमेणं, सेसेसु अवठिओ कालो ।९। (अवसर्पिणी च उत्सर्पिणी च, भरते तथैव ऐरवते । पर्यटतः क्रमेण, शेषेषु अवस्थितः कालः ।)
ढाई द्वीप के पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों में अवसर्पिणी काल और उत्सपिणी काल क्रमशः परिभ्रमण करते रहते हैं। शेष सभी क्षेत्रों में यह काल अपरिवर्तनीय रूप में सदा एक समान विद्य. मान रहता है ।।
ओसप्पिणी पमाणं, भणंति लोगुत्तमा निहयमोहा । सवण्णु जिण-वरिंदा, समासओ तं निसामेह ।१०। (अवसर्पिणी प्रमाणं, भणंति लोकोचमा निहत-मोहाः । सर्वज्ञाः जिनवरेन्द्राः, समासतः तन्निसामयत ।)
___ मोह को विनष्ट करने वाले लोकोत्तम सर्वज्ञ जिनेश्वर (समय समय पर) अवसर्पिणी काल का (जो) प्रमाण बताते हैं, उसे संक्षेपतः, सुनिये ।१०।
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४]
[ तित्योगाली पइन्नप जोयण वित्थिण्णोखलु पल्लो एगाहिय-परूढाण । भरिओ असंख-खंडियकयाण बालग्ग-कोडीणं ॥११॥ (योजन-विस्तीर्णः खलु पत्यः एकाह्निक प्ररूढाणाम् । भरितअपंख्यखण्डीकृतानां बालाग्र-कोटीनाम् ।)
एक योजन (४ कोस) लम्बे, चौड़े और गहरे एक पल्य (वस्तु रखने का खड्डा) को दो दिन पहले जन्मे हुए यौगलिक शिशुओं के एक एक बाल को करोड़ करोड़ अति सूक्ष्म टुकड़े कर, बालों के उन सूक्ष्मातिसूक्ष्म टुकड़ों से (दबा दबा) कर भर दिया जाय ।११॥ वाससए वाससए, एक्किक्के अवहडंमि जो कालो। सो कालो बोधव्यो, उवमा एक्कस्स पल्लस्स ॥१२॥ (वर्ष शते वर्ष शते, एककै अपहते यः कालः । स कालो बोधव्यः, उपमा एकस्य पल्यस्य ।)
उस पल्य में से बाल के एक एक टुकड़े को एक एक सौ वर्षों के अन्तर से निकाला जाय । इस प्रकार उन बालों के टुकड़ों से उस पल्य के पूर्णरूपेण रिक्त होने में जितना समय लगता है, उस समय को एक पल्य की उपमा से समझना चाहिए ।१२। एतेसिं पल्लाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिया । तं सागरोवमस्स उ, एकस्स भवे परिमाणं ॥१३॥ (एतेषां पल्यानां कोट्या कोटिः भवेत् दशगुणिताः । तत् सागरोपमस्य तु, एकस्य भवेत् परिमाणम् ।)
इस प्रकार के दश कोटाकोटि पल्योपमों का एक सागरोपम परिमाण वाला काल होता है। अर्थात् दश कोटाकाटि पल्योपम का सागरोपम काल होता है ।१३। दस कोडाकोडीए सागरनामाण हुति पुण्णाउ । ओसप्पिणीपमाणं, तहेवुसप्पिणीए वि ।१४।
• पल्लो-पल्य पत्यकाबलु यत्र कापि वस्तु माध्रियते ।
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तित्थोगाली पइन्नय ] (दश कोट्या कोटिसागरनाम्नां भवन्ति पूर्णास्तु । अवसर्पिणीप्रमाणं, तथैव उत्सर्पिण्या अपि ।)
सागरोपम नामक इस काल की दश कोटा-कोटि संख्या जब पूर्ण हो जाती है, तो उस काल को अवसर्पिणी-परिमारण काल कहते हैं। अवसर्पिणी काल के समान उत्सपिणी काल भी दश कोटाकोटि सागरोपम का होता है ।१४।
ओसप्पिणी य उस्सप्पिणी य, दोनिवि अणाइनिहणाओ । न वि होई अति कालो, नवि होही सव्वसंखेवो ।१५। (अवसर्पिणी च उत्सर्पिणी च द्वेऽपि अनादिनिधने । नापि भवति अतिकालः नापि भवति सर्व-संक्षेपः ।)
अवसर्पिणीकाल और उत्सर्पिणीकाल-ये दोनों अनादि काल से (इसी प्रकार) चले आ रहे हैं। इनके इस काल-परिमाण में न कभी किञ्चित्मात्र भी आधिक्य होता है एवं न कभी किञ्चित्मात्र न्यूनता ही ।१५। ते चेव कालसमया तासि वोच्छामहं समाणेणं ।
ओसप्पिणी अणुलोमा, पाडिलोमुस्सप्पिणी भणिया।१६। (तौ चैव काल समयौ तयोः वक्ष्याम्यहं समानेन । अवसर्पिणी अनुलोमा, प्रतिलोमा उत्सर्पिणी भणिता ।)
ये काल के दो विभाग हैं। इनका मैं समान रूप से विवरण प्रस्तुत करूंगा। अवसर्पिणी काल अनुलोम अर्थात् ह्रासोन्मुख और उत्सर्पिणी काल प्रतिलोम अर्थात् उत्कर्षोन्मुख कहा गया है ।१६। छच्चेव काल समया हवंति ओसप्पिणीए भरहमि । तेसिं नामविभति, जहकम्मं कित्तइस्सामि ।१७) (षड् चैव कालसमयाः भवंति अवसर्पिण्याः मरते । तेषां नाम-विभक्ति, यथाक्रम कीर्तयिष्यामि ।)
भरत क्षेत्र में अवस पिणी काल के छः विभाग होते हैं। उनके नाम और विभागों का मैं यथाक्रम से वर्णन करूंगा।१७।
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[ तित्थोगाली पइन्नया
सुसमसुसमा य सुसमा, तइया पुण सुसमदूसमा होई । चउत्थी दूसम सूसमा दूसम अतिदूसमा छट्ठी ।१८॥ (सुषमसुषमा च सुषमा, तृतीया पुनः सुषमदुषमा भवति । चतुर्थी दुःषम सुषमा, दुःषमा, अतिदुःषमा षष्ठी।)
सुषमसुषमा. सुषमा, तीसरा सुषम-दुःसमा, चौथा दुःषमसुषमा, पाचवां दुःषमा और छठा अतिदुःषमा ।१८) । एते चेव विभागा, नवरं उस्सप्पिणीए छच्चेव । पडिलोमा परिवाडीए, तेसि होइ नायव्या ।१९। (एते चैव विभागा, नवरं उत्सर्पिण्यां षड् चैत्र । प्रतिलोमाः परिपाट्या, तेषां भवति ज्ञातव्याः ।)
ये ही छः काल विभाग उत्सपिणी काल में भी होते हैं परन्तु यह ज्ञातव्य है कि वे अवसर्पिणी काल के छः काल विभागों के प्रतिलोम अर्थात् उल्टे अनुक्रम से होते हैं ।१९। सुसमासुसमाएउ चत्तारि हवंति कोडाकोडीउ । तिण्णि सुसमाए कालो, दो सुसमदूसमाए उ ।२०। (सुषमासुषमायां तु चतस्त्रः भवन्ति कोटिकोट्यः । तिनः सुषमायां कालः, सुषमादुःषमायां तु ।)
___ सुषमसुषमा नामक आरक चार कोटाकोटि सागरोपम का, सुषमा नामक आरक तीन कोटाकोटि सागरोपम का और सुषमदुःषमा नामक प्रारक दो कोटाकोटि सागरोपम काल का होता है ।२०। एक्का कोडाकोडी, बायालीसाए तह सहस्सेहिं । वासाण होइ ऊणा, दूसमसुसमाए सो कालो ।२१। (एका कोटिकोटिः द्वाचत्वारिंशद्ः तथा सहस्त्रैः । वर्षाणां भवति उना, दुःषमसुषमाया स कालः ।)
... * प्रति में 'सुसमाच उत्थी' पाठ है, जो किसी लिपिकार की त्रुटि का
माभास कराता है। ..
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ७
दुःषम सुषमा नामक आरक बयालीस हजार वर्ष न्यून एक कोटाकोटि सागरोपम का होता है । २१ ।
अह दुसमाए कालो, वाससह स्साई एकवीसं संतु । तावइओ चैव भवे, कालो अदूममा बि | २२ | ( अथ दुःषमायां कालः, वर्षसहस्त्राणि एकविंशति तु । तावान् चैव भवेत्, कालः अति दुःषमाया अपि । )
दुःषमा नामक धारक इकवीस हजार वर्ष का और अति दुःषमा (दुःषमदुःषमा) नामक आरक भी उतने ही अर्थात् इकवीस हजार वर्ष का होता है । २२ ।
नवसागरोवमाण, कोडाकोडीओ होंति दुगुणाओ । जा होइ अम्मभूमी भरहेरवसु वासेसु | २३ | ( नव सागरोपमानां, कोटिकोट्यः भवन्ति द्विगुणिताः । या भवति अकर्मभूमिः, भरतैरवतेषु वर्षेषु ।)
भरत और ऐरवत क्षेत्रों में है कोटाकोटि सागरोपम काल अवसर्पिणी का और कोटाकोटि सागरोपम काल ही उत्सर्पिणी का - इस प्रकार दोनों के काल को जोड़ने पर १८ कोटाकोटि सागरोपम काल तक भरत और ऐरवत क्षेत्रों में अकर्म भूमि (भोग भूमि) रहती है | २३ |
स्पष्टीकरण - ऐसा प्रतीत होता है कि तेवीसवीं गाथा में मोटे रूप से अकर्म भूमि का काल बताया गया है । वस्तुतः अवसर्पिणी काल के सुषमदुःषमा नामक तृतीय आरक की समाप्ति के ६४ लाख पूर्व शेष रहने पर भरत तथा ऐरवत क्षेत्रों में कर्मभूमि का प्रादुर्भाव तथा उत्सर्पिणी काल के सुषमदुःषमा नामक चतुर्थ आरक के प्रारम्भ में ६४ लाख पूर्व व्यतीत हो जाने पर ५ भरत और ५ ही ऐरवत - इन १० क्षेत्रों में कर्मभूमि का अवसान हो जाता है । इस प्रकार १८ कोटाकोटि सागरोपम के अवसर्पिणी के प्रथम तीन और उत्सर्पिरगी के अंतिम इन छह आरकों में १ करोड २८ लाख पूर्व तक कर्मभूमि काल रहता है । अर्थात् एक करोड़ २८ लाख पूर्व, तीन वर्ष, ८ मास और
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८]
[ तित्थोगाली पइन्नय
१५ दिन कम १८ कोटाकोटि सागरोपम काल पर्यन्त भरत तथा ऐरवत क्षेत्रों में कर्म भूमि (भोगभूमि) रहती है ।
ऐसा प्रतीत होता है कि १८ सागरोपम जैसे सुदीर्घ काल की तुलना में एक करोड २८ लाख पूर्व, तीन वर्ष साढ़े आठ मास का काल नगण्य समझकर तित्थोगालोय पन्नाकार ने यहां इस काल का स्पष्ट उल्लेख नहीं किया है। यह भी संभव है कि इस प्रकार का स्पष्टीकरण करने वाली कोई गाथा पूर्व काल में रही हो और वह कालान्तर में लिपिकार के प्रमाद के कारण विलुप्त हो गई हो ।
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काल गणना में किसी प्रकार की भ्रान्ति न रहे, इस उद्देश्य से इस गाथा के अनन्तर निम्नलिखित गाथा प्रस्तुत की जा रही हैःचोवट्ठि सय सहस्सा, पुव्वाण दुगुणिया दृनि सुसमद्समासु । ता होइ कम्मभूमि, भर हेरवएसु दससु वासेसु ।।
तेवट्ठिं च सहस्सा, वियढावासाण होंति उड्ढस्स ।
जा होइ कम्मभूमि, भर हेरवएस वांसेसु । २४ । ( त्रिषष्टि च सहस्त्राः वैताढ्यावासानाम् भवन्ति ऊर्ध्वस्य । या भवति कर्मभूमिः भरतैरवतेषु वर्षेषु ।। )
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ऊपर के अर्थात् १ करोड २८ लाख पूर्व तीन वर्ष, ८ मास १५ दिन दोनों सुषमदुःषमा आरों. ८४ हजार वर्ष कम २ सागरोपम परिमाण वाले दोनों दुःषम- सुषमा आरकों दोनों दुषम आरकों एवं दोनों दुःषम दुःषमा प्रारकों के क्रमशः पूर्वाद्ध तथा उत्तरार्द्ध के ६३ हजार वर्ष परिमित काल और दोनों दुःषम- दुःषमा आारकों के क्रमशः परार्द्ध और पूर्वार्द्ध के २१ हजार वर्ष पर्यन्त वैताढ्य (गिरि कन्दराओं में) वास के काल को मिला कर दो सागरोपम, एक करोड़ २८ लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ मास काल पर्यन्त भरत तथा ऐरवत क्षेत्रों में कर्मभूमि रहती है।
स्पष्टीकरण :- प्रचलित धारणानुसार दोनों दुःषम दुःषमा श्रारों के प्रारम्भ से अन्त तक पूरे ४२ हजार वर्ष पर्यन्त भरत तथा
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तित्थोगाली पइन्नय
ऐरवत क्षेत्रों के मनुष्य एवं तिर्यञ्चों का वैताढ्य की कन्दरामों में निवास माना गया है। पर इस गाथा से प्रकट होता है कि तित्थोगालिय पइन्नयकार ने अवसर्पिणी काल के दुष.म दुःषमा के उत्तरार्द्ध से उत्सपिणी काल के दुषःम दुःषमा पूर्वार्द्ध तक अर्थात् २१ हजार वर्ष तक ही इन दश क्षेत्रों के मानवों एवं तिर्यञ्चों को वैताढ्यवास माना है । २४। एसो ठिति विरहिओ, कालो पुण होइ धम्मचरणस्स । एत्तो परं तु वोच्छं, छव्विहमणुमाणओ कालं ।२५। (एषः स्थितिविरहितः, कालः पुनर्भवति धर्मचरणस्य । इतः परं तु वक्ष्यामि, शडिवधं अनु मानतः कालं । ) __ यह धर्मचरण की स्थिति से रहित काल होता है । अब इस से प्रामे छः प्रकार के काल- मान का अनुक्रमशः मैं कथन
करूंगा। २५।
दससु वि कुरूण सरिसं, भरहमिव आसि सुसमसुसमाए । नवरिमणाट्ठियकालो, एरवयादीण वि तहेव ।२६। (दशष्वपि कुरूषु सदृशं. भरतमिदं आसीत् सुषम-सुषमायां । नवरं अनावर्तितः कालः, ऐरवतादीषु अपि तथैव ।।)
सुषम-सुषमा नामक आरक में भरत क्षेत्र को तरह दशों कुरुक्षेत्रों तथा उसी प्रकार ऐरवत आदि क्षेत्रों में भी समान रूप से अनपवर्त्य अर्थात् अपरिवर्तनीय सुखपूर्ण काल रहता है। २६ । एतेसि खेत्ताणं, मणिकणगविभूसियाउ भूमीओ। रयणाण पंचवन्निय, सोहंतिह भित्ति-चित्ताओ ।२७। (एतेषां क्षेत्राणां, मणिकनकविभूषिताः भूमयः । रत्नानां पंचवर्णिकाः, शोभंति इह भित्ति-चित्राः ॥)
उस सुषम-सुषमा नामक प्रारक में उपरि वणित सभी क्षेत्रों के भू-भाग मणियों एवं स्वर्ग से विभूषित और सर्वत्र पांच प्रकार के रत्नों से जटित मनोहर भित्ति-चित्र सुशोभित रहते हैं ।२७।
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१०]
| तित्यांगाली पडन्न य
वावीपुक्खरणीओ, देसेदेसेत्थ दीहियाओ य । पेच्छण संकुलाओ, सयणासण मंडिय तहाओ | २८ (वापी पुष्करिण्यः, देशे देशे अत्र [च्छ ] दीर्घिकाश्च । प्रक्षणक संकुलाः, शयनासनमण्डिताः तथा तु ।।)
उस नारक में स्थान स्थान पर सर्वत्र देखने योग्य अनेक मनोरम दृश्यों से सत्रुल, शंया-आसनों आदि से सुसज्जित वापियाँ पुष्करिणियाँ एवं दीर्घिकाएँ होती हैं |२८|
महुघयक्खरसोदगखीरासव वरवारुणी जलाओ । काओ य पगइपाणिय फलिय सरिच्छत्थ भरियाओ । २९ (मधु- घृत - इक्षुरसोदक क्षीरासब चरवारुणी जलाः । काश्च प्रकृतिपानीय स्फटिकसदृशा अत्र भरिताः ।)
७
जो शहद घृत, इक्ष रस द्राक्षा, क्षीर, आसव और उत्तम वारुणी के समान सुस्वादु एवं सुगन्धित जल से परिपूर्ण तथा उनमें से कतिपय वापियाँ आदि स्फटिक मरिण के समान स्वच्छ प्राकृतिक पानी से भरी . रहती हैं |२|
जाओ वि रयणवेलुय, परिगयाउ सोयणे सुह विहाराओ । तामरस कमल कुवलय, नीलुप्पलसोहिय जलाओ | ३० | (या अपि रत्नवैडूर्य - परिगताः शोभनाः सुखविहाराः । ताम्ररस-कमल- कुवलय, नीलोत्पलशोभित - जलाः । । )
वे सब वैडूर्य रत्नों से निर्मित अतिसुरम्य सुखपूर्वक विचरण करने योग्य तथा ताम्ररस कमल, कुवलय एवं नीलोत्पल से सुशोभित जल से परिपूर्ण होती हैं |३०|
तासिंचडोलरूडहडगविविह उप्पायज्जगइ पव्वयगा । इंदियसुहोवभोगा, सभावजाया रयणचित्ता । ३१ ।
( तासां च अडोल खटहटक विविध उत्पाद जगति पर्वतकाः । इन्द्रिय सुखोपभोगा, स्वभावजाता रत्न - चित्रा ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
उन वापियों, पुष्करिणियों और दीपिकाओं के चारों ओर अति सुन्दर प्राकृतिक प्राकार जगतियाँ आदि रत्नों से जटित और चक्षु आदि इन्द्रियों को बड़ा आनन्द प्रदान करने वाली होती हैं ।३१॥ देसे देसे य सुरम्मा, केलिलयाहरग केयइ घरा य । तेसु वि य रयणचित्ता, मणिकणगसिलातला रम्मा ।३२। (देशे देशे च सुरम्या केलिलता-गृह-केतकि-गृहाश्च । तेष्वपि च रत्नचित्रितः, मणिकनकशिलातला रम्याः ।)
स्थान स्थान पर नयनाभिराम लताओं से निर्मित केलि-कुज और केतकी मण्डप हाते हैं। उन निकुञ्जों और के लि-गृहों में अनेक प्रकार के रत्नमय चित्रों से सुशोभित अति कमनीय मरिण शिलाएँ एवं कनकशिलाएँ यथास्थान बिछी रहती हैं ।३२।। एतेसु य अन्नेसु य, पहाणभोगोवभोगपउरेसु । विविहे पुण्णफलरसे य सक्कसिरिमणुभवंति ।३३। (एतेषु च अन्येषु च, प्रधान भोगोपभोग प्रचुरेषु । विविधान् पुण्यफलासांश्च शक्रश्रियमनुभवन्ति ।)
पांच भरत तथा पांच ऐरवत एवं देव कुरु, उत्तरकुरु प्रादि उत्कृष्ट कोटि के भोगोपभोग प्रधान क्षेत्रों में यौगलिक मानव विविध पुण्यफलों के रस स्वरूप इन्द्र के समान सुख ऐश्वर्य का उपभोग करते हैं ।३३। गाम नगरागराइ, पिउपिंडनिवेयणा जम्मफला। एते न संति भावा, ऐतेसु सुरालयनिभेसु ।३४। (ग्रामनगरागरादि, पितपिण्डनिवेदना च जन्मफलाः । एते न संति भावाः, एतेषु सुरालयनिभेसु ।) ___ उस काल में सुरलोक सदृश उपर्युक्त क्षत्रों में ग्राम, नगर, प्रासाद पिता-पुत्र का पारस्परिक कर्तव्य और जन्मफल अर्थात् रोग-शोकजरा-दुःखादि का अस्तित्व तक नहीं रहता ।३४। असिमसिकिसिवाणिज्जं, ववहारो नत्थि रायधम्मो वा । तेसि मिहुणणा तया, रोसोपोसोवएसो वा ।३५॥
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[तित्थोगाली पइन्नय
१२)
(असि-मसि - कृषि - वाणिज्यं, व्यवहारः नास्ति राजधर्मो वा । तेषां मिथुनानां तदा, रोषः पोषः अपदेशो वा ।)
उस समय के उन यौगलिक मानवों में असि (तलवार), मसि ( लेखन), कृषि, वाणिज्य, पारस्परिक आदान-प्रदान, शासक-शासित, आक्रोश, पोषण और परस्पर उपकार - अपकार आदि का व्यवहार नहीं होता । ३५॥
$
पउमुप्पलनीसासा, विरूवितरण निब्भया निरूवलेवा | वंग लिपलियरहिया, एतेसु नरा तया सुहिया |३३| (पद्मोत्पलनिश्वासा, विरूपितनु निर्भया निरुपलेपाः | बँक - वलि - पलितरहिता, एतेषु नरा तदा सुखिन: । )
इन क्षेत्रों में उस समय के मानव कमल पुष्प को भीनी मादक सुगन्ध के समान श्वासोच्छवास वाले, विशिष्ट सुन्दर शरीरधारी, पूर्ण निर्भय, छल-छद्म द्वेषादि से निर्लिप्त, बांक-टेढ़ श्वेतकेश आदि शारीरिक दोषों से रहित एवं सर्वथा सुखी होते हैं । ३६ ।
गंभीरनिद्धघोसा, साक्कोसा अमच्छर सहावा । अनुलोमवाउवेगा, अपरिमिय-परककमपलोया । ३७ (गंभीर निद्घघोषाः, सानुक्रोशा अमत्सरस्वभावाः । अनुलोम वायुवेगाः, अपरिमितपराक्रमप्रलोकाः ।)
उस समय मानव-मिथुन घनरवगम्भीर गुंजायमान स्वर, मात्सर्यमुक्त स्वभाव, वायु के समान अप्रतिहत यथेच्छ वेग और अपरिमित पराक्रम एवं तेज सम्पन्न होते हैं |३७|
कस्सह अणभियोगा, अहर्मिंदा वज्जरिसभसंघयणा । माणुम्मारणुववेया, पेसलच्छसव्वंगसंघयणा | ३८ | ( कस्यापि अनभियोगाः, अहमिन्द्रा वज्रऋषभ संहननाः । मानोन्मानोपपेताः पेशलाच्छसर्वांगसंहननाः । )
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तित्थोगाली पइन्नय]]
__ [१३
वे सभी मानव य गल सबके प्रति अभियोग रहित, समान रूप से सभी 'मैं इन्द्र हं' इस प्रकार की भावना वाले वज्र ऋषभ संहननधारी, सुडौल देहधर, सुगठित एवं सुन्दर अगोपांग युक्त होते हैं।३८। ते नरगणासुरुवा, सुभगा सुहभागिणो सुरभिगंधा । मिगरायसरिसविक्कम, वरवारण मतसरिसगई ।३९। (ते नरगणाः सुरूपाः, सुभगाः सुखभागिनः सुरभिगंधाः । मृगराजसदृशविक्रम, --वरवारणमत्वसदृशगतयः ।)
वे नर-नारी गण परम सुन्दर, सुभग, सूखभाजन, सुवासित मनमोहक सुगन्ध सिंह के समान पराक्रमी और मदोन्मत्त श्रेष्ठ गजराज की गति सदृश गमन करने वाले होते हैं ।३६। पगइपयणुकसाया, अप्पिच्छा अणिहिसंचयअचंडा । बत्तीस लक्खणधरा, पुढवी पुष्फफलाहारा ।४०। (प्रकृति प्रतनुकषायाः, अल्पेच्छा अनिधि-संचय-अचण्डाः । द्वात्रिंशल्लक्षणधराः, पृथ्वी-पुष्प फलाहारा ।)
वे सब स्वभावतः क्षीण कषाय, स्वल्पेच्छ निधि एवं संचयविहीन शान्त, ३२ लक्षणों से युक्त और पृथ्विज खाद्य तथा फलों का आहार करने वाले होते हैं ।४।। पुढविरसो य सुसाओ मच्छंडियखंड -सक्कर-समाणो । पुष्फ पगडु उत्तर रसतरा, अणुवमरसा उ साउफला ।४१। (पृथ्वीरसश्च सुस्वादः, मत्स्यंडि-खंड-शर्करा समानः । पुष्पा प्रकटुत्तर रसतराः, अनुपमरसास्तु स्वादु फलाः ।)
उस समय में पृथ्वी का स्वाद मिश्री अथवा शक्कर के समान मधुर पुष्पों का रस नितान्त परमात्कृष्ट और सुस्वादु, फलों का रस इतना स्वादिष्ट होता है कि उसके स्वाद का वर्णन करने के लिये संसार में कोई उपमा नहीं है ।४११ पुष्फ फलाणं च रसं, अमयरस-इट्ठतरगं जिणा बिति । संवच्छरपरि सज्जिय, नवनिहिपइ भोयण घराओ ।४२
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{ तित्थोगाली पइन्नय (पुष्प-फलानां च रसं, अमृतरस-इष्टतरकं जिनाः ब्रुवन्ति । संवत्सर-परिसज्जित, नवनिधिपति भोजन-गृहात् ।)
जिनेश्वर भगवान उस समय के फूलों तथा फलों के रस को अमृत रस और नवनिधिपति चक्रवर्ती की पाकशाला में वर्ष भर के परिश्रम से निर्मित भोजन की अपेक्षा भी अत्यन्त इष्टतर अर्थात् स्वादिष्ट बताते हैं । ४२। भरहाइ दस वि खेता, देव-कुराई वि तत्तिया चेव । एते बीस खित्ता. वियाण पढमिल्लुए अरगो (गे) ।४३। (भरतादि दशापि क्षेत्रा. देवकुर्वाद्यापि तावत्काः चैव । एते विंशति क्षेत्राः, विजानीहि प्रथमिल्लके आरके ।)
पोच भरत, पांच ऐरवत पाँच देवकुरु और पांच हो उत्तरकुरु इन बीस क्षेत्रों में सुषमसुषमा नामक प्रथम प्रारक की अवधि में इस प्रकार की स्थिति समझनी चाहिए ।४३। . आउसरीरुस्सेहो, सागर कोडीउ जाव चत्तारि । पलिओवमाई तिण्णिउ. तिण्णि य कोसा समा भणिया ४४. . (आयुशरीरोत्सेधः सागर कोट्यः यावत् चत्वारि । पल्योपमानि त्रीणि त्रयो क्रोशाः सभा भणिता ) .
इन बीस क्षेत्रों में सुषमसुषमा नामक प्रथम प्रारक की चार कोटाकोटि सागरोपम की सम्पूर्ण अवधि में समान रूप से यौगलिक मानवों की आयु तीन पल्योपम और शरीर की लम्बाई तीन कोस बताई गई है ।४४। एतेसु य खेतेसु, तेसिं मणुयाण पुन सुकएणं । दसविह दुमाउ तइया, उवभोग-सुहा उवणमंति ।४५॥ (एतेषु च क्षेत्रेषु, तेषां मनुजानां पूर्वसुकुतेन । दशविधा द्र मास्तदा, उपभोग-सुखानि उपनमंति ।)
इन बीस क्षेत्रों में उस समय के मानव-मिथुनों को उनके पूर्वोपार्जित पुण्य के फलस्वरूप दश प्रकार के द्र म अर्थात् कल्पवृक्ष श्रेष्ठ सुखोपभोग की सम्पूर्ण सामग्री तत्काल प्रस्तुत करते हैं ।४५॥
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तित्थोगाली पइन्न य )
[१५
मत्तंगयाय भिंगा, तुडियंगा दिव्वजोइचित्तंगा । चित्तरसा मणियंगा, गेहागारा अणियणा य ।४६। (मत्तंगकाश्च भृगाः, त्रुटितांगा दीप-ज्योति-चित्रांगाः । चित्ररसाः मण्यंगा गहकारा अनग्नाश्च ।)
उन दश प्रकार के कल्पवृक्षों के नाम निम्नलिखित हैं:-- मत्त ग (१) भृग (२), त्रुटितांग (६), दीप (४), ज्योति (५) चित्रांग (६). चित्ररस (७). मण्यग (८), गेहकर (8) और अनग्न (१०) ४६ मत्तंगएसु मज्जं सुहवेज्ज भायणाई भिंगेम । तुडियंगेसु य संगय, तुडियाई तह पगाराई।४७ (मत्तंगकेषु मद्य, सुख-वेद्यं भाजनानि भगेषु । त्रुटितांगेषु च संगत-त्रुटितानि तथा प्रकाराणि ।) __ मत्तग नामक कल्पवृक्षों से उन मानवों को अहर्निश सुखानुभूति में मग्न रखने वाला पेय, भृग नामक कल्पवृक्षों से भाजनपात्रादि, त्रुटितांग नामक वृक्षों से तुरहो आदि विविध प्रकार के वाद्य-यन्त्र ।४७। दीवसिहा जोइसिनामगा य एते करिति उज्जोयं । चित्तंगेसु य मल्लं, चित्तरसा भोयणट्ठाए ४८) (दीपशिखा ज्योतिर्नामकाश्च. एते कुर्वन्ति उद्योतम् । चित्रांगेषु च माल्यं, चित्ररसा भोजनार्थाय ।)
दीपशिखा एवं ज्योति नामक वृक्षों से यथेप्सित सुखद प्रकाश, चित्रांग नामक कल्पद्र मों से माला, हार प्रादि मनोज्ञ प्रसाधन और चित्ररस नामक कल्पवृक्षों से भोजन सामग्री ।४८॥ मणिअंगेसु य भूसणवराई, भवणाई भवणरूवेसु । आइण्णेसु य वणियं, वत्थाई बहुप्पगाराई ४९।। (मण्यंगेषु च भूषणवराणि, भवनानि भवनरूपेषु । अनग्नेषु च वर्णितं, वस्त्राणि बहुप्रकाराणि ।)
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[तित्थोगाली पइन्नय
___ मण्यंग नामक कल्पद्र मों से सभी प्रकार के श्रेष्ठ आभूषण,गेहाकाय नामक कल्पवृक्षों से प्रासाद, और अनग्न नामक कल्पतरुयों से भांति भांति के परिधान-वस्त्र उपलब्ध होत हैं ।४६। एतेसु य अन्नेसु य नर-नारि-गणाण ताण उवभोगो । देव-कुराइसु नियओ, भरहाइ (सु) असासओ होइ ।५०। (एतेषु च अन्येषु च, नरनारिगणानां तेषामुपभोगः । देवकुर्वादिषु नियतः, भरतादिषु अशाश्वतः भवति ।)
इन कल्पवृक्षों तथा अन्यान्य कल्पवृक्षों से उन नर-नारी समूहों का उपभोग देवकूरु आदि दश क्षेत्रों में सदासर्वदा नियत और ५ भरत ५ . ऐरवत इन दश क्षेत्रों में अशाश्वत अर्थात् अस्थायी होता है ।५०। ते किंचिवि सावसेसंमि आउए, मिहुणगाई पसविता । कालगया य सुहेण, अइराय सुरालयमुर्वेति ।५१।। (ते किंचिदपि सावशेषे आयुषि मिथुनकानि प्रसवित्वा । . कालगताश्च सुखेन, अचिरात् सुरालयमुपयान्ति ।)
स्वल्प आय शेष रहने पर वे यौगलिक मानव एक एक मिथुन (एक बालक एक बालिका) को जन्म देकर सुखपूर्वक मृत्यु पा सीधे स्वर्ग में जाते हैं ।५१॥ मउया सपारनिरया, उज्जुसहावा अकोहणा अलुद्धा । तवसंजमेण विणा, लहंति एयाई ठाणाई ।५२। (मृद्वः स्वदारनिरताः ऋजुस्वभावा अक्रोधनाः अलुब्धाः तप-संयमेन विना, लभंते एतानि स्थानानि ।) __ वे लोग प्रकृति से मृदु, स्वदारसंतोषी, सरल, स्वभावी, क्रोध, लोभ तथा तप-संयम रहित इस प्रकार के स्थानों को प्राप्त करते हैं । ५२ । एवं तवसंजमनियमेण उ, मुच्चइ सव्वस्स चेव दुक्खस्स । अमरवरेसु य पावह विसिट्ठतरयं विसयसोक्खं ॥५३॥
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[१७
(तप संयम नियमेन तु मुच्यते सर्वस्माच्चैवदुःखात् । अमरवरेषु च प्राप्नोति विशिष्टतरकं विषयसौख्यं ।)
तप एवं संयम से तो मानव सब प्रकार के दुःखों से (सदा सर्वदा के लिये) मुक्त हो जाता है अथवा श्रेष्ठ देवतामों में विशिष्टतर विषय-सुख को प्राप्त करता है ।५३। सुसमा मुसमाए एसा, समासो वंनिया मण साणं । उवभोगविहि समत्ता, सुसमा एत्तो परं वोच्छं ।५४। (सुषमा सुषमाया एषा, समासतः वर्णिता मनुष्याणाम् । उपभोगविधिः समाप्ता, सुषमां इतः परं वक्ष्यामि ।)
सुषम-सुषमा नामक प्रारक में मनुष्यों की उपभोग विधि का संक्षेपतः वर्णन समाप्त हुआ। अब उनका सुषमा नामक आरक के समय की भोगविवि का वर्णन करूंगा ।५४। हरिवरिसाई खेत्ता, दस भरहादी य तचिया चैव । आसे समासुसमाए, बीए अरगंमि निद्दिट्ठा ।५। (हरिवर्षादि क्षेत्राः दश भरतादि च तावत्काश्चैव । आसन समा-सुषमायां, द्वितीये आरके निर्दिष्टाः ।)
हरिवर्ष आदि दश तथा उतने ही भरत आदि क्षेत्रों की सषमा नामक काल में जो स्थिति थी वह द्वितीय आरक में निर्दिष्ट की गई है। अणिगणदीवसिहाविय, तुडि यंगा मिंग तह य कोवीणा । उरुसहयामोयपमोया, चिचरसा पच्छरुक्खा य ।५६। [अनग्नदीप-शिखापि च, त्रुटितांगाः भृगास्तथा च कोपीनाः । उरुसहजा आमोद प्रमोदाः, चित्ररसाः पक्षवृक्षाश्च ।
अनग्ना, दीपशिला, त्रुटितांगा, भिंगा, कोपीन, उरुसहजा, आमोदा, प्रमोदा, चित्ररसा और पक्षा नामक कल्पवृक्ष द्वितीय प्रारक के यौगलिकों को भोगोपभोग की सामग्री उपलब्ध कराते हैं ।५६।
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[ तित्थोगाली पइन्नय
१८ ]
वत्थाई मणिगणेसु ं, दीवसिहे पुण करेंति उज्जोयं । तुडियंगे यगेज्झं भिंगेसु य भायण - विहीउ । ५७ । वस्त्राणि अाग्नेयेषु, दीपशिखाः पुनः कुर्वन्ति उद्योतम् । त्रुटितांगेषु च गेयं भृगेषु च भाजनविधयः ।]
अनग्न नायक कल्पवृक्षों से वस्त्र, दीपशिखा कल्प वृक्षों से प्रकाश, त्रुटितांगों से वाद्य संगीत, भृंगों से विविध पात्र । ५७ । कोवीणे आभरणं, उरू सहभोग तह य वण्णगविहीउ । आमोएसु य मज्जं मल्लविहीओ पमोएस | ५८ । [कोपीने आभरणं, उरौ सुखभोगा तथा च वर्णक-विधयः । आमोदेषु च मद्य, माल्यविधयः प्रमोदेषु |]
कोपीना नामक कल्पवृक्षों से आभरण, उरुसहजा नामक कल्पतरुनों से प्रसाधन सामग्री आमोदा नामक कल्पवृक्षों से सुख सागर में मग्न रखने वाला पेय, प्रमोदा नामक सुरतरुओं से हार, माला आदि आभूषण । ५८.
चिचरसेसु य इड्डा, नाणाविभक्खभोयणविहीओ | पच्छा मंडव सरिसा बोधव्वा कप्परुक्खा य । ५९ । [चित्ररसेसु च इष्टाः नानाविधभक्ष्य भोजनविधयः । पक्षाः मण्डप सदृशाः, बोधव्याः कल्पवृक्षाश्च ।]
चित्ररसा नामक कल्पतरुत्रों से यथेष्ट नानाविध भोज्योपभोज्य सामग्री मिलती है। पक्ष नामक कल्पवृक्ष मण्डप के समान होते हैं । ये दश प्रकार के कल्पवृक्ष समझने चाहिए । ५६ ।
पासाय जालहंमिय, अणुवमंगन्भजालविहिपरया । मणिरयण भित्तिचित्ता, रयणुड ढसिराय । ६० । ( प्रासादजालहर्मित अनुपम गर्भ - जाल विधिपरकाः । मणिरत्न- भित्तिचित्राः, रत्नोद्धर्व शिराश्च ।।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १६
वे मण्डपाकार पक्ष नामक कल्पवृक्ष जाली झरोखों से सुशोभित अनुपम कलाकृतिपूर्ण अति सुन्दर सुविशाल प्रासादों के समान होते हैं। वे मणिरत्नमय सुन्दर भित्तिचित्रों से अलंकृत और रत्ननिर्मित गगनचुम्बी शिखरों से शोभायमान होते हैं ।६०। दो गाउय उच्छेहा, पुरिसा ताय होंति महिलाओ। दोन्नि पलिओवमाइं, परमाउतेसि बोधव्वं ६१। (द्व', गव्यूते उत्सेधाः, पुरुषाः तथा च भवंति महिलाः । द्वे' पल्योपमे, परमागुः तेषां बोद्धव्याः ।।) ___सुषमा नामक उस द्वितीय प्रारक के नर तथा नारी गण दो गाऊ (कोस) की ऊंचाई और दो पल्योपम की उत्कृष्ट आयु वाले होते हैं, ऐसा समझना चाहिए :६१।। एसा उवभोगविही, ससमाए हवइ पुरिस-महिलाणं । एक्केक्कपलिय गाउय, परिहीणं आउ उच्चत्तं ।६२। (एषा उपभोगविधिः सुषमायां भवति पुरुष-महिलानाम् । एकैक पल्यं गव्यूतिश्च परिहीनं आयु उच्चत्वं ।।) ___ सुषमा नामक आरक में पुरुषों तथा महिलाओं की यह उपभोगविधि है । सुषम-सुषमा काल के मनुष्यों की अपेक्षा इस काल के मनुष्यों की आयु एक एक पल्य और ऊंचाई एक एक कोस घट जाती है अर्थात् दो पल्य की आयु एव दो कोस की ऊचाई रह जाती है ।६२। हेमवय हिरण्णवया, दस खेत्ता हवंति भरत खेत्तसमा । सूसमसम-कालो, आसी तइए उ अरगंमि ।६३। (हैमवतहिरण्यावर्ताः दश क्षेत्राः भवंति भरतक्षेत्रसमाः । सुषमदुषमकालः, आसीत् तृतीये तु आरके I)
अवसर्पिणी के तीसरे आरक में सुषम-दुषमा नामक काल या। उसमें हैमवत और हिरण्यावर्त आदि दशों क्षेत्र भरत-क्षेत्र के समान (अवस्था वाले) होते हैं ।६३।
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२० ]
[ तित्योगाली पइन्नय
जो अणुभावो सुसमाए, सो सुसमदूसमाए वि। दो दोय पलिय गाउय, परिहीणं आउ उच्चत्त ।६।। (योऽनुभावः सुषमायां, सः सुषमदुःषमायामपि । द्वौ द्वौ च पल्य गव्यूते च, परिहीनं आयु उच्चता ।)
जो जो अनुभाव अथवा परिस्थितियां सुषमा नामक आरक में होती हैं वे ही सुषम-दुःषम नामक प्रारक में भी होती हैं । मोटे तौर पर अन्तर यह है कि (प्रथम प्रारक के मनुष्यों की अपेक्षा) इन तृतीय आरक के मनुष्यों की आयु दो दो पल्य तथा ऊंचाई दो दो कोस कम रह जाती है ।६४। पलिओवमलोहद्धं, परमाउं होई तेसि मणुयाणं । तइयाए उक्कोसं, अवसाणे पुचकोडी उ ।६५। (पल्योपमलोहार्दा, परमायुः भवति तेषां मनुजानाम् । तृतीयायां उत्कर्ष, अवसाने पूर्वकोटी तु ॥)
तीसरे बारे में मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु लोहार्द्ध पल्योपम और तृतीय पारक के अवसान काल में एक करोड़ पूर्व रह जाती है ।६५॥
ओसहि-बल-वीरिय परक्कमा य, संघयण-पज्जवगुणा य । अणुसमयं हायंती, उवमोगसुहाणि य नराणं ।६६। [औषधिवल-बीर्यपराक्रमाश्च, संहनन पर्यव [पर्याय] गुणाश्च । मनुसमयं हीयन्ते, उपभोग-सुखानि च नराणाम् ।।]
औषधि (वनस्पति), बल, वीर्य, पराक्रम, संहनन, पर्याय गुण और मनुष्यों के उपभोग तथा सुख प्रति समय (काल का सबसे सूक्ष्मतम अविभाज्य भाग) निरन्तर हीन अर्थात् कम होते जाते हैं।६६। मूलफल-कन्द-निम्मल, नाणाविह इटु-गंध-रस-भोगा । बवगयरोगायंका, सुरूव सुर-दुन्दुमिणिया ।६७।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[मूलफलकन्दनिर्मल, नानाविध इष्ट- गंधरस - भोगाः । व्यपगत रोगातकाः सुरूप- सुरदुन्दुभिस्तनिताः ।]
अनेक प्रकार की अभीष्ट सुगन्ध और रसों से युक्त निर्मल मूल, फल एवं कन्दों का उपभोग करने वाले, रोग एवं आतंक से रहित, परम सुन्दर, देवदुन्दुभी के निर्घोष के समान ( कर्णप्रिय ) स्वर वाले और–६७
सच्छंद वणविया (हा) री, ते पुरिसा ताय होंति महिलाउ । निच्चा उ य पुष्पफला, ते विय रुक्खा गुण सहीणा | ६८ | ( स्वच्छंदवनविहारिणः, ते पुरुषास्ताश्च भवन्ति महिलास्तु | नित्यास्तु च पुष्पफलाः, तेऽपि च वृक्षाः गुण-सहीना: 1)
[ २१
यथेच्छ वनविहारी - वे पुरुष और महिलावर्ग होते हैं । अक्षय्य पुष्पफलशाली वे कल्पवृक्ष भी अपने गुणों से क्रमशः हीन होते जाते हैं । ६८ ।
नाणा मणिरयणमया, तेसिं सयणासणाई रुक्खेसुं ।
नरनारीगणो मुइओ सुहं वसह तत्थ स सुबइ | ६९|
1
( नाना मणिरत्नमयाः तेषां शयनासनानि वृक्षेषु ।
नरनारिगणः मुदितः, सुखं वसति तत्र स स्वपिति || )
उन लोगों के, कल्पवृक्षों में विविध मरिगयों एवं रत्नों से जटित शय्याएं एव आसन होते हैं, जिन पर वे सदा प्रमुदित रहने वाले नरनारी युगल सुखपूर्वक रहते एवं सोते बैठते हैं।६६
ओसप्पिणी इमीए, तइयाए समाए पच्छिमे भाए । पलिओ मट्ठभागे, सेसंमि उ कुलगरुप्पची | ७० | ( अवसर्पिण्यामस्यां तृतीयायाः समायाः पश्चिमे भागे । पल्योपमाष्टभागे, शेषे तु कुलकरोत्पत्तिः । । )
इस अवसर्पिणी काल के तृतीय आरक के अन्तिम भाग में एक पत्योपम का आठवां भाग अवशिष्ट रहने पर कुलकरों को उत्पत्ति होती है |७०1
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२२ ]
अद्ध मरहम ज्झिल -तिभागे गंगसिंधुमज्झमि । एत्थ बहुमज्झ देसे, उप्पन्ना कुलगरा सच | ७१ | (अर्ध भरत मध्यस्थ, त्रिभागे गंगा-सिन्धु-मध्ये | 'अत्र बहुमध्यदेशे, उत्पन्नाः कुलकराः सप्त । । )
भरतार्द्ध के मध्यस्थित विभाग के गंगा और सिन्धु के बीच के प्रदेश के ठीक मध्यस्थ भू-भाग में ( क्रमशः) सात कुलकर उत्पन्न हुए ७१।
[ तित्थोगाली पइन्नथ
पुव्वभवम नामप्यमाण संघयणमेवठाणं । विणिच्छउभागा, भवणोवाओ य नीती य ॥ ७२ ॥ ( पूर्व भव - जन्म नाम - प्रमाण, संहननमेवं संस्थानम् । विनिश्चितायुभागः, भवनोत्पादश्च नीतिश्च ||)
मैं (उनके) पूर्व भव; जन्म नाम प्रमाण, संहनन, संस्थान, निश्चित प्रायु-भाग, भवन निर्माण और नोतियों का
कथन
करूंगा।७२।
-
अरविदेहे दो वणिय-वयंसा माइ उज्जुए चैव । कालगया इह भरहे, हत्थी मणुओ य आयाय । ७३ । [अपरविदेहे द्वौ वणिक् वयस्यौ मायावी ऋजुकश्चैव । कालगता इह भरते, हस्ती मनुजश्च आयातः ।। ]
अपर विदेह क्षेत्र में दो वणिक मित्र थे । उनमें से एक वरिएक् मायावी और दूसरा सरल प्रकृति का था। मर कर वे दोनों यहां भरत क्षेत्र में उत्पन्न हुए। मायावी वणिक् का जीव हाथी के रूप में और ऋजु प्रकृति वणिक् का जीव मनुष्य के रूप में
।७३।
द सिणेहकरणं, गयमारूहणं च नामनिष्कत्ती । परिहाणिम्मिह कलहो, सामत्थण - विणवणं हत्थी |७४ | [दृष्ट्वा स्नेहकरणं, गजनारोहणं च नामनिष्पत्तिः । परिहानौ इह कलहः सामर्थन - विज्ञपनं हस्ती ।।]
'
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ २३
मनुष्य (विमलवाहन नामक प्रथम कुलकर) और हाथी ने एक दिन परस्पर एक दूसरे को देखा । पूर्वजन्म की मैत्री के कारण तत्काल उन दोनों का परस्पर स्नेह हो गया। हाथी उस पुरुष के पास आकर बैठा और वह पुरुष उस पर आरूढ़ हो एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमने लगा । सुन्दर श्वेत गजराज पर श्रारूढ़ उस पुरुष को देखकर यौगलिकों ने उसका नाम विमलवाहन रक्खा । काल प्रभाव से कल्पवृक्षों एवं उनके द्वारा प्राप्त होने वाली भोग-सामग्री के परिक्षीण होने पर यौगलिकों में कल्पवृक्षों के स्वामित्व के प्रश्न को लेकर कलह होने लगे । कलह के मूल कारण पर यौगलिकों ने परस्पर विचार-विमर्श किया और विमलवाहन को अपना मुखिया मानकर उसके समक्ष सामूहिक रूप से निवेदन किया कि वह उनके आपसी कलह को दूर करें । विमलवाहन ने उस श्वेत हस्ती पर आरूढ़ हो सर्वत्र घूम घूम कर यौगलिकों में कल्पवृक्षों का समुचित बंटवारा किया |७४ |
उत्थमभिचंदे ।
पढमित्थ विमलवाहण, चक्खु जस ततो अ पसेणइए, मरूदये चैव नाभी य । ७५ । [ प्रथमोऽत्र विमलवाहनः, चतुम- यशोमान् चतुर्थ अभिचंद्रः । ततश्च प्रसेनजितकः मरुदेवश्चैव नाभिश्व | ७५ |
उन सात कुलकरों के नाम इस प्रकार हैं :- विमलवाहन ( १ ); चक्षुष्मान (२), यशोमानं (३), अभिचन्द्र (४), प्रसेनजित् (५), मरुदेव (६) और नाभि (७) ।७५।
नवगुसाईं पढमो, अट्ठ य सच्छूढ सत्तमाई च । बच्चेव अटूटा, पंचसया पणवीसा य | ७६ दारं । ( नव धनुशतानि प्रथमः, अष्टौ च सप्तार्थ सप्तमानं च । षडूचैव अर्धपष्ठं, पंचशता-पंच विंशतिश्च । ७६द्वारं । )
प्रथम कुलकर के शरीर की ऊंचाई ६०० धनुष, द्वितीय की धनुष, तृतीय की ७५०, चतुर्थ की ७००, पंचम की ६००, छटे की ५५० और सातवें कुलकर के शरीर की लम्बाई ५२५ धनुष
८००
थी | ७६ |
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[ तित्योगाली पइन्नय
२४ ]
वज्जरिसह संघयणा, समचउरंसा य हुति संठाणे । व्रणं वि य वच्छामि, पत्तं यं जस्स जं आसी | ७७ | [ वज्रऋषभ संहननाः, समचतुरखाश्च भवन्ति संस्थाने । वर्णमपि च वक्ष्यामि, प्रत्येकं यस्य यदासीत् ।। ]
ये सभी कुलकर वज्रऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान के धारक थे । इनमें से प्रत्येक का जो जो वर्ण था, उसका भी मैं कथन करूंगा ॥७७॥
चक्खुम जसमं च पसेणइय एते पियंगुवण्णाभा । अभिचंदोससिगोरो; निम्मलकणगप्पभा सेसा । ७८ । [चनुमान यशोवांश्च प्रसेनजित् एते प्रियंगुवर्णाभाः । अभिचन्द्रः शशिगौरः, निर्मल - कनकप्रभाः शेषाः । । ]
इनमें से चक्षुष्मान, यशोमान और प्रसेनजित, ये तीन कुलकर जामुन के समान वर्ण वाले, अभिचन्द्र कुलकर चन्द्रमा के समान गौर वर्णवाले और शेष तीन - विमलवाहन, मरुदेव तथा नाभि कुलकर कुन्दन के समान वर्ण वाले थे । ७८ ।
चंदजस चंदकता; सुरूव पडिरूव चक्खुकंता य । सिरिकंता मरुदेवी; कुलगरपत्तीण नामाई । ७९ । [ चन्द्रयशा चन्द्रकान्ता; सुरूपा प्रतिरूपा चक्षुकान्ता च । श्रीकान्ता मरुदेवी, कुलकर - पत्नीनां नामानि ।। ]
कुलकरों की पत्नियों के नाम क्रमशः इस प्रकार हैं- चन्द्रयशा (१), चन्द्रकान्ता ( २ ) सुरूपा (३), प्रतिरूपा (४), चक्षुकान्ता (५), श्रीकान्ता ( ६ ) और मरुदेवी (७) |७|
संघयणं संठाणं, उच्च चैव कुलगरेहिं समं ।
वोण एगवण्णा, सव्वाउ चियंगुवण्णा उ । ८० ।
( संहननं संस्थानं, उच्चता चैव कुलकरैः समं ।
वर्णेन एकवर्णाः सर्वाः प्रियंगुवर्णास्तु | )
,
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ २५
इन कुलकर पत्नियों के संहनन संस्थान और शरीर की ऊंचाई उनके पति के समान ही थी । शरीर के वर्ण की दृष्टि से वे सभी केवल एक प्रियंगु (जामुन ) वर्ण की थीं |८०|
पलिओम दसभाओ, पढमस्साऊ तओ असंखिज्जा | ते आणुपुत्रहीणा, पुत्रा नाभिस्त संखेज्जा । ८१ । (पल्योपमदशभागः प्रथमस्य आयुः तत असंख्येयाः । ते आनुपूर्व्या हीना, पूर्वा नाभेः संख्येयाः )
प्रथम कुलकर विमलवाहन को आयु पल्योपम का दशवां भाग थी । तदनन्तर द्वितीय कुलकर से छठे कुलकर - इन पांच कुलकरों की आयु असंख्यात पूर्व की किन्तु पूर्ववर्ती से पश्चाद्वर्ती की उत्तरोत्तर अल्प थी । अन्तिम कुलकर नाभि की आयु संख्यात पूर्व की थी । ८१ ।
I
'पुव्वस्स उ परिमाणं, सयरिं खल हुंति कोडिलक्खाउ
छप्पन्नं च सहस्सा, बोधव्वा वास - कोडी | ८२ | ( पूर्वस्य तु परिमाणं, सप्ततिः खलु भवन्ति कोटिलक्षाः । पट्पंचाशच्च सहस्राः, बोद्धव्याः वर्ष कोटीनाम् ।)
पूर्व का परिमाण यह है कि ७० करोड़ लाख और ५६ हजार करोड़ वर्षों का एक पूर्व होता है । ८२ ।
जं चैव आउयं कुलगराणं, तं चैव होई तासिंपि । जं पढमगस्स आउ तावईयं होइ हथिस्स | ८३ |
१. होई पुव्वंगमेगं, चुलसीई वरिसलक्ख सखाए ।
तं तग्गुणं तु पुव्वं, सत्तरि छप्पन्न दसलक्खा ॥
1
भरियं च - पुव्वस्स उ परिमाणं, सर्यारि खलु होंति कोडि - लक्खाओ |
छप्पनं च सहस्सा, बोधव्वा वास - कोडी |
- कहावली - ( प्रप्रकाशित )
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२६ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय (यच्चैव आयुष कुलकराणां, तच्चैव भवति तासामपि । यत्प्रथमकस्यायुः, तावत्कं भवति हस्तिनः ।)
कुलकरों की जितनी आयु होती है, उतनी ही प्रायु कुलकर पत्नियों की भी होती है । प्रथम कुलकर की आयु के समान ही उनके हाथी की भी प्राय होती है ।८३। जं जस्स आयुयं खलु, तं दसभाए समं विभहण । . . मझिल निभाग, कुलगर-कालं वियाणाहिं ।८।। (यद्यस्य आयुष्यं खलु, तत् दशभागैस विभज्य । मध्यमकं त्रिभागं, कुलकर-कालं विजानीथ ।)
जिस कुलकर की जितनी आय है. उस आय को समान रूप से दश भागों में विभाजित किया जाय । उन दश भागों में से मध्य के तीन भागों को कुलकर का कुलकर काल समझना चाहिए।८४॥ पढमो य कुमारचे, भागो चरिमो य वुडढमामि । तप्पयणुपेज्जदोसा, सव्वे देवेसु उववण्णा ।८५। (प्रथमश्च कुमारत्वे, भागः चरमश्च वृद्धभावे । तत्प्रतनुप्रयदोषाः, सर्वे देवेषु उत्पन्नाः ।)
। प्रत्येक कुलकर का उसकी आयु के दश भागों में से कुलकरकाल के पहले का भाग कुमारावस्था में और अन्तिम भाग वृद्धावस्था में व्यतीत होता है ।८५॥ दो चेव सुवण्णेसु उदहिकुमारेसु होति दो चेव । दो दीवकुमारेसु एगो नागेसु उववण्णो । ८६ । (द्वौ चैव सुवर्णेषु, उदधिकुमारेषु भवतः द्वौ चैव । द्वौ दीपकुमारेषु, एकः नागेषु उपपन्नः ।)
उन सात कुलकरों में से दो कुलकर स्वर्णकुमारों में, दो उदधिकुमारों में, दो दीपकुमारों में उत्पन्न हुए तथा एक नागकुमारों में ।८६।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
आइल्ला छव्वित्थीओ, नागकुमारेसु हुति स्ववण्णाः । एगा सिद्धि पचा, मरुदेवी नाभिणं पत्ती । ८७ । ( आद्याः षडपि स्त्रियः, नागकुमारेषु भवन्ति उपपन्ना । एका सिद्धि प्राप्ता मरुदेवी नाभेः पत्नी ।)
सात कुलकर पत्नियों में से आदि की छः नागकुमारों में उत्पन्न हुई और अन्तिम एक नाभि कुलकर को पत्नी मरुदेवी सिद्धबुद्ध-मुक्त हुई ।८७|
हक्कारे मक्कारे, धिक्कारे चेत्र दंडनीईओ । बोच्छं तासि विसेमं जहक्कम आणुपुवीए । ८८ । ( हक्कारा: मक्काराः धिक्काराश्चैव दण्डनीत्यः । वक्ष्ये तासां विशेषं यथाक्रमं आनुपूर्व्या )
[ २७
उन कुलकरों की 'हक्कार' मकार' और 'धिक्कार' - ये तीन प्रकार की दण्डनीतियां थीं। मैं उनका विशेष रूप से अनुक्रमशः कथन
करूंगा ||
पढमंत्रीयांण पढमा, तइयचउत्थाण अहिणवा बिया ।
पंचम स्य, सत्तमस्स विसेसं तझ्या अभिणवाउ । ८९ । (प्रथमद्वितीययोः प्रथमा, तृतीयचतुर्थयोः अभिनवा द्वितीया । पंचमषष्ठयोश्च सप्तमस्य विशेषं तृतीया अभिनवा तु ||)
'
प्रथम और द्वितीय कुलकर ने अपने कुलकर-काल में पहली 'हक्कार' दण्डनीति का प्रयोग किया। तीसरे और चौथे कुलकरों ने ( प्रथम दण्डनीति के साथ साथ) मकार नामक दूसरी नवीन दण्डनीति का और तदनन्तर पांचवें, छट्टु और सातवें कुलकरों ने पहली दो दण्डनोतियों के साथ २ विशेषतः अभिनवा तीसरी दण्डनीति'धिक्कार' का प्रयोग किया ||
एवं चैव वतव्वा (बया), एरवाईसु नवसु खेत सु ।
इक्किक्कंमि य तया सचैव य कुलगरा कमसो | ९० |
,
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२८ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय (एवं चैव वक्तव्याः , एरवतादिषु नक्सु क्षेत्रेषु । एकैके च तदा, सप्तैव च कुलकराः क्रमशः ॥)
ऐरवत आदि क्षेत्रों में भी इसी प्रकार की वक्तव्यता समझनी चाहिए। उनमें से प्रत्येक क्षेत्र में उसी काल में क्रमशः सात-सात कुलकर उत्पन्न हुए । सव्वे विमाणप्पवरे, अणुत्तरे भुजिऊण से भोए। सव्वट्ठसिद्धिनामे, उदहिसमाणाई तेतीसं १९१। (सर्वे विमानप्रवरे, अनुत्तरान् भुक्त वा ते भोगान् । सर्वार्थसिद्धि समानानि, उदधि समानानि त्रयत्रिंशत् ।।)
पांच भरत तथा पांच ऐरवत- इन दशों, क्षेत्रों में इस अवसपिणी काल के प्रथम तीर्थङ्करों के च्यवन कल्याणक का विवरण प्रस्तुत करते हुए 'तिथ्थोगाली पइन्नयकार कहते हैं :
वे सब (दशों प्रथम तीर्थङ्करों के जीव) विमानों में सर्वोत्कृष्ट सर्वार्थसिद्ध नामक विमान में तेतीस सागरोपम तक सर्वोत्तम दिव्य भोगों का उपभोग कर ।६१॥
ओसप्पिणी इमीसे, तइयाए समाए पच्छिमे भाए । चइऊण विमाणाउ, उत्तरासाढाहि नक्खत्त ।९२।। (अवसर्पिण्यामस्या, तृतीयायाः समायाः पश्चिमे भागे । च्युत्वा विमानात, उत्तराषाढायां नक्षत्रे |)
इस अवपिणी काल के तृतीय आरक के अन्तिम भाग में, उत्तराषाढा नक्षत्र में उस (सर्वार्थसिद्ध) विमान से च्यवन कर ।१२। कुलगर वंसपसूओ, आसी इक्खागवंस-संभूओ । नाभीनाम कुलगरो, पवरो तेसिं नरगणाणं ।९३। (कुलकरवंशप्रसूतः आसीत् इक्ष्वाकुवंशसंभूतः । नाभिर्नामकुलकरः, प्रवरः तेषां नरगणानाम् ।।).
कुलकर वंश में जन्म ग्रहण किये हुए इक्ष्वाकुवंशावतंस. उस समय के मनुष्यों में सर्वाधिक श्रेष्ठ जो नाभि नामक कुलकर थे।६३।
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ २६
तस्सागुरूवसी सा, सव्वंगोवंगलक्षण-पसत्था । उत्तमरूव सरूवा, जाया मरुदेवि नामित्ति ।९४। (तस्यानुरूपवती सा, सर्वांङ् गोपाङ गलक्षणप्रशस्ता । उत्तमरूप-सुरूपा, जाया मरुदेविनामेति ।।)
उनकी, उनके समान परम रूपवती, सभी अंगोपांगों के समस्त सुलक्षणों से श्रेष्ठ, उत्तम रूप और स्वरूप सम्पन्ना मरुदेवी नामक पत्नी थी।६४। तीए उदरंमि तीसो, तिनाणसहिओमहायसो भयवं । गब्भत्ता उववन्नो, पढमीसो भरहवासस्स ।९५॥ (तस्या उदरेत्रयीशः त्रिज्ञानसहितः महायशा भगवान् । गर्भतया उपपन्नः, प्रथमेशः भरतवर्षस्य ।।)
उन मरुदेवी की कुक्षि में तीन ज्ञानधारी महायशस्वी त्रैलोक्यनाथ भगवान भारतवर्ष के प्रथम अधिपति आविर्भूत हुए । ६५॥ एवं नव तित्थयरा, चंदाणणमाइ नवसु खेत्ते सु । चइऊण विमाणधरा, उत्तरसाढाहिं नक्खत्ते ।९६। (एवं नव तीर्थ कराः, चन्द्रानन आदि नवसु क्षेत्रेषु । च्युत्वा विमानधराः, उत्तराषाढायां नक्षत्रे ।।)
इसी प्रकार ऐरवत आदि ६ क्षेत्रों में चन्द्रानन आदि . तीर्थङ्कर उत्तराषाढा नक्षत्र में विमानों से चव कर ।६६। कुलगरवंसपमूआ, आसी इक्खागवंस संभूया । नवकुलगर नाभिसमा, पवरा तेसि नरगणाणं ।९७) (कुलकरवंशप्रसूताः आसन् इक्ष्वाकुवंश-संभूताः । नव कुलकर-नाभिसमाः, प्रवराः तेषां नरगणानाम् ।।)
(उपर्युक्त ६ क्षेत्रों में उसी समय) कुलकर वंश में प्रसूत, इक्ष्वाकुवंशावतंस नाभि कुलकर के ही समान उस समय के मानवों में श्रोष्ठतम ६ कुलकर हुए ।१७।
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[ तित्थोगाली पइन्नय
३० [
उत्तमरूवसरुवा, तेसिं भज्जाउ कुलगराणं तु । तासिं उदरुपन्ना, नवसु वि वासेसु तित्थयरा | ९८ | (उत्तमरूपस्वरूपाः तेषां भार्याः कुलकराणां तु । . तासामुदरोत्पन्नाः, नवस्वपि वर्षेषु तीर्थ कराः । । )
उन कुलकरों की परम रूप लावण्य सम्पन्ना पत्नियां थीं। उन 8 कुलकर पत्नियों की कुक्षियों में ऐरवत आदि ही क्षेत्रों में तीर्थङ्कर आविर्भूत हुए |
ह
एवं दस भवणीसा, दससुवि वासेसु हुति समकालं । उत्तमरुवसुरूवा, तिनाणसहिआ महाभागा । ९९ । ( एवं दश भुवनीशाः, दशष्वपि वर्षेषु भवन्ति समकाले । उत्तमरूप सुरूपाः, त्रिज्ञानसहिताः महाभागाः | | )
इस प्रकार भरत ऐरवत आदि दशों क्षेत्रों में, एक ही समय में परमोत्तम रूपस्वरूप सम्पन्न, मति, श्रुति एवं अवधि इन तीन ज्ञान के धारक तथा महा भाग्यवान् दश त्रिभुवमेश्वर ( तीर्थङ्कर) होते
हैं
मरुदेवी पमुहाउ, विकसिय कमलाणणाउ रयणीओ | पिच्छंति सुहपसुत्ता, चोइस पवरे महासुमिये । १०० । ( मरुदेवी प्रमुखास्तु, विकसित कमलाननाः रजन्याम् । प्रक्षन्ति सुखप्रसुप्ताः चतुर्दशप्रवरान् महास्वप्नान् ॥ )
प्रफुल्लित कमल के समान मुखवाली मरुदेवी प्रमुख (दशों क्षेत्रों की दशों कुलकर पत्नियां रात्रि के समय सुखभरी निद्रा में सोई हुई चौदह सर्वोत्कृष्ट महास्वप्न देखती हैं । १०० संखेदुकुंदगोरं विउलक्खं सुतिक्ख- सिंगग्गं ।
नियनियवयण मभिगयं, वसभं पंच्छन्ति विलसंतं । १०१ । (शंखेन्दुकु दगौरं विपुलस्कन्धं सुतीक्ष्णभृंगाग्रम् ।
,
निज निजवदनमभिगतं वृषभं प्रक्षन्ति विलसन्तम् । । )
,
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तित्थोगालो पइन्नय]
पहले स्वप्न में वे शंख एवं चन्द्रमा के समान नितान्त गौरवर्ण के, उभरे हुए पेणल स्कंधों वाले, सुन्दर तथा तीखे सींगों वाले देदोप्यमान वृषभ को अपने अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखती हैं ।१०१॥
बीइयंमि भिंगकरड" सत्तंगपइट्ठियं धवल-दंतं । उत्थिय-करं गइंद, सुरिंद-नागप्पमं पुरओ । १०२ । (द्वितीये भृङ्गकरटं, सप्तांगप्रतिष्ठितं धवलदंतम् । उत्थित करं गजेन्द्र सुरेन्द्रनागप्रमं पुरतः ।)
दूसरे स्वप्न में (वे दशों जिन-माताएं) ऐरावत के समान सूड को ऊपर उठाए हुए, शुभ्र श्वेत दांतों एवं श्रेष्ठ सप्तांग वाले ऐसे सुन्दर गजराज को अपने सम्मुख देखती हैं, जिसके कपोलों के चारों ओर मदपान और मधुर गुजार करते हुए भ्रमरों के झुण्ड मंडरा रहे हैं ।१०२। विक्खिण्ण केसरसहं,' महुगुलियक्खं सुजायलांगूलं । हरिण-विवक्खं सक्खं, सुतिक्ख नहं तओसीहं १०३। (विकीर्ण केसरसखं, मधुगुलिताक्षं सुजात लांगलम् । हरिण-विपक्षं साक्षात् सुतीक्ष्णनखं ततः सिंहम् ।)
वे तीसरे स्वप्न में फलाई हुई केसर, मधु के समान पिंगलवर्ण की अखों, सुनिष्पन्न पूछ और तीखे नखों वाले मृगारि सिंह को अपने सम्मुख देखती हैं ।१०३। चउहि चउदंतेहिंय. नागवरिंदेहिं धवलदंतीहि । सिरि-अभिसेयं पेच्छंति, जिणवराणं तु जणणीओ ।१०४। (चतुर्भिश्चतुर्द तैश्च, नागवरेन्द्रर्धवलदन्तैः। श्री-अभिषेकं प्रक्षन्ति, जिनवराणां तु जनन्यः ।)
१ करड करट-किरति मदं-कृ-प्रटन् गज गजगण्डे । २ सह प्रव्यय-सा शब्दार्थ-प्राकृतत्वादनुस्वारम् । ३ सख-साक्षात् (अव्यय.) ।
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३२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय वे दशों तीर्थङ्करों की माताएं, गजराजों में श्रेष्ठ चार चार दांतों वाले श्वेत हस्तियों द्वारा लक्ष्मी का अभिषेक किया जा रहा है, इस प्रकार का चौथा स्वप्न देखती हैं । १०४। .. नाणारयण-विचित्त, वियसियकमलुप्पल-सुरभिंगंधिं । छप्पय गणोववेयं, दामं, पेच्छंति सुसिलिट्ठ । १०५। (नानारत्न विचित्र विकसित कमलोत्पल सुरभिगधिम् । .. षट्पद गणोपपेतं, दाम, प्रक्षन्ति सुश्लिष्टम् ।)
अनेक प्रकार के रत्नों के साथ गूथी गई, उसमें पिरोये गये अनेक प्रकार के कमलोत्पलादि में विकसित पुष्पों से मनमोहक सुगन्ध वाली और भ्रमरों के झुण्डों द्वारा सेवित अति कमनीय अपूर्व माला को वे जिन-जननियां पांचवें स्वप्न में देखती हैं । १०५। . उदयगिरिमत्थयत्थं, रस्सिसहस्सेहिं समणुगम्मतं । पेच्छति सुहपमुत्ता, कुमुदागरवोहगं चंद ।१०६। (उदयगिरिमस्तकस्थं, रश्मिसहस्त्रैसमनुगमन्तम् । प्रेक्षन्ति सुख प्रसुप्ता कुमुदाकर बोधकं चन्द्रम् ।)
तदनन्तर सुखभर निद्रा में सोई हुई वे दशों तीर्थङ्करों की माताएँ छठे स्वप्न में उदयाचल के उच्चतम शिखर पर स्थित, सहस्र किरणों के परिवार सहित बढ़ते हुए, तथा कुमुदवनों को प्रफुल्लित करने वाले चन्द्रमा को देखती हैं ।१०६। . एवं वियसियवयणा, रविमंडलमुज्जलं पगासंतं । पेच्छिंति अंबरगय, अब्भामत्थ ट्ठियं पुरओ ।१०७। (एवं विकसितवदनाः, रविमण्डलमुज्जवलं प्रकाशन्तम् । प्रेक्षन्ति अंबरगतं, अभ्रमस्तके स्थितं पुरतः ।)
इसी प्रकार प्रसन्नमुखी वे जिन-माताएं सातवें स्वप्न में आकाश के शिरोभाग पर स्थित उज्ज्वल सूर्यमण्डल को आकाश में अपने सम्मुख देखती हैं, जो कि समस्त संसार को प्रकाशित कर रहा है ।१०७। .
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[३३
दिव्वं रयण विचित्र पेच्छंति महांसुयं परमरम्मं । निवज्जवज्जसारं, विज्जुज्जल चंचल-पडागं ।१०८। (दिव्यं रत्नविचित्रं, प्रेक्षति महांशुकं परमरम्यम् । निर्वद्यवज्रसारं, विद्युदुज्ज्वल-चंचलपताकम् ।)
__ आठवें स्वप्न में वे विविध दिव्य रत्नों से जटित, परम रम्य, महांशुक (अनूपम वस्त्र विशेष) से निर्मित, उत्तमवज्र की सारभूत; बिजली की झलक के समान उज्ज्वल प्रकाशमान चंचल पताका जिसमें लगी हुई है, ऐसे- ।१०८। तुङ्ग गयण विलग्गं, धरणियल पइट्ठियं महाकायं । आगासमुवमिणेउं, ठियं महिंदज्झय पुरओ १०९। (तुङ्ग गगनविलग्न, धरणितलप्रतिष्ठितं महाकायम् । आकाशमुपमेतु , स्थित महीन्द्रध्वज पुरतः।।)
मानों आकाश को मापने के लिये उत्तुंग गगन के उपरितन छोर को स्पर्श करते हुए, पृथ्वीतल पर प्रतिष्ठित महान विशालकाय महेन्द्र ध्वज को अपने सम्मुख स्थित देखा ।१०६। हेमंत बाल दिणयर, समप्पभं सुरभिवारिपडिपुण्ण । दिव्य कंचण-कलसं, पउमु-पिहाणं तु पेच्छति ।११०। (हेमन्त बाल-दिनकरसमप्रभ सुरभिवारिपरिपूर्णम् । दिव्यं कंचनकलशं, पद्म-पिधानं तु प्रेक्षन्ति ।)
. हेमन्त ऋतु के उदीयमान सूर्य के समान नयनाभिराम प्रभावाले, सुगन्धित जल से परिपूर्ण, पद्म के पिधान से ढके हए दिव्य कंचन कलश को उन जिन-जननियों ने नौवें स्वप्न में देखा।११०। फलिह-सरिच्छच्छजल सउणगण निसेवियं मणभिराम । वियसिय पउम सरं तं, पेच्छंति उ हरिसिय-मणाउ ।१११। [स्फटिकसदृशाच्छजलं, शकुन गणनिसेवितं मनोऽभिरामम् । विकसित पद्मसरं तं; प्रक्षन्ति तु हर्षित मनास्तु ।
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३४ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
दसवें स्वप्न में हर्षितमना वे दशो तीर्थङ्करों की माताएं स्फटिक रत्न के समान स्वच्छ जल से परिपूर्ण, भांति-भांति के पक्षिसमूहों से सेवित और विकसित पद्मसरोवर को देखती हैं ।१११। उम्भिसहस्सपउरं, नाणाविहमच्छकच्छ भाइण्णं ।' गम्भीरगज्जियरावं, खीरसमुदं तु पेच्छंति ।११२। (उर्मि सहस्र प्रचुरं, नानाविध मत्स्य कच्छभाकीर्णम् । . . गम्भीरगर्जितरवं, क्षीरसमुद्र तु प्रेक्षन्ति ।)
तदनन्तर ग्यारहवें स्वप्न में वे प्रचुर सहस्रो लहरों से शोभायमान, अनेक प्रकार के मत्स्यो एवं कच्छपों से संकुल (भरे)
और गम्भीर गर्जन करते हुए क्षीर समुद्र को देखती हैं । ११२। वज्जमिरीइकवयं, विणिमुयंत समूसियमुदारं । पासायं पेच्छंती पडागमालाउलं रम्मं ।११३। (वज्र-मिरीचिकाचं, विनिमुचन्तं समुच्छितमुदारम् । प्रासादं प्रक्षन्ति, पताकामालाकुल रम्यम् ।)
बारहवें स्वप्न में वे जिनेश्वरों की माताए वज्र की किरणों के कवच को छोड़ते हुए, पताकारों की पंक्तियों से संकुल, गगनचुम्बी, विशाल सुरम्य प्रासाद को देखती हैं ।११३।
स्पष्टीकरण--प्रचलित मान्यता और सत्तरिसय ठाण प्रकरण के अनुसार जिन-तीर्थंकरों के जीव विमानों से च्यवन कर माता के गर्भ में आते हैं । उनकी माताएं बारहवें स्वप्न में विमान देखती हैं। जिन तीर्थकरों के जीव नरक से आते हैं उनकी माताए बारहवें स्वप्न में भवन देखती हैं । यथाः-नरय उट्ठाण इहं, भवणं सग्गच्चुयाण उ विमारणं।
किन्तु तित्थोगाली पइन्नयकार ने बारहवें स्वप्न में तीर्थकरों की माताओं द्वारा प्रासाद अथवा नाग भवन के दर्शन का उल्लेख करते हुए स्पष्ट लिखा है कि भगवान ऋषभदेव का जीव सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यवन कर माता के गर्भ में आया उस समय माता मरुदेवी
१ पासाय-प्रासाद-पुः । देवानां राज्ञां च भवने-[भगवती, श. ५, उ. ३]
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तित्थोगाली पइन्नय ।
[ ३५
ने बारहवें स्वप्न में प्रासाद देखा । प्रासाद का अर्थ देवभवन तो होता है पर विमान नहीं। तित्थोगाली पइन्नयकार ने बारहवें स्वप्न में नागभवन के देखने का भी उल्लेख किया है। भवनपति देवताओं के
आवास भवन ही कहलाते हैं न कि प्रासाद । ऐसी दशा में प्रस्तुत ग्रन्थ में उल्लिखित 'प्रासाद' कहीं विमान के अर्थ में तो प्रयुक्त नहीं हुआ है-यह विद्वानों के लिये विचार का विषय है। मंदरगुहगंभीरं, पमुइय पक्कीलियं मणभिरामं । नाग-भवणं महतं, पेच्छंति पीवर सिरीयं ।११४। (मंदरगुहा गभीरं, प्रमुदित प्रक्रीडितं मनोऽभिरामम् । नागभवनं महान्तं, प्रक्षन्ति पीवर श्रीकम् ।)
बारहवां दूसरा स्वप्न :-- (अथवा)-मंदराचल की गुफा के समान गहन गम्भीर, प्रमोद बढ़ाने वाला, क्रीडा योग्य, अत्यन्त मनोरम और अक्षय श्रीसम्पन्न महान् नाग भवन को देखती हैं ।११४। सिठिंधणपज्जलियं, बहुयावहं निययभूइसंयुत्तं । पेच्छंति रयणचयं, किरणावलि रंजिय दिसो [द] है ।११५॥ (श्रेष्ठेन्धन प्रज्ज्वलितं, बहुधावहं निजकभूति संयुक्तम् । प्रेक्षन्ति रत्नचयं' , किरणावलिरंजित दिशोदशम् ।)
. तीर्थङ्करों की मरुदेवी आदि दशों माताए १३ वें स्वप्न में घृत, कपूर, अगरु, धूप, चन्दन आदि श्रेष्ठ इधन से प्रज्वलित, अपने ज्वाला-माला, जगमगाहट, ज्योति आदि सभी वास्तविक गुणों से सम्पन्न अग्नि के समान अपनी किरणावलि से दशों दिशाओं को . प्रकाशित करती हुई रत्नराशि को देखती हैं ।११५॥
परिणय कुसुभ सरिसं, आहुइपउरं हुयासणजलियं । तणु पवणेरियजालं, निद्ध म पयक्खिणासत्वं ।११६। (परिणत कुसुभ सदृशं आहुति-प्रवरं हुताशनज्वलितम् । तनु-पवनेरितज्वालं, निर्धूम प्रदक्षिणासक्तम् ।) १ चयन चयः । पिण्डी भवने (अनुयोगद्वार, सटीक) २ अाफू के खिले पुष्प के समान ।
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[ तित्योगाली पइय
चौदहवें स्वप्न में मरुदेवी आदि जिन-माताए पके हुए ग्राफ (खस-तिजारा) के फूल के समान, श्रेष्ठ आहुतियों से प्रज्वलित, मन्द-मन्द पवन द्वारा प्रेरित ज्वालाओं वाली प्रदक्षिणासक्त निधूमाग्नि को देखती हैं ।११६। एयं चौदस सुमिणं, ताउ पेच्छंति वीरजणणीओ । मरुदेवी पमुहाओ, कहिंसु नियकुलगराणं तु ।११७। (एतान् चतुर्दश स्वप्नान् , तास्तु प्रेक्षन्ति वीरजनन्यः । मरुदेवी प्रमुखाः, कथयन्ति निजकुलकराणान्तु ।)
__ मरुदेवी आदि दशों. ही वीर महापुरुषों की माताएं इन उपर्युक्त चौदह स्वप्नों को देखती हैं और अपने अपने कुलकर को अपने स्वप्न सुनाती हैं ।११७। तो ते कुलगरनाहा, जायाओ भणंति सोहणं वयणं । होहिंति तुम्ह पुत्ता, कित्तीज्जुत्तामहासत्ता ।११८। . (ततः ते कुलकरनाथाः, जायान् भणन्ति शोमन वचनम् । भविष्यन्ति युष्माकं पुत्राः, कीर्तियुक्ताः महासत्त्वाः ।)
स्वप्नों को सुनने के पश्चात् वे दशों कूलकर पति अपनीअपनी पत्नियों को इस प्रकार के सुहावने शुभवचन कहते हैं--: तुम महान् यशस्वी और शक्तिशाली पुत्रों को जन्म दोगी।'११८। . ते विय अम्हाहितो, अहिया होहिंति नत्थि संदेहो । अहवावि कुलगराणा वि विसिट्ठतरयंतु जं ठाणं ।११९/ (ते खलु अस्माभ्योऽधिकाः भविष्यन्ति नास्ति सन्देहः । अथवापि कुलकरेभ्योऽपि विशिष्टतरकं तु यत् स्थानम् ।) ___"वे हम से भी बढ़कर होंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है । अथवा वे कुलकरों से भी किसी विशिष्ट विरुद के धारक होंगे, ऐसा इन स्वप्नों से प्रतीत होता है । ११६। ज (अ) त्यो य पहायंमि, गयंमिसूरे जुगंतर कमसो । मिहुणाण ताण पासं, सक्कीसाणागया सहसा ।१२०।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
( अथच प्रभाते, गते सूर्ये युगान्तरं क्रमशः । मिथुनानां तेषां पार्श्वे शक्र शानौ आगतो सहसा ]
तदनन्तर प्रभात होने और सूर्य के क्रमशः गगन में बढ़ने पर उन देशों कुलकर मिथुनों के समीप शकेन्द्र और ईशानेन्द्र (वैक्रिय शक्ति से अपने दश दश स्वरूप बनाकर ) उपस्थित हुए । १२० । तेहि विणण तो ते सुविण फलं पुच्छिया सुरवरिदा । बिते उपवईसि, कांजली सुखरो भणिया । १२१ । (तैः विनयेन ततः तौ, स्वप्न फलं पृष्टौ सुरवरेन्द्रौ । ब्रू वाते उपविश्य, कृताञ्जल्यो सुरवरौ भणितौ ।)
[ ३७
तदनन्तर उन कुलकर दम्पत्तियों ने विनयपूर्वक उन दोनों इन्द्रों से उन चौदह स्वप्नों का फल पूछा। प्रश्न सुनकर दोनों देवेन्द्र उन दम्पतियों को हाथ जोड़कर बैठे और कहने लगे । १२१ । जह एते साइसया. दिट्ठा कल्लाणदंसणा सुमिणा । होहिति तुम्ह पुत्ता, उत्तम विष्णाण मंजुता । १२२ । ( यथां एते सातिशया दृष्टा कल्याण-दर्शनाः स्वप्नाः । भविष्यन्ति युष्माकं पुत्रा, उत्तम विज्ञानसंयुक्ता ।)
1
"
'जिस प्रकार के ये अतिशय सम्पन्न और कल्याण सूचक स्वप्न देखे गये हैं. (इनका फल यह है कि ) आपके यहां उत्तम और विशिष्ट ज्ञान से सम्पन्न पुत्र जन्म ग्रहण करेंगे । १२२ ।”
होहित पुइपाला, दसमुबि खेत्तसु ते महासत्ता । दरिति सिप्पस बाबचरि चैव य कलाओ । १२३ । (भविष्यन्ति पृथ्वीपालाः दशष्यपि क्षेत्र ते महासत्त्वाः । दर्शयिष्यन्ति च शिल्पशतं द्वासप्ततीश्चैव च कला: )
,
वे महान् सत्त्वशाली महापुरुष दसों क्षेत्रों में पृथ्वी की पालना करने वाले होंगे । वे सौ प्रकार के शिल्पों और बहत्तर प्रकार की कलाओं की लोगों को शिक्षा देंगे । १२३ ।”
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३८ [
भोण वरेभए, रज्जं काऊण दाऊ दाणं तु । काऊण य सामण्णं, आहिंति अयरामरं ठाणं । १२४ । ( क्त्वा वरान् भोगान् राज्यं कृत्वा दत्वा दानं तु । कृत्वा च श्रामण्यं गमिष्यन्ति अजरामरं स्थानम् । )
,
;
[ तित्थोगाली पइन्नय
"वे उत्तमोत्तम भोगोपभोगों का उपभोग कर सुदीर्घ काल तक राज्य करने के पश्चात् वर्ष भर महादान देकर श्रमण धर्म की परिपालना एवं स्थापना करेंगे और अन्त में अजरामर स्थान - मोक्ष में जावेंगे । १२४ ।"
एवं दोवि सुरिन्दा, सुमिण - फलं साहिऊण मिहुणाणं । अच्छह मुहंतिवृत्त, आमन्तेउ ? गया सग्गं । १२५ । ( एवं द्वावपि सुरेन्द्रौ स्वप्नफलं साधयित्वा मिथुनेभ्य | आस्तां सुखेन इति उक्त्वा, आमन्त्रयित्वा गतो स्वर्गम् ।)
'
--
इस प्रकार दोनों सुरेन्द्र उन दशों कुलकर मिथुनों को चौदह स्वप्नों का फल बता, 'सुखपूर्वक रहिये' - - यह निवेदन करने के. पश्चात् उनकी अनुज्ञा प्राप्त कर अपने-अपने स्वर्गलोक की प्रोर लौट गये । १२५ ।
अह हरिसिया कुलगरा, आदेशं तं सुत, सक्काणं । जणणीओ वि पमोयं, अउलं गच्छति तं वेलं । १२६ । (अथ हर्षिता कुलकराः, आदेशं तत् श्रुत्वा शक्रयोः । जनन्योऽपि प्रमोदमतुलं गच्छन्ति तस्यां वेलायाम् (तां वेलाम्) ।)
दोनों इन्द्रों द्वारा बताई गई ज्ञातव्य बातों अथवा निर्देश को सुनकर कुलकर बड़े हर्षित हुए । जिनेश्वरों की जननियां भी उस बेला में परम प्रमुदित हुई । १२६।
१ श्रमंतरण - श्रामन्त्रण न० । प्रभिनन्दने, सम्बोधने, कामचारानुज्ञारूपे ।
२ (क) श्रादेशो नाम ज्ञातव्य वस्तुप्रकार : ( विशेषावश्यक भाष्य )
(ख) प्रादिश्यत इत्यादेश: निर्देशे (निशीथ चू., उ. १)
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[ ३६
तित्थोगाली पइन्नय ]
तपिभिह मागंतु, माणुसरूनं समासिया तह य । जिण जणणीओ सेवंति, देवया उ च जयेणं । १२७ । (तत्प्रभृति आगत्य मानुषरूपं समाश्रिताः तथा च । जिन - जननीन् सेवन्ति, देवतास्तु च यत्नेन : )
उसी समय से (देवेन्द्रों के लौटते ही ) देव देवियां मनुष्य रूप धारण कर बड़े यत्न के साथ तीर्थङ्करों की माताओं की सेवा करने लगीं । १२७ ।
सक्का देसेण तया नाणाविहपहरणा इहिं जिणवरिंदे |
1
रक्खंति हट्ठतुट्ठा, दससुविखे सु देवीओ | १२८ | ( शक्रादेशेन तदा, नानाविधप्रहरणादिभिः जिनवरेन्द्रान् । रक्षन्ति हृष्ट तुष्टाः, दशष्वपि क्षेत्रेषु देव्यः । )
शक की आज्ञानुसार दशों ही क्षेत्रों में देवियां हृष्ट तुष्ट हो दशों गर्भस्थ तीर्थङ्करों की प्रहारादि प्रवृत्तियों एवं सब प्रकार के अनिष्टों से रक्षा करती हैं । १२८ । संपुण्ण दोहलाओ, विचित्त सयणासणीउ सच्चाउ | अप्प हियं आहार, सेवंति मणा कूलं तु । १२९ । (सम्पूर्ण दोहदाः, विचित्र शयनासन्यः सर्वास्तु | अल्पं हितमहारं, सेवन्ति मनोऽनुकूलं तु । )
तीर्थङ्करों की उन दशों माताओं के उत्तमोत्तम अद्भुत शय्याआसनादि थे । उनके समस्त दोहदों की तत्काल पूर्ति हो गई । वे सब अपने मन के अनुकूल (यथेच्छ ) अल्प और हितकारी प्रशन पानादि ग्रहण करती थीं । १२६
ववगय सोगभयाउ, वहमाणीउ सुहेहिं ते गभे । पत्तो वि पसवमासे, अवत गूढगभाओ | १३० । (व्यपगतशोकभयाः वहमाना सुखैस्तान् गर्भान् । प्राप्तेऽपि प्रसवमासे, अव्यक्तगूढगर्भास्तु | )
३ देवता- देवत्व न । देवभ। वे स्थानांग, ठा., उ ४ । देवया इन्द्रादि देवेषु । स्था.
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४० ]
तित्थोगाली पइन्नय
सब प्रकार के शोक तथा भय से रहित वे अपने अपने गर्भस्थ तीर्थङ्कर को सुखपूर्वक वहन कर रही थीं। प्रसव मास के समुपस्थित हो जाने पर भी वे अव्यक्त गूढगर्भा ही बनी रहीं। अर्थात् साधारण गर्भवतियों की तरह उनके उदर प्रसवकाल तक भी बढ़े हुए -पोवरप्रतीत नहीं होते थे ।१३०। जह वड्दति सुगब्भा, सोहा तह तासि पीवग होइ । अहियं च जणे मिहुणाणं, तेहि सह संगणं कुणइ ।१३१।। यथा वर्द्धन्ते सुगर्भाः, शोभा तथा तासां पीवरा भवति । अधिकं च जनाः मिथुनानां, ताभ्यो सह संगतिं कुर्वन्ति )
ज्यों ज्यों उनके कल्याणकारी गर्भ बढ़ने लगे त्यों त्यों उनकी शोभा (ओज-तेज प्रशंसा) भी उत्तरोत्तर अधिकाधिक बढने लगो
और पाबाल-वृद्ध यौगलिक जन अधिकाधिक उनके संसर्ग में रहने लगे ।१३१॥ अह नवमंमि अईए, मासे समुबट्ठिए उ दसममि । चित्त बहुल हमीए, बोलीणे पढम रत्चश्मि ।१३२। (अथ नवमे अतीते मासे समुपस्थिते तु दशके । चैत्र बहुलाष्टम्यां, विलीने प्रथम-रात्रौ ।)
इस प्रकार नौवें मास के व्यतीत हो जाने और दशवें मास के समुपस्थित होने पर चैत्र कृष्णा अष्टमी की प्रथम अर्द्ध रात्रि के बीत जाने के पश्चात् ।१३२।। उत्तरसाढाविसए, अहसम्पत्ते निसागरे कमसो। पसवंति सुहेण य, सुए लक्खण-जुत्ते महासत्त ।१३३ (उत्तराषाढाविषये, अथ सम्प्राप्ते निशाकरे क्रमशः । प्रसवन्ति सुखेन च, सुतान् लक्षणयुक्तान् महासत्त्वान् ।)
जब चन्द्रमा क्रमशः उत्तराषाढा नक्षत्र में पाया उस समय मरुदेवो आदि दशों क्षेत्रों के कुलकरों को पत्नियां सभी सुलक्षणों से युक्त महासत्त्वशाली प्रतापी पुत्रों को सुखपूर्वक जन्म देती हैं ।१३३।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
नाणारयण विचित्रा, वसुधारा निउडिया पगासंती । गम्भीर महरसो, तो दुदुहिताडिओ गयो । १३४ | ( नाना रत्न विचित्रा: वसुधारा निष्पतिता प्रकाशन्ती । गम्भीर मधुर शब्दः, ततो दुदुभिनाडितो गगने ।)
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[ ४१
अनेक प्रकार के रत्नों से प्रकाशमान् विचित्र वसुधारा को वृष्टि हुई और देवताओं द्वारा बजाई गई देव दुदुभियों का मधुर एवं गम्भीर घोष गगन मण्डल में गूंजने लगा । १३४।
1
देवोववयण- पहाए, रयणी आसी य सा दिवस भूया पमय गण गीय- वाइय, कहक्कज्जु (हु) तुट्टिसदाला | १३५| (देवोपपतन - प्रभयाः, रजनी आसीत् च सा दिवसभूता । प्रमदागण गीत वादित्र, कहक्कह तुष्टि शब्दाला 1)
देव देवियों के उपपात अर्थात् आगमन के कारण उनके प्रोज, तेज, आभूषणों और विमानों को प्रभा से वह चैत्र कृष्णा अष्टमी की रात्रि दिन के समान प्रकाशमान बन गई। कोकिलकण्ठिनी सुन्दरियों
समूहों द्वारा गाये गये गीतों की सुमधुर स्वरलहरियों एवं उनके द्वारा बजाए गए वाद्य यन्त्रों की तालपूर्ण सुमधुर ध्वनि तथा प्रमुदितयौगलिकों के कहकहों से वह रात्रि शब्दाला अर्थात् वाचाल प्रतीत होने लगी । १३५ ॥
उडूढमहतिरियलोए, वत्थव्वाओ दिसा - कुमारीओ | उहिणाणेण जिणे, जाए नाऊण तंमि खणे । १३६ । (ऊर्ध्वाधः तिर्यग लोके, वास्तव्याः दिक्कुमार्यः । अवधि ज्ञानेन जिनान् जातान् ज्ञात्वा तस्मिन् क्षणे ।)
ऊर्ध्वलोक, अधोलोक और तिर्यक् लोक में निवास करने वाली दिक्कुमारियों ने अवधिज्ञान से तीर्थङ्करों का हुआ जानकर तत्क्षण
।१३६।
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४२ ]
[ तित्योगाली पइन्नय जिणभत्तिहरिसियाओ, जीयंतिय जोयणप्पमाणेहिं । सव्वायर२ परि गप्पिय, जाण विमाणेहिं दिव्वेहिं ।१३७) (जिनभक्तिहर्षिताः जीतमिति च योजन-प्रमाणैः । सर्वादरपरिकल्पित, यानविमान-दिव्यः ।)
वे जिनेन्द्र प्रभु के प्रति भक्ति-विभोर हो-"यह हमारा परम्परागत कर्त्तव्य-कल्प अथवा प्राचार है"- यह कह कर सर्वथा समुचित रूपेण सुव्यवस्थित एव सुसज्जित एक योजन विस्तार वाले दिव्य विमानों द्वारा ।१३७। अह उति तहिं तुरियं, हरिसवसुक्करिसपुलइयंगीओ । . अभिवंदिऊण पयया, थुणंति महुरस्सरा इणमो ।१३८। (अथ उपेन्ति तत्र त्वरितं, हर्षवशोत्कर्षपुलकितांग्यः । अभिवंदित्वा प्रयताः, स्तुवन्ति मधुरस्वरा एतत् ।)
शीघ्र ही जिन-जननियों के पास पहुँचती हैं और हर्षातिरेक वशात् उत्कृष्ट रूपेण पुलकित गात्रा वे सब जिन-माताओं को वन्दन कर यत्नपूर्वक मधुर स्वर से इस भांति उनकी स्तुति करती हैं। ।१३८। । तुम्हं नमो नवर्धकय, सरिसविवुव्संत कोमलच्छीणं । जेहिं इमे सुयरयणे, वृढे कुच्छीहिं जिणचन्दे ।१३९। (युष्माभ्यः नमः नवधा कृत्य, सर्पपेवोप्शांत कोमलाक्षीभ्यः । याभि इमे सुतरत्ना व्यूढाः कुक्षीभ्यः जिनचन्द्राः ।)
___"सरसों के फूल के समान सौम्य, शान्त और सुकोमल नेत्रों वाली ( विश्ववंदनीय मातेश्वरियो ! ) आपको नवधाभक्तिपूर्वक नमस्कार है । (धन्य हैं आप। जिन्होंने कि इन जिनचन्द्रों को पुत्र रत्न के रूप में अपनी कुक्षियों में धारण एवं वहन किया है ।१३६।" सुतित्थसमाणाहिं, वियडं तिभुवणमलंकियं पयर्ड । पढमिल्लजगगुरुणो, जणिया तित्थंकरा जाहिं ।१४०। १. जीतमेतत् कल्प एष इति कृत्वा । (रायपसेणिय) २. सव्वादर-सर्वादर-सर्वोचित कृत्य करणे (विपाक, श्र. १, प्र. ६)
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ ४३
(सुतीर्थसमानाभिः, विकटं त्रिभुवनमलंकृतं प्रकटम् । प्रथमिल्लजगगुरवः, जनिताः तीर्थंकराः याभिः ।)
"संसार के सर्वोत्कृष्ट तीर्थ के समान (जिन) आपने प्रथम जगद्गुरुयों-तीर्थङ्करों को जन्म दिया है, वस्तुतः आपने विराट-..अति विशाल रैलोक्य को स्पष्टतः प्रकट रूप में अलंकृत किया है । १४०।" जिणजणणीउ थोउं, भणंति ताउ सुचारुवयणाउ । अम्हे इहागयाउ, भत्तीए दिसाकुमारीओ ।१४१। (जिनजननीन् स्तुत्वा, भणंति ताः सुचारुवचनानि । वयं इह आगताः, भक्त्या दिक्कुमार्यः ।)
जिनेश्वरों को माताओं की स्तुति करने के पश्चात् वे सुमधुर वचनों द्वारा निवेदन करती हैं- मातेश्वरियो ! ) 'हम दिशाकुमारियाँ हैं, जो यहां भक्तिपूर्वक आई हैं । १४१। जिणवंदाण भगवओ, बोच्छिण्णपुणब्भवाण विणएण | काहामो जम्ममहं, तुम्हेंहिं न भाइयव्वंति ।१४२। (जिनचन्द्राणां भगवता, व्युच्छिन्नपुनर्भवानाम् विनयेन । करिष्यामः जन्ममहं, युष्माभिर्न भेतव्यमिति ।)
"धर्म तीर्थ को इन क्षेत्रों में सुदीर्घकालीन व्युच्छित्ति के पश्चात् यहां पुनः उत्पन्न हुए इन धर्म तीर्थ संस्थापक जिनचन्द्र भगवन्तों का हम जन्म-महोत्सव करेंगी। अतः आपको अपने मन में किसी प्रकार का भय अथवा आशंका नहीं लानी चाहिए । १४२। सोमणसगंधमायण, विजुभमालवंतवासी उ । अट्ठदिस दिव्य वाउं, वच्छवच्छ व्याओ अहोलोए ।१४३। (सौमनस गंधमादन, विद्य त्प्रभमाल्यवन्त वासीन्यः । अष्टदिश दिव्य वायु वत्सं वत्सं वास्तव्या अधोलोके ।)
सौमनस, गन्धमादन, विद्य त्प्रभ और माल्यवन्त में निवास करने वाली पाठ दिशाकुमारिका देवियां अधोलोक की निवासिनियां मानी जाती हैं । १४३॥
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४४ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
भोगंकराभोगवती. सुभोगा तह भोगमालिणि सुपत्था । तत्तो चेव सुमिचा, अणिंदिया पुप्फमाला य ।१४४। (भोगकरा भोगवती, सुभोगा तथा भोगमालिती सुपथ्या । ततश्चैव सुमित्रा, अनिन्दिता पुष्पमाला च ।)
___ भोगंकरा, भोगवती, सुभोगा, भोगमालिनी, सुवच्छा, सुमित्रा, अनिन्दिता और पुष्पमाला ।१४४। एया उ पवणेणं, सुभेण ते जम्मभूमिवणखंडे । । आलोयणं समंता, साहेति पहड़यमणाए ।१४५। (इमास्तु पवनेन, शुभेन ताः जन्मभूमि वन खण्डे । आलोडनं समंतात् , शासयन्ति प्रहर्षितमनाः ।)
__ ये (अधोलोक निवासिनी) दिशाकुमारियां शुभ-सुखद पवन विकूवित कर तीर्थंकरों के जन्मभवन और उसके चारों ओर एक योजन भूमि को बड़े हर्ष के साथ पूरी तरह परिमाजित कर स्वच्छ और सुन्दर बनाती हैं ।१४५॥ अमणुण्ण दुरभिगंधि, तण सक्क पर पत्च विरहियं काउं। .. महुरं गायंती उ, पासे चिट्ठति जणणीणं ।१४६। (अमनोज्ञ दुरभिगंध, तृण सिक्व परपत्र विरहितं कृत्वा । मधुरं गायन्त्यस्तु. पार्श्व तिष्ठन्ति जननीनाम् ।)
वे इस प्रमार्जन क्रिया द्वारा उस भूमि को अमनोज्ञ पदार्थो, दुर्गन्ध, तृण, पत्रादि से रहित बनाकर मधुर संगात गाता हुई तीर्थ - करों की माताओं के पास उपस्थित रहती हैं । १४६। मेहंकरा मेहबई. सुमेह तह मेहमालिणि विचित्ता । तचो य तोयधारा, वलाहका वारिसेणा य ।१४७। (मेघकरा मेघवती, सुमेघ तथा मेघमालिनी विचित्रा । ततश्च तोयधारा, बलाहका वारिषेणा च ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ।
[ ४५ मेघंकरा. मेघवती, सुमेघा, मेघमालिनी, विचित्रा, तोयधरा, बलाहका और वारिषेणा ।१४७।
(जंबू द्वीप प्रज्ञप्ति में पांचवी और छठो देवियों का नाम सुवच्छा और वच्छमित्रा उल्लिखित हैं।) नंदणवणकडेसु, एयाओ उडढलोग वत्थव्वा । तुरियं वि उबिउणं, सगज्जिय सविज्जुले मेहे ।१४८। (नंदनवनकटेभ्यो, एताः उर्ध्वलोक वास्तव्याः । त्वरितं विउज्झित्वा, सगर्जितसविधु तान् मेघान् ।) ।
ऊध्वंलोक में नन्दनवन के कूटों पर निवास करने वाली ये देवियां बड़ी स्फूर्ति के साथ सुमधुर गर्जन और बिजली की चमक सहित बादलों की विकुर्वणा कर ।१४८। थोवाक्खिल्ल विरहियं, सुरहिजलबिंदु बिदवियरेणु । थाणयण' निव्वुइकरं करेंति वसुधातले तत्थ ।१४९। (स्तोकाखिल विरहितं, सुरभिजलबिन्दु विद्रावितरेणु । उत्थानमनं निर्वृतिकरं, कुर्वन्ति वसुधातले तत्र ।)
न्यूनाधिक्य रहित सुगन्धित जलबिन्दुओं द्वारा धूलि को जमा कर वहां के पृथ्वीतल को हल्का गीला और आनन्दप्रद बना देती हैं । १४६। पुणरवि जलहर कलियं, सव्वोउ य संभवं सुरभिगंधिं । वासंति कुसुमवासं, सुवंगगंगेहिं वा मीसं १५०। (पुनरपि जलधरकलित, सर्वतश्च संभवं सुरभिगंधं । वर्षयन्ति कुसुमवृष्टिं, लगबंगामिश्रम् ।)
तदनन्तरे वे विविध पुष्पों के बादलों को विकुर्वणा कर उस क्षेत्र पर लवंग-बंगादि की गंध से मिश्रित अत्यन्त मनोहर-मधुर पुष्पों की सर्वत्र समान रूप से वर्षा करती हैं । १५०।
१ थाणय-देशी । मालवाळा अर्थात् छिड़काव किया हुप्रा ।
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तित्थोगाली पइन्नय
तो तं दसद्धवण्णं, पिंडगर्ग छमायलं विमले। सोहइ नवसरयमिवसुनिम्मलं जोइ संगमणे ।१५१। (ततस्तद्दशार्द्ध वर्ण, पिण्डगतं क्ष्मातले विमले। शोभते नवसरमिव सुनिर्मल ज्योतिसंगमे ।)
एक दूसरे से संलग्न पांच वर्ण के फूलों का सर्वत्र छाया हुआ वह एकोभूत पुष्प समूह सूर्य को किरणों के संयोग से चकाचौंध फैलाते हुए नवसर हार के समान उस विमल धरातल पर सुशोभित होने लगा ।१५१ तह कालागरु कुंदुरुक्क धूयमप्पमत्त तद्दिसिकं । काउ सुरकण्णाउ चिट्ठति पगासमाणीउ ।१५२। (तथा कालागरुः कुंदरुक्क,-धूपमप्रमत्ताः तद्दिशिकम् । कृत्वा सुरकन्यकान्तु, तिष्ठन्ति प्रकाशमानाः ।)
वे दिशाकुमारियां कालागरु, कुन्दुरुक्क आदि सुगन्धित द्रव्यों . से निष्पन्न धूप को जलाकर जिनजन्म-भवन की ओर सुगन्धित धूम को प्रवाहित करती हुई तथा अपने शरीर की प्रभा से दशों दिशाओं को प्रकाशमान करती हुई अप्रमत्त हो उपस्थित रहती हैं ।१५२। गंदुत्तरा य णंदा, आणंदा णंदिवद्धणा चेव । विजयाय वेजयन्ती, जयन्ती अवराइआट्टमिया ।१५३। (नन्दोत्तरा च नन्दा, आनन्दा नन्दिवर्धना चै । विजया च वैजयन्ती, जयन्ती अपराजिता अष्टमिकां ।)
नन्दोत्तरा, मन्दा, आनन्दा, नन्दिवर्द्धना, विजया, वैजयन्तो, जयन्ती और आठवीं अपराजिता-१५३। एयाउ रूयग नगे, पुव्वै कडे वसंती अमरीओ। आयंसंग हत्थाओ. जणणीण डांति पुव्वेण ।१५४। (एतास्तु रूचकनगे, पूर्वे कटे वसन्त्यः अमर्यः । आदर्शक हस्ताः, जननीनां तिष्ठन्ति पूर्वेण ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ४७
ये रुचकं पर्वत के पूर्व-कूट पर निवास करने वाली दिक्कुमारियां तीर्थङ्करों की माताओं के पूर्व की ओर हाथों में दर्पण लिये खड़ी रहती हैं । १५४।
रुयगे दाहिणकडे, अट्ठसमाहार सुप्पइण्णा य । तत्तो य सुप्पपुट्ठा, जसोधरा चैव लच्छिमई । १५५ ।
( रूचके दक्षिण कूटे, अष्टसमाहार सुप्रदत्ता च ।
ततश्च सुप्रपुष्टा, यशोधरा चैव लक्ष्मीमती ।)
रुचक, मध्यप्रदेशस्थ पर्वत के दक्षिण कूट पर निवास करने वाली आठ दिशाकुमारियां समाहारा, सुप्रदत्ता, सुप्रबुद्धा, यशोधरा, लक्ष्मीवती । १५५॥
* १५४ र १५५ संख्या वाली उपरि लिखित दो गाथानों के प्रतिरिक्त ताड़पत्रीय प्रति में गाथा संख्या सूचक इन्हीं अंकों के साथ निम्नलिखित दो गाथाएं भी विद्यमान हैं :
भोगवती चित्रगुप्ता, वसुंधरा चैव गहिय भिंगारा | देवीण दाहिणं, चिट्ठति पगायमाणीओ | १५४ | ( भोगवती चित्रगुप्ता, वसुंधरा चैव गृहीत भृंगाराः । देवीनां दक्षिणेन तिष्ठन्ति प्रगीयमानाः । ) देवीउ देवजाइ, इलादेवी सुराय पुहवी एगनासा य । पउमावई णवमियाभद्दासीया य अडमिया । १५५ | ( देव्यः देवजातिः सुरा च पृथ्वी एकनाशा च । पद्मावती च नवमी, भद्रा, सीता च अष्टमिका ।)
भोगवती ( शेषवती) चित्रगुप्ता और वसुन्धरा अपने अपने हाथों में भारियां लिये जिनेन्द्र जननियों के दक्षिण की ओर गीत गाती हुई उपस्थित रहती हैं । १५४ |
देवजाति (इलादेवी), सरादेवी, पृथिवी, एकमाशा, पद्मावती, नवमिका, भद्रा और आठवीं सोता । १५५ ।
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४८ ]
रूयगावर कूड निवासिणीओ पच्चत्थिमेण जणणीणं । गायन्ती चि ंति, तालिबेटे गहेऊणं । १५६ । ( रुचका पर कूट - निवासिन्यः, पश्चिमेन जननीनाम् । गायन्त्यः तिष्ठन्ति, तालवृन्तान् गृहित्वा ।)
[ तित्थोगाली पइन्नय
ये रुचक पर्वत के अपर कूट पर निवास करने वाली दिक्कुमारिकाएं जिनेन्द्रों की माताओं के पश्चिम पार्श्व की ओर गाती हुई तथा व्यंजन हाथ में लिये उपस्थित रहती हैं । १५६ । ततो अलंबुसा, मिस्सकेसी तह पुंडरिगिणी चेव । वारुणीहासा सव्वग, सिरी हिरी चैत्र उत्तरओ । १५७/ ( ततोऽलंबुषा, विश्वकीर्ति तथा पुंडरीकिणी चैव । वारुणीहासा, सर्वगा, श्रीश्चैव ही उत्तरतः )
1
रुचक पर्वत की उत्तर दिशा में रहने वाली दिशा कुमारियांअलम्बुषा, मिश्रकेशी, पुण्डरी किरणी वारुणी, हासा, सर्वगा (सर्व प्रभा), श्री और ह्री । १५७ |
चामर हत्थगयाओ, चउरामहुरभणियाओ । गायंती महुरं, चिट्ठति दससु वासेसु । १५८ । ( चामर हस्तगताः, चतुराः मधुरभाषिण्यः । गायन्त्यस्तु मधुरं, तिष्ठन्ति दशसु वर्षेषु ।)
बड़ी ही चतुर और प्रिय भाषिणियां होती हैं. वे दशों क्षेत्रों की जिन माताओं के चारों ओर चंवर दुलातीं और मधुर गीत गाती हुई खड़ी रहती हैं । १५८।
रुगे विदिसाकडेसु, चचारि दिसिकुमारीओ ।
चित्ता य चित्तकणगा, सतर, सोयामणि सनामा । १५९ ।
(रुचके विदिशाकटेषु चत्वारि दिशि कुमारिकाः । चित्रा च चित्रकनकां, सतेरा सौदामिनीस्वनामा ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ४६
रुचक पर्वत के विदिशा कूटों पर निवास करने वाली चित्रा, चित्रकनका, शतेरा और सौदामिनी ये चार दिक्कुमारियां । १५६ । चउसु दिसामु ठियाउ, जिणवराण माणीणं ।
महुरं गायंतीओ, विज्जुज्जोय करेंति हू । १६० । (चतुस्तु दिशा स्थिताः, जिनवराणां मातृणाम् । मधुरं गायन्त्यः, विग्रदुद्योतं कुर्वन्ति खलु ।)
1
जिनेन्द्र भगवन्तों की माताओं के चारों ओर चारों दिशाओं में खड़ी हो मधुर गान के साथ-साथ विद्युत का प्रकाश करती हैं । १६० ।
रुयगस्स मज्झओ जे, दिसासु चचारि दिसिकुमारीओ | रुयगा रुयगजसावि य, सुरूप रुयगावर सनामा १६१ । ( रुचकस्य मध्यतः याः दिशाषु चत्वारि दिक्कुमारिकाः । रुचका रुचकयशापि च, सुरूप रुचकावती सनामा 1)
रुचक पर्वत के मध्य भाग की चारों दिशाओं में रहने वाली रुचका, रुचकयशा, सुरूपा और रुचकावती । १६१। एया उ जणणीणं चउद्दिसिं चउरमहुर भणिया उ । दीaिय हत्थगया उ उब्बिति पगायमाणीओ | १६२ | ( एतास्तु जननीनां चतुर्दिक्सु चतुर - मधुरभणिताः । दीपिका हस्तगताः, उपतिष्ठन्ति प्रगायमानाः । )
ये चारों चतुर और मधुरभाषिणी दिक्कुमारियाँ जिनेन्द्रों को माताओं के चारों ओर चारों दिशाओं में गीत गाती हुई अपने हाथों में प्रकाश पुंज लिये खड़ी रहती हैं । १६२ |
रुगस्स मज्झ देसे, वसंति विदिसासु दिव्व देवीओ । विजया य वेजयन्ती, जयन्ति अपराजिया चेव । १६३ | ( रुचकस्य मध्यदेशे, वसंत विदिशासु दिव्य-देव्यः । विजया च वैजयन्ती, जयन्ती अपराजिता चैव 1)
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५० ]
[ तित्योगाली पइन्नय
रुचक पर्वत के मध्य भाग में विदिशाओं में रहने वाली - विजया, वैजयन्ती, जयन्ती और अपराजिता -- ये चार दिव्य देवियां । १६३।
नालं छेतूण तया, मुणाल सिरियं जिणिंद चंदाणं ।
,
रयणसमु काउ' पससत्थ भूमीस निहति । १६४ | (नालं चित्वा तदा, मृणालसदृशं जिनेन्द्र चन्द्राणाम् । रत्न समुद्गे कृत्वा, प्रशस्त भूमीषु निःखनन्ति ।)
जिनेन्द्र बालचन्द्रों के कमलनाल के समान कोमल नाल को काट कर, उन्हें रत्नपात्रों में रख प्रशस्त एवं पवित्र भूमि के गर्भ में विवर खोद कर गाड़ देती हैं । १६४ |
·
( जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति के उल्लेखानुसार विवर खोद कर नाल को उसमें रख देती हैं और उस को रत्नों और वज्रों से ढक कर ऊपर मिट्टी डाल हरितालिका ( दूब) से विवर के मुख को बांध देती हैं ताकि उस पर दूब उग जाने के पश्चात् कालान्तर में किसी प्रकार की आशातना न हो )
हरियालिया पेढाई, बन्धित्ता विवराण सव्वेसिं । कुव्वन्ति कदलि घर, दाहिण पुव्युत्तर दिसासु । १६५। ( हरितालिकाभिः पृष्ठानि बध्वा विवराणि सर्वेषाम् । कुर्वन्ति कदलि गृहाणि, दक्षिण-पूर्वोत्तर दिशाषु 1)
फिर वे उन सब विवरों (खड्डों) को पृष्ठ को दूब से बांधती हैं और पश्चिम दिशा को छोड़कर दक्षिण पूर्व तथा उत्तर इन तोनों दिशाओं में तीन कदलिगृह बनाती हैं । १६५ ।
तेसिं बहुमज्झदेसे, चाउस्साले तओ विउव्वेंति । मज्झे तंसि तिनिय, रययंति सिंहासणवराह | १६६ ।
( तासां बहुमध्य देशे, चतुःशालकानि ततः विकुर्वन्ति । मध्ये तासां त्रीणि च रचयन्ति सिंहासन वगणि 1 )
१ समुग्ग - समुद्ग । पात्र विशेष (जीवाभिगम सटीक )
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ५१
उन कदलिगृहों के नितान्त मध्य भाग में वे अपनी वैक्रिय शक्ति द्वारा चतुःशालाएं और तीनों चतुःशालाओं के मध्य तीन श्रेष्ठ सिंहासनों की रचना करती हैं ।१६६। ताहे जिणजणणीओ, जेण महिया दाहिणोव चउसाले । सिंहासणे ठवित्ता, सयपाग सहस्स पागेहिं १६७। (ततः जिनजननीन् . येन महीयसी दक्षिणोपचतुःशाला । सिंहासने स्थापयित्वा. शतपाकसहस्रपाकेभ्यः ।)
तत्पश्चात् वे तीर्थङ्करों की माताओं को दक्षिण दिशा में स्थित चतुःशाला में ले जा कर सिंहासन पर बैठाती हैं और शतपाक, सहस्रपाक सैलों से ।१६७। अब्भंगेऊण तउ सणियं, गंधोदएण सुरभीणं । उव्वट्ठऊण तओ पुरछिमं नेति चउसालं ।१६८। (अब्भ्यंगयित्वा ततःशनैः, गंधोदकेन सुरभिणा । उद्वर्तयित्वा ततः पुरश्चिमं नयन्ति चतुःशालाम् ।)
धीरे धीरे उनके शरीर का अभ्यंगन-मर्दन करती हैं। अभ्यंगन के अनन्तर शतपाकादि तैलों की चिकनाहट को उनके शरीर से दूर करने हेतु सुरभिपूर्ण गन्धोदक से जिन-जननियों के शरीर का उद्वर्तन कर उन्हें पूर्व दिशा की चतुःशालाओं में ले जाती हैं ।१६८। तत्थ ठवेडं सीहासणे सुमणि कणगरयणकलसेहि । पउमुप्पल पिहाणेहिं, सुरसि (भि) खीरोय भरिएहिं ।१६९। (तत्र स्थापयित्वा सिंहासनेषु, सुमणिकनकरत्नकलशैः । पद्मोत्पलपिधान, सुरभि क्षीरोदकभरितः ।)
वहां चतुःशाला के बीच में रखे सिंहासनों पर सुखासीन कर अमूल्य मणियों, स्वर्ण और रत्नों से निर्मित पद्म एवं नीलोत्पल के ढक्कनों से ढके तथा सुगन्धित क्षीरोदक से भरे कलशों से ।१६६। न्हावेऊणं विहिणा, जणणीओ दसवि मंडिया विहिणा । लहुएहिं जिणवरिंदे, दिव्वाभरणेहिं मनंति ।१७०।
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[ तियोगाली पइन्नय
५२ ]
( स्नापयित्वा विधिना, जनन्यः दशापि मण्डिताः विधिना | लघुकैर्जिनवरेन्द्राः, दिव्याभरणैः मनंति [ मंडन्ति ] ।)
दशों जिन- जननियों को विधिपूर्वक नहला कर उन्हें शृंगार चातुरी के साथ दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत करती हैं । वे छोटे छोटे दिव्य आभरणों से उन नवजात तीर्थङ्करों को भी विभूषित करती हैं । १७०
अह उत्तरिल्ल भवणं; नेउ सीहासणे निवेसिता । हरिचंदण कट्ठाई आणेउ नन्दणवणाओ । १७१ । (अथ उत्तरिल्लं भवनं; नीत्वा सिंहासने निवेशयित्वा । हरि चन्दनकाष्ठानि आनेतु ं नन्दनवनात् । )
तदनन्तर वे उन्हें उत्तर दिशा में बनाये गये भवन की चतुः शाला में ले जाकर सिंहासन पर आसीन करती हैं और नन्दनवन से हरित चन्दन (सरस गोशीर्ष चन्दन की लकड़ियाँ लाकर । १७१ । समिहाओ काऊणं ! अग्गिहोमं करेंति पययाउ । भूतीकम्मं काउं, जिणाणरक्खं अह करेंति । १७२/ ( समिधान् कृत्वा, अग्निहोत्रं कुर्वन्ति प्रयतास्तु | भूतिकर्म कृत्वा, जिनानां रक्षामथ कुर्वन्ति ।)
उनकी समिधा बनाती हैं। तदनन्तर वे यत्नपूर्वक हवन करने के पश्चात् भूतिकर्म कर तीर्थङ्करों की श्रनिष्टों से रक्षा करती हैं ।
१७२।
तित्थयर कन्नमूले, मणिमय पासाण वट्टएर मसि । आफोडेंति भणेत्तिय, महिहर आऊ भवंतु जिणा । १७३ ।
१ हरि चंदरण - देशी - कुङ कुमे, देशी शब्द नाम माला, सर्ग ८, गाथा ६५ । तद्धि नात्रोपयुक्तम् । प्रत्र तु सरस-गोशीषं चन्दनार्थे शब्दमेतत् प्रयुक्त प्रतिभाति । २ वृत्तको - पाषाणवृतगोल का वित्यर्थः ।
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तित्योगाली पइन्नय ]
(तीर्थंकर कर्णमूले, मणिमयपाषाण वर्तकौ कृष्णौ । आस्फोटयन्ति भणन्ति च महिधर-आयु-भवन्तु जिनाः ।)
तत्पश्चात् वे मणिमय काले पाषाण के दो गोल वृत्ताकार बाटो को तीर्थ करो के कर्ण मल के पास आस्फोटित (परस्पर टकराती) करती हुई कहती हैं-'हे जिनेन्द्र भगवान् ! आपकी महीधर-पर्वत के समान आयु हो ।१७३। रययमएहि हच्छं, अच्छर सा तंदुलेहि विमलेहिं । . तित्थयराणं पुरओ, करेंति अठ्ठट्ठ मंगलयं ।१७४। (रजतमयैः ह्रस्वं, अप्सराताः तंदुलैर्विमलैः। तीर्थंकराणां पुरतः कुर्वन्ति अष्टाष्टमंगलकम् ।)
इसके पश्चात् वे अप्सराए चाँदी के बने विमल चांवलों से शीघ्रतापूर्वक उन तीर्थङ्करों के सम्मुख आठ आठ अष्ट मंगलों का निर्माण करती हैं । १७४। जलथलय पंचवन्निय, सम्बोउ य सुरहि कुसुमकय पूयं । काउकोउग भवणे, चउदिसि घोसणं कासी ।१७५। (जल-स्थलश्च पंचवर्ण्यः, सर्वतश्च सुरभि कुसुमकृता पूजा । कृत्वा कौतुक भवनानि, चतुर्दिशाषु घोषणामकार्षन् ।) ___तदनन्तर उन्होंने जल एवं स्थल में उत्पन्न हुए. परम सुगन्धित पांच प्रकार के पुष्पों से नवधा भक्ति पूर्वक उनकी पूजा की। पूजा के पश्चात् अनेक प्रकार के कौतुक किये और फिर इस प्रकार की घोषणा की ।१७५। तित्थयर माइपिउणे, तित्थयगण य मणेण जो पावं । चित्तज्ज तस्सहुसिरं , फुट्टिही निस्संसयं सयहा ।१७६। (तीर्थकर-मातापित्रोः, तीर्थंकराणां च मनसा यः पापं । चिन्तयेत् तस्य हि शिरं, स्फुटिष्यति निस्सशयं शतधा ।)
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५४ ] :
[ तित्थोगाली पइन्नय
"तीर्थङ्करों के माता पिता और तीर्थङ्करों के प्रति यदि कोई मन से भी पापपूर्ण कृत्य करने का विचार करेगा तो यह निस्संदिग्ध है कि उस का शिर सौ टुकडे होकर फूट जायगा । १७६।" एवं उग्घोसेबुता, तो धत्तु जिणेस माहीए । ठावंति जम्मभवणे, सयणिज्जे हरिसिय मणाओ ।१७७) (एवं उद्घोषयित्वा ताः, ततः गृहीत्वा जिनेशमात न् । . स्थापयन्ति जन्मभवने, शयनीये हर्षितमनाः ।)
इस प्रकार की उद्घोषणा करके परम हर्ष मनाती हुई वे तीर्थकरों की माताओं को जन्म भवनों में उनको शय्याओं पर लाकर लिटा देतो हैं ।१७। परिवारे सव्वा तो, ते सिंगार हावकलियाओ । गायंति सवण सुहयं, सत्तस्सर सीभरं गेयं ।१७८। (परिवार्य सर्वास्ततस्ताः शृंगार हाव कलिताः । गायन्ति श्रवण सुखदं, सप्त स्वर सीभरं गेयम् ।)
तदनन्तर शृगार और हाव भाव की प्रतीक वे ५६ दिक्कुमारी महत्तरिकाएँ अपना सब दिशाकुमारियों के साथ एकत्र हो सप्तस्वरलहरियों से सम्मोहक और श्रवण सुखद मंगलगान गातो हैं । १७८। तत्तो जिण जणणीओ, महुरं गीयं दिसाकुमारीणां । सुणमाणेउ सहसा, निययाए संगयाताओ ।१७९। (ततः जिन-जनन्यः, मधुरं गीतं दिक्कुमारीणाम् । श्रू यमाणास्तु सहसा, निद्रया संगतास्ताः ।)
इसके पश्चात् दिशा कुमारियों के मधुर संगीत को सुनाती हुई तीर्थ करों की माताए सहसा निद्रा में निमग्न हो गई।१७६। ताहे भवणाहिबई वीसं, सोलस य वणयराहिवई । .. चन्दाइच्चाई गहा, सरिक्ख तारागण समग्गा ।१८०।
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ ५५
(ततः भवनाधिपतयो विंश, षोडश च व्यन्तराधिपतयः । चन्द्रादित्यादिग्रहाः, सऋक्षास्तारागण समग्राः ।)
तदनन्तर बोस भवनेन्द्रों, सोलह व्यन्तरेन्द्रों, चन्द्र, सूर्य, ग्रहों, नक्षत्रों सहित समस्त तारागणों ।१८०। कप्पाहिवती वि तो, ओहिनाणेण जाणिऊण जिणे । जाहे जाया समहिय, मयंक सोमाण सच्छा य ।१८१। (कल्पाधिपतयोऽपि ततः, अवधिज्ञानेन ज्ञात्वा जिनान् । यदा जाताः समधिक मृगांकशोभनच्छाया ।) ___और कल्पेन्द्रों ने अवधि ज्ञान से जब यह जाना कि चन्द्र और सूर्य से भी अधिक निर्मल एवं तेजस्वी जिनेन्द्रों का जन्म हो गया है
१८१॥ तो हरिस गग्गर (द्) गिरा, सहरसमभुट्ठिया सपरिवारा । महियलनमिय वरंगा, संथुणियं आयरतरेण ।१८२। (ततः हर्षगद्गगिरः, सहर्षमभ्युत्थिताः सपरिवाराः । महितलनमित वरांगाः, संस्तुतं आदरतरेण ।) . तो वे सब हर्ष गद्गद् वचन बोलते हुए सहसा अपने परिवार सहित उठ खड़े हए और पृथ्वीतल पर अपना मस्तक झुका कर बड़े आदर के साथ उन्होंने तीर्थंकरों की स्तुति की । १८२। सव्विड्ढीए सपरिसाए, हरिसवसुज्जुया सभत्तीआ । जिणचंदे दट्ठमणा जाणविमाणेहिं आगया तुरिअं ।१८३। (सर्व र्या सपरिपदा, हर्षवशोधताः सभक्तिकाः । जिनचन्द्रान् द्रष्टुमनाः यानविमाने आगताः त्वरितम् ।)
उन्होंने हर्षविभोर हो भक्तिपूर्वक अपने अपने समस्त परिवार सहित अति शीघ्र ही पूरी तैयारी की और जिनचन्द्रों के दर्शनों की तीव्र उत्कण्ठा मन में लिये वे सम्पूर्ण दिव्य देवद्धियों के साथ यानविमानों से तत्काल जिन-जन्म-भवनों पर पहुंचे ।१८३।
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५६ ]
[ तित्योगाली पइन्नय
हरिसियमणा सुरिंदा, जिणचंदे उयएतहिं दर्छ। जाया समहियसोहा, ससिव्वठ्ठण कुमुयवणे ।१८४। (हर्षितमनाः सुरेन्द्राः, जिनचन्द्रान् उदितान् तत्र दृष्ट वा । जाताः समधिकशोभाः, शशिमिव दृष्ट वा कुमुदवनाः ।)
हर्षितमना देवेन्द्रों ने जब वहां नवोदित जिनचन्द्रों के दर्शन किये तो तत्काल उनकी शोभा-कान्ति ठीक उसी प्रकार अत्यधिक बढ़ गई, जिस प्रकार कि चन्द्र दर्शन करते ही कुमुद बन की ।१८४। जणणि सहिए जिणिंदे, नमिऊण पयाहिणं काऊणं । करयल कयंजलिपुडा, विणयेण य पज्जुवासेंति ।१८५॥ (जननिसहितान् जिनचन्द्रान् नत्वा प्रदक्षिणां कृत्वा ।। करतलकृताञ्जलिपुटाः, विनयेन च पर्युपासन्ति ।)
माताओं सहित जिनेन्द्रों को नमस्कार कर और प्रदक्षिणा कर के वे सब हाथ जोड़े विनय पूर्वक उनकी पर्युपासना करने लगे
१८५ अह सोहम्मे कप्पे, विसयपतत्तस्स सुरवरिंदस्स । सक्कस्स नवरि दिव्वं, सहसा सीहासणं चलियं ।१८६। (अथ सौधर्मे कल्प, विषय प्रसक्तस्य सरवरेन्द्रस्य । शक्रस्य नवरं दिव्यं, सहसा सिंहासनं चलितम् ।)
तीर्थ करों का जन्म होते ही सौधर्म कल्प में दिव्य देवभोगों में प्रसक्त सुरवरेन्द्रः शक्र का दिव्य सिंहासन सहसा हिला।१८६। अह ईसाणे कप्पे, विसपसत्तस्स सुरवरिंदस्स । ईसाणस्स वि दिव्वं, सहसा सीहासणं चलियं ।१८७। (अथेशाने कल्पे, विषयप्रसक्तस्य सुरवरेन्द्रस्य । ईशानस्यापि दिव्यं, सहसा सिंहासनं चलितम् ।)
___ इसी प्रकार ईशान कल्प में विषयासक्त सुरश्रेष्ठों के अधिपति ईशानेन्द्र का सिंहासन भी सहसा चलायमान हुआ।१८७।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ५७
ओहीए उवउत्ता, जाये दट्टण जिणवरे तो ते । पचलिय कुंडलमउला, आसणरयणं पमोच्चीय ।१८८ (अवधिज्ञाने उपयुक्ताः जातान् दृष्टवा जिनवरान् तु ते । प्रचलित-कुण्डलमौल्य, आसनरत्नं प्रमुच्य ।)
अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा नवजात तीर्थ करों को देखते ही चमचमाते चपल कुण्डल-मुकुटधर देवेन्द्र अपने आसन रत्न से उतर कर ।१८८। अह सत्तट्ठ पयाई. अणु (अभि) गच्छिवाण जिणवरे वरदे । अंचत्ति वामजाणु, इयरं भूमीए निहुँ १८९। .. (अथ सप्ताष्ट पदानि, अभिगत्वा जिनवरान् वरदान् । अञ्चन्ति वामं जानु, इतरं भूमौ निढ्य ।)
जिनेन्द्र जिस दिशा में विद्यमान हैं, उस अोर सात आठ पद जिनेन्द्रों के अभिमुख जाकर वाम जानु को मोड़कर तथा दक्षिण जानु को भूमि पर टिका ।१८६। पणमंति सिरेण जिणे, पुणे पुणो पागसासणेपयया । उऊंण भणंतिय, वयणमिणं नेगमेसिसुरे ।१९०। (प्रणमन्ति शिरसा जिनान् , पुनपुनः पाकशासनाः प्रयताः । उत्थाय भणन्ति च, वचनमिदं नैगमेषि-सुरान् ।)
___ मस्तक झुकाकर वे इन्द्र बार बार बड़े यत्न के साथ जिनेन्द्रों को प्रणाम करत हैं और तदनन्तर उठकर नैगमेषी देवों को इस प्रकार के वचन बोलते हैं । १६०। पंचसु एरवए सु, पंचसु भरहेसु दस जिणा जाया । काहामो अभिसेयं, करेह विदियं सुरगणाणं ।१९१। (पंचसु एरवतेषु, पंचसु भरतेषु दश जिनाः जाताः । करिष्यामोऽभिषकं, कुरुश्व विदितं सुरगणानाम् ।)
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५८ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय पांच ऐरवत क्षेत्रों में पांच भरत क्षेत्रों में इस प्रकार दस तीर्थ करों का जन्म हुआ है । सब देवगणों को विदित कर दो कि हम सब उन तीर्थ कर प्रभुओं का जन्माभिषेक करेंगे ।१९१॥ सक्कीसाणाणतो, तो ते घेत्तु सुरे विसय सुत्त । वयण भणंति भणिया, सुघोस घंटाए बोहेउ ।१९२।' (शक शाना-ज्ञातः ततस्ते गृहीतुं सुरान् विषयसुप्तान् । वचनं भणन्ति भणिताः, सुघोष घंटया बोधयितु ।)
शक्र और ईशानेन्द्र के इस आदेश को सुनते ही विषयसुख में निमग्न देवताओं को इन्द्रों की आज्ञा से परिचित करने तथा उन्हें साथ लेने के लिये हरि-नैगमेषी देव सुघोष घण्टा का घोष करते हए इस प्रकार के वचन बोलते हैं । १६२। भो भो सुणंतु सव्वे, सुरवसहा सुरवतीण वयणमिणं । एग समएण जाया, दसवि जिणा दससु वासेसु ।१९३। . (भो भो शण्वन्तु सर्वे, सुरवृषभाः सुरपतीनां वचनमिदम् । एकसमयेन जाताः, दशोऽपि जिनाः दशषु वर्षेषु )
"हे सुरवृषभो ! देवेन्द्रों के इस निर्देश को आप सभी सुनिये" "भरत ऐरवत आदि दशों क्षेत्रों में एक ही समय में दशों ही तीर्थङ्करों का जन्म हुआ है । १६३। ता तेसिं जम्म महो, जम्मजरामरणविप्प मुक्काणं । वच्चामो मणुयलोगं, जिणभिसेगस्स कज्जेण १९४। (ततः तेषां जन्म महो, जन्मजरामरण विमुक्तानाम् । व्रजामो मनुष्यलोकं, जिनाभिषेकस्य कार्येण ।)
जन्म-जरा-मृत्यु से सदा-सर्वदा के लिये विप्रमुक्त होने वाले उन जिनेश्वरों का जन्म महोत्सव मनाने, जिनाभिषेक का कार्य निष्पन्न करने के लिये हम मनुष्य लोक में जा रहे हैं । १६४।
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ ५६ तं तुब्भेवि सपरियणा, आयरितएण गहिय नेवत्थ ।' अण्वेह' देवराए, सविमाण गया सह वियहिं ।१९५॥ (तद् यूयमपि सपरिजनाः. आर्यत्वेन गृहीत नेपथ्याः । अन्वीहस्व देवराजान् , स्व विमानगताः सह वियता)
इसलिये परिजन सहित आप सब भी ऐसे अवसरों पर परम्परा से चले आ रहे अपने आचार-व्यवहार के अनुरूप वेष धारण कर अपने अपने विमान पर प्रारूढ हो आकाश में साथ साथ इन्द्रों का अनुगमन करें" ।१६५। तो ते सुरवरवसभा, वयणं सोऊण नेगमेसीणं । जाणविमाणारूढा, सक्कविमाणा समोसरिया ।१९६। ततः ते सुरवग्वषभाः, वचन श्रुत्वा नैगमेषीनाम् । यान विमानारूढाः, शक्रविमानात् समवसनाः ।) - हरि नैगमेषी देवों के वचन सुनते हो वे सब श्रेष्ठ देवतागण अपने अपने यानों एवं विमानों पर आरूढ हो इन्द्रों के विमानों से बाहर निकल एकत्रित हुए।१६६। अह वासवावि सव्वे, उत्तर वे उब्बिए करिय रूवे । एरावयधवलविसं, कय जयसदा समारूढा ।१९७ (अथ वासवा अपि सर्वे, उत्तरविकुर्विताः कृतरूपाः । ऐरावत धवल वर्ष, कृतजयशब्दा समारूढाः ।)
तदनन्तर उत्तर वैक्रिय लब्धि द्वारा रूप बनाये हुए वे इन्द्र भी जयघोष करते हुए ऐरावत एवं श्वेत वृषभ पर आरूढ
रोहेंति दो वि सक्का, उत्तर वे उब्विएहिं पण्णासं । पण्णासं दससु वि, खेते सु एंति दुइयं ।१९८।। १ नेवत्थ-नेपथ्य-न० । वेषे, · वेसो नेवत्थं ।' को गा० २३३ । स्त्रीपुरुषाणां
वेष, स्था., ४ ठा. २ उ. । निर्मलवेषे, ज्ञात., श्रु. १ अ. १६ २ मणह-प्राशा पालयत: - इत्यर्थोऽपि संभाव्यते ।।
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६० ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(आरोहतः द्वावपि शक्रो, उत्तवैक्रियाभिः पञ्चाशतम् । पञ्चाशतम् दशष्वपि, क्षेत्रोषु एन्ति द्र तम् ।)
___ उत्तर वैक्रिय लब्धि द्वारा अपने अपने पचास पचास स्वरूप बनाये हुए दोनों इन्द्र दशों क्षेत्रों में तत्काल पहुंचते हैं । १६८। पहय पडुपंडपोसा, सलोगवालग्गमहिसि परिवारा । संपत्थियाय सुरवई, जिणाण पामूलमभिचंदा ।१९९। (प्रहत पटु पंडपोषाः स्वलोकपालाग्रमहीषि परिवाराः । संप्रस्थिती सुरपती, जिनानां पादमूलमभिचन्द्राः ।)
समस्त देवपरिवार और अग्रमहीषियों से परिवृत्त वे देवेन्द्र दिव्य वाद्यों के सुमधुर घोष के बीच नवजात तीर्थ करों के चरणों की सेवा में उपस्थित होने की उत्कण्ठा लिये सुरालय से प्रस्थित हुए ।१६६। संपत्ता य खणेणं, सुरच्छर संघ परिवुडा तहिणं । जाया जत्थ जिणंदा, वोच्छिण्ण पुणब्भवा गुरुणो ।२००। (संप्राप्तौ च क्षणेण, सुराप्सरासंघपरिवृताः तत्र । जाताः यत्र जिनेन्द्राः, व्युच्छिन्नपुनर्भवाः गुरुवः ।)
अप्सरामों एवं विशाल देव परिवार से परिवृत्त वे देवेन्द्र पल भर में ही उन स्थानों पर पहुँचे जहाँ बड़े लम्बे अन्तराल की व्यूच्छित्ति के पश्चात् जगद्गुरु तीर्थ करों ने पुनः धर्मतीर्थ का प्रवर्तन करने के लिये जन्म ग्रहण किया था ।२००। पेच्छंति सव्व सक्का, जिणेवि भवसागरंतरेदीवे । इक्खागवंस जाए, सयले जगाणंद णे हत्थं ।२०१। (प्रक्षन्ति सर्वे शक्राः, जिनानपि भवसागरान्तरे दीपान | इक्ष्वाकुवंश जातान् , सकल जगानन्दस्नेहार्थम् ।) .
वहाँ वे देवेन्द्र और देवी-देवगण हर्षविभोर हो अथाह अपार अनन्त भव सागर के बीच अन्तरीपों के समान, समस्त संसार को
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[ ६१
तित्थोगाली पइन्नय ]
आनन्द प्रदान करने वाले और इक्ष्वाकु वंश में उत्पन्न हुए उन त्रैलोक्यनाथ तीर्थंकरों को देखते हैं । २०१
अहजिण दंसण वियसिय, मुहकमलाबंदिऊण जिणचंदे | देवगण परिबुडा इंदा जिण जम्मभवणाणं | २०२ । ( अथ जिनदर्शन विकसित, मुखकमलाः वंदित्वा जिनचन्द्रान् । देवगण संपरिवृताः, इन्द्रा : जिन- जन्मभवनानाम् ।)
जिनेन्द्र भगवन्तों के दर्शन जन्य हर्षातिरेक से प्रफुल्ल वदनारविन्द एवं देववृन्द से परिवृत्त इन्द्रों ने दशों तीर्थ करों को वन्दन कर जिनेन्द्रजन्म प्रासादों के । २०२०
अह पासे ठाऊणं, भणति सेणावई पयणं ।
जणी सगासाओ, आणेह जिणे विणणं २०३।
(अथ पार्श्वे स्थित्वा भणन्ति सेनापतिं प्रयत्नेन ।
जननीनां सकाशात् आनय जिनान् विनयेन ।)
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पास अवस्थित हुए और उन्होंने शक्र सैन्य के सेनानी हरिनैगमेषी दव को आदेश दिया कि वे पूर्ण विनय पूर्वक नवजात तीर्थंकरों को उनकी माताओं के पास से पूरी सावधानी के साथ ले आयें । २०३०.
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तो ते हरिसियवयण साहिऊण अहो सुही जिणवरिंदे | थित विणाय विणया, उवणंति सहस्सनयणाण | २०४| ( ततस्ते हर्षितवचनाः साक्षी घयित्वा अहो ः सुखीन् जिनवरेन्द्रान् । स्थितान् विज्ञातविनयेन, उपनयन्ति सहस्रनयनानाम् )
इन्द्रों की आज्ञा को सहर्ष शिरोधार्य कर विनय विधि के विशेषज्ञ हरि नैगमेषी देव सुखनिधान जिनेश्वरों का इन्द्रों के पास लाते हैं । २०४
अह ते देवाणवई, नयणसहस्सेहिं जिणवरे तझ्या |
नवि तिष्यंतता, तिहुयण सोहमहिव्य सोमे । २०५ ।
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६२ ।
तित्थोगाली पइन्नय (अथ ते देवानां पतयः, नयनसहस्रः जिनवरान् तदा । नापि तृप्यन्ति ईक्षन्तः त्रिभुवनशोभाभ्यधिकशोमान् )
___ौलोक्य की समस्त शोभाओं की अपेक्षा भी अत्यधिक उत्कृष्ट शोभाशाली उन तीर्थकरों को अपने अपने हजार नेत्रों से निरन्तर देखते हुए भी वे सब इन्द्र अपने आपको पूर्ण तृप्त अनुभव नहीं कर रहे हैं।२०५। तो पणपीउ जिणिंदे, इंदा परमेण भचिराएण । पगया घेत्तु ण जिणे, पंचप्पाणे विउव्वेति ।२०६। (ततः प्रणम्य जिनेन्द्रान् , इन्द्राः परमेण भक्तिरागेण । प्रगताः गृहित्वा जिनान् , पंच[धा]आत्मानं विकुर्वन्ति ।)
तदनन्तर वे इन्द्र परम भक्तिराग से जिनेन्द्रों को प्रणाम करते हैं और जिनेन्द्रों को लेकर प्रस्थित होते हैं। प्रत्येक इन्द्र वैक्रिय शक्ति द्वारा अपने पांच पांच स्वरूप बनाता है ।२०६। गहिय जिणिंदो एक्को, दो दो पासेसु चामरे सच्छे । धवला य चत्त हत्थे, एक्केक्केत्थ वज्ज धरे ।२०७/ (गृहितजिनेन्द्र एकः, द्वौ द्वौ पार्श्वेषु चामराः स्वच्छाः । धवलाश्च चतुर्हस्तेषु एकैकेऽथ वज्रधराः ।)
एक एक इन्द्र ने जिनेन्द्रों को अपने करपल्लवों में ग्रहण किया। प्रत्येक तीर्थ कर के दोनों पावों में दो दो इन्द्र चवर ठूलाते हुए चलने लगे। पार्श्वस्थ चारों इन्द्र चार हाथों में स्वच्छ सफेद चंवर और चार हाथों में वज्र ग्रहण किये हुए थे ।२०७।। चउविह देवसमग्गा, ते सक्का तिव्व जाय परितोसा । उप्पइऊणागासां, सुमेरु संपट्ठिया तुरिय ।२०८। (चतुर्विध देवसमग्राः, ते शका तीव्रजातपरितोषाः । उत्पत्याकाशं सुमेरु संपस्थिताः त्वरितम् ।)
वे वैमानिक, ज्योतिष्क, भवनपति और वाणव्यन्तर-चारों प्रकार के समस्त देवसमूह एवं इन्द्र उत्कट आह्लाद का अनुभव करते
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[६३ हुए अाकाश में उड़े और मनोवेग से सुमेरु पर्वत की ओर अग्रसर हुए १२०८। तो बाल जिणवरिंदे, उवगायंता सुरा सपरिवारा । वच्चंति मुइय मणसा, पुरओ सन्याहिगारेण ।२०९।। (ततः बालजिनवरेन्द्रान् उपगायन्तः सुराः परिवाराः । वजन्ति मुदितमनसा, पुरतः सर्वाधिकारेण ।)
उन नवजात दशों तीर्थेश्वरों के प्रामे आगे सपरिवार सुविशाल सुरस मह अपनी समस्त दिव्य देवद्धि के ठाट के साथ तीर्थ करों की महिमा के गीत गाता हुमा मुदित मन हा आकाश मार्ग से चलने लगा ।२१६। पंचण्हं वि मेरूणं गिरिवरसिहरे खणेण संपत्ता । कंचण दमोववेए, सव्वेउय पुप्फ फल भरिए ।२१० (पंचानामपि मेरूणां गिरिवरशिखरे क्षणेन संप्रानाः । कंचन द्र मोपपेते, सर्वतुक पुष्पफलभरिते ।)
- जिनेन्द्रों को लिये हुए वे देव-देवेन्द्र सब ऋतुओं के पुष्प-फलों से लदे स्वर्णवृक्षों से सुशोभित पांचों ही सुमेरु पर्वतों के शिखरों पर क्षण भर में ही पहुँच गये ।२१०। . पंचण्हं वि मेरूणं एक्केक्कं होइ पंडुगवणं तु । लज्जइ तेलोक्कस्स वि, लच्छी संपिंडिया तेसु ।२११॥ (पंचानामपि मेरूणां, एकैकं भवति पाण्डुकवनं तु । लज्जति त्रैलोक्यस्यापि, लक्ष्मी संपिंडिता तेषु ।)
पांचों ही म मेरु पर्वतों में से प्रत्येक पर एक एक पाण्डकवन है, जिनकी शोभा श्री के समक्ष तीनों लोक की एकत्र पिण्डीभूत लक्ष्मी भी लज्जित हो जाती है ।२११। ताण बहुमज्झ देसे चूला जिणभवणसोहिया रम्मा । वेरूलिय विमलरूवा, पंचढग जोयणु विद्धा ।२१२।
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६४ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय (तेषां बहुमध्यदेशे, चूलाः जिनभवनशोभिताः रम्याः। वैडूर्य विमलरूपाः, पंचाष्टक योजनोद्विद्धाः )
___ उन पाण्डुकवनों के बिल्कुल मध्य भाग में जिन-भवनों (जिन मन्दिरों) से सुशोभित, वैडूर्य मणि की स्वच्छ श्वेत प्रति रमणीय. पांच योजन चौड़ी और पाठ योजन लम्बी, चूलाएं हैं ।२१२। पंचण्हव मेरूणं, चूला एक्केक्किया मुणेयव्या । . सासय जिणभवणाओ, हवंति पंचेव चूलाओ .२१३। (पंचानामपि मेरूणां, चूला एकैकाः मुनेतव्या । शाश्वतजिनभवनात् , भवन्ति पंचैत्र चूलाः ।)
पांचों ही मेरु पर्वतों की एक एक चूला जाननी चाहिये । वे पांचों चूलाएं शाश्वत जिन-भवन स्वरूपा होती हैं ।२१३। । बारस जोयण पिहुलाओ, ताओ ठवणं तु जोयणे चउरो। तासिं चउदिसि पि य, सिलाउ चचारि रमाउ ।२१४।। द्वादशयोजनपृथुलाः, ताः स्थापनं तु योजनानि चत्वारि। . तासां चतुर्दिग्स्वपि च, शिला, चतखः रम्याः ।) .
प्रत्येक चूला १२ योजन पृथुल अर्थात् मोटी तथा चार योजन स्थापना (आधार शिला) वाली होती हैं। उन पांचों चूलाओं के चारों ओर चारों दिशाओं में बड़ी ही सुन्दर चार शिलाए होती हैं ।२१४: ' पंचसयायामाओ, मज्झे दीघतणरुंदाओ । चंदद्धसंठियाओ, कुमुयवरहार गोराओ ।२१५॥ (पंचशतायामाः, मध्ये दीर्घतायार्द्ध रुंदाः । चन्द्रार्द्धिसंस्थिताः, कुमुदवरहारगौराः ) । ... उनमें से प्रत्येक शिला ५०० योजन विस्तार वाली, मध्यभाग में स्थूल तथा उत्तरोत्तर मुटाई में घटते घटते अन्त में तृण के अर्धभाग तुल्य मोटी, चन्द्राकार तथा श्रेष्ठ कुमुद पुष्प के हार सदृश गौरवर्ण की होती है ।२१५॥
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तित्थोगाली पइन्नय ]
पुवेण पंडुक्कव्वल, अवरेण अइ पंडुकंवला होइ । रतार चकंबल, सिला य दो दक्खिणुत्तरओ २१६ । (पूर्वेण पाण्डु कंबला, अपरेण अतिपाण्डु कंबला भवति । रक्तातिरक्तकंबले, शिले च द्व े दक्षिणोत्तरतः ।)
प्रत्येक चूला के पूर्व में पाण्डुकम्बलाशिला, पश्चिम में प्रति पाण्डुकम्बला शिला, दक्षिण में रक्तकम्बला शिला और उत्तर दिशा मे अतिरक्तकम्बला शिला होता है । २१ ।
[ ६५
पुव्वावसु दो दो, सिलासु सीहासणाई रम्माई । चंदद्ध दक्खि गुत्तर, सिलासु एक्केक्कयं भणियं । २१७| पूर्वापरासु [रयोः ] द्व े द्व े, शिलापु [लयो: ] सिंहासनानि रम्याणि । चन्द्रार्द्ध दक्षिणोत्तर, शिलापु [लयोः ] एकैकं भणितम् ।)
प्रत्येक शिला के पूर्व तथा पश्चिम भाग में दो दो तथा दक्षिणोत्तर दोनों अर्द्धचन्द्राकार भागों पर एक एक, इस प्रकार चारों दिशाओं में चारों भागों पर प्रतीव सुन्दर ६ सिंहासन होते हैं । २१७
सीतासीतोयाणं, उभओ कूलुब्भवा जिनवरिंदा | अभिसिंचिंते सुरेहि, जम्मे पुव्वावर सिलासु । २१८| ( सीतासीतोदयोरुभयोः कुलोद्भवाः जिनवरेन्द्राः | अभिसिंच्यन्ते सुरैः, जन्मनि पूर्वापर शिलापु ।)
सोता तथा सीतोदा नदियों के दोनों तटों पर उत्पन्न होने वाले तीर्थङ्करों का देवताओं द्वारा पूर्व तथा पश्चिम दिशाओं में स्थित शिलाओं पर जन्माभिषेक किया जाता है । २१८ |
भर वयजिनिंदा, बालते पुण चंद सरिस मुहा | अभिसिंचिंत सुरेहिं; जंमे उत्तर सिलासु । २९९ । (भरतैरवत जिनेन्द्राः, बालत्वे पुनश्चन्द्र सदृश मुखाः । अभिसिंच्यन्तं सुरैः, जन्मनि च उत्तर शिलापु ।)
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६६ ]
[ तित्योगाली पइन्नय
तथा भरत एवं ऐरवत क्षेत्रों में, बाल्यकाल में पूर्णचन्द्र के समान मुख वाले तीर्थङ्करों का जन्म होने पर देवताओं द्वारा उत्तर कर स्थित शिलाओं पर जन्माभिषेक किया जाता है | २१६ अह सो सोहम्मवती, सहिओ बत्तीस सुरवरिंदेहिं । दक्खिण- सिलाउ पंचवि, सहस्स पत्ताणणा पत्तो | २२० । (अथ सः सौधर्मपतिः सहितः द्वात्रिंशैः सुरवरेन्द्रः । .
"
दक्षिण शिला पंचापि, सहस्र पत्राननाः प्राप्ताः । )
तत्पश्चात् ३२ इन्द्रों सहित सहस्राक्ष सौधर्मेन्द्र पांचों दक्षिण दिशिस्थ शिलाओं पर पहुँचा । २२० ।
अह सो ईसाणवती, सहिओ बत्तीस सुरवरेन्द्रः ।
उत्तर सिलाउ पंच वि, सहस्स पचाणणो पत्तो । २२१ ।
1
( अथ स ईशानपतिः सहितो द्वात्रिंश- सुरवरेन्द्रः । उत्तरशिला पंचापि सहस्र पत्राननाः प्राप्ताः । )
"
'
इसके पश्चात् ईशान देवलोक का अधिपति ईशानेन्द्र भी बत्तीस इन्द्रों सहित उत्तर दिशा में स्थित पांच शिलाओं पर पहुँचा. ।२२१।
तो तत्थ पवर कंचन, मयंमि सिंहासणे निवेसित्ता । इंदो जिदिचंदे, उच्छंगेहि बसी य । २२२ |
( ततः तत्र प्रवर कंचनमये सिंहासने निवेशयित्वा ।
इन्द्रो जिनेन्द्र चन्द्रान् उत्संगैः वहन्ति च ।)
,
तदनन्तर वहां उत्कृष्ट कोटि के स्वर्ण से निर्मित सिंहासनों पर निवेशित (स्थापित) कर इन्द्र ने उन जिनेन्द्रचन्द्रों को अपनी गोद धारण किया । २२।
छज्जंति सुरवरिंदो, उज्वंग गए जिणे धरेमाणो ।
अभिनव जाए कंचन, दुमेन्त्र हिमपवर - धरिमाणो । २२३। ( छाजन्ति सुरवरेन्द्राः, उत्संगगतान जिनान् धार्यमाणः । अभिनवजातान् कंचन द्र मानिव हिमप्रवरः धार्यमाणः 1)
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ ६७
गोद में विराजमान जिनेन्द्रों को धारण किये हुए इन्द्र सद्यो - त्पन्न कांचन वृक्षों को धारण किये गिरिराज हिमाद्रि के समान सुशोभित हो रहे थे । २२३।
अह अच्चुयकप्पवती, घुयकलि कलसाणं जिणवरिंदाणं । अभिसेयं काउमणो, अभिओगे सुरवरे भणः । २२४ ॥ ( अथ अच्युतकल्पपतिः, धुतकलिकलुषाणां जिनवरेन्द्राणाम् । अभिषेकं कतु मना, आभियोगिकान् सुरवरान् भणति )
तदनन्तर दुष्कृतों की कालिमा को धो डालने वाले जिनवरों का जन्माभिषेक करने की अभिलाषा से अच्युत् कल्प नामक स्वर्ग के इन्द्र ने अपने सेवक सुरश्र ेष्ठों को प्रादेश दिया । २२४।
तित्थसरियामहादह, चउ उहिजलं च दिव्य कुसुमं च । आरोह इहं सिग्धं जं विय भभिए । २२५ ॥ (तीर्थसरिता महाद्रह - चतुरुदधिजलं च दिव्य कुसुमं च । आनयत इह शीघ्र यदपि चेष्टमभिषेके ।)
,
तीर्थ - नदियों, महाद्रहों तथा चारों समुद्रों का जल, दिव्य पुष्प एवं जन्माभिषेक के लिये अभीष्ट सभी प्रकार की सामग्री शीघ्रातिशीघ्र लेकर आओ । २२५।
संमं पडिच्छिउणं, सुरवरवसभाणं तं सुरा वयणं ।
आर्णेति विमल सलिलं सब्र्व्वसु ं जहुत ठाणेसु ं । २२६ |
,
(सम्यक् प्रतीच्छ्य, सुरवरवृषभानां तत् सुरा वचनम् । आनयन्ति विमल सलिलं सर्वेभ्यः यथोक्त स्थानेभ्यः । )
1
सुरेश्वरों के आदेश को समीचीनतया हृदयाङ्कित एवं शिरो - धार्य कर देवगण सभी यथोक्त स्थानों से पवित्र जल लाते हैं । २२६ ।
सब्वोपहिसिद्धत्थं, गहरियालिय कुमुमगं च चुण्णे य । आर्णेति ते पवित्र, दह नइतडतह महिंद सुरा | २२७|
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६८]
[ तिस्थोगाली पइन्नय
(सौषधिसिद्धार्थ , गहनमलीक कुमुमकं च चूर्णान् च । आनयन्ति ते पवित्रं, दहनदीतटतः महेन्द्र-सुराः ।)
महेन्द्र स्वर्ग के वे सुरगण द्रहों और महानदियों के तटों से सौषधि सिद्ध पवित्र एवं शुद्ध पुष्प और चूर्ण लाते हैं ।२२७। ता अच्चुय कप्पवई, सुवन्नमणिरयणभोम कलसेहिं । पउमुप्पलपिहाणेहि, कुसुम गंधुदग भरिएहि ।२२८। (ततः अच्युतकल्पपतिः, स्वर्ण मणिरत्नभौमकलशैः । पद्मोत्पलपिधान, कुसु मगंधोदकभरितः ।)
अभिषेक हेतु आवश्यक सभी सामग्री को जुटाने के पश्चात् अच्युतेन्द्र पुष्पों की सम्मोहक सुगन्धियों से सुवासित जल से पूर्ण एवं पद्मपत्रों से ढके स्वर्ण, मणि, रत्न और (अलभ्य) मिट्टी के कलशों द्वारा-२२८॥ अभिसिंचइ दसवि जिणे, सपरिवारो पहट्ट मुहकमलो। पहय पडु पडह, दुंदुहि जयसदुघोसणरवेणं ।२२९। (अभिसिंचति दशानपि जिनान् , सपरिवारः प्रहृष्टमुखकमलः । प्रहत पटु पटह, दुदुभिजयशब्दोद्घोषणरवेण ।)
परिवार सहित हर्षोत्फुल्लवदन मुद्रा में प्रताडित दिव्य पटहों, भियों आदि वाद्यों की सुमधुर ध्वनि और "जय-जय" के गगनभेदी घोषों के बीच दसों ही जिनेश्वरों का जन्माभिषेक करते हैं
।२२६। गोसीसचंदणरसं, सुमणं सोहावियं य दिव्वं च । सलिलं च तेयजणणं, जिणाणं उवरि वुहंति सुरा ।२३०। (गोशीर्षचन्दनरसं, सुमनंज्ञं शोभावितं च दिव्यं च । सलिलं च तेजजननं, जिनानामुपरि वाहयन्ति सुराः ।)
सुरवृन्द उन जिनेश्वरों पर आह्लाद शोभा और तेजवर्द्धक दिव्य गोशीर्ष चन्दन का रस तथा जल वर्षाते हैं ।२३०।
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तित्योगाली पइन्तय ]
सुरगाहियकलसमुह - निग्गएण गंधोदएण विमलेण । पउम महद्दहनिग्गय, गंगामलिलोह सरिसेणं । २३१। (मुरगृहीतकलशमुखनिर्गतेन गंधोदकेन विमलेन । पद्ममहाद्रह निर्गत गंगासलिलौघसदृशेन )
पद्म महाद्रह से उद्गत गंगा महान् जलप्रवाह के समान देवतानों के हाथों में ग्रहण किये गये अपरिमित कलशों के मुंह से निकले पवित्र सुगन्धित जल की धाराओं के ।२३१। उवरि निवड तेणं, बालजिणे तेयरासिं संपण्णे ।
अहि दिपनि तर्हि, पयपरिसित हुयवहेव्व | २३२ ।
( उपरि निपतं तेन चालजिनाः तेजराशिसंपन्नाः ।
·
अधिकं दिव्यन्ति तत्र, पय' परिषिक्तः हुतवह इव । )
[ ६६
उत्तमांग और सभी मांगों पर गिरने के फलस्वरूप वे सभी सद्यः जात तीर्थ कर तेजोपुंज से सम्पत्र हो घृतसिंचित अग्नि की ज्वाला के समान वहां अधिकाधिक देदीप्यमान होने लगे । २३२ | तो जिणवरा मिसेए, नट्टति विवि रूववेधरा | ससुरासुर गंधव्या, ससिद्ध विज्जाहरा मुइया | २३३ | ( ततः जिनवराभिषेके नत्यन्ति विविधरूपवेषधराः । ससुरासुरगन्धर्वाः, ससिद्धविद्याधराः मुदिताः । )
तदनन्तर जिनवरों के जन्माभिषेक में सुर, असुर, गन्धर्व, सिद्ध और विद्याधर प्रमुदित हो अनेक प्रकार के रूप एवं वेष धारण कर नृत्य करते हैं । २३३।
ततविततं घणघुसिरं वज्जंवाईति के सुरवसहा ।
गायंति ससिंगार, सत्रसरसी भरं गेयं । २३४ |
(तत विततं घनघोषक वाय वादयन्ति केचित् सुरवृषभाः ।
"
गायन्ति म गारं सप्तस्वरसीभरं गेयम् ।)
1
८
१ श्रत्र पय शब्दो घृतार्थे प्रयुक्तो प्रतीयते ।
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७०
[ तित्थोगाली पइन्नय अनेक सुरश्रेष्ठ गगन को गुजरित कर देने वाली ताल के साथ, सघन वारिद घटा के गर्जन तुल्य गम्भीर घोष करने वालो वाद्य यन्त्र बजाते हैं तथा कतिपय देव शृगार रस से ओत-प्रोत सातों स्वरों में अति मधुर सम्मोहक गीत गाते हैं ।२३४॥ चउ अभिणय संजुत्त, उणयालीसं-गहार पडिपुण्णं । सुललिय पय विच्छेदं, नट्ट दाइंति तत्थ सुरा ।२३५॥ (चतुरभिनयसंयुक्त, एकोनचत्वारिंशदंगहार प्रतिपूर्णम् । सुललितपदविच्छेदं, नाट्यं दापयन्ति तत्र सुराः ।)
जिनजन्म महोत्सव के उस पवित्र एवं सुखद स्वणिम सुअवसर पर कतिपय देवगण चारों प्रकार के अभिनय से संयुक्त, उनचालीस प्रकार की भावपूर्ण अंगभंगिमाओं से परिपूर्ण और परम लालित्य से ओतप्रोत अति सुन्दर नाट्य प्रस्तुत करते हैं ।२३५॥ . वग्गंति फोडयंति य, तिवईविंदति विविहवेसधरा । वासंति जलधराई य सविज्जुयं सथणियं तहि अण्णे ।२३६। (वल्गन्ति स्फोटयन्ति च त्रिपदी छिन्दन्ति विविधवेषधराः । वर्षन्ति जलधराः च, सविद्यु तं सस्तनितं तत्र अन्ये ।)
___ अनेक प्रकार के वेष धारण किये कतिपय दव मदोन्मत्त हाथियों की तरह चिंघाडते, कई देव वायु को प्रकम्पित कर देने वाली ध्वनि के साथ खम्भ ठोकते, कतिपय देव त्रिपदी का विच्छेद करते एवं कतिपय देवगण बादलों की गड़गड़ाहट एवं बिजली की चकाचौंध के साथ जलधाराओं की वर्षा करते हैं ।२३६। हयहिंसिय गयगज्जिय, रह घणघण सीहनाय जय सद्दे । कुणमाणेहिं सुरेहिं, रसईव य गगणं दलइ भूमी' ।२३७। (हयहिंसित, गजगर्जित (बल्गित) रथ-घणघण सिंहनाद जयशब्दानि क्रियमाणैः सुरैः ह्रसस्सतीव च गगनं दलति भूमिः ।) १ "रसइ गगणंगणं दलइ भूमी" इति पाठे सति चमत्कृति सविशेषा शोभते ।
(रसति गगनांगनं दोलयति भूमिः)
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तित्योगालो पइन्नय }
[ ७१
घोड़ों को हिनहिनाहट, हाथियों की चिंघाड़, रथों की घरघराहट और देव समाज द्वारा किये गये सिंहनादों तथा जयघोषों से धरती डगमग- डगमग डोलने लगी और आकाश फटने सा लगा।२३७। नच्चंति अच्छाओ, अभिणय अंगोवहार पडिपुण्णं । चउरंगहार मणहर, सहावभावं ससिंगारं ।२३८। नत्यन्ति अप्सरसः, अभिनय अंगोपहार प्रतिपूर्णम् ।' चतुरंगहार मनहर-सहावभावं सशृगारम् ।
अप्सराएं हावभावों से भरपूर, शृगाररस से ओतप्रोत, अभिनय और भावपूर्ण अंगभंगिमानों से परिपूर्ण चार प्रकार का मनोहर नृत्य करती हैं ।२३८।। तो पइय भेरि झल्लरि, दुदु हि गंभीर महुर निग्योसो । अंबरतले विचंभइ , हरिसक्करिसं जणेमाणो ।२३९। (ततः प्रहत-भरि-झल्लरी, दुदुभिगंभीरमधुरनिर्घोषः । अम्बरतले विश्चम्भति, हर्षोत्कर्ष जनयन् ।)
प्रताडित भेरियों, झल्लरियों एवं दुदुभियों का घनगर्जन तुल्य गम्भीर और मधूर घोष प्रत्येक के मानस में उत्कृष्ट हर्ष उत्पन्न करता हुप्रा गगनमण्डल में प्रतिध्वनित तथा व्याप्त हो जाता है ।२३६। ससुरासुरनिग्योसो, कहकहक्कुडिकलयलसणाहो । मुच्चइ दससुदिसासु, पक्खुभिय महोदहिसरिच्छो ।२४०। (स सुरासुरनिर्घोषः, कहक्कहोत्कटकलकल सनाथः । मुचति दशपु दिशाषु, प्रक्षुभित महोदधि-सदृशः ।)
सुर एवं असूर समाज द्वारा किये गये जय आदि घाषों, कलकल निनादों सहित वातावरण को मुखरित कर दने वाले उत्कट कहकहों से उत्पन्न वह सम्मिश्रित निर्घोष विक्षुब्ध महासागर के समान दशों दिशाओं में उन्मुक्त रूप से बढ़ने लगा ।२४०।। १ मध्याहारेणात्र 'नृत्यम्' इति वाच्यम् । २ गुज्जई। ३ गुजति ।
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७२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
तो उग्गासिद्धथग,-सव्वोसहि कुसुम न्हाणवासेहिं । अच्चुय इंदो दससुवि, जिणाभिसेयं करेसिण्हं ।२४१ ततः उदक-सिद्धार्थक-सौंषधि-कुसुम-स्नान-वस्त्रेभ्यः । अच्युतेन्द्रः दशष्वपि' जिनाभिपेकं करोति स्म ।)
___ तत्पश्चात् दसों ही स्थानों पर अच्युतेन्द्र सिद्धार्थक, सभी प्रकार की औषधियों, कुसुमों, स्नान एवं वस्त्रादि से दसों ही तीर्थङ्करों का जन्माभिषेक करते है ।२४१। अवसेसावि सुरवति, तेणेव कमेण पाणयाईया । सबिड्ढीए सपरिसा, जिणमिसेयं करेसिण्हं ।२४२। अवशेषा अपि सुरपतयः, तेनैवेमया' प्राणतादिकाः ।) सर्वर्द्ध या सपरिषदया, जिनाभिषेकं कुर्वन्ति स्म ।) . ___अच्युतेन्द्र द्वारा किये जिनजन्माभिषेक के अनुसार उसी विधि से शेष इन्द्र भी अपने अपने सुरसमाज और उत्कृष्ट ऋद्धियों के साथ उन दसों ही जिनेश्वरों का जन्माभिषेक करते हैं ।२४२। जाहे कया सव्वेहिं, अभिसेया देव दाणवेहिं वा । ' सक्कीसाणा दोन्नि वि, धवलवसहसिंगधारा हिं ।२४३। (यदा कृता सर्वैः अभिषेकाः देव-दानवैर्वा शक्र शानौ द्वावपि, धवल वृषभ, गधारिभः' ।)
सभी देव-दानवेन्द्रों द्वारा उक्तविधि से जन्माभिषेक सम्पन्न हो जाने के अनन्तर शक तथा ईशानेन्द्र ने श्वेत वृषभों के के शृगों से निकली जलधाराओं से जिनेश्वरों का अभिषेक किया ।२४३। चउ उदहि सलिल सरिया, जलं च वसभेसु पक्खिवति सुराः । असुरसुरच्छरसहिया, जिणाभिसेगं करेऊणं ।२४४।
१ अध्याहारेण 'स्थानेषु'-इति वाच्यम् । २ अध्याहारेण 'विधिना'- इति वाच्यम् । ३ "जिनाभिषेकं कुरुतः ।' इत्यध्याहारेणात्र ग्राह्यम् ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ७३
(चतुरुदधिसलिलसरिता-जलं च वृषभेषु प्रक्षिपन्ति सुराः । असुर-सुर-अप्सरा सहिताः, जिनाभिषेकं कृत्वा ।) ।
देवगण चारों महासागरों और महानदियों का जल वृषभों पर उडेलते हैं। असुरों, सुरों और अप्सराओं सहित जिनाभिषेक सम्पन्न करने के पश्चात् ।२४४। पम्हल सुबंध सुमन य, वत्थेण जिणाण अंगुवंग गयं । अवणेउ.ण जलरयं, सहस्सनयणा पयत् णं ।२४५॥ परिमल-सुगंध-सुमनश्च, वस्त्रंण जिनानामंगोपांगगतम् । अपनीत्वा जलरजं, सहस्रनयनाः प्रयत्नेन ।) .
पद्मपराग, सुगन्धित पुष्पों से निर्मित अंगराग एवं वस्त्रादि से इन्द्रों ने कुशलतापूर्वक जिनेश्वरों के अंगोपांगों पर लगे जल और विविध औषधियों के रजकणों को परिमार्जित कर-२४५॥ हरिचंदणाणुलित्ते, दिव्वाभरणहु भूसणे काउं । सक्का कुणंति तेसि, सीसपज्जावहारा दी ।२४६। (हरित् चन्दनानुलिप्तानि, दिव्याभरणानि हि भूषणानि कृत्वा । शक्राः कुर्वन्ति तेषां, शीर्षपर्यावहारादीनि ।)
दिव्य वस्त्राभूषणों को हरताल लिप्त से किया और उनसे जिनेश्वरों का नख-सिख शृंगार किया। २४६। कोउगसयाई विहिणा, काउणं जिणवराण मुहकमलं । न वि तिप्पतीखंता, अच्छि सहस्सेहिं देविंदा ।२४७/ (कौतुक शतानि विधिना, कृत्वा जिनवराणां मुखकमलम् । नापि तृप्यन्तीक्षन्ताः, अक्षि सहस्रः देवेन्द्राः ।)
तदनन्तर विधि सहित सैंकड़ों प्रकार के कौतुक कुतूहल करने के पश्चात् जिनेश्वरों के मुखकमलों को हजार-हजार नेत्रों से अनवरत देखते हुए भी तृप्त नहीं हो रहे थे ।२४७।
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७४ ]
तित्थोगाली पइन्नय
तो देव दाणविंदा, स अच्छरा सपरिसा पहट्ठमणा । अभिसंधुणंति पयया, थुइ सय परिसंथुए वीरे ।२४८। (ततः देवदानवेन्द्राः सारसयः सपरिषदाः प्रहृष्टमनाः । अभिसंस्तुवन्ति प्रयताः, स्तुतिशत परिसंस्तुतान् वीरान् ।)
तत्पश्चात अप्सरामों एव अपनी परिषद् सहित देवेन्द्र और दानवेन्द्र हर्ष विभोर हो सैकड़ों स्तुतियों से अभिसंस्तुत उन वीर शिरोमणि दशों तीर्थंकरों की यत्नपूर्वक स्तुति करते हैं ।२४८। तुम्ह नमो पायाणं, चक्कंकुसलक्खणंकियतलाणं । जम्मखएइट्ठियाण, अणेय तणु तप्पणक्खाणं ।२४९। (युष्मभ्यं नमो पद्भ्यः, चक्रांकुशलक्षणांकिततलेभ्यः । जन्मक्षये स्थितेभ्यः, अनेकतनुतर्पणाक्षेभ्यः ।)
चक्र एवं अंकुश के लांछनों से सुशोभित तलवों वाले, जन्ममृत्यु के समूलनाश हेतु आगे बढ़े हुए तथा अनेक प्राणियों के शरीर और नेत्रों को तृप्त करने वाले आपके चरण कमलों को बारम्बार नमस्कार है ।२४६। कम्मरयं अट्ठविहं न सिंति फुडं भव्याण जीवाणं । तेण सरणं पवन्ना, जिणाण पाए सिवुप्पाए ।२५०। (कर्मरज अष्टविधं, नाशयन्ति स्फुटं भव्यजीवानाम् । तेन शरणं प्रपन्नाः, जिनानां पादान् शिवोत्पादकान् ।)
भव्य जीवों की आठ प्रकार की कर्मरज को आपके पद पंकज विनष्ट करते हैं। इसीलिये हम शिवसुख प्रदायक जिनेश्वरों के चरणकमलों की शरण में आये हैं ।२५०। धण्णा जिण जणणीओ, सिद्धगइ पहदेसगा जिणा जाहिं । उदरेणं जिणवसभा, धम्मधुराधारगा ढविया ।२५१। (धन्याः जिनजनन्यः, सिद्धगतिपथदर्शकाः जिना याभिः । उदरेण जिनवृषभाः, धर्मधुराधारकाः स्थापिताः ।)
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तित्थोगाली पइत्रय ]
[ ७५
धन्य हैं जिनेश्वरों की माताएं, जिन्होंने सिद्ध गति के पथ को दिखाने वाले तथा धम की धुरी का धारण करने वाले महान् तीर्थङ्करों को अपनी कुक्षियों में वहन किया ।२५१। एवं सरूवएहि, गुणेहिं अभिवंदिऊण जिणवरिदे । जयइ जिनसासणंत्ति, तियपहवासियमाणाहि घुट्ठ ।२५२। (एवंस्वरूपै गुणैः, अभिवन्दित्वा जिनवरेन्द्रान् । जयति जिन शासनमिति, त्रिपथि समानैर्वृष्टम् ।)
इस प्रकार की स्तुतियों से गुणगानपूर्वक जिनेश्वरों को वन्दन करने के पश्चात् सुरलोक ग्रौर भवनों में निवास करने वालो सुरासुर समूहों ने जिनशासन की जय हो'- इस प्रकार का दिव्य तुमुल घोष किया ।२५२॥ मोत्त ण य ते पवरे, कंचण सीहासणे सुरवरिंदा । घेत्त ण जिणे सहिया, सुरेहिं संपत्थिया तुरियं ।२५३। (मुक्त्वा च ने प्रवरान् , कंचन सिंहासनान् सुरवरेन्द्राः । गृहित्वा जिनान् सहिताः सुरैः संप्रस्थिताः त्वरितम् ।)
तदनन्तर उन अतिसुन्दर स्वर्ण के सिहासनों से उठ कर सुरेश्वरों ने तीर्थंकरों को अपने हाथों में अच्छी तरह आसीन किया
और वे सुरसमूह के साथ सुमेरु पर्वत :से शीघ्रतापूर्वक प्रस्थित हुए ।२५३। संपत्ता य खणेण, जिण जम्मवणे पुरंदरा सुइया । नमिऊण जिणे. अप्पंति, विम्हिया नेगमेसीणं ।२५४। (संप्राप्ताश्च क्षणेन, जिनजन्मवने पुरन्दराः शुचिकाः । नत्वा जिनान् अर्पयन्ति, विस्मिता नैगमेषीभ्यः ।) ___जिन-जन्ममहोत्सव को सम्पन्न कर पवित्र बने हुए वे सुरासरेन्द्र क्षण भर में ही समेरु पर्वत से जिनेन्द्रों के जन्मवन में आये। उन्होंने जिनेन्द्रों को नमस्कार कर उन्हें हरिणैगमेषी देवों को समर्पित किया ।२५४॥
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[ तित्थोगाली पइन्नय
७६ ]
1
तेहिं विकंचणगोरा, मयलंडण सोमदंसणा सुमणा । निक्खित्ता परमगुरू, पासे जणणीण नियमाणं । २५५ (तैरपि कंचनगौराः, मृगलांछन सोमदर्शनाः सुमनाः । निक्षिप्ताः परमगुरवः पार्श्वे जननीनां निजकानाम् ।)
,
हरिगमेषी देवों ने कांचनाभ देह छवि वाले एवं मृगलांछन युक्त पूर्णचन्द्र के समान प्रियदर्शी, प्रसन्नमना परमगुरु तीर्थङ्करों को उनकी अपनी अपनी माताओं के पार्श्व में पहुंचा दिया । २५५ । तो मरुदेवाईणं, निद्द अवहरिय वासवा मुइया ।
सह देवीहिं धुणंति, जिणाण जणणीण पियरो य । २५६ । ( ततः मरुदेव्यादीनां निद्रामपहृय वासवाः मुदिताः ।
,
सह देवीभिः स्तुवन्ति, जिनानां जननीन् पितृ श्च ।)
तत्पश्चात् मरुदेवी आदि दशों जिनमाताओं की निद्रा का अपहरण कर इन्द्र अपनी देवियों के साथ प्रमुदित हो जिनेश्वरों की जननियों और जनकों की स्तुति करते हैं । २५६ । भविहुमाण विणण, एवमभिवंदिय सदेवीहिं । जलयर गंभीरेणं, सरेण अह वासवो भइ | २५७/ ( भक्ति बहुमान विनयेन, एवमभिवंद्य सदेवीभिः । जलधरगम्भीरेण स्वरेणाथ वासवो भणति ।)
,
परम भक्ति, समादरों और विनयपूर्वक देवियोंस हित सुरासुरेन्द्र द्वारा इस प्रकार स्तुति एवं अभिवंदन किये जाने के पश्चात् घनघटारव गम्भीर स्वर में देवेन्द्र कहने लगे - 1 २५७। भो भो पिसाय भूया, सरक्खसा जक्खनाग गंधव्वा । तुन्भेविय महमारि सासजरकारया चैव | २५८ । (भो भो पिशाचभूताः, सराक्षसाः यक्षनागगंधर्वाः । यूयमपि महामारिश्वासज्वरकार काश्चैव ।)
भो ! भो ! पिसाचो, भूतो, राक्षसो, यक्षो, नागो, गन्धर्वो तथा महामारी, श्वास ज्वरादि रोगों के फैलाने वाले तुम सब देव भी । २५८ ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
सुयरं जेमिं पुण कुझयणं निरंतरं कण्णा । भावे भणमाण, निसुतु सुरासुरे सब्वे । २५९ | सुष्टुतरं येषां पुनः कुध्यानं निरंतरं (दत्त) कर्णाः । भावेन भण्यमानं निःशृण्वन्तु सुरासुराः सर्वे ।)
और वे लोग भी जिनका निरन्तर प्रत्येक का बुरा करने की ओर ही ध्यान रहता है, वे सब सुर एवं असुर, मैं जो भाव पूर्वक कह रहा हूँ उसे अच्छी तरह कान खोल कर सुन लें |२५| अण्णाणपमाएणं, अहवा वि य असूय पउग्गेणं । मिच्छामि निवेसेणं, वावि वीमंसओ वावि । २६० | ( अज्ञानप्रमादेन, अथवापि च अनुसूया प्रउग्रोण | मिथ्यात्वाभिनिवेषेण वापि विमर्षतो वापि ।)
1
अज्ञान, प्रमाद, अथवा तीव्र अह, मिथ्यात्व के अभिनिवेशवश अथवा ग्रमर्षवशात् –।२६०
जइरिच्छा भएण वेरेण य पुव्वभव निबद्धण । जावितेऽज्झ जिणाणं, मणसा वि विहंसुरो पावं । २६१। ( यदृच्छया भयेन वा, वैरेण पूर्वभव निबद्ध ेन ।
यातोऽद्य जिनानां मनसापि विविस्वः पापं । )
[ ७७
'
अकाररण ही, भयवश अथवा पूर्व भव में निबद्ध वैर के प्रति - शोध के लिये जितने आज जिनेश्वर हैं, उनके प्रति मन में भी किसी प्रकार की दुर्भावना लावेगा - २६१ ।
तस्स उ नियण इहं, दोसेण पलीवियं असरणस्स | फिट्टीहि सिरं सिन्धं सुरस सारेण नीसेसं । २६२ | ( तस्य तु निजकेने हदोषेण प्रदीप्तं अशरणस्य । स्फुटिष्यति शिरं शीघ्र, सुरस्य सारेण निःशेषम् । )
उस अशरण का शिर उसके अपने इस अपराध के फलस्वरूप वज्र से जल कर शीघ्र ही पूर्ण रूपेण फटकर बिखर जायगा । २६२ ।
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७८ ]
अहवा सग्गाओ च्चिय, पडणं निस्संसयं वियाणिज्जा |
1
[ तित्थोगाली पइत्रय
इंदस्स विय न केवलमेयं तु सुरस्त इयरस्स | २६३ | ( अथवा स्वर्गतः किल, पतनं निःशंसयं विजानीथः । इन्द्रस्यापि च न केवलं, एतत् सुरस्य इतरस्य )
अथवा इस प्रकार का पाप पूर्ण विचार करने वाले का निश्चित रूपेण स्वर्ग से पतन हो जायगा। चाहे वह सामान्य सुरअसुर हो चाहे देवेन्द्र ही क्यों न हो। इस बात को आप सब भली भांति समझ लीजिये । २६३।
एवं ईसाणेणवि उत्तरलोगाधिवेण भणिए ।
इंदस्स वि य न केवलमेततु सुरम्स इयरस्स | २६४। ( एवं ईशानेनापि, उत्तरलोकाधिपेन भणिते ।
इन्द्रस्यापि च न केवलमेतत्त सुरस्य इतरस्य ।)
इसी प्रकार उत्तर लोकाधिपति ईशानेन्द्र ने भी कहा कि इस प्रकार का अपराध करने पर न केवल किसी सुर अथवा असुर का ही अपितु इन्द्र का भी स्वर्ग से पतन अवश्यंभावी है । २६४
' एवं ' चि परिगहिए, तंमिहिए भासिए सुरिंदेहि । मुक्क रयणुम्मीसं, दसद्भवणं कुसुमवासं । २६५ । (' एवं ' इति परिगृहीते, तस्मिन् हिते भाषिते सुरेन्द्रः । मुक्ता रत्नोन्मिश्र, दशार्द्ध वर्णा कुसुम वर्षाः ।)
सुरेन्द्रों के इस हितकर वचन को सभी सुरासुरों द्वारा " एवमस्तु" कहकर शिरोधार्य किये जाने पर रत्नवर्षा से मिश्रित पांच रंग के पुष्पों की वृष्टि की गई । २६५ ।
1
चुणं नानाविहवणं, वत्थाणि च बहुविहप्पमाराई | मुक्काई सहरिसेहिं, रयणाणि य पहूयाणि | २६६ | ( चूर्णं नानविधवर्णं, वस्त्राणि च बहुविधप्रकाराणि ।
मुक्तानि सहर्षेः रत्नानि च प्रभूतानि ।)
"
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तित्योगालो पइन्नय ।
हर्ष विभोर हो देवों ने विचित्र वर्णों वाले अनेक प्रकार के चूर्गों, वस्त्रों और प्रचुर मात्रा में रत्नों की वर्षा की ।२६६। अह देइ बज्जपाणि, पराए भत्तीए जिणवरिंदाण । खोभे कुंडल जुयले, सिरिदामे चेव य सुरूवे ।२६७। (अथ ददाति वज्रपाणिः, परया भक्त्या जिनवरेन्द्र भ्यः । क्षोभानि कुण्डल युगलानि, श्रीदामानि चैव च सुरूपाणि ।)
तदनन्तर वज्रपाणि शक ने परा (उत्कृष्ट) भक्ति के साथ दशों ही जिनेश्वरों (प्रत्येक) को एक एक दिव्य कुण्डलों की जोडी और एक एक कभी न कुम्हलाने वालो अति सुन्दर श्रीदाम भेंट की।२६७। वत्थालंकार विहि, सव्यं जणणीण जिणवरिंदाणं । सक्कस्स देवरण्णो, अह देति वरग्गमहिसीओ ।२६८। (वस्त्रालंकारविधिं सर्वाः जननीभ्यः जिनवरेन्द्राणाम् । शक्रस्य देवराज्ञः, अथ ददति वराग्रमहिष्यः ।)
· देवराज शक की पटरानी देवियों ने सभी जिनेन्द्रों की माताओं को अनुक्रमशः (ण्डी से चोटी तक धारण करने योग्य) सभी प्रकार के दिव्य वस्त्र तथा अलंकार भेंट किये ।२६८। किच्चेसु बहुविहेसु य, जिणाण कायव्यएसु बहुएसु । संदिसिऊण सुरिंदा, दिसाकमारीण सव्वेसिं २६९। (कृत्येषु बहुविधेषु च, जिनानां कर्तव्येषु बहुकेषु । संदेशयित्वा सुरेन्द्राः, दिक्कुमारीन् सर्वान् ।) - जिनेन्द्रों के लिये बहुत से करने योग्य अनेक प्रकार के कार्यो के सम्बन्ध में सभी दिशाकुमारियों को निर्देश देकर सुरेन्द्र... २६६। नमिऊण जिणवरिंदे, अच्छिपमाणा सुरविंदेहिं सहिया । नंदीसरवरमहिमं, काउं इंदा गया सम्गं ।२७०।
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[ तित्थोगाली पइन्नय
,
(नमित्वा जिनवरेन्द्रान् अक्षिप्रमाणात सुरवृन्दैः सहिताः । नन्दीश्वरवरमहिमां कृत्वा इन्द्राः गताः स्वर्गम् ।)
८० ]
"
जिनेन्द्रों को नमस्कार कर सुरवृन्दों सहित नन्दीश्वर द्वीप में जिनवरों की महिमा कर क्षण भर में ही इन्द्र अपने २ स्वर्गलोक को चले गये ।२७०/
इह पंडुरे पभामि, दसव ते कुलगरा निए पुते । पिच्छेति सह पियाहिं, हरिसवल्लसिय मुहकमला । २७१। (te पाण्डुरे प्रभाते, दशापि ते कुलकरा निजान् पुत्रान् । प्रक्षन्ति सहप्रियाभिः हर्षवशोल्लसित मुखकमला: 1 )
'
इधर उषाकाल में हर्षातिरेक से प्रफुल्लित वदन दशों कुलकर अपने पुत्रों सहित अपनी प्रियाओं को देखते हैं । २७१।
अह वट्ट ति जिनिंदा, दियोगवुया अणोरमसरिया । देवी देव परिवुडा, दो दो नारीहिं ते सहिया | २७२। अथ वर्तन्ते जिनेन्द्राः, दिव्यलोकवृता अनुपम श्रीकाः । देवी- देव परिवृताः, द्वि द्वि नारीभ्यां ते सहिताः । )
तदनन्तर वे अनुपम शोभाशाली जिनेन्द्र दो दो परिरक्षिका महिलाओं के साथ दिव्य लोकों, देवियों एवं देवों से घिरे रहते हैं ।२७२।
असियसिरया सुनयणा, विबोद्धा धवलदंत पंचिया | वरपउमगब्भगोरा, फुल्लुप्पलगंधनीसासा | २७३ | ( असित शिरजाः सुनयनाः, विबुधाः धवलदन्तपंक्तिकाः । वरपद्मगर्भगौराः, फुल्लोत्पलगंध निःश्वासाः । )
काले भंवर बालों, सुन्दर नेत्रों, विशिष्ट बुद्धि और श्वेत दंत पंक्ति वाले वे सभी जिनेन्द्र श्रेष्ठ पद्म पुष्प के गर्भ के समान गौर वर्ण और प्रफुल्लित उत्पल की गन्ध के समान सुगन्धित श्वासोच्छ्वास् वाले हैं । २७३ ॥
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तित्थोगाली पइन्नय ]
जाईसरा जिनिंदा, अपरिवडिएहिं तिहिउ नाणेहिं । कित्तीयय बुद्धीयय, अब्भहिया तेहि मणुए हिं | २७४। (जातिस्मराः जिनेन्द्राः, अप्रतिपतितैस्त्रिभिस्तु ज्ञानैः । कीर्त्या च बुद्ध या च, अभ्यधिकास्तै मनुष्यैः । )
वे सभी तीर्थङ्कर जातिस्मर ज्ञान तथा पुनः कभी किंचित् मात्र भी कम न होने वाले - मति, श्रुति और अवधि - इन तीन ज्ञान से युक्त तथा कीर्ति एवं बुद्धि की अपेक्षा अपने समय के सभी मनुष्यों से बहुत ही बढ़े - चढ़े (विशिष्ट) हैं । २७४ )
देणगं च वरिसं, इंदागमणं च वंसठवणाए । आहारमंगुलीए, विहति देवा मगुणं चि । २७५ | (देशून के च वर्षे, इन्द्रागमनं च (हि) वंशस्थापनाच | आहारमंगुल्यां विदधति देवा: मनोज्ञमिति । )
[ ८१
जब वे दशों जिनेश्वर एक वर्ष से कुछ न्यून अवस्था के हुए तब पुनः शक्र का आगमन हुआ । उसने दशों जिनेश्वरों के वंश की स्थापना की । देवता उन दशों प्रथम तीर्थं करों की अंगुली में मनोज्ञ अभीप्सित आहार रख देते हैं । २७५ ।
सक्को सठवणे, इक्खअगू तेण होंति इक्खागा । तालफलाहयभगिणी, होहि पत्तीति सारवणा | २७६ । ( शक्रः वंशस्थापने, इक्ष्वाग्रः तेन भवन्ति इक्ष्वाकाः । तालफलाहतस्य भगिनी, विष्यति पत्नीति सारवणा' ।)
१
वंश स्थापना के समय इन्द्र इक्षुदण्ड ले कर आया था । उस इक्षु को खाने की अभिलाषा से जिनेन्द्रों ने भुजा पसारी अतः इन्द्र ने उनके वंश की इक्ष्वाकुवंश के नाम से स्थापना की। भरत आदि दशों ही क्षेत्रों में तालफल के गिरने से मरे (दश) नर यौगलिक की बहिन को दशों कुलकरों ने यह कहकर कि वह उनके पुत्र की पत्नी होगी - अपने यहां रखा और उसका सारवण ( संगोपन- संरक्षण) किया । २०६ ।
१ सरवण संगोपना कृतेति ।
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८२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
पढमो अकालमच्चू , तहिं चालफलेणं दारगा पहाओ । कण्णाउ कुलगरेहि, सिट्ठ गहिया पीणिव्वाउ ।२७७। (प्रथमो अकालमृत्युः, तत्र तालफलैः दारकाः प्रहताः । कन्यास्तु कुलकरैः श्रेष्ठाः गृहीताः परिणायतुम् ।)
वहां (दशों क्षेत्रों में) सद्यःजात योगलिक शिशुओं में से नर शिशु की तालफल के गिरने से प्रथम अकाल मृत्यु हुई। कुलकरों ने यह कह कर कि यह श्रेष्ठ कन्या है, अपने पुत्रों के साथ उनका विवाह करने की इच्छा से उन कन्याओं को अपने यहां रख लिया ।२७७। भोगसमत्थे नाउ, वरकम्मे कासि तेसि देविंदा । दोण्हं वरमहिलाणं, बहुकम्मं कासि देवीउ ।२७८। (भोगसमर्थान् ज्ञात्वा, वरकर्माणि अकार्षन् तेषां देवेन्द्राः । द्वयोरपि वरमहिलयोः वधुकर्माणि अकार्षन् देव्यः।)
(समय पर) उन जिनेश्वरों को भोगसमर्थ जान कर वर पक्ष की ओर से किये जाने वाले सब कार्य देवेन्द्रों ने तथा उन दो दो कन्याओं के कन्यापक्ष की ओर से किये जाने वाले सभी वधू-कर्म (देवेन्द्रों की) देवियों ने किये ।२७८। एवं दसवारेज्जा, दससु वि वासेसु होंति नायव्वा । दस वि जिणाणं एते, देवासुर परिवुडा वुत्तं ।२७९। (एवं दश वरेच्छा, दशष्वपि वर्षेषु भवन्ति ज्ञातव्याः। दशानामपि जिनानामेते, देवासुर परिवृता उक्ताः ।)
इस प्रकार दशों ही क्षेत्रों में दश वरिच्छाएं होती हैं । दशों ही जिनों के देवासुरों से परिवेष्टित वृत्तान्त कहे गये हैं ।२७६। छ पुव्वसय सहस्सा, पुटिव जायस्स जिणवरिंदस्स । तो भरह बंभि सुंदरि, बाहुबलि चेव जायाई ।२८०।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
(पट पूर्व शतसहस्राणि, पूर्व जातस्य जिनवरेन्द्रस्य । ततो भरत ब्राह्मी सुन्दरी, बाहुबली चैव जाताः । )
जब जिनवरेन्द्र ऋषभदेव को जन्म ग्रहण किये ६ लाख पूर्व यतीत हो गये तब भरत, ब्राह्मी, सुन्दरी और बाहुबली का जन्म हुआ । २८०।
देवी सुमंगलाए, भरहो भी य मिहुणगं जायें । देवीए सुनन्दा, बाहुबली सुन्दरी चेव । २८१ । (देव्याः सुमंगलायाः, भरतः ब्राह्मी च मिथुनकं जातम् । देव्याः सुनन्दायाः बाहुबली सुन्दरी चैत्र ।)
[ ८३
देवी सुमंगला की कुक्षि से भरत और ब्राह्मी का मिथुन तथा देवी सुनन्दा की कुक्षि से बाहुबली और सुन्दरी का युगल उत्पन्न हुआ । २८१
अणापत्र जुले, पुचाण सुमंगला पुणो पसवे । नीतीण अक्कमणे, निवेयणं उसम सामिस्स | २८२ । ( एकोनपंचाशत युगलान् पुत्राणां सुमंगला पुनः प्रसूतवती । नीतीनामतिक्रमणे, निवेदनं ऋषभ स्वामिने |)
(अठारण वें) पुत्रों के उनपचास युगलों को देवी सुमंगला ने पुनः जन्म दिया जब अनेक यौगलिक लोग नोति का उल्लंघन करने लगे प्रमुख लोगों ने ऋषभदेव के समक्ष निवेदन किया । २८२ ॥
तो
राया करे दंड, सिट्ठ े तेसिं ति अम्ह विस होउ । मग कुलगरं सो बवी उसभो तुभे राया । २८३ । ( राजा करोति दण्डं, शिष्ट तेभ्य इत्यस्माकमपि सः भवतु । मार्गयतः कुलकरं सः ब्रवीति ऋषभः युष्माकं राजा ।)
ऋषभदेव ने कहा कि नीति का अतिक्रमण करने वालों को राजा दण्ड देता है । यह सुनकर यौगलिकों ने कहा--" हमारा भी राजा हो ।" ऋषभदेव ने कहा--" तो कुलकर से मांग करो।"
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८४ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
यौगलिकों द्वारा कुलकर नाभि के समक्षं राजा की मांग किये जाने पर उन्होंने कहा--" ऋषभ तुम्हारा राजा हो । " । २८३ । आभोउ सक्को, उवागओ तस्स कुणइ अभिसेयं । मउडाईं अलंकारं, नरिंदजोगं च से कुणइ | २८४ | (आभोगयितु ं शक्रः उपागतः तस्य करोति अभिषेकम् | मुकुटानि अलंकारं नरेन्द्र योग्यं च स करोति ।)
अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा यह सब कुछ ज्ञात कर शक्र वहां उपस्थित हुआ । देवराज ने भगवान् ऋषभदेव को नरेन्द्रों के योग्य मुकुटादि सभी अलंकारों से विभूषित कर उनका राज्याभिषेक
किया | २८४|
ु
विशिनीपन्न हिंय ते उदगं घेत ं छुहंति पाए । साहु विणीया पुरिसा, विणीय नयरी अह निविडा | २८५ ॥ (विसन्नतां प्राप्ताः परे उदकं गृहित्वा भन्ति पादयोः । साधुः ! विनीताः पुरुषाः विनीता नगर्यथ निविष्टा ।)
यौगलिक पुरुष भगवान् ऋषभदेव के राज्याभिषेक के लिये विसिनी अर्थात् नलिनी पत्रों में पानी लेकर आये पर उन्हें वस्त्राभूषणों से अलंकृत देखकर केवल उनके चरण कमलों पर पानी डाल कर अपनी ओर से अभिषेक की प्रक्रिया को सम्पन्न किया । शक्र ने यह देखकर हर्षित हो साधुवाद देते हुए कहा बहुत सुन्दर ! ये बड़ विनीत पुरुष हैं। उनके विनय को देखकर इन्द्र ने नवनिर्मापित नगरी का नाम विनीता रखा । २८५ ।
आसा हत्थी गावो गहियाई रज्ज संगह निमित्तं ।
वित्तण एवमाई चउव्विहं सगहं कुणइ | २८६ |
( अश्वाः हस्ती गावः, गृहीतानि राज्य संग्रह निमित्तम् । गृहित्वा एवमादिनि, चतुर्विधं संग्रहं करोति ।)
ܬ
राजकीय संग्रह के निमित्त घोड़ों, हाथियों और गायों को पकड़ पकड़ कर एकत्र किया गया। इस तरह के एकत्रीकरण के पश्चात् चार प्रकार का संग्रह किया गया । २८६ ।
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तित्थोगाली पइन्नय }
[८५
उग्गा भोगा राइन्न खत्तिया संगहो भवेच्चउहा । आरक्खिग गुरुवयंसा सेसा जे खत्तिया तेउ ।२८७) (उग्राः भोजाः राजन्यः क्षत्रियाः संग्रहो भवेत् चतुर्धा । आरक्षकाः गुरुवयस्याः शेषाः ये क्षत्रियास्ते तु ।)
उग्र, भोग, राजन्य और क्षत्रिय--यह चार प्रकार का संग्रह किया गया। ऋषभ देव के समवयस्क साथी आरक्षक और शेष क्षत्रिय कहलाए ।२८७।
पंचेव य सिप्पाई घडलोहे चित्त णंत कासवणाई । एक्केकस्स चाए तो वीसं भवे भेया ।२८८। (पञ्चैव च शिल्पानि घट तोल चित्र नंत कार्षपणानि । एकैकस्य चत्वारि, तत विंशतिः भवेयुः भंदाः ।)
घट, (घड प्रादि वर्तन भाण्डे बनाने का कुम्भकार का शिल्प) लोह. (लोह आदि धातुओं के अस्त्र-शस्त्र उपकरणादि बनाने का लोहकार अथवा धातुकार का शिल्प) चित्रकारी, रगत अर्थात् वस्त्रादि की बुनाई का शिल्प और कर्षण अर्थात् कृषि शिल्प--ये पांच प्रकार के शिल्प भगवान् ऋषभदेव ने लोगों को सिखाये । इन पांचों शिल्पों में से प्रत्येक के चार चार भेद किये जाने पर शिल्प के बीस भेद होते हैं ।२८८ पुत्तसयस्स पुर सयं निवेसियं तेण जणवय सयं च । . इह भारहमिवासे सो पढम पती वसुमईए ।२८९। (पुत्रशतस्य पुरशतं, निवेशितं तेन जनपदशतं च । इह भारत वर्षे सः प्रथमपती वसुमत्याः ।)
राज्य सिंहासन पर प्रारूढ होने के पश्चात् भगवान् ऋषभदव ने अपने १०० पूत्रों के लिये १०० जनपद और सौ ही नगर बसाये । इस भरत क्षेत्र में भगवान ऋषभदेव ही सबसे प्रथम पृथ्वीपति थे।२८६।
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८६ }
[ तिस्थोगाली पइन्नय दसवि जिणिंदा समये, दाणं दाऊण बच्छरं एगं । चित्त बहुलट्ठमीए, निक्खंता तेउ छ?णं ।२९०। (दशाऽपि जिनेन्द्राः समये दानं दत्वा वत्सरमेकम् । चेत्र बहुलाष्टम्यां, निष्क्रान्ता ते तु षष्ठेन ।)
दशों ही जिनेन्द्र समय पर एक वर्ष तक दान देकर चैत्र कृष्णा अष्टमी के दिन षष्ठ भक्त (बेले) की तपस्या से महाभिनिष्क्रमण कर दीक्षित हुए '२६०। फग्गुण बहुलेक्कारसी, अह अट्ठमेण भत्तंण । उप्पणंमि अणंते, महव्वया पंच पण्णवए ।२९१। . (फाल्गुन बहुलैकादश्यां, अथाष्टमेन भक्तेन । उत्पन्न ऽनन्ते, महाव्रतान् पंच प्रज्ञपयति ।)
तत्पश्चात् फाल्गुन कृष्णा एकादशी के दिन अष्टम भवत (तेले) की तपस्या पूर्वक अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन और अनन्त चारित्र के उत्पन्न होने पर पंच महाव्रतों की प्ररूपणा करते हैं ।२६१।। तस्सासि पढम तणयो, चोद्दसरयणाहियो मणुयसिंहो । भरहो णाम महप्पा, अमरवरिंदोबमसिरीउ ।२९२॥ (तस्यासीत् प्रथमतनयः, चतुर्दशरत्नाधिपः मनुजसिंहः । भरतः नाम महात्मा, अमरवरेन्द्रोपम श्रीकः ।)
उनके ज्येष्ठ पुत्र चौदह रत्नों के स्वामी मनुष्यों में सिंह के समान और देवेन्द्रों के समान श्री, ऋद्धि सिद्धि सम्पन्न एवं ऐश्वर्य शाली भरत नामक महात्मा थे।२६२। उप्पन्न चक्करयणं, भरहं वण्णेमि रयणविभवेणं । सुरवइविमाणविभवं, बचीससहस्स निवनाहं ।२९३॥ (उत्पन्नचक्ररत्नं, भरत वर्णयामि रत्नविभवेन । सुरपति-विमानविभवं; द्वात्रिंशत्सहस्रनपनाथम् ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[८७
जिनके यहाँ चक्ररत्न उत्पन्न हमा, देवेन्द्र के विमान के समान वैभवशाली और बत्तीस हजार नरेश्वरों के नाथ उन चक्रवर्ती भरत के रत्नवैभव का वर्णन करता हूँ ।२६३।
छ खंड भरहसामी नवनिहिनाहं महायसं चक्कि । हयगयरहाण लक्खा, चउरासिंति तु गुणपुण्णा ।२९४। (षट्खण्ड भरतस्वामिनं नवनिधिनाथं महायशसं चक्रिम् । हयगजरथानां लक्षाः चतुरसीतिः तु गुणपूर्णाः ।)
वे भरत क्षेत्र के छः खण्डों के स्वामी, नव निधियों के नाथ, महायशस्वी और चक्री थे। उनके सर्वगुण सम्पन्न घोड़ों, हाथियों और रथों की संख्या प्रत्येक की चौरासी चौरासी लाख थी।२६४। चउसट्ठि सहस्स वारंगणाण, मुहपउगछप्पयं पयर्ड' । छन्नउई कोडीउ, पाइकाणं पयंडाणं ।२९५। (चतुःषष्टिसहस्रवारांगणानां मुखपद्माषट्पदम् प्रकटन् । षण्णवतिःकोटियः पदातिकानां प्रचण्डानाम् ।)
चक्रवर्ती भरत चौसठ हजार वरांगनाओं के मुखकमलों के भ्रमर और छयानवें करोड़ प्रचण्ड पदाति सैनिकों के स्वामो थे
२६५॥ तरुण रवि मंडलनिहं चक्कं, छत्तं च सव्वरोगहरं । रिउदप्पहरं खग्गं, दंडं विसमे वि तं समीकरणं ।२९६। (तरुणरविमण्डलनिभं चक्र, छत्रं च सर्वरोगहरम् । रिपुदर्पहरं खड्गं, दंडं विषमेऽपि तत् शमीकरणम् ।)
१ उपमा दोषोऽत्र मनसि महच्छल्यायते । प्रतोऽष्माभिरत्र खल्वधोलिखितं पदम् प्रस्तूयते :
"च उसठ्ठि सहस्स वरगण-छप्पयाण मुह प उम यउं ।"
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८८ ]
[ तित्योगाली पइन्नय
उनका चक्र मध्याह्न के तरुण सूर्यमण्डल के समान परम तेजस्वी और भास्वर छत्र सब रोगों को दूर करने वाला, खड्ग शत्रुओं के दर्प का दलन करने वाला और दण्ड विषमातिविषम को भी शम अथवा सम करने वाला था । २६६।
1
चंम रयणमभेज्जं, मणिरयणं चैव संसि रोगहरं । रविससि-किरण पर, कागिणि रयणं च तं पवरं । २९७ | ( चर्मरत्नमभेद्य, मणिरत्नं चैव संशयरोगहरम् । रविशशिकिरणपरस्थं, काकिनीरत्नं च तत् प्रवरम् 1)
1
चक्रवर्ती भरत का चर्मरत्न अभेद्य मणिरत्न सब प्रकार के संशयों और रोगों का हरण करने वाला तथा प्रति श्रेष्ठ काकिनी रत्न सूर्य और चन्द्र की किरणों से भी अधिक ज्योतिष्मान था
२६७॥
सेणा अवसर, सेट्ठिवेसमणदेव पडितुल्लं । वड्ढरयण मणोहर, पुरोहियं चैव संतिकरं । २९८ | ( सेनापति अतीवशूरं श्रेष्ठि वैश्रवण देवपरितुल्यम् । वर्धक (वर्द्धति) रत्नं मनोहरं, पुरोहितं चैव शान्तिकरम् ।)
उनका सेनापतिरत्न प्रति शूरवीर, श्रष्ठिरत्न वैश्रवरण तुल्य, वर्धक (बढइ ) रत्न मनोहर और पुरोहित रत्न परम शान्तिकारक
था |२८|
fog जीवि विक्कल, हत्थि आसिं च वाउवेग सन । इत्थीरयण महणं, चोइसरयणाई भरहस्स | २९९ / रिपुजीवितविकरालं हस्त्यश्वे च वायुवेग समे । स्त्रीरत्नं महात्मं चतुर्दश रत्नानि भरतस्य । )
,
शत्रुनों के प्राणों के लिये विकराल काल के समान तथा वायुतुल्य वेग वाले हस्तिरत्न तथा अश्वरत्न और महाप्रारण स्त्रीरत्न इस प्रकार भरत चक्रवर्ती के ये चौदह रत्न थे । २६६
१ महात्मं - महाप्राणमित्यर्थः । गाथायां 'महार्घ' इति पाठस्यापि संभावनानुमीयते ' ।
1
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तित्थोगालो पइन्नय ।
[८६
नव जोयण वित्थिण्णा, नवनिहीउ अट्ठ जोयणुस्सेहा । बारस जोयण दीहा, हिय इच्छियरयण संपुण्णा ।३००। (नव योजन विस्तीर्णाः, नवनिधयोऽष्टयोजनोत्सेधाः । द्वादश योजन दीर्घाः, हृदयेच्छितरत्न संपूर्णाः ।)
चक्रवर्ती भरत नौ निधियों के स्वामी थे। वे नौ निधियाँ नौ योजन विस्तार अर्थात् चौड़ाई वाली, पाठ योजन ऊँचाई वालो तथा बारह योजन दीर्घ अर्थात् लम्बी और मनोवांछित सब प्रकार के रत्नों से परिपूर्ण थीं ।३००।
(मूल प्रति में उपर्युक्त गाथा की संख्या २६६ है और गाथा संख्या ।३००। नहीं है) नेसप्प पंड पिंगल, रयण महापउम काल नामा य । तत्तो य महाकले, माणव-ए संखनामे य ।३०२। (निसर्प पाण्डुर पिंगल रत्न महापद्म काल नामा च । ततश्च महाकालः, माणवकः शंख नामा च ।)
नैसर्प, पाण्डुक, पिंगल, सर्वरत्न, महापद्म, काल, महाकाल, माणवक और शंख महानिधि-ये ६ प्रकार की निधियां होती हैं
।३०२॥ एवं भरह सरिच्छा, नवसुवि खेत्तेसु चक्किणो होति । एत्तो परं तु वोच्छं, जो जाओ चुओ विमाणाओ ।३०३। (एवं भरत सदृशा, नवस्वपि क्षेत्रेषु चक्रिणः भवन्ति । अतः परं तु वक्ष्ये, यः यस्मात् च्युतः विमानात् ।)
इस प्रकार भरत के समान ही ६ शेष क्षेत्रों में भी चक्रवर्ती होते हैं । अब आगे मैं यह बताऊंगा कि चौवीस तीर्थङ्करों में से कौन किस विमान से च्यवन कर उत्पन्न हुए ।३०३। चत्तारि एक्कओ तिन्निय, तओ सत्त एक्कमेकाउ । पंचहितो दोय चुए, वदामि जिणे चउव्वीसं ॥३०४।
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६० ]
[तित्थोगाली पइन्नय
(चत्वारि एकतः त्रीणि च ततः सप्त एकैकास्तु । पंचभिः ततः द्वौ च्युतान् , वन्दामि जिनान् चतुर्विशतीन् ।)
चार एक ही स्थान से, तीन एक स्थान से, सात एक एक पृथक् स्थान से तथा पाँच स्थानों से दो दो की संख्या में च्युत हए इस प्रकार इन चौवीस तीर्थ करों को मैं वन्दन करता हूं ।३०४। उसमं च जिणवरिंद, धम्म संतिं तहेव कुंथुच । सव्वट्ठ विमाणाओ, चचारि चुए णमंसामि ।३०५। (ऋषभं च जिनवरेन्द्रम् , धर्म शान्तिं तथैव कुथु च । सर्वार्थ विमानात् , चत्वारि च्युतान् नमामि ।)
सर्वार्थ सिद्ध विमान से च्यवित ऋषभदेव, धर्मनाथ, शान्तिनाथ और कुथुनाथ इन चार तीर्थङ्करों को मैं नमस्कार करता हूँ ॥३०॥ सेजसं च जिणिंद, अणतमपच्छिमं च तित्थयरं । पुप्फुत्तर विमाणाओ, तिन्निय चुया नमंसामि |३०६। . (श्रेयांसं च जिनेन्द्र अनन्तमपश्चिमं च तीथङ्करम् । पुष्पोत्चर विमानात् , त्रयश्च च्युतान् नमस्यामि ।)
पुष्पोत्तर विमान से च्युत हुए श्रेयांसनाथ, अनन्त नाथ और अन्तिम तीर्थङ्कर भगवान महावीर इन तीनों को मैं नमस्कार करता हूँ।३०७। हेट्ठिम गेवेज्जाओ संभवं, पउमप्पहं उवरिमायो। मज्झिम गेवेज्ज चुयं, वंदामि जिणं सुपासरिसिं ।३०।७ (अधस्थ ग्रेवेयकात् संभवं, पद्मप्रभ उपरिमात् । मध्यम वेयकच्युतं, वंदामि जिनं सुपार्श्वर्षिम् ।)......
__ अधो ग्रैवेयक से च्युत हुए सभवनाथ, उपरिम ग्रंवेयक से च्युत हुए पद्मप्रभु और मध्यम ग्रैवेयक से च्युत हुए सुपार्श्वनाथ तीर्थङ्कर को मैं नमस्कार करता हूँ।३०७।
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तित्थोगाली पइन्नय]
[ ६१
आणयकप्पा सुविहीं, सियलजिणमच्चुयाओ कप्पाओ। सुक्काउ वासपुज्ज, सहस्साराओ चुयं विमलम् ।३०८। (आनतकल्पात् सुविधि, शीतलजिनमच्युतात् कल्पात् । शुक्रात् वासुपूज्यं, सहस्रारात् च्युतं विमलम् ।)
आनत कल्प से च्युत हुए सुविधिनाथ, अच्युत कल्प से च्युत हए शीतलनाथ. शुक्र कल्प से च्यूत हये वासुपूज्य और सहस्रार से च्युत हए विमलनाथ तीर्थङ्कर को मैं नमस्कार करता हूँ।३०८। अभिनंदणं च अजियं, विजयविमाणच्चुयं नमसामि । चंदप्पहं च सुमई, दोविच्चुया वेजयंताओ ।३०९। (अभिनंदनं च अजितं, विजयविमानच्युतं नमस्यामि । चन्द्रप्रभ च सुमति, द्वावपिच्युतौ वैजयंतात् ।) - विजय विमान से च्युत हुए तीर्थङ्कर अभिनन्दन और अजितनाथ को तथा वैजयन्त विमान से च्युत हुए भगवान् चन्द्रप्रभ और सुमतिनाथ को मैं नमस्कार करता हूँ।३०६। अरमल्लिं जयंताओ, नमि नेमि पराइया विमाणाउ । मुंणि सुव्वयं च पामं, पाणयकप्पाच्चुयं वंदे ।३१०। (अरं मल्लिं जयन्तात् , नमि नेमिं अपराजितात् विमानात् । मुनि सुव्रतं च पाय, प्राणतकल्पात् च्युतं वन्दे ।)
जयन्त विमान से च्युत हुए भगवान् अरनाथ एवं मल्लिनाथ को, अपराजित विमान से च्युत हुए नमिनाथ एवं अरिष्टनेमि को और प्राणतकल्प से अवतरित हुए भगवान मुनिसुव्रत तथा पार्श्वनाथ को मैं वन्दन करता हूँ ।३१०। वयणघडेण एवं, भणेमि जिणवरा चउव्वीसं । चरिमभवे वोक्कते, एत्तो जम्म निसामेह ।३११। (वचनघटनया, भणामि जिनवरान् चतुर्विंशान् । चरम भवे व्युत्क्रांत, इतः जन्म निसामयता ।)
जया
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[ तित्योगाली पइन्नय
पद्यरचना द्वारा मैं चौवीस जिनेश्वरों के सम्बन्ध में कथन कर रहा हूँ । उनके अन्तिम देव भव का कथन समाप्त हुआ अब उनके सम्बन्ध में सुनिये | ३११०
२ ]
पंचसु एरव, पंच भरहेसु जिणवरिंदाणं । ओप्पणी इमीसे, दससु वि खेच सु समकालं | ३१२। (पंचसु ऐरवतेषु, पंचभरतेषु जिनवरेन्द्राणाम् । अवसर्पिण्यामस्यां दशष्वपि क्षेत्रेषु समकालम् ।)
"
पांचों ऐरवत क्षेत्रों में और पांचों ही भरत क्षेत्रों अर्थात् ढाई द्वीप के इन दशों क्षेत्रों में, जहां कि अवसर्पिणी तथा उत्सर्पिणी रूपी काल चक्र अनुक्रमशः अनवरत गति से अनादिकाल से चलता आया है, चल रहा है और अनन्तकाल तक चलता रहेगा, वहां इस अवसर्पिणी काल में तीर्थङ्करों की चौवीसी का पूर्णतः सम सामयिक अथवा समान काल रहा है । ३१२ ।
उसभी य भरहवासे, बालचंदाणणो एरवए उ ।
एग समएण जाया, दसवि जिणा विस्स देवो' हि । ३१३ | ( ऋषभश्च भारतवर्षे, बाल चन्द्रानन ऐरवते तु ।
एक समयेन जाताः, दशाऽपि जिनाः वैश्व देवो हि ।
भरत क्षेत्र में ऋषभ देव और ऐरवत क्षेत्र में बाल चन्द्रानन, तीर्थङ्कर एक ही समय में उत्पन्न क्षेत्रों में एक साथ प्रकट हुई ।
इस प्रकार दशों क्षेत्रों में दशों प्रथम हुए । इनके समय में अग्नि भी दशों | ३१३। ( इस गाथा में जन्म नक्षत्र का उल्लेख नहीं है ।)
१ पंचसु भरतक्षेत्रेषु तथैव पंचस्वैरवतक्षेत्रेषु प्रथम तीर्थंकराणां समये वैश्वा नरस्योत्पत्तिः संजाता । गाथायामत्र प्रयुक्तस्य विस्सद्दवो' - पदस्य संस्कृत स्वरूपं वैश्वदेवः भवति । श्रग्नेरुत्पत्तिमुद्दिश्यैवैतद् पदं ग्रन्थकर्ता प्रयुक्त स्यादिति प्रतीयते । इतरार्थोऽस्य पदस्य नास्भाभिरनुमीयते ।
२ ऐरवत क्षेत्रोत्पन्न प्रथम जिनस्य नाम चण्द्राननः । बाल शब्दोऽत्र चन्द्रस्य विशेषणार्थे छन्दोऽनुरोधादेव प्रयुक्त इतिसिद्धम् ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
अजिय भरहवासे, सुयणु सुचंदो य एरवय वासे । एक समएण जाया, दस वि जिणा रोहिणी जोए | ३१४ | ( अजितः भारतवर्षे, सुतनुः सुचन्द्रश्च ऐरवतवर्षे । एक समयेन जाताः, दशाऽपि जिना: रोहिणी योगे ।)
भरत क्षेत्र में अजितनाथ और ऐरवत क्षेत्र में सुचन्द - इस प्रकार ये द्वितीय दशों तीर्थङ्कर भी चन्द्रमा का रोहिणी नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही समय में उत्पन्न हुए । ३१४ | भर य संभव जिणो, एग्वए अजियसेण जिणचंदो । एगसमएण जाया दसवि जिणिंदा पुणव्वसुणा । ३१५ । ( भरते च संभव जिनः, ऐरवते अजित सेनजिनचन्द्रः | एक समयेन जाताः, दशाऽपि जिनेन्द्राः पुनर्वसुना ।)
[ ६३
भरत क्षेत्र में संभव जिन और ऐरवत क्षेत्र में अजितसेन - इस प्रकार दशों क्षेत्रों में दशों ही तीर्थंकर चन्द्र का पुनर्वसु नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही समय में हुए । ३१५ ।
समय
( भरत क्षेत्र में अभिनन्दन और ऐरवत क्षेत्र में नंदिसेण एक में उत्पन्न हुए--- इस अभिप्राय की गाथा लिपिकार के दोष से मूल प्रति में नहीं लिखी गई है ।)
सुमती
य भरहवासे, इसिदिण्ण जिणो य एरवय वासे । एग समण जाया, दसवि जिनिंदा महा जोगे | ३१६ | (सुमतिश्च भारतवर्षे, ऋषिद चजिनश्चैरवतवर्षे ।
एक समयेन जाताः दशाऽपि जिनेन्द्राः मघा योगे ।)
भरत क्षेत्र में सुमतिनाथ और ऐवत क्षेत्र में तीर्थ कर इसिदि ( ऋषिदत्त ) - - - ये दशों तीर्थ कर मघा नक्षत्र के योग में एक ही समय में उत्पन्न हुए । ३१६।
उपभो य भर, वयधारि जिणो य एरवयवासे ।
एग समएण जाया, दसवि जिणा चिच जोगम्मि | ३१७|
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-६४ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(पद्मप्रभश्च भरते, वयधारिः (व्रतधारी) जिनश्चैरवतवर्षे । एक समयेन जाताः, दशाऽपि जिनाश्चित्रायोगे ।)
भरत क्षेत्र में तीर्थ कर पद्मप्रभ और ऐरवत क्षेत्र में वयधारी जिनेश्वर, इस प्रकार चन्द्र का चित्रा नक्षत्र के साथ योग होने पर दशों क्षोत्रों में छठे दशों तीर्थ कर एक काल अथवा एक हो समय में जन्मे ।३१७। भरहे य सुपासजिणो. एरवए सामचंद जिणचन्दो। एग समएणजाया, दसवि जिणिंदा भू (?) विसाहाये योगे ।३१८। (भरते च सुपार्श्वजिनः, ऐरवते सा(सो)मचन्द्र जिनचन्द्रः । एक समयेन जाताः, दशाऽपि जिनेन्द्राः विशाखायोगे ।)
भरत क्षेत्र में सुपार्श्वनाथ और ऐरवत क्षेत्र में तीर्थ कर सामचन्द्र ये दशों ही सातवें तीर्थकर दशों क्षेत्रों में चन्द्र का विशाखा नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही समय में हुए ।३१८। चन्दप्पभो य भरहे, एरवए दीहासण जिणचंदो । एग समयेण जाया, दसविय अणुराह जोगम्मि ।३१९। (चन्द्रप्रभश्च भरते, ऐरवते दीर्घासनः जिनचन्द्रः । . एक समयेन जाताः दशाऽपि चानुराधायोगे ।) .
भरत क्षेत्र में आठवें तीर्थंकर चन्द्रप्रभ. और ऐरवत क्षेत्र में दीर्घसेन---इस प्रकार दशों ही क्षेत्रों में दशों ही पाठवें तीर्थकर चन्द्र का अनुराधा नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही समय में उत्पन्न हुए ।३१६। (इस गाथा का क्रमांक मूल प्रति में ३१८ है। ३१६ वीं गाथा मूल में नहीं है।) सुविही य भरहवासे, एरवए चेव जिणवर सयाऊ । एगसमयम्मि जाया, दसवि जिणा मूल जोगम्मि ।३२१। (सुविधिश्च भारतवर्षे, ऐरवते चेव जिनवर शतायुः । एकसमये जाताः, दशाऽपि जिनाः मूलयोगे ।)
नौवें तीर्थ कर भरत क्षेत्र में सुविधिनाथ और ऐरवत क्षेत्र में शतायु ये दशों ही तीर्थ कर चन्द्रमा का मूल नक्षत्र के साथ योग होने
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ९५ दर एक ही समय में उत्पन्न हुए ।३२१॥ भरहे य सीयल जिणो, एरवए मुबई जिणवरिंदो । पुव्वासाढारिक्खे, जाया जिणपुंगवा एते ।३२२। (भरते च शीतलजिनः, ऐरवते सुव्रती जिनवरेन्द्रः । पूर्वाषाढा ऋक्षे, जाताः जिनपुंगवा एते )
दशवें तीर्थकर भरत क्षेत्र में शीतलनाथ और ऐरवत क्षेत्र में सुव्रती ये दशों तीर्थंकर चन्द्र का पूवाषाढ़ा नक्षत्र के साथ योग होने पर उत्पन्न हुए ।३२२॥ भरहे सेज्जंस जिणो, एरवए जुत्तिसेण जिणचन्दो। एग समएण जाया, दसवि जिणिंदा सवण जोगे ।३२३॥ (भरते श्रेयांस जिनः, ऐरवते युक्तिसेन जिनचन्द्रः। एक समयेन जाताः दशाऽपि जिनेन्द्राः श्रवणयोगे ।)
ग्यारहवें तीर्थंकर भरत क्षेत्र में श्रेयांस नाथ और ऐरवत क्षेत्र में युक्तिसेन ये पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्र के दश तीर्थंकर चन्द्र का श्रवण नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही समय में उत्पन्न हुए।३२३। भरहे य वासपुज्जो, सेजसजिणो य एरवय वासे । सयभिसया नक्खत्ते, दसवि जिणिदा समं जाया ।३२४ (भरते च वासुपूज्यः, श्रेयांस जिनश्चैरवतवर्षे । शतभिषा नक्षत्रे, दशाऽपि जिनेन्द्राः समं जाताः ।)
बारहवें तीर्थंकर भरत क्षेत्र में वासुपूज्य और ऐरवत क्षेत्र में श्रेयांस ये दशों तीर्थ कर शतभिषा नक्षत्र के साथ चन्द्र का योग होने पर एक ही समय में उत्पन्न हुए ।३२४ विमलो रह भरहवासे, एरवए सीहसेण जिनचंदो । उत्तर भवयाहिं, दसवि जिणा एग समयेणं ।३२५। (विमलोऽहत् भारतवर्षे. ऐरवते सिंहषेण जिनचन्द्रः । उत्तराभाद्रपदायां, दशाऽपि जिनाः एक समयेन ।
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६ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
तेरहवें तीर्थंकर भरत क्ष ेत्र में विमलनाथ और ऐरवत क्षेत्र में सिंहसेन - ये दशों ही तीर्थंकर उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र में एक ही समय उत्पन्न हुए । ३२५ ।
भर य अनंत जिणो एखए असंजलो जिणवरिंदो । एग समयेण जाया दसवि रेवईयोगे । ३२६ |
( भरते च अनंतजिनः ऐरवते असंजलो जिनवरेन्द्रः | एक समयेन जाताः दशाऽपि रेवतीयोगे ।)
चौदहवें तीर्थंकर भरत क्ष ेत्र में अनन्तनाथ और ऐरवत क्ष ेत्र में संजल ये दशों ही चन्द्र का रेवती नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही समय में उत्पन्न ह ुए । ३२६ ।
धम्मो य भरहवासे, उवसंत जिणो य एरवयवासे । ए समएण जाया, दसवि जिणा पुरुस जोगम्मि | ३२७ | (धर्मश्च भारतवर्षे, उपशान्तजिनश्चैरवतवर्षे |
एक समयेन जाताः दशाऽपि जिनाः पुष्ययोगे ।)
पन्द्रहवें तीर्थंकर भरत क्षेत्र में धर्मनाथ तथा ऐरवत क्षेत्र में उपशान्तये दशों तीर्थंकर चन्द्रमा का पुष्य नक्षत्र के साथ योग होने पर दशों क्षेत्रों में एक ही साथ हुए । ३२७ ।
संती य भरहवासे, एखए दीहसेण जिणचन्दो |
एग समएण जाया, दसवि जिनिंदा भरणि जोए | ३२८ | (शान्तिश्च भारतवर्षे, ऐरवते दीर्घषेण जिनचन्द्रः |
एक समयेन जाताः दशाऽपि जिनेन्द्राः भरणियोगे ।)
,
सोलहवें तीर्थंकर भरत क्षेत्र में शान्तिनाथ और ऐरवत क्षेत्र में दीर्घसेन ये दशों ही तीर्थंकर चन्द्र का भरण नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही समय में उत्पन्न हुए । ३२८ |
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तित्थोगाली पइन्नय ]
कुंथू य भरहवासे, एरवयंमि य महाहि लोगवलो । एगसमएण जाया, दसवि जिनिंदा कित्तियाजोगे । ३२९ | ( कुथुश्च भारतवर्षे, ऐरवते च महाहि लोकबलः । एकममयेन जाताः, दशोऽपि जिनेन्द्राः कृत्तिकायोगे ।)
सत्रहवें तीर्थकर भरत क्षेत्र में कुथुनाथ और ऐरवत क्ष ेत्र में लोकबल - ये दशों तीर्थंकर चन्द्रमा का कृत्तिका नक्षत्र के साथ योग होने पर एक समय में उत्पन्न हुए ३२६ होइअरो य महंतो भरहे अइपास जिणो य एखए । एगसमरण जाया, दसवि जिणा रेवई जोगे | ३३० | ( भवति अरश्न महान् भरते अतिपार्श्वः जिनश्चैरवते । एकसमयेन जाताः, दशाऽपि जिना रेवतीयोगे ।)
[ ६७
अठारहवें तीर्थङ्कर भरत क्षेत्र में अरनाथ और ऐरवत क्ष ेत्र में अतिपार्श्व -- ये दशों तीर्थङ्कर चन्द्रमा का रेवती नक्षत्र के साथ योग होने पर एक समय में उत्पन्न हुए । ३३०| मल्ली य भरहवासे, मरुदेवी जिणो य एरवयवासे ।
एगसमएण जाया. दसबि जिणा अस्सिणी जोगे । ३३१ | (मल्ली च भारतवर्षे, मरुदेवी [वो] जिनश्चैरवतवर्षे ।
एक समयेन जाताः, दशाऽपि जिना अश्विनीयोगे ।)
उन्नीसवें तीर्थंकर भरत क्षेत्र में मल्लीनाथ और ऐरवत क्षेत्र में मरुदेवी ( मरुदेव ) - ये दशों तीर्थंकर अश्विनी नक्षत्र के योग में एक ही समय जन्मे । ३३१ ।
( बीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रत और ऐरवत के तीर्थंकर वर के उल्लेख की गाथा संभवतः लिपिक के दोष से मूल प्रति में नहीं लिखी गई है ।) नमि' जिणचन्दो भरहे, एरवए सामकोह [ ड] जिणचंदो ।
एगसमरण जाया, दसवि जिणा अस्सिणी जोगे । ३३२ |
१ विशतितमतीर्थंकर मुनिसुव्रतस्थाय तस्य समये ऐरवत क्षेत्रे जातस्य तीर्थङ्करस्य च नात्र समुल्लेखं विद्यते । लिपिक दोषेणैका गाथाव परित्यक्त ेति सुनिश्चितमेव ।
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[ तित्थोगाली पइन्नय
८]
(नमिः जिनचन्द्रः भरते ऐरवते श्यामकोष्ठः जिनचन्द्रः । एकसमयेन जाताः, दशाऽपि जिना अश्विनीयोगे ।]
इक्कीसवें तीर्थंकर भरत क्षेत्र में नमिनाथ और ऐरवत क्षेत्र में श्यामकोष्ठ ये दशों तीर्थंकर दशों क्षेत्रों में एक ही समय में चन्द्र का अश्विनी नक्षत्र के साथ योग होने पर उत्पन्न हुए । ३३२ | भर अरिनेमि, एरar अग्गिसेण जिणचंदो । एगसमएण जाया. दसवि जिणा चित्त जोगम्मि ३३३| ( भरते अरिष्टनेमिः, ऐरवते अग्निषेण जिनचन्द्रः । एकसमयेन जाताः, दशाऽपि जिनाः चित्रायोगे )
बावीसवें तीर्थंकर भरत क्षेत्र में प्ररिष्टनेमि और ऐरवत क्षेत्र में अग्निषेण - ये दशों तीर्थंकर चन्द्र का चित्रा नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही वेला में उत्पन्न हुए । ३३३ |
पासो य भरहवासे, एरवए अग्गिदत्त [ उत्त] जिणचंदो । एग समएण जाया, दसवि विसाहाहि जोगंमि | ३३४ | (पार्श्वश्च भारतवर्षे, ऐरवते अग्निदच [गुप्त ] जिनचन्द्रः । एक समयेन जाताः, दशाऽपि विशाखायोगे ।)
बीसवें तीर्थंकर भरत क्षेत्र में पार्श्वनाथ और ऐरवत क्षेत्र में अग्निदत्त, ये दश तीर्थंकर चन्द्र का विशाखा के साथ योग होने पर एक ही समय में उत्पन्न हुये ॥ ३३४ ॥
भरहे वीर जिणिंदे, एखए वारिसेण जिणचंदो | हत्त्युत्तराहि जोगे, जाया तित्थंकरा दसवि ३३५ । (भरते वीर जिनेन्द्र:, ऐरवते वारिषेण जिनचन्द्रः । हस्तोत्तरायाः योगे. जाताः तीर्थंकराः दशाऽपि ।)
चौवीसवें तीर्थंकर भरत क्षेत्र में वीर (महावीर ) प्रौर एरवत क्षेत्र में वारिषेण ये दशों ही तीर्थंकर चन्द्रमा का हस्तोत्तरा नक्षत्र के साथ योग होने पर एक ही समय में उत्पन्न हुए । ३३५।
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तित्योगाली पइन्नय ]
एवं भणिया जम्मा, दससु वि खेत सु जिणवरिंदाणं । एतो परं तु वोच्छं, वण्णविभागं समासेणं । ३३६ | ( एवं भणिताः जन्मानि दशष्वपि क्षेत्रेषु जिनवरेन्द्राणाम् । इतः परं तु वक्ष्ये, वर्णविभागं समासेन ।)
इस प्रकार ढाई द्वीपों के पांच भरत क्षेत्रों एवं पांच एरवत क्षेत्रों - इस प्रकार दश क्षेत्रों के तीर्थंकरों के जन्म समय का कथन किया। अब इससे आगे मैं उन तीर्थंकरों के वर्णविभाग का संक्षेपतः वरणन करूंगा । ३३६
चचारि कालगा जिणवराउ, चउरो पियंगु वण्णामा | चचारि पउमगोरा, ससिप्पभा होंति चचारि | ३३७। ( चत्वारः कालका जिनवरास्तु चत्वारो प्रियंगुवर्णाभाः । चत्वारो पद्मगौराः, शशिप्रभा भवन्ति चत्वारि ।)
"
[ εε
1
चार तीर्थंकर श्यामवरं के चार प्रियंगु अर्थात् जामुन के रंग जैसी प्रभा वाले, चार तीर्थंकर पद्मगर्भ के समान गौरवर्ण के, चार तीर्थंकर चन्द्रमा की चटक चाँदनी के समान श्वेत वर्ण के थे ।३३७।
( स्पष्टीकरण :-- इस गाथा में वर्ण विभाग की दृष्टि से विभिन्न वर्गों के तीर्थंकरों की जो संख्या १६ दी गई है वह केवल जम्बू द्वीप के भरत तथा ऐरवत क्षेत्र के तीर्थंकरों को ही है । इन तीर्थं करों के साथ धातकी खण्ड और पुष्करार्ध द्वाप के भरत तथा ऐरवत क्षेत्रों में उत्पन्न हुये ६४ तीर्थंकरों की संख्या को जोड़ने पर अवसर्पिणी काल की दश चौबीसियों (पांच चौबोसियाँ ढाई द्वीप के ५ भरत क्षेत्रों की और पांच ही चौत्रीसियां ढाई द्वीप के पांच एरवत क्षेत्रों की ) । के २४० तीर्थ करों में से ८० तीर्थं करों के वर्णों का उल्लेख इस गाथा में बताया गया है ।)
जम्बू द्वीप के भरत खण्ड की चौबीसी के प्राठ तथा एरवत क्षेत्र की चौबीसी के आठ इस प्रकार १६ तीर्थंकरों के वर्णों के विवरण के पश्चात् जम्बूद्वीप के भरत खण्ड की चौबीसी के शेष १६
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१०० ]
[ वियोगाली पइन्नय
और ऐरवत क्षेत्र की चौबीसी के १६ - इस प्रकार जम्बू द्वीप के दोनों क्षेत्रों की अवसर्पिणी काल की दो चौबीसियों के शेष ३२ तीर्थंकरों के वर्णं का उल्लेख करते हुये तित्थोगाली पइन्नयकार कहते हैं :
वरकणगतविय वण्णा, बत्तीस सेसगा जिंणवरिंदा | भरहे एवं वा, दंससुबि खेत्तेसु जिणचंदा | ३३८ । ( वरकन कतापितवर्णाः, द्वात्रिंशत् शेषका : जिनवरेन्द्राः । भरते ऐरवते वा, दशस्वपि क्षेत्रेषु जिनचन्द्राः । )
शेषं बत्तीस (३२) तोर्थ कर तपाये हुये शुद्ध एवं श्रेष्ठ स्वर्ण के वर्ण के समान शरीर की कान्ति वाले थे। इसी प्रकार धातकी खण्ड के दो भरत क्ष ेत्रों एवं दो एरवत क्ष ेत्रों तथा पुष्करार्द्ध द्वीप के दो भरत क्षेत्रों और एरवत क्षेत्रों के शेष १२८ ( ढाई द्वीप के दश क्षेत्रों के शेष कुल १६० ) तीर्थंकर प्रतप्त शुद्ध श्रेष्ठ स्वर्ण के समान वर्ण वाले थे । ३३८ ।
fiore भर, एरवयम्मि वरो य सामलगा ।.
भरहे अरिनेमिं एरar अग्गिसेणोति ॥ ३३९ |
1
( मुनि सुव्रतः भरते, ऐरवते वरश्च श्यामलकाः । भरते अरिष्टनेमिः ऐरवते अग्निषेण इति ।)
,
जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र में मुनि सुव्रत और उनके साथ ही एरवत क्ष ेत्र में उत्पन्न हुये तीर्थंकर वर (घर) भरत क्ष ेत्र में भगवान अरिष्टनेमि और उनके साथ एक ही वेला में उत्पन्न हुये एरवत क्ष ेत्र के बावीसवें तीर्थंकर अग्निषेण श्यामवर्ण के थे । ३३६ ।
चउसु वि एव सु, एवं चउसु विय भरह वासेसु । सोलस वि सामलंगा, जिणचंदा होंति नायव्वा । ३४० | ( चतसृष्वपि ऐरवतेषु, एवं चतसृष्वपि च भरतवर्षेषु । षोडश अपि श्यामलांगाः, जिनचन्द्राः भवन्ति ज्ञातव्याः । )
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ १०१
इसी प्रकार धातकी खण्ड एवं पुष्करार्द्ध द्वीप के चारों भरत क्षत्रों और चारों एरवत क्षेत्रों में (भगवान् मुनि सुत्रत तथा भगवान् अरिष्टनेमि के साथ एक ही समय में ) उत्पन्न हुये सोलही ( १६ ही ) तोर्थंकर श्याम के थे, यह ज्ञातव्य है । ३४०|
( इस प्रकार वर्तमान अवसर्पिणी काल की ढाई द्वीप मं हुई १० चौवीसयों के २४० तीर्थ करों में से २० तीर्थंकर श्यामवर्ण के थे ।)
1
पासोय अग्गिदत्तो, गल्ली मरुदेवी केवली चेव । एते चचारि जिणा, प्रियंगु सामा मुणेयव्वा । ३४१ । (पार्श्वश्च अग्निदत्तः, मल्ली: मरुदेवी केवली चैत्रः । एते चतस्रो जिनाः, प्रियंगुश्यामाः मुनेतव्याः । )
जम्बूद्वीप के भरतक्षत्र के तेवीसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ एवं 'उनके साथ एक ही समय में उत्पन्न हुये जम्बूद्वीप के एरेवत क्षेत्र के २३ वें तीर्थ कर अग्निदत्त तथा जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के १६ वें तीर्थ कर मल्लीनाथ एवं उनके जन्म के साथ ही उत्पन्न हुये जम्बूद्वीप के एरवत क्षेत्र के १६ वें तीर्थंकर मरुदेवी ( मरुदेव ) – ये चारों प्रियंगुश्यामाभ वर्ण के थे ऐसा जानना चाहिए । ३४१ ।
1
पंचसु rears, एवं पंचसु वि भरहवासे । बीपियंगुवण्णा, अहिंसि ओसप्पिणीए जिणा | ३४२ | (पंच ऐरवते. एवं पंचस्वपि भरतवर्षेषु ।
विंशति प्रियंगुवर्णाः अस्यामवसर्पिण्यां जिना: । )
इस प्रकार ढाई द्वीप के पाँच ऐरवत क्षेत्रों और पाँच भरत क्षेत्रों में इस अवसर्पिणो काल के २४० तीर्थ करों में २० तीर्थ कर जामुन के रंग के समान देह के वर्ण वाले थे । ३४२ ।
उपभो य भरहे वयधारे जिणो य एरवयवासे ।
1
1
भरमि वासपुज्जो, सिज्जंसो तह य एरवए । ३४३ | (पद्माप्रभश्च भरते, व्रतधारी जिनश्चैरवतवर्षे । भारते वासुपूज्यः, श्रीयांशस्तथा च ऐरवते ।)
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१०२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
. इस भरत क्षेत्र के छटे तीर्थंकर पद्मप्रभ और उनके समवयस्क, जम्बूद्वीप के ऐरवतक्षेत्र के छठे तीर्थंकर वयधारी, इस भरत क्षेत्र के बारहवें तीर्थंकर वासुपूज्य और उनके जन्म की वेला में हो उत्पन्न हुये, जम्बूद्वीप के ऐरवत क्षेत्र के बारहवें तीर्थकर'श्रेयांस ।३४३। चउसु वि एरवएसु, एवं चउसु वि य भरहवासेसु । एते वीस जिणंदा, बंधु कुसुमुप्पभा नेया ।३४४।। (चतसष्वप्येवतेषु, एवं चतसष्यपि च भरतवर्षेषु । एते विंशत् जिनेन्द्राः बंधूक कुसुमप्रभाः शेयाः।)
तथा धात की खण्ड द्वीप एवं पुष्कराद्ध द्वीप के चार भरत और चार ऐरवत क्षेत्रों में पद्मप्रभ के जन्म समय में उत्पन्न हये आठ छठे तीर्थकर तथा वासु पूज्य की जन्म वेला में उत्पन्न हये उक्त आठों क्षेत्रों के बारहवें पाठ तीर्थंकर. इस प्रकार अवसर्पिणी की दश क्षेत्रों की दश चौवीसियों के २४० तीर्थंकरों में से बीस (ढाई द्वीप के १० छठे और १० बारहवें) तीथं कर बंधूक कुसुम को प्रभा के समान वर्ण वाले जानने चाहिए ।३४४। चंदप्पो य भरहे, एरवए दीहासणो जिणचंदो । सुविही य भरहवा से, एरवयंमि य सयाउ जिणो ।३४५। (चन्द्रप्रभश्च भरने, ऐरवते दीर्घषण जिनचन्द्रः । सुविधिश्च भरतवणे, ऐरवते च शतायुः जिनः ।)
इस भरत क्षेत्र के आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभ और उन्हीं की जन्म बेला में उत्पन्न हुए जम्बूद्वीप के ऐरवत क्षेत्र के आठवें तीर्थङ्कर दीर्घासन, इसी भरत क्षेत्र के नौवें तीर्थङ्कर सविधिनाथ तथा उनके समवयस्क, जम्बूद्वीप के ऐरवत क्षेत्र के नौवें तीर्थंकर शतायु-१३४५॥ चउसु वि एरवएसु, एवं चउसु वि य भरहवासेसु । एते वीसं धवला, जिणचंदा होति नायव्वा ३४६। (चतसष्वप्येरवतेषु, एवं चतसम्वपि च भरतवर्नेषु । एते विंशतिः धवलाः, जिनचन्द्राः भवन्ति ज्ञातव्या ।)
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तित्योगाली पइन्नय }
[ १०३
और धातकी खण्ड तथा पुष्क रार्द्ध द्वीप के चार भरत और चार ही ऐरवत इन आठ क्षेत्रों में चन्द्रप्रभ की जन्म-वेला में ही उत्पन्न हए आठवें आठ तीथ कर तथा सुविधिनाथ के जन्म समय में एक ही वेला में उत्पन्न हए नौवें आठ तीर्थकर इस प्रकार कूल बीस (२०) तीर्थ कर श्वेत वर्ण के होते हैं, ऐसा जानना चाहिए ।३४६। उसभो य भरहवासे, बालचंदाणणो य एरवए । अजिए उ भरहे वासे, एरवयंमि य सुचंद जिणो ।३४७। (ऋषभश्च भरतवर्षे, बाल-चन्द्राननश्चैरवते । अजितस्तु भारत वर्षे, ऐरवते च सुचन्द्रः जिनः ।) . जम्बू द्वीप के भरत क्षेत्र के प्रथम तीथ कर ऋषभदेव तथा जम्बूद्वीप के ए रवत क्षेत्र के प्रथम तीर्थ कर बालचन्द्रानन, इसी भरत थोत्र के दूसरे तीर्थ कर अजितनाथ तथा जम्बूद्वीपस्थ ऐरवत क्षेत्र के द्वितीय तीर्थ कर सुचन्द - ३४७। भरहे य संभवजिणो, एरवए अग्गिसेण जिणचंदो । अभिनंदणो य भरहे, एरवए नंदिसेण जिणो ३४८। (भरते च संभव जिनः, ऐरवते अग्निषण जिनचन्द्रः । अभिनन्दनश्च भरते. ऐरवते नन्दिषण-जिनः ।)
जम्बूद्वीपस्थ भरत क्षेत्र के तोस रे तीर्थ कर संभवनाथ जम्बूद्वीपस्थ एरवत क्षेत्र के तीसरे तीर्थकर अग्नि मेन इसी भरत क्षेत्र के चौथे तीर्थकर अभिनन्दन, जम्बूद्वीपस्थ ऐरवत क्षेत्र के चौथे तोर्थंकर नंदिसेन-।३४८। मुमई य भरहवासे, इमिदिण्ण जिणो य एरवयवासे । भरहे य सुपास जिणो एरवए साम चंद जिणो ३४९। (सुमतिश्च भरतवर्षे, ऋषिदत्त जिनश्च ऐरवतवणे । भरते च सुपाव जिनः, ऐरवते श्यामचन्द्रः जिनः ।)
जम्बूद्वीपीय भरत क्षत्र के पांचवें तीर्थंकर सुमतिनाथ, जम्बूद्वीपीय ए रवत क्षेत्र के पांचवें तीर्थंकर ऋषिदत्त, इसी भरत क्षेत्र
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१०४ ]
[ तित्योगाली पइन्नय
के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ, जम्बू द्वीप के एरवत क्षेत्र के सातवें तीर्थंकर श्यामचन्द -- १३४९ ।
भरहे य सीयल जिणो, एरवए सुब्बई जिणवरिंदो ।
भर सेज्जं जिणो, एरवए जुक्तिसेणो वि | ३५० (भरते च शीतलजिनः एरवते सुब्रती जिनवरेन्द्रः । भरते श्र यांसजिनः, ऐरवते युक्तिषेणोऽपि )
इसी भरत क्षेत्र के दशवें तीर्थंकर शीतलनाथ, जम्बूद्वीपीय ऐरवत क्षेत्र के दशवें तीर्थंकर सुव्रती, इसी भरत के ग्यारहवें तीर्थंकर श्रेयांसनाथ, जम्बूद्वीपीय ऐरवत क्षेत्र के उनके समवयस्क ग्यारहवें तीर्थकर युक्तिसेन । ३५० ।
विमलो य भरहवासे, एरवए सीहसेण जिणचंदो ।
भर अनंतई जिणो, अजल जिणो य एखए । ३५१ । ( विमलश्च भरतवर्णे, ऐरवते सिंहषेण - जिनचन्द्रः । भरते अनन्त हि जिनः, असंजल (आश्वञ्जल) जिनश्च ऐरवते ।)
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के १३ वें तीथ कर विमलनाथ और ऐरवत क्षेत्र के तेरहवें तीर्थंकर सिंहसेन, इसा भरत क्षेत्र के १४ वें तीर्थ कर अनन्तनाथ, एरवत क्षेत्र के चौदहवें तीर्थ कर असंल । ३५१ |
धम्मो य भरहवासे, उवसंत जिणोय एरवयवासे । संती य भरहवासे, एरवए दीहसेण - जिणो । ३५२ | ( धर्मश्च भरतवर्षे, उपशान्त जिनश्चैरवतवर्णे | शान्तिश्च भारतवर्णे, ऐरवते दीर्घर्षण - जिनः ।)
जम्बूद्वीपस्थ भरत क्षेत्र के पन्द्रहवें तीर्थ कर धर्मनाथ, जम्बू द्वीप के ही एरवत क्ष ेत्र के पन्द्रहवें तीर्थंकर उपशान्त, इसी भरत क्षेत्र के १६ वें तीर्थ कर शान्तिनाथ, जम्बू द्वीपीय एरवत क्षेत्र के सोलहवें तीर्थ कर दीर्घसेन । ३५२ ।
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तित्थोगाली पइन्नय]
[ १०५
कुंथू य भरहवासे एरवयम्मि य महाहि लोगवलो ।
अर जिणवरो य भरहे, अइपास जिणो य एरवए ।३५३। (कुन्थुश्च भरतवणे ऐरवते च महाहि लोकबलः । अर जिनवरश्च भरते. अतिपार्श्वजिनश्चैरवते ।)
इस भरत क्षेत्र के १७ वें तीर्थ कर कुंथुनाथ, ऐरवत क्षेत्र के १७ वें तीर्थ कर लोक बल, इस भरत क्षेत्र के अठारहवें तीर्थ कर अरनाथ, ऐरवत क्षेत्र के भी १८ वें तीर्थ कर अतिपार्श्व -३५३। नमि जिणवरो य भरहे, एरवए सामकोट जिणचंदो । भरहम्मि य वीर जिणो, एरवए वारिसेणो वि ।३५४। (नमिः जिनवरश्च भरते, ऐरवते श्यामकोष्ठ-जिनचन्द्रः । भरते च वीर जिनः, ऐरवते वारिषेणोऽपि ।)
. जम्बुद्वीप के भरत क्षेत्र के इकवीसवें तीर्थ कर नमिनाथ, ऐरवत क्षेत्र के २१ वें तीर्थ कर श्यामकोष्ठ, इसी भरत के चौवीसवें तीर्थकर वीर (महावीर-वर्द्ध मान) और महावीर की जन्मवेला-पुल नक्षत्र में. जम्बूद्वीपस्थ ऐरवत क्षेत्र में उत्पन्न हुए वहां के चौवीसवें तीर्थ कर वारिषेण-३५४० केवल नाणुज्जोइय, जियलोय पयच्छवत्थुसब्भावा । एते बत्तीस जिणा, सुवण्णवण्णा मुणेयव्या ।३५५। (केवलज्ञानोयोतित, त्रिलोक प्रत्यक्ष-वस्तु-सद्भावाः । एते द्वात्रिंशज्जिनाः, सुवर्णवर्णाः मुनेतव्याः ।)
ये केवलज्ञान द्वारा प्रकाशित त्रैलोक्य के समस्त चराचरजड़-चेतन पदार्थों के त्रिकालवर्ती भावों को प्रत्यक्ष देखने जानने वाले बत्तीसों ही तीर्थ कर प्रतप्त स्वर्ण के समान वर्ण वाले थे—यह जानना चाहिये । ३५५। चउसुवि एरवए सुं, एवं चउसुवि य भरहवासे सु । अट्ठावीसं य सयाणं, सुवण्णवण्णं जिणंदाणं ॥३५६।
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१०६ ]
( चतसृष्वप्येरवतेषु एवं चतसृष्वपि च भरतवर्षेषु । अष्टाविंशतिः च शतं, स्वर्णवर्णं जिनेन्द्राणाम् । )
[ तित्थोगाली पइन्नय
एवं - इस प्रकार ( जिस प्रकार कि जम्बूद्वीप के एक भरत और एक ऐरवत क्षेत्र में दो दो एक ही समय में उत्पन्न हुए उपरिवरित ऋषभ चन्द्रानन आदि ३२ तीर्थंकर तपाये हुए शुद्ध श्रेष्ठ स्वर्ण के रंग के समान वर्ण वाले थे उसी प्रकार उपरिचर्चित दो दो तीर्थकरों के जन्म के साथ साथ बिना एक क्षण के अन्तर के - - शतशः ठीक एक ही समय में आठ आठ की संख्या में जन्मे हुए, धातकी खण्ड और पुष्करार्द्ध द्वीप के ) चारों ही भरत क्षेत्रों और चारों हो ऐरवत क्षेत्रों में १२८ तीर्थंकरों का वर्ण प्रतप्त स्वर्ण के समान था । ३५५।
[ स्पष्टीकरण:--- ढाई द्वीप में पाँच भरत क्षेत्र हैं --- एक जम्बूद्वीप का दो धातकी खण्ड के और दो ही पुष्करार्द्ध द्वीप के । इसी प्रकार ढाई द्वीप में पांच ऐरवत क्षेत्र हैं:--एक जम्बूद्वीप का दो धातकी खण्ड द्वीप के और दो ही पुष्करार्द्ध द्वीप के । प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल में इन देशों क्ष ेत्रों में प्रत्येक में चौवीस-चौवीस तीर्थ करों के हिसाब से दश चौवीसियां, तदनुसार २४० तीर्थंकर हुए । ३३६ से ३५५ तक की २० गाथाओं का सारांश यह है कि इन २४० तीर्थ करों में से बीस तीर्थङ्करों का देह वर्ण श्यामल, बीस का प्रियंगुवर्णाभ, बीस का पद्मगर्भगौर, बीस का चन्द्र की दुग्ध-धवल चांदनी के समान श्वेत और शेष १६० तीर्थकरों का वर्ण तपाये हुए श्रेष्ठ स्वर्ण के समान था ।]
दससुवि वासेसेतो, जिणिंद चंदाण सुणसु संठाणं । वज्जरिसभ संघयणा, समंचउरंसाय संठाणे | ३५७/ (दशष्वपि वर्षेषु इतः, जिनेन्द्रचन्द्राणां शृणु संस्थानम् । वज्रऋषभ संहननाः, समचतुरस्राश्च संस्थाने )
ढाई द्वीप के पांच भरत और पांच ऐरवत इन दशों ही क्षेत्रों हुए (२४०) तीर्थेश्वरों के संस्थान के सम्बन्ध में अब सुनिये। वे सबके सब (सभी) वज्रऋषभ संहनन और समचतुरस्र संस्थान के धनी थे | ३५७ )
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तित्थोगाली पइन्नय ]
बत्तीसं घरयाई काउं तिरियाययाहिं रेहाहिं |
1
उडूढायाहिं काउं, पंच घरयाइँ तो पढमे । ३५८ ।
,
( द्वात्रिंशत गृहाणि कृत्वा तिर्यगायताभिः रेखाभिः । ऊर्ध्वाधभिः कृत्वा, पंच गृहाणि ततः प्रथमे ।)
खड़ी ३२ और पडी ५ रेखाएं खींचकर ऊपर से नीचे पांच पंक्तियों में सेंतीस - सेंतीस समचोरस घर बनाये जायें। तदनन्तर प्रथम पंक्ति पर - १३५८।
[ १०७
पन्नरस जिण निरंतर, सुन्न दुर्गं ति जिण सुन्न तियगं च । दो जिण सुन्न जिणिंदो, सुन्न जिणो सुन्न दोन्नि जिणा | ३५९ | ( पंचदश जिना निरन्तर, शून्यद्विकं त्रयो जिना शून्य त्रिकं च । द्वौ जिनौ शून्यं जिनेन्द्रः, शून्यं जिनः, शून्यं द्वौ जिनौ ।) ! इति प्रथमा पंक्तिः ]
प्रथम पंक्ति:
निरन्तर पन्द्रह घरों में क्रमशः पन्द्रह तीर्थङ्करों के नाम, फिर आगे के दो घरों में शून्य, फिर ३ घेरों में सोलहवें से अठारहवें तीन तीर्थङ्करों के नाम, फिर आगे के तीन घरों में शून्य, उससे आगे के दो घरों में उन्नीसवें और बीसवें दो तीर्थङ्करों के नाम, उससे आगे के एक घर में शून्य, फिर आगे के एक घर में इकवीसवें तीर्थङ्कर का नाम, आगे के एक घर में शून्य, उससे आगे के एक घर में बावीसवें तीर्थङ्कर का नाम उससे आगे के एक घर में शून्य और उससे आगे के शेष दो घरों में तेवीसवं और चौवीसवें तीर्थ करों के नाम । ३५६ ।
[ द्वितीया पंक्तिः ]
।
दो चक्की सुन्नतेरस, पण चक्की सुन्न चक्की दो सुन्ना । चक्की सुन्न दु चक्की, सुन्नं चक्की दुसुन्नं च ३६० ।
(द्वौ चक्रिणौ शून्य त्रयोदश, पंच चक्रिणः शून्यं चक्री द्व े शून्ये ।
चक्री शून्यं द्वौ चक्रिणौ शून्यं चक्री द्व े शून्ये च ।)
4
[ इति द्वितीया पंक्ति |
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१०८ ।
[ तित्थोगालो पइन्नय
दूसरी पंक्ति:
दूसरी पंक्ति पर पहले दो घरों में प्रथम और दूसरे चक्रवतियों के नाम, फिर आगे के १३ घरों में शून्य, फिर आगे के पांच घरों में तीसरे से सातवें चक्रवतियों के नाम, उससे आगे के एक घर में शून्य फिर आग के एक घर में आठवें चक्रवर्ती का नाम, उससे आगे के दो घरों में शून्य, फिर आगे के एक घर में नौवें चक्रवर्ती का नाम, उससे आगे के एक घर में शून्य, उससे आगे के दो घरों में दशगे और ग्यारहवें चक्रवर्ती का नाम, उससे आगे के एक घर में शून्य उससे आगे के एक घर में बारहों चक्रवर्ती का नाम, उससे आगे के अन्तिम दो घरों में शून्य ।३६०।
[अथ तृतीया पंक्तिः] दस सुन्न पंच केसव, पण सुन्नं, केसी सुन्न केसी य । दो सुन्न केसवोऽवि य, सुन्न दुगं केसव ति-सुन्न ।३६१। (दश शून्यानि पंच केशवा, पंचशून्यानि केसीः शून्य केसी च । द्वेशन्ये केशवोऽपि च, शन्यद्विकं केशवः त्रीणि शन्यानि ।)
तीसरी पंक्तिः
तीसरी पंक्ति के पहले दश घरों में शुन्य, आगे के पांच घरों में क्रमशः ५ केशवों (वासुदेवों) के नाम, प्राग के पाँच घरों में शून्य, इससे आगे के एक घर में केशव का नाम, फिर एक घर में शून्य, इससे आगे के एक घर में केशव का नाम. फिर दो घरों में शून्य, फिर एक घर में के शव का नाम, फिर दो घरों में शून्य, इससे आगे के एक घर में नौवें केशव का नाम. इससे आगे के अन्तिम तीन घरों में शून्य ।३६१। पंचसय अद्ध पंचम, चउरो चउद्ध तिन्नि य सयाई । अड्ढाइज्जा दोन्नि य, दिवद्धमेगं धणुसयं च ३६२। नइइ असीइ सत्तरि, सट्ठी पणास तह य पण याला । बायालाई धणुइं य, चालीस [चत्तालं] अद्ध धगगं च ।३६३। चत्ताला पणतीसा, तीसा उणतीस अट्ठवीसा य । छन्वीसा पणवीसा बीसा तह सोल पणरसं ।३६४।
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तित्थोगाली पइन्नय |
बारस दस सत्तधरणू, रथणी णव सत्त होइ उच्चतं । जिण चक्कवट्टिकेसव, चउत्थ घर यंमि निद्दि | ३६५ | [ चतुर्थ पंक्तिः ]
,
(पंचशत अर्द्ध पंचम, चत्वारि चत्वार्यर्द्ध श्रीणि च शतानि । सार्द्ध द्विद्वौ च द्वद्ध एकं धनुश्शतं च । ३६२/ नवति अशीतिः सप्ततिः, षष्टिः पञ्चाशत् तथा च पंचचत्वारिंशत् । द्विचत्वारिंशत् धनूंषि च चत्वारिंशदर्द्ध धनुष्कं चं । ३६३। चत्वारिंशत्ः पञ्चत्रिंशत्ः, त्रिंशत् एकोनत्रिंशत् अष्टाविंशतिश्च । षड् विंशतिः पञ्चविंशतिः तथा षोडश पञ्चदश । ३६४ | द्वादश दश सप्त धनूंषि, रत्नयः नव सप्त भवति उच्चता । जिनचक्रवर्तिकेशव, चतुर्थ गृहे निर्दिष्टम् ३६५ | )
1
चौथी पंक्ति :
:---
चौथी पंक्ति में पहले से लेकर ३७ वें घर तक क्रमशः ५०० धनुष, ४५० धनुष, ४००, ३५०, ३.००, २५०, २००, १५०, १०० धनुष -- ३६२।
| ३६४।
[ १०६
१०, ८०, ७०, ६०, ५०, ४५, ४२, ४०३ धनुष --- ।३६३। ४० धनुष ३५ ३०, २६, २८, २६, २५, २०, १६, १५ धनुष
१२ धनुष, १० धनुष ७ धनुष, ६ रत्नि अर्थात् मुंड हाथ और ७ रत्नि शरीर की लम्बाई । इस प्रकार चौथे घर में तीर्थंकरों, चक्रवर्तियों और केशवों अर्थात् वासुदेवों के शरीर की ऊंचाई बताई गई है ३६५
उसमो पंच धरणुस पासो नव रयणि सतवीर जिणो । सेस पंच अड्ड य. पण्णास दस पंच परिहीणा | ३६६ | एतदेव स्पष्टयन्नाह :--
ऋषभः पंचधनुश्शतानि, पार्श्वः नवरत्नयः सप्तवीर जिनः । शेषा अष्टौ पञ्च अष्टौ च पञ्चाशद् दश पञ्च परि हीणाः । )
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११० ]
इसे और स्पष्ट करते हुए कहा है
ऋषभदेव की ऊंचाई ५०० धनुष पार्श्वनाथ की ऊंचाई 8 मुड हाथ ( रत्नि) और भगवान महावीर की ऊंचाई ७ रत्नि / मु ंड हाथ ) थी । शेष आठ तीर्थंकरों की ऊंचाई अनुक्रमशः पचास पचास धनुष, पांच तीर्थंकरों की दश दश धनुष और प्राठ तीर्थंकरों की ऊंचाई पांच-पांच धनुष कम होती गई है । ३६६।
[ तित्थोगाली पइन्नय
पंचसय अद्धपंचम, बायाला चेव अह पुणे ।
चाइयाला अद्ध ध च चउत्थ पंचमे चत्ता ३६७।
,
पणतीसा तीसा पुण, अट्ठावीसा तह वीस य धणूइ । परसा बारसेव य, गुणि सत्तव चक्कीणं | ३६८ |
}
1
(पंचशत अर्द्ध पञ्चम, द्विचत्वारिंशच्चचैव अथ पुनः । चत्वारिंशदर्ध धनुश्च चतुर्थे, पञ्चमे चत्वारिंशत् । पञ्चत्रिंशत् त्रिंशत्पुनः, अष्टविंशतिस्तथा विंशतिश्च धनूंषिः पञ्चदश द्वादशैव च धनूंषि सप्तैव चक्रीणाम् ।।)
,
चक्रवर्तियों की ऊंचाई :
५०० धनुष, ४५०, ४२, ४०३, ४०, ३५, ३०, २८, २०, १५. १२ और ७ धनुष - यह क्रमशः बारह चक्रवर्तियों के शरीर की थी । ३६७-३६८।
पढमो घणूणसीति, सतरि सट्ठी य पण पणयाला । उणतीसा छव्वीसा. सोलस दस केसवुच्चत | ३६९/
(प्रथमः धनूंष्यशीतिः, सप्ततिः षष्टिश्च पञ्चाशत् पञ्चचत्वारिंशत् । एकोनत्रिंशत् षड् विंशतिः, षोडश दश केशवोच्चता । )
वासुदेवों की ऊंचाई :
:
८०, ७०, ६०, ५०, ४५, २६, २६, १६ और १० धनुष - यह क्रमशः & वासुदेवों (केशवों) के शरीर की ऊंचाई थी । ३६६ |
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[ तित्थोगाली पइन्नय
सामण्ण विसेसेणं, तिण्हवि जिण चक्किकेसवाणं तु । दससु वि वासेसेवं, चउत्थ घर यमि निद्दिळं ।३७०। (सामान्य विशेषण. त्रयाणामपि जिन चक्रिकेशवानां तु । दशस्वपि वर्षेष्वेवं, चतुर्थगृहे निर्दिष्टम् । )
[गताश्चतुर्था पंक्तिः]
सामान्य एवं विशेष रूप से पांच भरत तथा पांच ऐरवत इन दशों ही क्षेत्रों के तीर्थंकरों, चक्रवतियों और केशवों---इन तीनों वर्गो के महापुरुषों के शरीर की ऊंचाई चौथे घर में किये गये उल्लेख के अनुसार होती है ।३७०।
[अर्थ पंचमा पंक्तिः चुलसीति बावत्तरि. सट्ठित्ति पन्नास चच तीसा य । वीसा दस दो एगं च , हुतिहु पुव्वाण लक्खाई ।३७१। चुलसीति बापचरि. सट्टि तीस दस पंच तिन्नेव । एगं च सय सहस्सं, वासाणं होइ विण्णेयं ।२७२। पणनउइ चुलसीति, पणसट्ठि सट्ठ तह य छप्पन्ना । पणपण तीस बारस, दस तिन्नि एगं सहस्साई ।३७३। सत्तसया सयमेगं, वासागं बावत्तरि च । पंचद्धमय जिण चक्किकेसवाणं, आउपमाणं मुणेयव्वं ३७३। (जिनचंक्रिकेशवानामुपरिचित यन्त्रानुसारेण क्रमशः सार्द्ध मेवायुप्रमाणं विवर्णधन ग्रन्थ कृद् प्राह :...). (चतुरशीतिः द्वासप्ततिः, षष्टीति पञ्चाशत् चत्वारिंशत् त्रिंशच्च । विंशति दश द्वौ एकं च, भवन्ति खलु पूर्वाणां लक्षानि ।३७१। चतुरशीतिः द्वासप्ततिः षष्टिः त्रिशत् दंश पञ्च त्रीण्येव । एकं च शतसहस्र, वर्षाणां भवति विज्ञेयम् ।३७२।
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११२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
पंचनवतिः चतुरशीतिः, पञ्चषष्टिः षष्टिः तथा च षड्पञ्चाशत् । पञ्च पञ्चाशत् त्रिंशत् द्वादश, दश त्रीणि एकं सहस्राणि ।३७३। सप्तशतानि शतमेकं, वर्षाणां द्वासप्ततिश्च । पञ्चार्द्धशत (४५०) जिनचक्रिकेशवानां आयुप्रमाणं मुनेतव्यम् ।
३७४।)
[ चतुर्भिःकुलकम् ] पांचवीं पंक्ति :...
पांचवीं पंक्ति के पहले घर से लेकर सेंतीसवें घर तक क्रमशः निम्नलिखित रूप में लिखा जाय :--
८४ लाख पूर्व, ७२ लाख पूर्व, साठ लाख पूर्व, ५० लाख पूर्व, ४० लाख पूर्व, ३० लाख पूर्व, २० लाख पूर्व, १० लाख पूर्व, २ लाख पूर्व, १ लाख पूर्व...।३७१।।
८४ लाख वर्ष, ७२ लाख वर्ष, ६० लाख वर्ष ३० लाख वर्ण, १० लाख वर्ष, ५ लाख वर्ण, ३ लाख वर्ष, १ लाख वर्ष--३७२।
६५ हजार वर्ष, ८४ हजार वर्ष, ६५ हजार वर्ष, ६० हजार वर्ष, ५६ हजार वर्ष, ५५ हजार वर्ष, ३० हजार वर्ष, १२ हजार वर्ष, १० हजार वर्षे, ३ हजार वर्षे, १ हजार वर्ष---।३७३। .
७०० वर्ष, १०० वर्ष और ७२ वर्ष। यह पांच भरत और पांच ऐरवत--इन दशों क्षेत्रों के कुल मिलाकर ४५० . तीर्थंकर-चक्रीऔर वासुदेवों की आयु का प्रमाण समझना चाहिए ।३७४। चुलसीति वावचरि, सट्ठी पण्णास चत्त तीसा य । वीसा दस दो एगं च, होंति पुव्वाण लक्खाई ।३७५ । चउरासी य बावत्तरि य, सट्टी य होइ नायव्वा । तीसा दसेव एगं च, वासलक्खा मुणेयव्वा ।३७६। पञ्चाणउइ सहस्सा, चउरासीति य पंचपण्णा य । .. तीसा दस एग सहस्सं, सयमेगं य बावत्तरि वीरे ।३७७।
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ ११३
(तदेव तीर्थकृतामायुप्रमाणं पृथकतः विवर्णयन् ग्रन्थकृदाह :--) (चतुरशीतिः द्वासप्ततिः, षष्टिः पञ्चाशत् चत्वारिंशत् त्रिंशच्च । विंशतिः दश द्वौ एकं च, भवन्ति पूर्वाणां लक्षाणि ।३७५ । चतुरशीतिश्च द्वासप्ततिश्च, षष्टिश्च भवति ज्ञातव्या । त्रिंशद् दशैव एकं च, वर्षलक्षाः मुनेतव्या ।३७६। पञ्चनवतिसहस्राः, चतुरशीतिश्च पञ्चपञ्चाशच्च । . त्रिंशद् दश एक सहस्त्राणि, शतमेकं च द्वासप्ततिः वीरे ।३७७१)
पृथक् रूप से तीर्थंकरों की आयु का विवरण :---
८४ लाख पूर्व, ७२ लाख पूर्व, ६० लाख पूर्व, ५० लाख पूर्व, ४० लाख पूर्व, ३० लाख पूर्व, २० लाख पूर्व, १० लाख पूर्व, २ लाख पूर्व, १ लाख पूर्व--- ३७५
८४ लाख वर्ष, ७२ लाख वर्ष, ६० लाख वर्ष, ३० लाख वर्ष, १० लाख वर्ष, १ लाख वर्ष---३७६।।
६५ हजार वर्ष, ८४ हजार वर्ष, ५५ हजार वर्ष, ३ हजार वर्ष, १० हजार वर्ष, १ हजार वर्ष, १०० वर्ष और भगवान् महावीर की आयु ७२ वर्ष । यह ऋषभादि महावीरान्त चौवीस तीर्थ करों का आयु परिमाण ।३७७॥ - चउरासीति य बावचरी य. पुव्वाण होति लक्खाई। पंच य तिण्णेगं चिय' , वासाणं सय सहस्साउ ।३७८। _ (एवं चक्रवर्तीनामपि पृथकत आयु विवरणयन् ग्रन्थकृदाह :-) (चतुरशीतिश्च द्वासप्ततिश्च, पूर्वाणां भवन्ति लक्षाणि । पञ्च च त्रीणि एकं एव, वर्षाणां शतसहस्त्रास्तु ।)
पृथक् रूप से चक्रवतियों की आयु का निरूपण :--.
८४ लाख पूर्व, ७२ लाख पूर्व, ५ लाख वर्ष, ३ लाख वर्ष, १ लाख वर्ष---१३७८।
१ चिय -अव्यय । एवकारार्थे, स्थानाङ्ग ठा. २, उ०१
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[ तित्योगाली पइन्नय
११४ ]
पंचाणउई य सहस्सा, चउरासीति य सडि तीसा य । दस तिणि सहस्सा, सत्तसया आउ चक्कीणं । ३७९ । ( पञ्चनवतिश्च सहस्त्राः, चतुरशीतिश्च षष्टिः त्रिंशच्च । दशं त्रीणि सहस्त्राणि, सप्तशतानि भायुश्चक्रीणाम् 1)
६५ हजार वर्ष, ८४ हजार वर्ष, ६० हजार वर्ष, ३० हजार वर्ष, १० हजार वर्ष, ३ हजार वर्ष और ७०० वर्ष, यह क्रमशः १२ चक्रवर्तियों की आयुष्य है । ३७६।
चुलसीति बावचरि, सट्टी तीस दसवासलखाईं । पणसिट्ठ सहस्साईं, छप्पन्ना बारसेगं च आउ अद्ध चक्कीणं ॥ ३८० | (चतुरशीतिः द्वासप्ततिः, षष्टिः त्रिंशत् दशवर्षलक्षानि । पञ्चषष्टि सहखाणि, पड्पञ्चाशत् द्वादश एकं च आयु अर्द्ध-चक्रीणाम्
[अर्द्ध चक्रीणां पृथक्रूपेण तथा जम्बूधातकीपुष्करार्द्ध द्वीपवर्तीषु पंच भरतेषु तथा पंच- एरवतेश्वेवं दशसु वर्षेषूत्पन्नानां त्रयाणामपि जिनचत्रिवासुदेवानां सामान्य विशेषरूपेणायुप्रमाणं निरूपयन् ग्रन्थकर्त्ता प्राहः - ]
अर्द्ध चक्रियों (वासुदेवों) की आयु का पृथक्तः विवरण :८४ लाख वर्ष, ७२ लाख वर्ष, ६० लाख वर्ष. ३० लाख वर्ष
१० लाख वर्ष, ६५ हजार वर्ष, ५६ हजार वर्ष १२ हजार वर्ष और १००० वर्ष---यह क्रमशः ६ वासुदेवों की आयुष्य का परिमाण है।
१३८०।
सामण्ण विसेसेणं तिन्हं वि जिणचक्की केसवाणं तु । दससुवि वासेसेवं, आउष्पमाणं मुणेयव्वं । ३८१ | (सामान्य विशेषेणत्रयाणामपि जिनचक्रिकेशवानां तु । दशस्वपि वर्षेष्वेवं, आयुष्प्रमाणं मुनेतव्यम् ।)
सामान्य एवं विशेष रूप से दशों भरत ऐरवत क्षेत्रों में तार्थङ्करों
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ११५
चक्रवतियों और वासुदेवों - इन महापुरुषों के तीनों वर्गों का यही आयु प्रमाण जानना चाहिये । ३८१ ।
३८१
प्रतविव नास्ति
-
(यहाँ एक गाथा (सं० ३८१ मू० प्र०) हमारे पास की प्रति में नहीं है । पूर्वापर सम्बन्ध को देखते हुए अनुमान किया जाता है कि वह कोई उपक्रम गाथा होगी जिसमें यह उल्लेख किया गया होगा कि तीर्थ करों, चक्रियों और वासुदेवों के देहमान और आयुष्य का कथन समाप्त हुआ, अब तीर्थङ्करों के वंश, गोत्र आदि का कथन किया जाता है ।)
मुणि सुव्यय वर (घर) जिणो, नेमि अग्गिसेण हरिवंसे । अवसेसा तित्थयरा, सव्वे इक्खाग बसाउ | ३८२ | ( मुनि सुव्रतश्च (घर) जिनः नेमि अग्निसेनः हरिवंशे | अवशेषाः तीर्थंकराः सर्वे इक्ष्वाकुवंश्याः । )
मुनि सुव्रत और घर (वर), अरिष्टनेमि तथा श्रग्निसेन ये (दशों क्षेत्रों के २०) तीर्थंकर हरिवंश में उत्पन्न हुए । शेष (२२०) तीर्थंकर इक्ष्वाकुवंशी थे । ३८२ ।
1
मुणि सुव्वओ धरो बिहु गोयमगोचाग्गिसेण नेमी य । अवसेसा तित्रा, कासवगुत्ता मुणेयव्वा | ३८३ |
( मुनि सुव्रतः घरो द्वौ, गौतम गोत्राग्निसेन नेमी च । अवशेषाः तीर्थङ्कराः, काश्यपगोत्रा मुनेतव्याः । )
मुनि सुव्रत और घर ये दोनों तथा अग्निसेन एवं अरिष्टनेमि ये (दशों क्षेत्रों के २०) तीर्थंकर गौतमगोत्रीय थे । अवशिष्ट (२२०) तीर्थंकर काश्यप गोत्रीय जानने चाहिये । ३८३ |
वीरो अरिट्ठनेमी, पासो मल्ली य वासुपुज्जो य । एते मोत ण जिणे, अवसेसा आसि रायाणो । ३८४ | (वीरः अरिष्टनेमी:, पार्श्व: मल्लिश्च वासुपूज्यश्च । एतान् मुक्त्वा जिनान, अवशेषा आसन् राजानः ।)
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११६ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
महावीर अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ मल्लिनाथ और वासुपूज्य इन (दशों क्षेत्रों के ५०) तीर्थंकरों को छोड़कर अवशिष्ट (१६०) तीर्थंकर राजा थे । ३८४ |
रायकुलेसु वि जाया, विसुद्धवंसेसु खत्तिय कुलेसु ।
न य इच्छिया भिसेया कुमारवासेसु पव्वइया । ३८५ ।
(राजकुलेष्वपि जाताः, विशुद्धवंशेषु क्षत्रियकुलेषु । न चेच्छिताभिषेका. कुमारवासेसु प्रव्रजिताः । )
;
क्षत्रिय कुलों विशुद्ध वंशों एवं राजकुलों में उत्पन्न होकर भी इन (५०) तीर्थंकरों ने राज्याभिषेक की कामना नहीं की और ये कुमार वास (कुमारावस्था) में ही प्रव्रजित हों गये । ३८५ । संती कुंथू य अरो. अरहत्ता चैव चक्कवट्टी य ।
1
अवसेसा तित्थयरा, मंडलिया आमि रायाणो । ३८६ । (शान्तिः कुंथुश्च अरः, अर्हताः चैव चक्रवर्तिनश्च । अवशेषा तीर्थंकराः माण्डलिका आसन् राजानः । )
4
शान्तिनाथ कुंथुनाथ और अरनाथ ये (दशों क्षेत्रों के ३० ) तीर्थंकर अर्हत् (तीर्थेश्वर ) भी थे और चक्रवर्ती भी शेष (कुमारवास में प्रव्रजित महावीर आदि दशों क्षेत्रों के ५० तीर्थंकरों को छोड़कर---. १६०) तीर्थंकर माण्डलिक राजा थे । ३८६ । उसभजिणो उप्पण्णो, विरमंते सुसम दूसमाए । तेवीसं तित्थयरा, दूसम सुसमाए उप्पण्णाः । ३८७ । (ऋषभजिन उत्पन्नः, विरमति पुष्पम - दुःषमायाम् । त्रयोविंशतिः तीर्थकराः दुःषम पुष्पमायामुत्पन्नाः । )
तीर्थंकरों के जन्म आरक :---
सुषमा दुःषम नामक तीसरे ओरक के समाप्ति की ओर बढ़े अन्तिम चरण में (अर्थात् जब तीसरे प्रारक के समाप्त होने में संख्यात वर्ष -.. --- ८४ लाख पूर्व, ३ वर्ष ८३ मास प्रवशिष्ट थे तब ) भगवान् ऋषभदेव ( शेष ४ भरत और ५ ऐरवत इन क्षेत्रों के
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तित्थोगाली पइन्नय |
प्रथम तीर्थंकरों का जन्म हुआ। शेष २३ ( क्षेत्रों के तीर्थंकरों को सम्मिलित करने पर २३० ) का जन्म नामक चौथे आरक में हुआ । ३८७ |
| ११७
तेवीस तेवीस
दुःषमा- सुषम
मंडलिया रायाणो, जिण तेवीसं आसि पुव्वभवेसु । उसभी पुण तित्थयरो, बोधव्वो चक्कवट्टी उ । ३८८| (माण्डलिकाः राजानः, जिनाः त्रयोविंशा आसन् पूर्वभवेषु । ऋषभः पुनस्तीर्थकरः, बोधव्यश्चक्रवर्तिस्तु ।)
तीर्थंकरों का पूर्वभव राज्य :---
ह
तीसरे पर्वभव में २३ ( शेष क्षेत्रों के सम्मिलित करने पर २३०) तीर्थङ्कर मांडलिक राजा और प्रथम तीर्थङ्कर (शेष क्षेत्रों के प्रथम तीर्थंकरों को सम्मिलित करने पर १० तीर्थङ्कर ) चक्रवर्ती थे, यह जानना चाहिये ३८८
तेवीसं तित्थयरा, पुव्वभवे एकारसंगवी आसि ।
उसभो पुण तित्थयरो, चोदस पुव्वी मुणेयव्वो । ३८९। ( त्रयोविंशतिः तीर्थंकरा, पूर्वभवेष्वेकादशांगविद आसन् । ऋषभः पुनस्तीर्थङ्करश्चतुर्दशपूर्वी मुनेतव्यः )
पूर्वभव अंग ज्ञान :
अपने तीसरे पूर्वभव में अजितादि महावीरान्त तेवीस तीर्थंकर एकादशांगधर और केवल एक ऋषभदेव चौदह पूर्वी अर्थात् द्वादशांगधर थे, यह जानना चाहिये | ३८६ |
उसभी य विणीयाए, बारवतीए अरिट्ठवरनेमी । अवसेमा तित्थयरा, निक्खता जम्मभूमीसु | ३९० | ( ऋषभश्च विनीतायां, द्वारावत्यामरिष्टवर नेमोः । अवशेषास्तीर्थकराः निष्क्रान्ता: जन्मभूमीसु )
तीर्थंकरों की अभिनिष्क्रमण नगरियां :--
ऋषभदेव विनीता नगरी से, अरिष्टनेमि द्वारावती ( द्वारिका )
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११८ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय से और शेष बावीस तीर्थंकर अपनो अपनी जन्म-नगरियों से महाभिनिष्क्रमण कर प्रवजित हुए ।३६०। मल्ली पासो अरहा, सेज्जंसो चेव वासुपुज्जो य । पुव्वण्हे पवइया, सेसा पुण पच्छिमण्हम्मि ३९१। (मल्लिपाहतो, श्रेयांशश्चैव वासुपूज्यश्च । पूर्वाह णे प्रव्रजिताः, शेषाः पुनः पश्चिमाह्न ।)
तीर्थङ्करों के प्रवजित होने का समय
तीर्थंकर मल्लिनाथ, पार्श्वनाथ, श्रेयांसनाथ और वासुपूज्य--- . ये चार तीर्थंकर पूर्वाह्न में तथा 'शेष बीस तीर्थंकर मध्याह्नोत्तर काल में प्रवजित हुए ।३६१॥
स्पष्टीकरण- प्रावश्यक मलय में निम्नलिखित गाथा द्वारा पार्श्वनाथ, अरिष्टनेमि, श्रेयांसनाथ, सुमतिनाथ और मल्लिनाथ इन पांच तीर्थकरों के पूर्वाह्न में दीक्षित होने का उल्लेख किया गया है :---]
पासी अरिटुने मो, सेज्जंसो सुमति मल्लिनाथो य । ।
पुवण्हे निक्खंता, सेसा पुण पच्छिमण्हम्मि ।२१०। । एगो भगवं वीरो; पासी मल्ली य तिहिं तिहिं सएहिं । भगवं पि वासुपुज्जो, छहिं पुरुस सएहिं निक्खन्तो ।३९२। (एकः भगवान् वीरः, पार्श्वः मल्ली च त्रिभिस्त्रिभिश्शतैः । भगवानपि वासुपूज्यः, षड्भपुरुषशतैः निष्क्रान्तः ।)
तीर्थंकरों के दीक्षा साथी :
भगवान महावीर एकाकी ही, भगवान् पार्श्वनाथ और मल्लिनाथ दोनों तीन तीन सौ व्यक्तियों के साथ, भगवान् वासुपूज्य छः सौ पुरुषों के साथ महाभिनिष्क्रमण कर प्रवजित हुए ।३६२. उग्गाणं भोगाणं, राइण्णाणं च खचियाणं च । चउहिं सहस्सेहिं उसभो, सेसा उ सहस्स परिवारा ।३९३।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
| ११६
(उग्राणां भोगानां, राजन्यानाञ्च क्षत्रियाणाञ्च । चतुर्भिस्सहस्रः ऋषभः, शेषास्तु सहस्र परिवाराः ।)
भगवान् ऋषभदेव उग्र (आरक्षक स्थानीय), भोग (गुरु प्राय अर्थात् संसार पक्ष में आयु आदि की दृष्टि से बड़े होने के कारण समादर के पात्र), राजन्य (वयस्य मित्रजन), और क्षत्रिय (सामन्त आदि) इन चार वर्गों के चार हजार पुरुषों के साथ और शेष तीर्थ कर एक एक सहस्र पुरुषों के साथ प्रवजित हुए ।३६३। उदिय उदिय कुलवंसा, सव्वेवि य जिणवरा चउव्वीसं । धणकणगरयण निचए अवउज्जिय तेउ पव्वइया ।३९४। (उदितोदित कुलवंशाः सर्वेऽपि च जिनवराश्चतुर्विशतिः । धनकनकरत्ननिचयान् अपोह्य ते तु प्रबजिताः ।)
. उत्कृष्ट कुल और उत्कृष्ट वंश में उत्पन्न हुए सभी, चौबीसों तीर्थ कर धन-धान्य-स्वर्ण और रत्नों को अति विशाल राशियों का परित्याग कर प्रबजित हुए।३६४।। समणगण पवर गुरुणो, भवियजण विवोहगा जिणवरिंदा । पंचमहव्वय जुत्ता, तवचरणुवएसगा धीरा ।३९५ (श्रमणगणप्रवरगुरवः, भविकजन विबोधकाः जिनवरेन्द्राः । पंच महाव्रत युक्तास्तपचरणोपदेशकाः धीराः ।)
सभी तीर्थंकर श्रमणगणों के सर्वोत्कृष्ट महान अधिनायक, जगद्गुरु, भव्य जनों को प्रबुद्ध करने वाले, पांच महाब्रतों के धारक, तपश्चरण के उपदेशक और महाधीर थे।३६५। सीहत्ता निक्खता, सीहत्ता चेव विहरिया धीरा । सीहेहिं सीहसरिसेहि, सीह ललित विक्कम पत्ता ।३९६। (सिंहतया निष्क्रान्ता, सिंहतया चैत्र विचरिताधीराः । शिष्यैः सिंहसदृशैः, सिंहललितविक्रमं प्राप्ताः ।)
उन सब तीर्थंकरों ने सिंह के समान अभिनिष्क्रमण किया उन धीर वीरों ने सिंह की भांति निर्भय हो विचरण किया और सिंहों के
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१२० ]
| तिस्थोगाली पइन्नय
समान शिष्यों के साथ पुरुषसिंहों के योग्य शोभास्पद अनन्त पराक्रम को प्राप्त किया । ३६६ ।
दंसणनाण चरित्रस्स, देसचरण निच्छविहरणू | नवसुवि वासेसेवं, निक्खताक्खायकित्ति जिणा | ३९७ / ( दर्शन - ज्ञान - चारित्रस्य, देशचरण निश्चयविधिज्ञा । नवस्वपि वर्षेष्वेवं निष्क्रान्ताऽऽख्यातकीर्त्तिजिना: 1)
,
दर्शन, ज्ञान, चारित्र तथा व्यवहार और निश्चय की विधि के पूर्ण ज्ञाता विश्वविश्र ुत कीर्तिशाली क्षेत्रों के तीर्थंकर भी इसी प्रकार महाभिनिष्क्रमण कर प्रव्रजित हुए । ३६७।
ह
सुमहत्थ विच्चभत्तण, निग्गओ वासुपुज्जों जिणो चउत्थेण । पासो मल्लिच्चिय, अङ्कुमेण सेसाउन ३९८ | (सुमतित्थ नित्यभक्त ेन निर्गतः वासुपूज्य जिनश्चतुर्थेन । पार्श्वः मल्ली किल, अष्टमेन शेषास्तु षष्ठेन )
तीर्थंकर का अभिनिष्क्रमण तपः
भगवान सुमतिनाथ नित्य भक्त अर्थात् अनवरत भक्त से, वासुपूज्य चतुर्थ भक्त (एक उपवास) से, पार्श्वनाथ तथा मल्लिनाथ अष्टम भक्त अर्थात् वेळ की तपस्या से और शेष वीस तोथङ्कर षष्ठ भक्त अर्थात् बोळे ( दो उपवास ) की तपस्या से अभिनिष्क्रमरण कर दीक्षित हुए |३८|
नास्ति प्रतावपि । ३९९ ।
[ ३६६ संख्या की गाथा हमारे पास की हस्तलिखित प्रति में नहीं है । पूर्वापर सम्बन्ध को देखते हुए, ऐसा तो प्रतीत नहीं होता कि कोई गाथा लिपिक दोष के कारण छूट गई हो । संख्या लगाने में ही सम्भवतः कोई त्रुटि रह गई है । ]
संवच्चरेण भिक्खा, लद्धा उसभेण लोगनाहेण ।
सेसेहिं बीय दिवसे लद्धाउ पढमभिक्खाउ ४०० |
१ व्यवहार
,
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १२१
(संवत्सरेण भिक्षा, लब्धा ऋषभेण लोकनाथेन । शेषैद्वितीय दिवसे, लब्धाः प्रथमभिक्षास्तु ।)
त्रैलोक्यनाथ भगवान् ऋषभदेव ने एक वर्ष पश्चात् प्रथम भिक्षा प्राप्त की। शेष सब तीथंकरों ने दीक्षा ग्रहण करने के दूसरे दिन ही प्रथम भिक्षा प्राप्त को ।४००। उसभस्स पढम भिक्खेक्खोयरसो असि लोगनाहस्स । सेसाणं परमण्णं, अमियरस रसोवमं आसि ।४०१॥ . (ऋषभस्य प्रथमभिक्षायामिक्षुरसमासील्लोकनाथस्य । शेषानां परमान्नं, अमृत रस-रसोपममासीत् ।)
लोकनाथ ऋषभदेव की प्रथम भिक्षा में इक्षुरस और शेष तेबीस तीर्थ करों की प्रथम भिक्षा में अमृतरस के समान स्वादिष्ट श्रेष्ठ पकवान्न था ।४०१। मल्लीपासुसभस्स, गाणं सेज्सवासुपुज्जस्म । --- पुव्वण्हे उप्पण्णं, सेसाणं पच्छिमण्हम्मि ।४०२। (मल्लीपार्श्वर्षभस्य, ज्ञानं श्रेयांस वासुपूज्यस्य । पूर्वाह णे उत्पन्नं, शेषांनां पश्चिमाह्न ।)
__ मल्लिनाथ, पार्श्वनाथ, ऋषभदेव, श्रेयांसनाथ और वासुपूज्य इन पांच तीर्थकरों को पूर्वाल में तथा शेष १६ तीर्थ करों को पश्चिमाह्न में केवलज्ञान की उपलब्धि हुई ।४०२।
[स्पष्टीकरण-सत्तरियस ठाणा में निम्नलिखित गाथार्द्ध द्वारा केवल भगवान महावीर का पश्चिमाह्न में और शेष २३ तीथं करों को पूर्वाह्न में केवलज्ञात को उपलब्धि का उल्लेख किया गया है
नाणं उसहाईणं, पुव्वण्हे पच्छिमण्हि वीरस्स ।१६०
ऐसी स्थिति में यह गाथा सं० ४०२ विद्वानों के लिए विचारणीय है ।]
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१२२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
चंदाणणे मरुदेवे य, अग्गिदत्त य जुतिसेणजिणे । सेजसे पुव्वण्हे, सेसाणं पच्छिमण्हम्मि ।४०३।१ (चन्द्राननमरुदेवौ च अग्निदत्तश्च द्यु चिसेन जिनस्य । श्रेयांसस्य पूर्वान्हे, शेषानां पश्चिमाह्नि ।)
चन्द्रानन, मरुदेव, अग्निदत्त, युक्तिसेन और श्रेयांस (नामक पांचों ऐरवत क्षेत्रों के तोर्थ करों) को पूर्वाह्न में और ऐरवत क्षेत्रों के शेष (६५) तीर्थकरों को पश्चिमाह्न (अपराल) में केवलज्ञान की उपलब्धि हुई।४०३।
_स्पष्टीकरण-तित्थोगाळो पइन्नयकार ने कहीं स्पष्ट शब्दों में धातकी खण्ड एवं पुष्कराद्धद्वीप के भरत और ऐरवत क्षेत्रों की चौबीसियों के तीर्थ करों के नामों का उल्लेख नहीं किया है, किन्तु इस गाथा में पांचों तीर्थकरों के नामों में प्रयुक्त बहवचन को देखकर अनुमान किया जाता है कि यदि इसमें लिपिकारों की ओर से कहीं त्रुटि नहीं की गई है तो तित्थोगाळी पइन्नयकार को मान्यतानुसार जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र को चौवीसी के तीथंकरों के समान शेष चार भरतक्षेत्रों की चार चौवीसियों के तीर्थङ्करों के नाम भी ऋषभ आदि तथा ऐरवत क्षेत्रों को पांचों चौवोसियों के तीर्थंकरों के नाम भी समान रूप से चन्द्रानन आदि थे।] दससुवि वासेसेवं, दस समेगर त केवली होति । दस चेव धम्म तित्था, निदिट्ठा वीयरागेहिं ।४०४। (दशष्वपि वर्षेष्वेवं, दश समेकं तु केवलिनः भवन्ति । दश चैव धर्मतीर्थाः, निर्दिष्टाः वीतरागैः ।)
दशों क्षेत्रों में इस प्रकार के एक साथ एक समय में दश तीर्थकर और दश ही धर्मतीर्थ होते हैं. यह वीतरागों ने बताया है । ४०४।
१ ऐरवत क्षेत्रेषत्पन्नान जिनानु द्दिश्यैषा गाया प्रोक्ता। २ समेगं-समेकं, सार्द्धम् वा एकसमये-इत्यर्थः ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
. [ १२३
उसमस्स पुरिमताले, बारवतीये अरिट्ठनेमिस्स । आसमपय उजाणे, मल्लिस्स मणोरमे चेव ।४०५। (ऋषभस्य पुरिमताले, द्वारावत्यामरिष्टनेमिनः । आश्रमपदोद्याने, मल्ल्याः मनोरमे चैव ।)
तीर्थ करों के कैवल्योपलब्धि के स्थल :___ भगवान ऋषभदेव को पुरिमताल उद्यान में, अरिष्टनेमि को द्वारिका के आश्रमपद उद्यान में, मल्लिनाथ को मनोरम उद्यान में ।४०५। नाणं च बद्धमाणस्स, उज्जुवाली नदीए तीरंमि ! . सेसाणं सव्वेसि, जमुज्जाणेसु निक्खंता ।४०६। (ज्ञानं च वर्द्धमानस्य, ऋजुपालीनद्यास्तीरे । शेषानां सर्वेषां, येषु उद्यानेषु निष्क्रान्ताः।)
. भगवान् वर्द्धमान को ऋजुपाली नदी के तट पर और शेष तीर्थंकरों उन्हीं उद्यानों में केवलज्ञान उत्पन्न हुआ जिनमें कि वे दीक्षित हुए थे।४०६। बत्तीसइ धणुउई, चेइयरुक्खो उ बद्धमाणस्स । सेसाणं पुण रुक्खा, सरीरओ बारस गुणाउ ।४०७। (द्वात्रिंशत् धषि चैत्य वृक्षस्तु वर्द्धमानस्य । शेषानां पुनर्वृक्षाः शरीरतः द्वादशगुणास्तु ।)
चैत्य वृक्षों की ऊचाई :__ भगवान महावीर के चैत्य वृक्ष की ऊंचाई ३२ धनुष और शेष तीर्थंकरों के चैत्य वृक्षों की ऊंचाई उनके शरीर की ऊंचाई से बारह गुरिणत थी।४०७। नग्गोह सत्तवने साली पियए पियंगु रुक्खे य । छत्चाहे य सिरीसे, नागे मालू पिलक्खू य ।४०८। (न्यग्रोधः सप्तपर्णः शालः प्रियकः प्रियंगुवृक्षश्च । छत्राभश्च शिरीषः नागः मालू पिलक्खुश्च ।)
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१२४ ]
| तिस्थोगाली पइन्नय
तीर्थ करों के कैवल्यवृक्ष :
ऋषभादि महावीरान्त चौवीस तीर्थ करों को क्रमशः निम्नलिखित वृक्षों के नीचे केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ :
न्यग्रोध (१), सप्तपर्ण (२), शाल (३), प्रियक अथवा प्रियाल (४), प्रियंगु (जामुन) (५), छत्राभवृक्ष (६), शिरीष (७), नाग (८), मालू (मल्लीवृक्ष) (E), पिलङ खु (१०)---१४०८। . . तिदू य पाडलि जंबू य, आसत्थे तहय होइ दहिवण्णे । तत्तो नंदी रुक्खे, तिल पव्वए असोगे य ४०९। (तिन्दुकः पाटलः जंबुश्च , अश्वत्थस्तथा च भवति दधिपर्णः । ततः नान्दिवृक्षः, तिल (पिल ख) पर्वतकोऽशोकश्च ।)
तिन्दुक (११), पाटली (१२), जम्बू (१३), अश्वत्थ (१४), दधिपर्ण (१५), नन्दी (१६), तिल---(पिलङ खु) (१७), पानं (१८), अशोक (१६)-.-१४०६।। चम्पग बउले वेडस, धाबोडग सालतेयए चेव । नाणुप्पया य रुक्खे, जिणेहिं एते अणुग्गहिया ।४१०। (चम्पकबकुले बेतस,-धावोडक' सालतेजकश्चैव ।. ज्ञानोत्पादाच्च वृक्षाः, जिनै एते अनुगृहीताः ।)
चम्पक (२०), बकुल (बकुश) (२१), वेतस (२२), धावडक (धातकी) (२३) और शाल तेजक (२४)। इन वक्षों के नीचे केवल ज्ञान प्राप्त कर तीर्थ करों ने इन्हें (विश्वविख्यात बना) अनुगृहीत किया।४१०। नाणुप्पयाय मासा, फग्गुण पोसे य कत्तिये पोसे । चेत्ते २ चेत्ते२ फग्गुण २, चेत्रे य वइसाहे य ।४११।
१ धातकी। २ एतेषां वृक्षाणामधस्तात् ऋषभादिमहावारान्तश्चतुभिस्तीर्थङ्करः केवल.
ज्ञानमुत्पादितमत एवैतेऽनुगृहीता इत्यर्थः ।
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. । १२५
(ज्ञानोत्पादाश्च मासाः, फाल्गुनः पौषश्च कार्तिकः पौषः । चैत्तौ (२) चेत्रौ (२) फाल्गुनौ, चैाश्च वैशाखश्च ।)
केवलज्ञान की उत्पत्ति के मास :-.. तीर्थ करों के केवलज्ञान की उत्पत्ति के मास क्रमशः इस प्रकार
फाल्गुन (१), पौष (२), कार्तिक (३), पौष (४), चैत्र (५), चैत्र (६), चैत्र (७), [चैत्र (८) तीसरे चैत्र के सम्मुख लिपिक द्वारा प्रमाद वश २ की संख्या लगा दी प्रतीत होती है।], फाल्गुन (८), फाल्गुन (६). चैत्र (१०), वैशाख (११)---1४११। . वइसाह चैत्त वइमाह. साढ फग्गू य भद्दवये । चेत्ते कचिय मग्गसिरे य वइसाहे मग्गसिरस्सो ४१२। (वैशाखचत्रवैशाखाषाढाः, फाल्गुनश्च भाद्रपदः । चैत्रः कार्तिकः मार्गशीर्षः यो वैशाखः मार्गशीर्षः)
वैशाख (१२), चैत्र (१३), वैशाख (१४), आषाढ (१५), फाल्गुन (१६) भाद्रपद (१७), चैत्र (१८), कार्तिक (१९) मार्गशीर्ष (२०) वैशाख (२१), मार्गशीर्ष (२२)---२४१२। चेत्ते वइसाहे य मासे, एए अधुणा पक्खे वोच्छामि | बहुलो जोण्हा पंचय, बहुले अट्ठेव य कमेणं ।४१३। (चैत्रः वैशाखश्च मासा एतेऽधुना पक्षान् वक्ष्यामि । बहुलाः ज्योत्स्ना पंच च बहुलाअष्टावेव क्रमेण)
चैत्र (२३) और वैशाख (२४)---ये तोर्थ करों के कैवल्योपलब्धि के मास हैं। अब इनके केवलज्ञान प्राप्ति के पक्षों का कथन करूँगा :---
केवल ज्ञानोत्पत्ति के पक्ष :
कृष्ण (१), शुक्ल (२), शुक्ल (३), शुक्ल (४), शुक्ल (५), शुक्ल (६), कृष्ण (७), कृष्ण (८), कृष्ण (६), कृष्ण (१०), कृष्ण (११), कृष्ण (१२). कृष्ण (१३), कृष्ण (१४)-४१३।
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[ तित्थोगाली पइन्नय
सुद्धो बहुलो सुद्धो य, तिन्नि बहुले य सुद्ध बहुलदुगं । सुद्धो य पक्खा एते, एत्तो दिवसा पवक्खामि ।४१४। (शुद्धः बहुलः शुद्धश्च, त्रयो बहुलाश्च शुद्धः बहुलद्विकम् ।। शुद्धश्च पक्षा एते, इतः दिवसान् प्रवक्ष्यामि ।)
शुक्ल (१५), कृष्ण (१६), शुक्ल (१७), कृष्ण (१८), कृष्ण (१६), कृष्ण (२०), शुक्ल (२१), कृष्ण (२२), कृष्ण (२३), और शुक्ल (२४) - ये पक्ष हैं । अब तीर्थङ्करों के केवलज्ञान लाभ की तिथियों का कथन करूगा ।४१४।। एक्कारसि एक्कारसि, पंचमी चाउद्दसी य एक्कारसी । पनिम छट्ठी पंचमि, तह सत्तमि नवमी ।४१५: (एकादशी एकादशी, पंचमी चतुर्दशी च एकादशी। . पर्णिमा षष्ठी पंचमी, तथा सप्तमी नवमी।)
एकादशो (१), एकादशी (२). पंचमी (३), चतुर्दशी (४), एकादशी (५), पूर्णिमा (६), छठ (७), पंचमी (८), सप्तमी (६), . नवमी (१०)--।४ १५॥ बारसि सत्तमि अट्ठमी, एक्कारसी सत्तमी त (च) तियवारा । एक्कारसि य अट्ठमि, एक्कारसी तह य वामासा ।४१६। । (द्वादशी सप्तमी अष्टमी, एकादशी सप्तमी त्रि (चतुः) वारान् । एकादशी च अष्टमी, एकादशी तथा चामावस्या ।)
द्वादशी (११), सप्तमी (१२), अष्टमी (१३), एकादशी (१४), सप्तमी (१५), सप्तमी (१६), सप्तमी (१७), (इस गाथा के द्वितीय चरण के अंतिम शब्द 'ततियवारा' को यदि पूरी २४ तिथियों की पूर्ति हेतु 'चतियवारा' पढा जाय तो--सप्तमी (१८),] एकादशी (१६), अष्टमी (२०), एकादशी (२१), अमावस्या (२२)---४१६। तत्तो चउत्थि दसमी, कमेण नाणुप्पया एते। .. वेलाए काए नाणं, कस्सुपन्नं इमं सुणसु ।४१७।
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( ततश्चतुर्थी दशमीः, क्रमेण ज्ञानोत्पादा एते । वेलायां कस्यां ज्ञानं कस्योत्पन्नमिदं शृणुस्व ।)
,
[ १२७
चतुर्थी ( २३ ) और दशमी (२४) --- ये तीर्थङ्करों के ज्ञानोत्पत्ति की क्रमबद्ध तिथियां हैं। अब यह सुनिये किस किस वेला (समय) में किन किन तीर्थङ्करों के केवलज्ञान की उत्पत्ति हुई ।४१७ |
[ स्पष्टीकरण --- चैत्य वृक्षों के जो नाम उपरिलिखित गाथा संख्या ४०० से ४१० में दिये गये हैं, वे समवायांग, सूत्रकृतांग सटीक एवं सत्तरियठारणा के एतद्विषयक उल्लेखों से पर्याप्तरूपेण साम्य रखते हैं । किन्तु गाथा संख्या २११ से गाथा संख्या ४१७ के पूर्वार्द्ध तक जो तीर्थङ्करों की कैवल्योपलब्धि के मास, पक्ष और दिन ( तिथियाँ) उल्लिखित हैं वे श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं की एतत्सम्बन्धी प्रचलित मान्यताओं से अधिकांशतः भिन्न हैं । इसमें उल्लिखित तीर्थंकरों की कैवल्योपलब्धि के आदि के एवं अत के दो मास, आदि के २ पक्ष तथा अन्त के ५ पक्ष और आदि की ७ तिथियां एवं अंत की ४ तिथियां प्रचलित मान्यता तथा 'सत्तरिसयठारणा' से मेल खाती हैं । हस्तलिखित पुस्तकों के विशेषज्ञ विद्वानों से यह तथ्य तो छुपा नहीं कि लिपिकों के प्रमाद से अनेक प्राचीन ग्रन्थों में अशुद्धियां उपलब्ध होती हैं पर उपरिलिखित ६-७ गाथाओं में आबद्ध तथ्यों की प्रचलित मान्यता के साथ इतनी अधिक भिन्नता प्राचीन काल में रहे किसी मान्यताभेद की ओर तो संकेत नहीं करती हैं, इस प्रश्न पर शोधार्थी एवं विद्वान् विचार कर प्रकाश डालेंगे तो अत्युत्तम रहेगा ।]
उसभ जिणस्स य सेज्जस, वासुपुज्जस्स मल्लिपासाणं । पुण्हे नापाओ, सेसाणं पच्छिम दिणं चि । ४१८ | ( ऋषभजिनस्य च श्रेयांस, वासुपूज्यस्य मल्लिपार्श्वयोः । पूर्वाहणं ज्ञानोत्पादाः शेषाणां पश्चिम दिने - इति । )
कैवल्योपलब्धि की वेला :---
तीर्थंकर ऋषभदेव, श्रेयांसनाथ, वासुपूज्य, मल्लिनाथ और
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[ तित्थोगाली पइन्नय
पार्श्वनाथ को पूर्वाह में तथा शेष तीर्थंकरों को अपराह में केवलज्ञान प्रकट हुआ।४१८॥
[स्पष्टीकरण---यह गाथा परिवर्तित स्वरूप में पुनः दे दी गई है। देखिये गाथा संख्या ४०२ और उसका स्पष्टीकरण ] जे चेव जम्मरिक्खा, नाणुपत्तीए होति ते चेव । भणिया रिक्खा एचो, वोच्छामि तवं समासेण |४१९। (ये चैव जन्मऋक्षाः ज्ञानोत्पत्तः भवन्ति ते चेव । भणिताः ऋक्षा इतः वक्ष्यामि तपो समासेन)
___ तीर्थंकरों के जन्मनक्षत्रों और ज्ञानोत्पत्ति के नक्षत्रों का कथन कर दिया गया अब उनके केवलज्ञानोत्पत्ति के तप का संक्षेपतः कथन करूगा ।४१६। उसमस्स अट्ठमेणं, चउभत्तण वासुपज्जस्य । . केवलनाणुप्पत्तीः, सेसाणं छट्ठभत्ते ण ।४२०। (ऋषभस्याष्टमेन, चतुर्भक्त न वासुपज्यस्य । केवलज्ञानोत्पत्तीः, शेषानां षष्ठभक्त न ।)
तीर्थंकरों के केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय के तप :...
भगवान् ऋषभदेव को अष्टमभक्त (तेळे) के तप में, भगवान् वासुपूज्य को चतुर्थभक्त (१ उपवास) के तप में और शेष इकवीस तीर्थंकरों को षष्ठभक्त अर्थात् वेळे के तप में केवलज्ञान की उपलब्धि हुई ।४२०।
[स्पष्टीकरण :---प्रावश्यक मलय और सत्तरिसय गण की एतद्विषयक यह गाथा द्रष्टव्य है :---
"अट्ठमभत्तंमि कए, नाणमुसहमल्लि नेमि पासाणं ।
वसुपुज्जस्स चउत्थे, सेसाणं छट्ठभत्ततवे ॥"
श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थंकरों के केवलज्ञानतप के सम्बन्ध में यही मान्यता आज प्रचलित है । पूर्व में रहे यत्किचित् मान्यताभेद
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १२६
की जो आशंका हमने गाथा संख्या ४१७ के स्पष्टीकरण में व्यक्त को है, उस आशंका की इस गाथा से पुष्टि होती है ।]
उप्पणमि अणंते, नट्ठमिय छउमथिए नाणे । तो देव दाणविंदा, करेंति पूयं जिणिंदाणं ।४२१।। (उत्पन्न ऽनन्ते, नष्टे च छानस्थिके ज्ञाने । ततः देवदानवेन्द्राः, कुर्वन्ति पूजां जिनेन्द्राणाम् ।)
अनन्तज्ञान (केवलज्ञान) के उत्पन्न होने और छानस्थिक ज्ञान के नष्ट हो जाने पर तीर्थंकरों की देवेन्द्र तथा दानवेन्द्र पूजा करते हैं । ४२१। भवणबई वाणवन्तर, जोइसवासी विमाणवासी य । सविड्ढीए सपरिसा, कासी नाणुप्पायमहिमं ।४२२। (भवनपतिः वानमन्तर, ज्योतिषवासी विमानवासी च । सर्वर्द्ध या सपरिषदा, अकार्षन् ज्ञानोत्पादे महिमाम् ।)
भवनपति, वानमन्तर और ज्योतिष-मण्डल एवं विमानों में निवास करने वाले देव-देवेन्द्र ने अपनी समग्र ऋद्धि और परिषदों सहित केवलज्ञान की उत्पत्ति की महिमा की । ४२२३ मणि कणम-रयण चित्त, भूमिभाग समंतओ सुरभि । आजोयणंतरेणं, करति देवा विचित्तं तु ।४२३। (मणि-कनक-रत्नचित्र, भूमिभागं समन्ततः सुरभिः । आयोजनान्तरेण, कुर्वन्ति देवाः विचित्र तु ।)
कैवल्योपलब्धि के स्थल के चारों ओर एक योजन भूमि को देवों ने स्वर्ण, मणियों तथा रत्नों से चित्रित, सुगन्धियों से सुगन्धित और अद्भुत बना दिया ।४२३। मणिकणगरयण चित्त, समंतओ तोरणा वि उव्विति । सछत्त सालिभंजिय, मयरद्धयचिंध संठाणे ।४२४।
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[ तित्थोगाली पइन्नय
1
(मणि- कनक- रत्न चित्राणि समन्ततः तोरणानि विकुर्वन्ति । सछत्र - शालिभंजिक, मकरध्वज चिह्नसंस्थानानि ।)
वे देवगण उस भूमि के चारों ओर स्थान स्थान पर छात्रों पुतलिकाओं तथा कामदेव की आकृतियों से युक्त, तथा स्वर्ण-मरिरत्नों से निर्मित एवं चित्रित तोरणद्वारों की रचना करते हैं । ४२४ । विंट ठाईं सुरभिं, जलथलयं दिव्त्र कुसुममनीहारिं । पयरेंति समंतेणं, दसद्भवन्नं कुसुमवासं । ४२५ । (वृन्तस्थां सुरभिं, जलस्थलजं दिव्यकुसुमनिहरिम् । प्रकुर्वन्ति समन्ततः, दशार्द्ध वर्णां कुसुमवर्षाम् )
वे आभियोगिक देव पाँच वर्णों के पुष्पों की वर्षा करते हुए एक योजन पर्यन्त उस समवसरण - भूमि को, जल और स्थल दोनों ही प्रकार के प्रदेशों में उत्पन्न हुए वृन्तों (डंठलों) पर पत्तों के ऊपरी भाग में स्थित (तरोताजा) परम सुगन्धित दिव्य कुसुमों की निर्हारी बना देते हैं अर्थात् दिव्य कुसुमों की अनुपम सुगन्ध से समस्त वायु मण्डल सम्पूर्ण वातावरण को गमका (महका) देते हैं । ४२५ तत्तोय समंतेणं, कालागुरुकु दुरुक्कमी सेणं । गंधेण मणहरेणं, धूवघडीओ बिउव्वंति । ४२६ । (ततश्च समन्ततः, कालागुरु-कु दुरुकमिश्रण । गन्धेन मनोहरेण, धूपघटिकाः विकुर्वन्ति ।)
तदनन्तर आभियोगिक देवगण चारों ओर कृष्णागरु एवं कुन्दुरुक्क मिश्रित मनोहर सुगन्धित गन्धचूर्णों की (प्रत्येक द्वार पर तीन तीन ) धूप घटिकाओं ( धूपपात्रों) को सजा उन्हें प्रदीप्त करते हैं । ४२६ ।
song सीनाए, कलयलसद्दय सव्वओ सव्वं । तित्थगर- पायभूले, करेंति देवा नित्रयमाणा | ४२७ | (उत्कृष्ट सिंहनादान्, कलकल शब्दं च सर्वतः सर्वे । तीर्थंकर - पादमूले, कुर्वन्ति देवाः निपतमानाः । )
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १३१ तीर्थंकर भगवान् के चरण कमलों में साष्टांग प्रणाम करते हुए सभी देवसमूह हर्षविह्वल हो उत्कृष्ट सिंहनाद करते हैं और देवों के कलकल निनाद से दशों दिशाएं गूंज उठती हैं ।४२७।
अब्भंतर-मज्झ-बहि, विमाण-जोइसिय-भवणवासिकया । पागारा तिण्णि भवे, रयणे कणगे य रयए य ।४२८। (आभ्यन्तर-मध्य-बहिः, विमान-ज्योतिष्क-भवनवासिकृताः । प्राकाराः त्रयो भवेयुः, रात्नः कानकश्च राजतश्च ।)
क्रमशः वैमानिक, ज्योतिष्क और भवनवासी देवों द्वारा निर्मित आभ्यंतर मध्यस्थित तथा बाह्य ये तीनों प्राकार (क्रमशः) रत्नमय, स्वर्णमय और रजतमय होते हैं ।४२८॥ मणिरयण हेमया वि य, कविसीसा सव्व रयणिया दारा । सव्य रयणमयाब्विय, पडागधय तोरणा विचिता ।४२९। (मणि रत्न-हैमकापि च, कपिशीर्षाः सर्वरत्निकाः द्वाराः । सर्वरत्नमयापि च, पताक-ध्वजतोरणाः विचित्राः ।)
उन तीनों प्राकारों के कपिशीस (बन्दरों के प्रिय प्राकाराग्रवर्गौलाकारवृत्त प्राकार शिखर) भी मणि रत्न-स्वर्ण निर्मित, सभी द्वार सर्वरत्नमय और स्वस्तिकादि विविध चिह्नों से शोभायमान पताकाए, ध्वजाए तथा तोरण-ये सभी सर्वरत्नमय होते हैं । ४२६ । प्रतावेव नास्ति ४३०
__ [गाथा संख्या ४३० प्राप्त प्रति में नहीं है। संभव है लिपिक ने संख्या लिखने में कहीं त्रुटि की हो।
चेइदुमपीढ छंदग, आसणछत्तं च चामराओ य । जं चऽणं करणिज्ज, करेंति तं वाणम [विं] त्तरिया ।४३१। (चैत्यद्र म-पीठ-छंदकासनछां च चामराणि च । यच्चान्यत् करणीयं, कुर्वन्ति तत् वानमन्तरिकाः।)
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१३२ ]
[ तित्थोगालो पइन्नय
रत्नमय आभ्यन्तर प्राकार के मध्य भाग में (बीचों-बीच) चैत्यवृक्ष अर्थात् अशोकवृक्ष, उसके नीचे सर्वरत्नमय पीठ अर्थात् विशाल मंच, पोठ के ऊपर और अशोकवृक्ष के नीचे देवच्छंदक, देवच्छंदक में स्फटिक पादपीठ सहित सिंहासन, सिंहासन के ठीक ऊपर छत्रत्रयी, उसके दोनों पार्श्व में दो यक्षों के हाथों में दो चामर और धर्मचक्र आदि के अन्य जो जो करणीय कार्य हैं, उन्हें वानमन्तर (व्यन्तर) सम्पन्न करते हैं ।४३१॥ सूरुदय पच्छिमाए, ओगाहंतीए पुव्वओ एइ । दोहि पउमेहिं पाया, मग्गेण य होंति सत्तन्ने ।४३२। (सूर्योदये [प्रथमायां या] पश्चिमायां [पौरुष्यां] अवगाहमानायां पूर्वत एति । द्वयोः पद्मयोः पादौ, मार्गतश्च भवन्ति सप्तान्ये ।)
देवों द्वारा समवसरण की रचना सम्पन्न होने पर सूर्योदय के पश्चात् सामान्यतः प्रथम पौरुषी और कभी विशेष स्थिति में पश्चिम पौरुषी की वेला में तीर्थंकर भगवान् देवताओं द्वारा निर्मित दो पद्मों पर अपने चरण कमल रखते हुए पूर्व द्वार से प्रवेश करते हैं। उनके पीछे सात अन्य पद्म और रहते है। भगवान् के पदन्यास क पूर्व ही अन्तिम दो पद्म देवताओं द्वारा भगवान् के चरणों के नीचे रख दिये जाते हैं ।४३२। आयाहिणपुव्वमुहो, तिदिसि पडिरूवगाउ देवकया। जिट्ट गणीअण्णो वा, दाहिण पासे अदूरम्मि ।४३३। (आदक्षिणं पूर्वमुखः त्रिदिशं प्रतिरूपकास्तु देवकृताः । ज्येष्ठगणी अन्यो वा, दक्षिण पार्श्वे अदूरे ।)
तदनन्तर प्रभु अशोकवृक्ष की प्रदक्षिणा कर पूर्व की ओर मुख किये सिंहासन पर विराजमान होते हैं। शेष तीनों दिशाओं में देवों द्वारा निर्मित सिंहासनादि सहित प्रभु के प्रतिरूप प्रादुर्भूत होते हैं । भगवान् के पादपीठ के पास ही उनके ज्येष्ठ अथवा अन्य गणधर प्रभु को प्रणाम कर दक्षिण पूर्व दिग्भाग में बैठते हैं ।४३३।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
जे ते देवेहिं कया, तिदिसि पडिरूवगा जिनिंदाणं । तेसिं पि तप्पभावा, तयागुरूवं हवइ रुवं । ४३४ | ( यानि तानि देवैः कृतानि, त्रिदिशं प्रतिरूपकाणि जिनेन्द्राणाम् । तेषामपि तत् प्रभावात् तदनुरूपं च भवति रूपम् ।)
तीर्थंकरों के अलौकिक प्रभाव के कारण देवों द्वारा निर्मित तीर्थंकरों के उन त्रिदिशावर्ती तीन प्रतिरूपों का भी पूर्णतः उनके अनुरूप ही रूप होता है । ४३४
सीहासणे निसन्ना, रचासोगस्स हिट्ठि वीरा । सक्का सहेमजाले, गेहति सयं तु बचाई | ४३५ | [सिंहासने निषण्णाः रक्ताशोकस्याधस्ताद् वीराः । शकाः सहेमजालानि गृण्हन्ति स्वयं तु छत्राणि |]
"
[ १३३
रक्ताशोक के नीचे सिंहासन पर धीर-वीर तीर्थंकर विराजमान होते हैं । स्वयं इन्द्र स्वर्णजाल युक्त चामर हाथों में ग्रहण करते हैं । ४३५।.
दोलिंति चामराउ, सेयाउ मणिमएहिं दंडेहिं ।
ईसाणे चमर सहि [ए] धरेंति ते जिणवरिंदाणं | ४३६।
( दोलयन्ति चामराणि श्वेतानि मणिमयैर्दण्डैः ।
;
ईशानाश्चमर [रेन्द्र ] सहिताः धारयन्ति तानि जिनवरेन्द्राणाम् ।)
"
ईशानेन्द्र और चमरेन्द्र अपने हाथों में मणिमय दण्डों वाले श्वेत चँवर धारण कर उन्हें जिनेन्द्रों पर डुलाते हैं । ४३६ ।
तित्थाइ सेय संजय, देवी. वे माणियाणउ सयंणी | भवणव वाणमंतर, जोई सियाणं च देवीउ | ४३७। (तीर्थातिशय संजात देवी - वैमानिकानां श्रेण्यः । भवन पतिवाणव्यंतर - ज्योतिष्कानां च देव्यः । )
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१३४ ]
| तिस्थोगाली पइन्नय तदनन्तर तीर्थ-अर्थात् प्रथम और शेष गणधर, अतिशेषसंयतअर्थात् केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदह पूर्वधर से ह पूर्वधर तक, खेलौषधि प्रामौषधि जल्लौषधि के धनी मुनी, वैमा. निक देवो की देवियां, श्रमरिणयां, भवनपतियो व्यन्तों और ज्योतिषी देवो की देवियां--ये सब पूर्व द्वार से प्रवेश करते हैं। (ज्येष्ठ गणधर भगवान् को तीन बार प्रणाम कर उनके पास दक्षिण-पूर्वी दिशाभाग में बैठ जाते हैं। शेष गणधर भी इसी प्रकार प्रभु को वन्दन कर प्रथम गणधर के पार्श्व अथवा पीठ को अोर बैठ जाते हैं ।४३७। केवलिणो ति उण जिणे, तित्थ पणामं च मग्गओ तेसिं । मणमाई विनमंता, वयंति सट्ठाण सट्ठाणं ।४३८। (केवलिन इति पुनर्जिनाः, तीर्थ प्रणामं च मार्गितः तेभ्यः । मनःपर्यवादि ज्ञानधरा अपि विनमन्तः, व्रजन्ति स्वस्थान-स्वस्थानम् ।)
केवली तीर्थंकरों की तीन बार प्रदक्षिणा और तीर्थ को प्रणाम कर गणधरों के पीछे की ओर बैठ जाते हैं। मनःपर्यवज्ञानी से लेकर साधारण संयत तक तीथं करों, तीर्थ एवं अपने आगे बैठे हए सभी विशिष्ट संयतों को क्रमशः नमस्कार कर अपने से बड़े वर्ग के पीछे अपने-अपने स्थान पर जाकर बैठ जाते हैं। वैमानिक देवों को देवियाँ तोथंकर से लेकर माधु तक को प्रणाम कर साधु वर्ग के पृष्ठभाग में खड़ी रहती हैं। श्रमणियां भी तोर्थ कर से लेकर साधूनों तक को विधावन्दन कर वैमानिक देवियों के पीछे की ओर खडी रहती हैं। इसी प्रकार भवन वासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की देवियाँ दक्षिण द्वार से. प्रवेश कर तीर्थकर को तीन बार प्रदक्षिणा और तीन बार वन्दन कर दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच के नैऋत्य कोण में अनु क्रमशः भवनवासी देवियों के पीछे व्यन्तर देव जाति की तथा उनके पोछे ज्योतिष्क देवों की दवियाँ खड़ी रहती हैं ।४३८। भवणवति जोइसिया, बोधव्या वाणमंतर सुरा यं । वेमाणिए य मणुया, पयाहिणं जं च निस्साए । ४३९। (भवनपति ज्योतिष्काः, बोधव्याः वानमन्तरं सुराश्च । वैमानिकाश्च मनुजाः, प्रदक्षिणां (कृत्वा) यया निश्रया ।)
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तित्योगाली पइन्नय ]
.. [ १३५ भवनपति, ज्योतिष्क और वानमन्तर ( व्यन्तर ) देव पश्चिमी द्वार से प्रवेश कर तीर्थकर भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा और उन्हें तीन बार प्रणाम कर तीर्थ को नमस्कार हो, केवलियों को नमस्कार हो. अतिशयधर साधुओं को नमस्कार हो, और शेष सब साधुओं को नमस्कार हो-यह उच्चारण कर उत्तर-पश्चिम दिशा भाग में यथास्थान अर्थात आगे भवनपति, उनके पीछे ज्योतिष्क देव और उनके पोछे व्यन्तर बैठ जाते हैं। वैमानिक देव, पुरुष और महिलाएं उत्तर द्वार से समवसरण में प्रवेश कर तीर्थकर को तीन बार प्रदक्षिणा के पश्चात् उन्हें तीन बार नमस्कार कर नमः तीर्थाय, नमःकेवलिभ्यो, नमोऽतिशायिसंयतेभ्यः और नमः शेषसाधुभ्यः कह कर उत्तर पूर्व दिशा में बैठ जाते हैं। इनमें आगे की आर वैमानिक देव, उनके पीछे पुरुष और पुरुषों के पीछे स्त्रियाँ बैठती हैं। इन देवदेवी-मनुष्यों के साथ उनकी निश्रा अर्थात् नेतृत्व में आये हुए शेष देव, देवो, मानव भी उनके पार्श्व अथवा पृष्ठ भाग में बैठते हैं । ४३६। पविसंति समहिंदा, उत्तरदारेण कप्पवासिसुरा । राया नर नारीगणा, जे वि देवा व णयराणं ।४४०। (प्रविशन्ति समहेन्द्रा, उत्तरद्वारेण कल्पवासिसुराः । राजानः नरनारिगणाः, येऽपि देवा वा नगराणाम् ।)
___ उत्तरी द्वार से इन्द्रों सहित वैमानिक देव, नरेन्द्र और नरनारी गण और नगरों के जो देव है. वे प्रवेश करते हैं ।४४०। एगयमुत्तरदारं, कप्पवह अंगणाउ अणगारा । बीय पुरच्छिमिल्लेणं, पविसन्ति नाणामणिकिरणोदारणं ।४४१ । (एककमुचरद्वारं, कल्पपत्यंगनाः अनगाराः । द्वितीय पुरश्चिमिल्लेन, प्रविशन्ति नानामणिकिरणो द्वारेण ।)
कल्पवासी देवों को देवियाँ भी उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हैं। अनेक मरिणयों की किरणों से शोभायमान दूसरे पूर्वीय द्वार से मुनिगण प्रवेश करते हैं ।४४१॥ पुवदारं आगच्छंति अइ सुन्दरेण दारेण दक्खिणिल्लेणं । भवणवइ वाणमंतर, जोइसियाणं च देवीओ।४४२।
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[ तित्थोगाली पइन्नय
(पूर्वद्वारमागच्छन्ति, अतिसुन्दरेण द्वारेण दक्षिणिल्लेन । भवनपतिवानमन्तर, ज्योतिष्कानां च देव्यः ।)
____ भवन पति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की देवियां अतिसुन्दर दक्षिणी द्वार से पूर्व द्वार की ओर पाती हैं ।४४२१ जे भवणवई देवा, अवरदारेण तेउ पविसंती। तेणं चिय जोइसिया, देवा दइया जणसमग्गा ।४४३ (ये भवनपति-देवाः, अपरद्वारेण ते तु प्रविशन्ति । तेनैव हि ज्योतिष्काः, देवाः दयिताः जनसमग्राः ।)
जो भवनपति देव हैं. वे पश्चिमी द्वार से समवसरण में प्रवेश करते हैं। उसी पश्चिमी द्वार से ज्योतिष्क देव और सभी नर-नारीगण प्रवेश करते हैं ।४४३। एक्केकिय दिसाए, तिगं तिगं होइ संनिविट्ठतु । आइचरिमे विमिस्सा, थी पुरिसासेसपत्तेयं ।४४४। (एकैकस्यां दिशायां, त्रिकं त्रिकं भवति सन्निविष्टं तु । आद्य चरमे विमिश्राः, स्त्री पुरुषा शेष प्रत्येकम् ।)
पर्युक्त पूर्व-दक्षिण अादि चारों दिशाओं में से प्रत्येक में तीन-तीन वर्ग एकत्र होते हैं। जिस प्रकार पूर्व-दक्षिण दिशा में (१) संयतों का वर्ग, (२) वैमानिक दवियों का वर्ग तथा (३) श्रमणी वर्ग। दक्षिण-पश्चिम दिशा में-(१) भवनवासी देवों की देवियों का वर्ग, (२) ज्योतिष्क देवों की देवियों का वर्ग एवं (३) व्यन्त र देवों की देवियों का वर्ग। पश्चिमोत्तर दिशा में (१) भवनपति, (२) ज्योतिष्क तथा (३) व्यन्तर--ये तीन देवो के वर्ग और उत्तर-पूर्व दिशा में (१) वैमानिक देवों का वर्ग, (२) मनुष्यों का वर्ग तथा मनुष्यों की स्त्रियों का वगं । इनमें से पहले और चौथे इन दो त्रिको में स्त्री तथा पुरुष दोनों ही होते हैं। जबकि दूसरे त्रिक में केवल स्त्रियाँ और तीसरे वर्ग में केवल पुरुष ही होत हैं ।४४४। एतं महिड्ढियं, पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता । ण वि जंतणा, न विकहा न परोप्पर मच्छरो न भयं ।४४५।
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ १३७ (एन्तं महर्द्धिकं प्रणि पतन्ति, स्थितमपि व्रजन्ति प्रणमन्तः । नापि यंत्रणा, न विकथा न परस्पर मात्सयं न भयम् ।)
समवसरण में पहले पाकर बैठे हुए अल्प ऋद्धि सम्पन्न देव मनुष्यादि अपने से अधिक ऋद्धि संपन्न को प्राते हुए देख कर नमस्कार करते और जो अल्पद्धिक बाद में आते हैं वे समवरण में पहले से बैठे हुए महद्धिकों को प्रणाम करते हुए अपने स्थान की ओर अग्रसर होते हैं। समवसरगा में उपस्थित हए प्राणियों को परस्पर न किसी से किसी प्रकार को यंत्रणा ही होती है न किसी प्रकार का मात्सर्य और भय ही । समवसरण एकत्रित हुए देव, देवी, मनुष्य एवं स्त्री वर्ग किसी प्रकार की विकथा नहीं करते ।४४५॥ बीयंमि होति तिरिया. तइए पागारमंतरेण जाणा। पागार जढे तिरिया वि. हुति पत्तय मिस्सा वा ।४४६। (द्वितीये भवन्ति तिर्यश्चा, तृतीये प्रकारान्तरेण यानाः । प्राकारजढे' तिर्यञ्चापि भवन्ति प्रत्येक मिश्रा वा ।)
- दुसरे प्राकार में तिर्यञ्च-पशु-पक्षी होते हैं। तीसरे प्राकार में देवों तथा मानवों के यान और प्राकार रहित अर्थात् प्राकार के बहिर्भाग में तिर्यञ्च भी होते हैं। कभी देव, मनुष्य, तिर्यञ्च सभो मिश्र रूप से और कभी केवल तिर्यञ्च, कभी केवल मनुष्य तथा कभी केवल देव हो देव रहते हैं ।४४६। । तित्थ पणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्दे णं ।। सव्वेमि सन्नीणं, जोयण नीहारिणा भगवं ।४४७। (तीर्थं प्रमाणं कृत्वा, कथयति साधारणेन शब्देन । सर्वेभ्यः संज्ञीभ्यः योजन नीहारिणा भगवान् ।)
__अष्ट महा प्रातिहार्यों से युक्त तीर्थकर भगवान सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात तीर्थ को प्रणाम कर एक योजन की परिधि में सभी संज्ञी प्राणियों को सुनाई देने योग्य सहज स्वर में प्राणिमात्र के कल्याण के लिये देशना दते हैं ।४४७।
१ प्राकारजढे-प्राकाररहिते ।
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१३८ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय सप्पडिकमणो धम्मो, पुरिमस्स य पच्छिमस्स जिणस्स । मज्झिमयाण जिणाणं, कारण जाए पडिक्कमणं ।४४८। (सप्रतिक्रमणो धर्मः, पुरिमस्य च पश्चिमस्य जिनस्य । मध्यमकानां जिनानां, कारणे जाते प्रतिक्रमणम् ।)
प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव और अन्तिम तीर्थंकर भगवान् महावीर के तीथं में मप्रतिक्रमण धर्म था अर्थात् उन साधुओं को प्रातः और सायं दोनों समय प्रतिक्रमण करना अनिवार्य था, पर मध्यवर्ती अजितादि पाश्र्वान्त २२ तीर्थंकरों के तीर्थ में कारण उपस्थित होने पर ही प्रतिक्रमण का विधान था ।४४८। जो जाहे आवज्जइ. माहू अण्णयरगंमि ठाणंमि । सो ताहे पडिक्कमई, मज्झिमयाणं जिणवराणं ।४४९। (यः यदा आपद्यते, साधुः अन्यतरके स्थाने । स तदा प्रतिक्रमति, मध्यमकानां जिनवराणाम् ।)
प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के मध्यवर्ती काल में हए बावीस तीर्थंकरों के तीर्थों में जब किसी साधु द्वारा कोई ऐसा कार्य हो जाता था, जो कि साधु के किये वर्ण्य हो, तभी वह साधु गुण से विपरीत अन्यतर गुणस्थान में जाने के अपने उस दाष की आलोचना-विशुद्धि के लिए प्रतिक्रमण करता था ।४४६। बावीसं तित्थयरा, सामाइय संजमं उवदिसंति । छेओवट्ठावणं पुणंवयं, उ ति उसभो य वीरो य ।४५०। (द्वाविंशतिः तीर्थंकराः, सामायिक-संजममुपदिशन्ति । छेदोपस्थापनं पुनव्रतमिति ऋषभश्च वीरश्च ।)
__ अजितनाथ से पार्श्वनाथ पर्यन्त बावीस तीर्थंकर पूर्णरूपेण अहिंसा, सत्य, अस्तेय और अपरिग्रह इन चार महा यमों पर आधारित चातुर्याम सामायिक संयम का उपदेश करते हैं। पुरुष के लिए स्त्री और स्त्री के लिए पुरुष की परिग्रह में गणना कर चतुर्थ महाव्रत ब्रह्मचर्य को अपरिग्रह महा यम ( महाव्रत ) के ही अन्तर्गत मानते हुए ब्रह्मचर्य महाव्रत का एक पृथक् महाव्रत के रूप में उपदेश नहीं करते। पर प्रथम तीर्थंकर और चौबीसवें तीर्थकर छेदोपस्थापन धर्म का उपदेश करते हैं ।४५०।'
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १३६
[स्पष्टीकरण :- निश्चय नय के अनुसार ज्ञान ( मति, श्रुति, अवधि आदि). दर्शन (तत्त्वरुचि); चारित्र (पाप पर्ण सभी क्रियाओं का परित्याग) ये ही मोक्ष प्राप्ति के शाश्वत सत्य साधन हैं। चौवीसों तीर्थंकरों ने समान रूप से इन तीनों को मोक्ष प्राप्ति का सच्चा साधन बताया है। वस्तुतः वेष व्यवहार नय की अपेक्षा मोक्ष का माधन है, न कि निश्चय नय की अपेक्षा। प्रथम तीर्थंकर के शासनकाल के साधु शिक्षाग्रह करने में तत्पर सरल प्रकृति के किन्तु वास्तविकता को कठिनाई से समझने वाले, अन्तिम तीर्थ कर के शासन काल के साधू सामान्यतः शिक्षा को अवधारण करने में वक्र (टेढ़ी-कुटिल ) प्रकृति वाले होने के कारमा जड (कदाग्रहो), और मध्यवर्ती बावीस तीर्थ करों के शासनकाल के साधु ऋजुप्रज्ञ अर्थात् सरल प्रकृति के धनी होने के कारण शिक्षा ग्रहण करने में तत्पर एवं स्वल्प में ही सब कुछ समझ जाने वाले प्रकृष्ट बुद्धिशाली होते हैं। ऋजु किन्तु जड़ प्रकृति के कारण प्रथम तीर्थ कर के साधुओं के लिये कल्प प्रकल्प का स्पष्टतः पृथक-पृथक विशद विधान होने पर ही वे अपने श्रमणाचार को विमल-दोषरहित बनाये रख सकते हैं । अधिकांशतः कुटिल एवं कदाग्रही प्रकृति के कारण वस्तुतः अन्तिम तीर्थ कर के साधुओं के श्रमणाचार को विशुद्ध बनाये रखने के लिये कल्पाकल्प के सम्बन्ध में इस प्रकार के स्पष्ट एवं विशद विधान की आवश्यकता रहती है, जिसमें कि शैथिल्य एवं कूतर्क के लिये कोई स्थान न हो क्योंकि वे वक्रजड़ साधु कठोर श्रमणाचार को समझते हुए भी पालन करने में अशक्त होने की दशा में उस कष्टसाध्य श्रमणाचार से बचने के लिये कोई न कोई शैथिल्य का मार्ग ढूंढ निकालने में तत्पर रहते हैं । किन्तु मध्यवर्ती बावीस तीर्थ करों के ऋजू-प्राज्ञ साधुओं के लिये केवल इतना कह देना ही पर्याप्त है कि साधु के लिये स्त्री और साध्वी के लिये पुरुष भी परिग्रह ही है। अतः चतुर्थ महाव्रत ब्रह्मचर्य का पंचम महाव्रत अपरिग्रह में ही समावेश हो जाता है। वस्त्र के वर्ण, मूल्य एवं प्रमाण के निर्देश के अभाव में भी उन्होंने वस्त्र को केवल लज्जा ढंकने का साधन मात्र समझा। इस विधान के अनुसार अब्रह्म को भी परिग्रह मान कर बावीस तीर्थ करों के ऋजुप्राज्ञ साधू ब्रह्मचर्य महाव्रत को अपरिग्रह में सम्मिलित समझ अहिंसा, सत्य, अस्तेय और
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१४० ]
[तित्थोगाली पइन्नय
अपरिग्रह रूपी चातुर्याम धर्म में ही पांचों महाव्रतों का पूर्णतः पालन करते हैं। यही कारण है कि तीर्थ करों ने अपने-अपने शासनकाल के साधुओं की प्रकृति एवं प्रज्ञा को ध्यान में रखते हुए पंचमहाव्रत और चातुर्याम धर्म की प्ररूपणा का । प्रथम और अन्तिम तीर्थ कर ब्रह्मचर्य महाव्रत का पृथकतः उपदेश नहीं करते तो प्रथम तीर्थ कर के ऋजूजड़ प्रकृति के साधु "प्रभु ने चार महाव्रतों के पालन का ही उपदेश दिया है"-यह कह कर ब्रह्मचर्य महाव्रत का पालन नहीं करते। अन्तिम तीर्थ कर के साधु भी अपनी अऋजु और कदाग्रहो प्रकृति के कारण-"यदि प्रभु को पांचों महाव्रत अभिप्रेत होते तो स्पष्टतः पृयकतः उन पाँचों का उल्लेख करते"- इस प्रकार के अनेक तर्क प्रस्तुत कर ब्रह्मचर्य महाव्रत को छोड़ केवल शेष चार महाव्रतों का ही पालन करते।
इसी बात को दृष्टिगत रखते हए प्रथम प्रोर अन्तिम तीर्थ कर अपने साधुओं को छेदोपस्थापन (पूर्व-पर्याय को छेद कर अपनी आत्मा को पंचम महावत रूपी चारित्र में उपस्थापन करने) का उपदेश करते हैं। छेदोपस्थापन का स्वरूप निम्नलिखित गाथा में नपे तुले शब्दों में स्पष्टतः बताया गया है
छेत्त ण तु परियायं, पोराणं तो उवित्ति अप्पाणं।
धम्मम्मि पंच जामे, छेप्रोवट्ठावणे स खलु ॥] एवं नवसुवि खेत सु, पुरिमपच्छिममज्झिम जिणाणं । वोच्छं गणहरसंखं, जिणाणं नामं च पढमस्स ।४५१। (एवं नवष्वपि क्षेत्रेषु, पुरिम-पश्चिम-मध्यम जिनानाम् । वक्ष्ये गणधर संख्यां, जिनानां नाम च प्रथमस्य' ।)
इस प्रकार शेष ६ क्षत्रों में भी प्रथम और अन्तिम तीर्थ करों के शासनकाल में साधुओं का छेदोपस्थापन व्रत रूप धर्म अथवा कल्प और मध्यवर्ती बावीस तीर्थ करों के साधुओं का चातुर्याम धर्म होता है। अब मैं तीर्थंकरों के नाम, उनके गणधरों को संख्या तथा उनके प्रथम गणधरों के नाम का कथन करूँगा ।४५१।
१ गणधर संख्यां जिनानां नामं, तेषा प्रथम गणधरस्य नाम च
वक्ष्यामीत्यर्थः ।
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तित्थोगाली पइन्नय .
{ १४१ उसभजिणे चुलसीति, गणहरा उसभसेण आही-(इ)-या । अजिय जिणिंदे नउति, तु सीहसेणो' भवे आदी ।४५२। (ऋषभजिनस्य चतुरशीतिः गणधरा ऋषभसेनाद्याः । अजितजिनेन्द्रस्य नवतिः तु सिंहसेनः भवेदादिः।)
प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव के चौरासी गणधर थे, जिनमें ऋषभसेन प्रथम अथवा मुख्य गणधर थे। दूसरे तीर्थ कर अजितनाथ के ६० गणधर थे। उनके प्रमुख प्रथम गणधर प्रमुख प्रथम गणधर का नाम था सिंहसेन ।४५२।। चारु य संभव जिणे, पंचाणंउ तीय गणहरा तस्स । पढमो य वज्जनाभो, अभिनंदण तियधिक सयं तु ।४५३ (चारुश्च संभवजिनस्य, पंचनवतिश्च गजधराः तस्य । प्रथमश्च वज्रनाभोऽभिनन्दनस्य व्यधिकशतं तु ।) - तोसरे तीर्थंकर भगवान् संभवनाथ के २५ गणधर थे। उनमें प्रमुख गणधर का नाम था चारू । चौथे जिनेश्वर अभिनन्दन के १०३ गणधर थे। उनके प्रमुख गणधर का नाम वज्रनाभ था।४५३। सोलसंयं सुमइस्सउ, चमरो चिय पढम गणहरो तस्स । सुज्जो य सुप्पभजिणे सयमेक्काणं गणहराणं' ।४५४। १ समयावांग, प्रवचनसारोद्धार. सत्तरिसयद्वार-हरिवंशपुराण, प्राद्या.
गमागमेतरेषु ग्रन्थेषु सिंहसेनेति समुल्लिखितमस्ति, तिलोयपन्नत्ती
तु केसरीसेनति
२ श्वेताम्बरपरम्पराया: ग्रन्थेषु द्वयधिकशत दिगम्बरपरम्पराया: ग्रन्थेषु . च पञ्चाधिक शतमेता संख्या सम्भव जिनस्य गणधराणां लिखितास्ति। ३ श्वेताम्बरपरम्पराग्रन्थेषु षोडशाधिकशतं दिगम्बरपरम्परा ग्रन्थेषु
च त्र्यथिकशमिता संख्या समुल्लिखितास्ति । ४ श्वेताम्बरपरम्परायां १०० संख्या दिगम्बरपरंपरायां च ११६
संख्या सम्मतास्ति । ५ प्रथम गणधरस्य नाम समवायांगे सुव्रत: प्रवचन सारोद्धारं प्रद्योत;
सत्तरिसयद्वारे सुज्ज हरिवंशे वज्रचमरतिलोयपन्नत्ती तु चमर इत्युल्लिखितमस्ति । गणधर संख्यापि श्वेताम्बरपरम्परायां १०७, दिगम्बरपरम्परायां च १११, ११० च सम्मतास्ति ।
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१४२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय (षोडशशतं सुमतेस्तु, चमरः किल प्रथमगणधरस्तस्य । सुज्जश्च सु(पदा)प्रभजिनस्य शतमेकं गणधराणाम् ।)
पांचवें तीर्थंकर सुमितनाथ के ११६, गणधर थे और उनमें प्रमुख थे चमर। छठे तीर्थकर सुप्रभ पद्मप्रभ के १०१ गणधरों में सुज्ज प्रमुख गणधर थे ।४५४। होइ सुपासेवियम्भो,' पंचाणवतीय गणहरा तस्स । ' दिण्णो य पढमसिस्सो, तेनउई होति चंदाभे (चन्दप्पभे) ।४५५। (भवति सुपार्श्वस्य विदर्भः, पंचनवतिश्च गणधरास्तस्य । दिन्नश्च प्रथमशिष्यः, त्रिनवंतिः भवन्ति चन्द्रप्रभे ।)
सातवें तीर्थंकर सुपार्श्व के ६५ गणधर थे, उनमें प्रमुख विदर्भ और आठवें तीर्थ कर चन्द्रप्रभ के ६३ गणधरों में प्रमुख एवं प्रथम गणधर दिन्न थे।४५५। सुविहिजिणे वाराहो, चुलसीति गणहरा भवे तस्स । नंदो य सीयलजिणे, एक्कासीति मुणेयव्वा ४५६। . (सुविधिजिनस्य वाराहः, चतुरशीतिः गणधरा भवेयुस्तस्य । । नन्दश्च शीतलजिनस्य, एकाशीतिः मुनेतव्या ।)
वें तीर्थ कर सुविधिनाथ के ८४ गणधर थे, उनमें प्रथम गणधर का नाम था वराह । १० वें तीर्थंकर शीतलनाथ के ८१ गणधर और उनमें प्रथम गणधर का नाम नन्द जानना चाहिए ।४५६। .
१ दिगम्बरपरम्परायाः हरिवंशपुराणे वली, तिलोयपन्नसो च बलदत्त " इति नामोल्लेखः। २ तिलोयपन्नत्तो तु वेदर्भ-इत्युल्लेखोऽस्ति । । ३ तिलोय पण्णत्तो नाग; हरिवंशपुराणे च विदर्भत्युल्लेखा श्वेताम्बर
परस्पराया ग्रन्थेषु वराह' एव । ४ समवायांगे षडशीतिः; किन्तु श्वेताम्बर दिगम्बर परम्परोभय
योश्चान्यसर्वग्रन्थेषु सुविधेर्गणधराणां संख्या ८८। ,
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १४३ सेज्जंसे सत्तत्तरि, पढमो सिरसो य गोथुभो होइ । छावट्ठी य सुभूमो बोधव्वो वासुपुज्जस्स ।४५७। [श्रेयांशस्य सप्तसप्ततिः, प्रथमः शिष्यश्च गोस्तूभ भवति । षट्षष्टिश्च सुभूम: बोधव्यः वासुपूज्यस्य ।
११ वें तीर्थकर श्रेयांस के ७० गणधर थे। उनमें प्रमुख गणधर का नाम गोस्तुभ था। १२ वें तीर्थकर वासुपूज्य के ६६ गणधर थे। उनके प्रथम गणधर का नाम सुभूम समझना चाहिए ।४५७। विमलजिणे छप्पन्ना गणधर पढमो मंदरो होई। . पण्णासाणंत जिणे, पढमसिस्सो जसो नाम ।४५८१ . [विमलजिने षड्पंचाशत्, गणधरः प्रथमः मन्दरो भवति । पंचाशत् अनंत जिनस्य, प्रथम शिष्यः यशो नामा ।]
. १३ वें तीर्थ कर विमलनाथ के गणधरों की संख्या ५६ थी, उनमें प्रथम गणधर का नाम मंदर था। १४ वें तीर्थ कर अनन्तनाथ के ५० गणधरों में प्रमुख गणधर का नाम यश था ।४५८।
१ समवायांगे ६६, आवश्यक नियुक्ती ७२, प्रवचनसारोद्धारे ७६ तथा
दिगम्बरपरम्परायाः हरिवंशपुराणे, तिलोयपन्नताबुत्तरपुराणे च ७७
संख्या श्रेयांसप्रभोर्गणधारीणां समुल्लिखितास्ति । २ समवायांगे गोस्तूभः, प्रवचनसारोद्धारे कोस्तूभः सत्तरिसयद्वारे कुच्छुभ,
हरिवंशपुराणे कुथु, तिलोयपन्नत्ती तु 'धर्मः इति नामोल्लेखः विद्यते । ३ समवायांगे ६२, तथोभयपरम्परान्यसर्वग्रन्थेषु ६६ संख्यास्ति । ४ समवायांगे सुधर्मा, सत्तरिसयद्वारे सुभूमः, प्रवचनसारोद्धारे सुभोम,
हरिवंशपुराणे सुधर्मस्तथा तिलोयपन्नत्तो 'मन्दिर' इति नामोल्लेखः । ५ समवायांगे ५६, श्वेताम्बरपरम्पराया अन्य ग्रन्थेषु ५७ तथा दिगम्बर . परम्पराया तिलोयपन्नत्त्यादि ग्रन्थेषु विमलजिनस्य गणधराणां संख्या
५५ उल्लिखितास्ति। ६ तिलोयपन्नत्ती प्रथम गणधरस्य जय इति नाम्ना उल्लेखोऽस्ति । ७ समवायांगे ५४ शेषेषु ५० संख्योल्लिखितास्ति । ४--तिलोयपन्नत्ती--
'मरिष्ट' हरिवंशे जय नाम्ना समुल्लेखोऽस्ति ।।
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१४४ ]
[ तित्थोमाली पइन्नय एवं न वसुवि खेते सु, पुरिम पच्छिम मज्झिम' । (१) चक्काउधेय पढमो, चचालीसाय' संति जिणे ।४५९। (एवं नवस्वपि क्षेत्रेषु, पुरिम पश्चिम मध्यम (१) । चक्रायुधश्च प्रथमः. चत्वारिंशच्च शान्ति जिनस्य )
(पन्द्रहवें तीर्थ कर धर्म नाथ के गणधरों की संख्या तथा प्रथम गणधर के नाम का उल्लेख वाली प्रथमाद्ध गाथा के स्थान पर लिपिक द्वारा प्रमादवशात् असंबद्ध प्राधी गाथा लिख दी गई है।) सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ के ४० गणधर और उनमें प्रथम चक्रायुध थे।४५६॥ कुंथुस्स भवे संबो, सत्ततीसं च गणहरा तस्स । कुंभो य अर जिणिंदे, तेतीसं गणहरा तस्स ।४६०। (कुथोः भवेत् संवः, सप्तत्रिंशच्च गणधरास्तस्य । कुम्भश्च अरजिनेन्द्रस्य त्रयस्त्रिंशत् गणधरास्तस्य ।) १ लिपिकारेणात्र धर्मनाथस्य गणधराणां संख्या प्रथम गणधरस्य च
नामोल्लेखकरं प्रथमाद्ध गाथायाः परित्यज्य प्रमादेनास्मिन् स्थले ऽसम्ब. द्धाया: कस्याचिदन्याया; गाथायाः पूर्वाद्ध लिपिबद्धं कृतमिति
स्पष्टतः प्रतिभाति । २ शान्ति प्रभोः प्रथम शिष्यस्य नाम समवायांगे 'चक्रामः' शेषेषभय -
परम्परा ग्रन्थेषु 'चक्रायुध' एव ।। ३ शान्तिनाथ तीर्थंकरस्य गणधराणां संख्या समवायांगे नवतिः शेषेषभय -
परम्परा ग्रन्थेषु षट्त्रिशदेव लिखितास्ति । ४ समवायांगे, हरिवंशपुराणं. तिलोयपन्नत्ती च सयंभू (स्वयंभू),
प्रवचनसारोद्धारे सत्तरिसयद्वारे च 'संब' नाम लिखितमस्ति । समवायांगे ३७ शेषेषु श्वेताम्बर दिगम्बर-परम्परयोः ग्रंथेषु पंच
त्रिशत् संख्या लिखितास्ति । ६ हरिवश पुराणे कुन्थु शेषषूपरिलिखित सर्वेषु ग्रन्थेषु कुम्भः नामैव विद्यते । श्वेताम्बरपरम्पराया ग्रन्थेषु त्रयविंशत्तथा दिगम्बरपरम्परायाः तिलोयपन्नत्यादि ग्रन्थेषु प्रभो प्ररस्य गणधराणां संख्या त्रिशदेव लिखितास्ति ।
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तित्थोगाली पइन्नय |
.[ १४५
१७ वें तीर्थंकर भगवान् कुंथुनाथ के प्रथम गणधर का नाम सम्ब था और गणधरों को संख्या ३० थी । १८ वें तीर्थंकर अरनाथ के ३३ गणधर थे और उनमें से प्रमुख गणधर का नाम कुम्भ था । ४६०। भिसगो' मल्लिजिणिंदे, अड्डावीसं च गणहरा हुति |
मुणि सुव्वयस्स मल्ली अट्ठायस गणहरा तस्स | ४६१ | ( भिषण : मल्लि जिनेन्द्रस्य, अष्टाविंशतिश्च गणधराः भवन्ति । मुनि सुव्रतस्य मल्ली, अष्टादश गणधरास्तस्य )
3
१६ वें तीर्थंकर मल्लिनाथ के २८ गणधर थे। उनके प्रमुख गणधर का नाम भिषक् था । २० वें तीर्थङ्कर मुनिसुव्रत के प्रथम गणधर का नाम मल्ली था और उनके कुल १८ गणधर थे । ४६१ । सुभो नमि जिण वन, एक्कारस' गणहरा चरिम - देहा | नेमिरस व अट्ठारस, गणहर पढमो य वरदत्तो |४६२ । (शुभः नमिजिनवृषभस्य एकादश गणधराश्चरमदेहाः । नेपिनोऽप्यष्टादशः, गणधर प्रथमश्च वरदत्तः ।)
२१ वें नमिनाथ जिनेश्वर के चरम शरीरी ११ गणधर थे । उनके मुख्य गणधर का नाम शुम्भ था । २२ वें तीर्थंकर भगवान् अरिष्टनेमि के १८ गणधर थे। उनके प्रथम गणधर का नाम वरदत्त था ।४६२ ।
[ यहां फिर लिपिक ने गाथा संख्या लिखने में भूल को है । ४६३ गाथांक के स्थान पर ४६४ लिख दिया है ।]
1
१ समवायांगे इन्द्र:, प्रवचनसारोद्धारे सत्तरिसयद्वारे च भिसय- भिसग, तिलोयपन्नत्तौ विशाख इति ।
२ समवायांगे कुम्भ शेषान्यग्रन्थेषु 'मल्ली नामैव विद्यते ।
४
३ तिलोयपण्णत्तौ सुप्रभः हरिवंशपुराणे च 'सोमक' नामोपलभ्यते । प्रावश्यक निर्युक्तौ प्रवचनसारोद्वारे उत्तरपुराणे, हरिवंशपुराणे; तिलोयपण्णत्तो च नमिजिनगरणधराणां संख्या सप्तदश उल्लिखितास्ति। समवायांगे तु नास्त्येतद्विषयक उल्लेखः ।
५
-
समवायांगे नेमिनाथस्य गणधराणामपि संख्याया उल्लेखो नास्ति । आवश्यक नियुक्त्यादि श्वेताम्बरपरम्परायाः ग्रन्थेषु तथैव तिलोयपन्नत्यादि दिगम्बरपरम्पराया ग्रन्थेषु च नेमिनः गणधराणां संख्या दश लिखितास्ति ।
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१४६ ]
[ तित्योगालो पइन्नय * पासस्स अज्जदिण्णो,' पढमो अट्ठव गणहरा सहिया । जिणवीरं एक्कारस, पढमो से इंदभूई उ ।४६४। (पार्श्वस्याय दिन्नः, प्रथमोऽष्टावेव गणधराः सहिताः । जिन-चीरस्यैकादश, प्रथमः स इन्द्रभृतिस्तु ।)
२३वें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ के कूल ८ गणधर थे। उनके प्रथम गणधर का नाम आर्य दिन्न था। और २४ वें तीर्थंकर वीर (महावीर) के ११ गणधर थे। उनके प्रथम गणधर का नाम इन्द्रभूति था ।४६४। गणहर संखा भणिया, जं नामो पढम गणहरो जस्स । एचो सिस्सिणी नामा, उसभादीणं तु वोच्छामि ।४६५ । (गणधर संख्या भणिता, यन्नामा प्रथम गणधरः यस्य । इतः शिष्या नामानि, ऋषभादीनान्तु वक्ष्यामि )
चौवीस तीर्थंकरों के गणधरों की संख्या और जिन जिन तीर्थंकरों के जिस जिस नाम के प्रथम गणधर थे उनका कथन किया गया। अब मैं ऋषभादि चौवीसों तीर्थंकरों की प्रथम शिष्याओं के नाम का कथन करूगा ।४६५। * उसमस्स होइ बंभी, फग्गू अजियस्स सम्भवस्स सामा। .
अभिनंदणस्स अजिया, कासवी सुमति जिणिंदम्स ।४६६। * त्रिषष्ट्यधिक चतुर्शता गाथा प्रतो नास्ति । गाथांकलेखने लिपिक
प्रमादात त्रुटि: संजाता प्रतीयते । समवायांगे तथा श्वेताम्बरपरम्परायाः इतर ग्रन्थेषु पार्श्वस्य प्रथम गणधर 'प्रज्ज दिन्न' (प्रार्यदत्तः) पासीदिति निर्विवादोल्लेखः विद्यते किन्तु दिगम्बर परम्पराया: 'हरिवंशपुराणे' तिलोयपन्नतो च पार्श्वस्य प्रथम गणधरः 'स्वयंभुः' नाम्नाख्यातः । समवायांगे पार्वजिनस्य गणधराणां संख्या तावदष्ट निर्दिष्टा किन्तु श्वेताम्बर-दिगम्बरोभयपरम्परयोरितरग्रन्थेष्वेषा संख्या दशः
समुल्लिखितास्ति । * दिगम्बरपरम्पराया: मान्य ग्रन्थेषु यथा तिलोयपन्नती हरिवंश
पुराणे, उत्तरपुराणे च प्रथम-षष्ठ, द्वाविंशति-चविंशतितम जिनानां प्रथम शिष्यानामानि तान्येव समुल्लिखितानि सन्ति यानि श्वेताम्बरपरम्पराया: आगमेष्वथवा ग्रन्थेषु तथा प्रस्तुत ग्रन्थे चोपलभ्यन्ते । शेष विंशति जिनप्रमुख शिष्यानामानि तु पूर्णत:
भिन्नान्येव । यथा ३ प्रकुब्जा ४ धर्मश्री वा धर्मार्या ५ मेरुषेणा-मरुषेणा वा ६ अनन्ता
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १४७
(ऋषभस्य भवति ब्राह्मी, फल्गू अजितस्य सम्भवस्य श्यामा । • अभिनन्दस्य अजिता, काश्यपी सुमति जिनेन्द्रस्य ।)
ऋषभदेव की प्रथम शिष्या ब्राह्मी, अजितनाथ की फल्गु श्री, संभवनाथ की श्यामा, अभिनन्दन की अजिता और सुमतिनाथ की काश्यपी थी ।४६६। पउमप्पभस्स तु रती, सोमा' सुपासस्स पढम सिस्सीणी य । चन्दप्पभस्स सुमणा, वारुणि सुविहिस्स जेठज्जा ।४६७। (पद्माप्रमस्य तु रतिः, सोमा सुपार्श्वस्य प्रथम शिष्या च । चन्द्रप्रभस्य सुमना, वारुणी सुविधेः ज्येष्ठार्या ।)
- पद्मप्रभ की प्रथम शिष्या रती और सुपार्श्व की सोमा थी। चन्द्रप्रभ की सुमना और सुविधिनाथ की ज्येष्ठ शिष्या प्रार्या वारुणी थी ।४६७। सीयल जिणस्स सुज (ल) सा, सेज्जसजिणस्स धारिणी पढमा। धरणी' य वासुपुज्जे, धरा य विमलस्स जेठज्जा ।४६८। (शीतल जिनस्य सुजसा, श्रेयांसजिनस्य धारिणी प्रथमा । धरणी च वासुपूज्यस्य, धरा च विमलस्य ज्येष्ठार्या ।)
शीतलनाथ तीर्थंकर की प्रथम शिष्या सूजसा और श्रेयांसनाथ की धारिणी थी। वासुपूज्य की ज्येष्ठ आर्या का नाम धरणी तथा विमलनाथ की ज्येष्ठ प्रार्या का नाम धरा था।४६८।।
१ मीना २ वरुणा ३ घोषा-दिगम्बरपरम्पराग्रन्थेषु । ४ समवायांगे 'सुलसा', प्रवचनसारोद्धारे सत्तरिसयद्वारे च 'सुजसा' ।
दिसम्बरपरम्परायाग्रन्थेषु 'धरणा' । ५ हरिवंशपुराणे तिलोयपन्नत्ती च चारणा । उत्तरपुराणे 'धारणा' ६ हरिवंशपुराणे तिलोयपन्नत्ती च 'वरसेना', उत्तरपुराणे तु सेना । ७ समवायांगे धरणीधरा, प्रवचनसारे, सत्तरिसयद्वारे च धरा । दिगम्बर
परम्परायाः ग्रन्थेषु च पद्मा।
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१४८ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
पउमा' अणंतइ जिणे, सिवा य धम्मे सुतीय संतिस्स । कुंथुस्स दामिणि खलु, जेठज्जा रक्खी" य अरस्स ।४६९/ (पमा अनन्त-जिनस्य, शिवा च धर्मस्य श्रुती च शान्तेः । कु थोः दामिनी खलु, ज्येष्ठार्या रक्खी च अरस्य ।)
भगवान् अनन्तनाथ की प्रथम शिष्या पद्मा, भ० धर्मनाथ की शिवा, शान्तिनाथ की श्रु ती, कुथुनाथ की दामिनी और अरनाथ की रक्षी थी।४६६। बंधुमती मल्लिस्सस, मुणिमुवय-जिणवरस्स पुष्फवती । अणिला य नमि जिणिंदे, जक्खिणी तह रिडनेमिस्स ।४७०। (बन्धुनती मल्ल्याश्च, मुनिसुव्रतजिनवरस्य पुष्पवती । अनिला च नमिजिनेन्द्रस्य, यक्षिणी तथा अरिष्टनेमिनः ।)
___ मलिनाथ की प्रथम शिष्या बन्धुमती, मुनिसुव्रत की पुष्पतवी नमिनाथ की अनिला और भगवान् अरिष्टनेमि की यक्षिणी थी।४७०। पासस्स पुष्फचूला, वीर जिणिदस्स चंदणज्जाउ । एया पढमावक्खाया, (सव्व जिणाण) भिस्सिणीओ।४७१। '
१ दिगम्बरपरम्परायां सर्वश्री। २ दिग० पर० सुव्रता। ३ प्रवचन सारोद्धारे 'सुहा' । दिगम्बर परम्पराया: ग्रन्थेषु 'हरिषेना' । ४ समवायांगे 'अजुया' प्रवचनसारोद्धारे सत्तरिसय द्वारे च दामणी
दामिणी वा । दिगम्बरपरम्पराग्रन्थेषु भाविता । ५ 'हरिवंशपुराणे' कुतुसेना, 'तिलोयपन्नत्तो' कुधुसेना तथा 'उत्तर
पुराणे' च यक्षिला। ६ तिलोय पन्नत्ती हरिवंशपुराणे च 'मधुसेना', उत्तरपुराणे बन्धुषेणा। ७ ति० पन्नत्ती, हरिo पुराणे 'पूर्वदत्ता' तथोत्तरपुराणे 'पुष्पदन्ता'। ८ समवायांगे प्रमिला, प्रव. सारोद्धारे सत्त. द्वारे च 'अनिला'।
दिगम्बरपरमरायां तु मागिणी मंगिनी वा । & समवायांगे 'यक्षिणी', प्र. सारोद्धारे, सत्त. द्वारे च 'जक्खदिन्ना' ।
दिगम्बरपरम्पराग्रन्थेषु 'यक्षी: 'यक्षिणी' वा ।
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तित्योगाली पइन्नय ]
(पाश्वस्य पुष्पचूला, वीरजिनेन्द्रस्य चन्दनार्या तु | एताः प्रथमा अवख्याता (सर्व जिनानां ) शिष्यास्तु । )
भगवान् पार्श्वनाथ की पुष्पचूला और भ वीर की आर्या चन्दना प्रथम शिष्या थी । ये चौवीसों तीर्थं करों की प्रथम शिष्याएं प्रसिद्ध हैं । ४७१ ।
तित्थयराणं सीसे, वोच्छामि थूहसहस्स परिगीए ।
राया जो तंभि जुगे, अहिसि पिउमायरो अहवा | ४७२। (तीर्थंकराणां शिष्यान् वक्ष्यामि स्तुतिसहस्रपरिगीतान् ।
[ १४६
9
राजा यः तस्मिन् युगे आसीत् पितृमातरः अथ वा | ४७२। अब मैं तोर्थ करों के सहस्रों स्तुतियों द्वारा संस्तुत शिष्यो, तीर्थंकरों के समय के राजानों तथा तीर्थंकरों के माता-पिता के सम्बन्ध में कथन करूँगा । १७२।
चुलसीति महस्सोईं, उसमजिनिंदस्स सीसपरिवारो ।
मरहम हिस्सथुणियं मरुदेवी नाभितणयस्स | ४७३। (चतुरशीतिसहस्राणि ऋषजिनेन्द्रस्य शिष्यपरिवारः । भरतमहीपेन स्तुतस्य मरुदेवीनाभितनयस्य । )
मरुदेवी तथा नाभिराज के नन्दन भरत चक्री के परम पूज्य ऋषभदेव के शिष्यों की संख्या ८४ हजार थी ।४७३।
,
,
एगंतु सयसहस्सं अजिअ जिनिंदस्स सीसपरिवारो । सागर महिवसथुणियं, विजयाजियसत्तु पुत्तस्स | ४७४। ( एकं तु शतसहस्र, अजितजिनेन्द्रस्य शिष्यपरिवारः । सगर न ही पस्तुतस्य, विजया जितशत्रुपुत्रस्य )
माता विजया और राजा जितशत्रु के पुत्र तथा चक्रवर्ती सगर द्वारा संस्तुत तीर्थंकर अजितनाथ के शिष्य परिवार की संख्या १ लाख थी । ४७४।
१
भरतमहोपेन स्तुतस्य इत्यर्थ: । "भरहमहिव-धुरिणयस्स" इति पाठेन भाव्यम् ।
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१५० ]
1
१
दो चेवससस्सा, सीसाणं आसि संभवजिणस्य । मितविरिय थुयस्स, सेणाए जियारितण यस्स | ४७५ । (द्वौ चैव शतसहस्राणि शिष्याणामासन संभव- जिनस्य ।
|
1
[ तित्योगाली पइन्नय
1
मित्रवीर्य स्तुतस्य सेनायां जितारितनयस्स ।)
महारानी सेना और महाराज जितारि के तनुज तथा नृपवर मित्रवीर्य द्वारा स्तुत भगवान् संभवनाथ के २,००,००० शिष्य थे
।४७५।
तिन सय सहस्सा, अभिनन्दण जिणवरस्ससीसाणं । सव्वरिरियथुयस्स, सिद्धत्थासंवर सुयस्स | ४७६ |
( त्रीण्येव शतसहत्राणि, अभिनन्दन जिनवरस्य शिष्यानाम् । सर्व वीर्य स्तुतस्य सिद्धार्था -संवरसुतस्य ।)
महारानी सिद्धार्था और महाराज संवर के सुत तथा नृपेन्द्र सर्ववीर्य द्वारा संस्तुत तीर्थंकर प्रभु अभिनन्दन के शिष्यों की संख्या ३,००,००० थी ।४७६
,
तिन्नदेव सय सहस्सा, वीससहस्सा य आसि सुमइस्स । जियसेण पणमियस्स, मंगला मेहतणयस्स ४७७। ( त्रीण्येवशतसहस्राणि विंशतिसहस्राणि चासन् सुमतेः । जितसेन प्रणमितस्य, मंगला मेघतनयस्स ।)
महारानी मंगला और महाराज मेघ के नन्दन तथा नरपति द्वारा स्तुत एवं प्रणत भगवान् सुमतिनाथ के शिष्य साधु परिवार की संख्या ३,२०,००० थी । ४७७ |
तिन सय सहस्सा, तीस सहस्साय आसि पउमाभो । दाणविरिय[ थु] यस्स, सुसीम-घर रायतनयस्स | ४७८ |
२
१ तिलोयपन्नत्ती तथा उत्तर पुराणे सुसेना, श्वेताम्बरपरम्पराया ग्रन्थेषु हरवंश पुराणे च मातुः 'सेना' नामोल्लेखः ।
२ दिगम्बरपरम्परायां 'धरण' इति नामोल्लेखः विद्यते ।
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तित्योगाली पइन्नय ]
( त्रीण्येव शतसहस्राणि त्रिंशत्सखाणि चासन् पद्माभस्य । दानवीर्यस्तु तस्य, सुसीमा घर राजतनयस्य । )
महारानी सुसीमा और महाराजा धर के तनय तथा राजा दानवीर्य द्वारा स्तुत प्रभु पद्मभ के ३,३०,००० शिष्य थे । ४७८ ।
तिन सय सहस्सा, सीसाणं आसि जिण सुपासस्स । धम्मविरिथुस्स पुहईए- पतयस्स | ४७९ |
,
1
( त्रीण्येव शतसहस्राणि शिष्यानामासन् जिनसुपार्श्वस्य । धर्मवीर्यस्तु तस्य पृथ्व्यां प्रतिष्ठ तनयस्य । )
,
महारानी पृथ्वी एवं महाराजा प्रतिष्ठ के नन्दन और धर्मवीर्य नृपति द्वारा संस्तुत भगवान् सुपार्श्वनाथ के शिष्य-साधनों की संख्या ३,००,००० (तीन लाख ) थी ।४७९ ।
चंदष्पहस्स सीसा, अड ढाइज्जा य सयसहस्साइं ।
महव महिवस्स थुणियं, लक्खणा महसेणतणयस्स | ४८० | (चन्द्रप्रभस्य शिष्याः सार्द्धद्वयशतहस्राणि --
मघव महीपस्य थुणियं [?] लक्ष्मणा - महासेनतनयस्य । )
महारानी लक्ष्मण और महाराज महासेन के आत्मज तथा चक्रवर्ती मघवा द्वारा सदा संस्तुत जिनेश्वर चन्द्रप्रभ के २,५०,००० (ढाई लाख) शिष्य थे । ४८० |
,
दो चेव सयसहस्सा, सीसाणं होंति पुष्पदंतस्स । जुद्धवीर थुस्, रामा सुग्गीवपुस । ४८१ । ( द्वौ चैव शतसहस्राणि शिष्यानां भवन्ति पुष्पदन्तस्य ।
।
1
युद्धवीर्यस्तुतस्य रामा- सुग्रीवपुत्रस्य ।)
"
[ १५१
१ दिगम्बरपरम्पराग्रन्थेषु 'सुप्रतिष्ठ' नाम लिखितमस्ति ।
२ तिलोयपन्नत्ती तु 'लक्ष्मण' नाम विद्यते ।
३ सुविधिजिनस्यापर नाम ।
४ उत्तरपुराणे जयरामा नाम ।
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१५२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
___महारानी वामा और महाराज सुग्रीव के पुत्र तथा युद्धवोर्य नपतिद्वारा स्तुत तीर्थंकर पुष्पदन्त (सुविधिनाथ) के शिष्य-परिवार को संख्या २,००,००० (दो लाख) थी ।४८१। एगं तु सयसहस्सं, सीसाणं आसिसीयलजिणस्स । सीमंधर महियस्सउ, नंदाए' दढरह सुयस्स ।४८२। (एकं तु शतसहत्रं, शिष्यानामासीत् शीतल जिनस्य । सीमंधर महितस्य तु, नन्दाया दृढरथसुतस्य ।)
महारानी नन्दा और महाराज दृढरथ के नन्दन तथा राजा सीमंधर द्वारा पूजित तीर्थंकर शीतलनाथ के १,०० ००० (एक लाख) शिष्य थे।४८२। चुलसीति सहस्साई, सिज्जंस जिणस्स सीसपरिवारो। तिविट्ठ' महियस्स, तहा विण्हाए विण्हुपुत्तस्स ।४८३। (चतुरशीति सहस्राणि, श्रेयांसजिनस्य शिष्यपरिवारः । त्रिपृष्ठ महितस्य, तथा विष्णायां-विष्णुपुत्रस्य ।)
महारानी विष्णु देवी और महाराज विष्णु के तनय तथा त्रिपृष्ठ वासुदेव द्वारा पूजित जिनराज श्रेयांसनाथ के शिष्य परिवार की संख्या ८४,००० (चौरासी हजार) थी।४८३। बावचरिं सहस्सा, सीसाणं आसि वासुपुज्जस्स । दुविट्ठ महियस्स, तणयस्स जयाएं वसु पुज्जस्स ।४८४। (द्विसप्ततिःसहस्राणि, शिष्यानामासीत् वासुपूज्यस्य । द्विपृष्ठमहितस्य तनयस्य जायायां वसुपूज्यस्य ।)
१ उत्तरपुराणे हरिवंशपुराणे च सुनन्दा नामोपलभ्यते । २ तृपृष्ठः प्रथम वासुदेवः ।। ३ श्रेयांस जिनस्य जननिजनकयोरुभयोरपि नाम्नि समवायांगादी विष्णु
उल्लिखिते स्तः । तिलोयपण्णत्तो तु मातुः नाम वेणुदेवी विद्यते । ४ द्वितीयो वासुदेवः द्विपृष्ठः ।
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तित्थोमाली पइन्नय ]
[ १५३
महारानी जया और महाराज वसुपूज्य के सुपुत्र तथा द्विपृष्ठ वासुदेव द्वारा पूजित तीर्थंकर वसुपूज्य के ७२,००० ( बहत्तर हजार ) शिष्य थे |४८४ |
अट्ठसट्ठि सहस्साई, विमल जिनिंदस्स सीसपरिवारो । पणियस्स सयंभु' निवेण, कयवम्म सामा' तणयस्स | ४८५ | (अष्टषष्टि सहस्राणि विमल जिनेन्द्रस्य शिष्यपरिवारः ।
प्रणतस्य स्वयंभुनपेण कृतवर्मा - सामातनयस्य । )
1
,
महाराजा कृतवर्मा और महारानी श्यामा के पुत्र तथा वासुदेव स्वयम्भु द्वारा पूजित - नमस्कृत, भगवान् विमलनाथ के शिष्य परिवार की संख्या ६८,००० ( अड़सठ हजार ) थी ।४८५ ॥
छाडि सहस्साईं, सीसाण आसिनंतर जिणस्स |
४
पुरिसोत्तम महियस्स य, सुजसाए सीहतण यस्स ४८६ | ( षट्षष्टि सहस्राणि शिष्यानामासीदनन्त जिनस्य ।
,
पुरुषोत्तम महितस्य च सुरक्षा - सिंहतनयस्य । )
.
महारानी सुयशा और महाराज सिंह के आत्मज तथा वासुदेव पुरुषोत्तम द्वारा पूजित चौदहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ के ६६००० (छासठ हजार ) शिष्य थे, ४८६ ।
सट्ठि सहस्सा, धम्मजिनिंदस्य सीसपरिवारो । महियस्स पुरिससीहेण, सुव्वय तह भागुतणयस्स | ४८७ | (चतुःषष्टिसहस्राणि, धर्म जिनेन्द्रस्य शिष्यपरिवारः । महितस्य पुरुपसिंहेन, सुव्रता तथा भानु तनयस्य ।)
१ स्वयम्भूः तृतीयो वासुदेव:
२ हरिवंशपुराणे शर्मा, तिलोयपण्णत्तो च 'जयश्यामा' इत्युल्लेखोऽस्ति । ३ चतुर्थः वासुदेव: ।
४
तिलोयपन्नत्तो हरिवशे च 'सर्वयशा' तथोत्तरपुराणे 'जयश्यामा' नामोल्लेख: विद्यते ।
५ पंचमः वासुदेव:
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१५४ ]
[ तित्थोगाली पइन्न य महारानी सुव्रता और महाराज भानु के पुत्र तथा अर्द्ध चक्री पुरुषसिंह द्वारा पूजित पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ के शिष्य परिवार की संख्या ६४,००० (चौसठ हजार) थी।४८७/ बावटि सहस्साई, संतिजिणिंदस्स सीसपरिवारो।। नारायण' महियस्स य, अइरा एवीससेण तणयस्म ।४८८। (द्वाषष्टि सहस्राणि, शान्ति जिनेन्द्रस्य शिष्यपरिवारः । नारायण-महितस्य च, अचिरायां विश्वसेनतनयस्य ।)
__ महारानी अचिरा और महाराज विश्वसेन के नन्दन तथा नारायण नामक राजा (कोणालक नाम अन्य ग्रन्थों में उपलब्ध होता है) द्वारा पूजित सोलहवें तीर्थङ्कर शान्ति के शिष्य परिवार की संख्या ६२,००० (बासठ हजार) थी।४८८। सढि तु सहस्साई , कुथुजिणिदस्स मीमपरिवारो । कोणालग महियस्स य सिरीए सूरस्स य सुयस्स ।४८९। (षष्टिस्तु साहस्राणि, कुथु-जिनेन्द्रस्य शिष्यपरिवारः । कोणालक महितस्य च श्रियां सूरस्य च सुतस्य ।)
__ महारानो श्री और महाराज शूर के सुपुत्र तथा कोरणालक नपति द्वारा महित (प्रजित) सत्रहवें तीर्थङ्कर कुथुनाथ के शिष्य परिवार को संख्या ६०,००० (साठ हजार) थी ।४८६ । पण्णासं तु सहस्सा, सीसाणं आसि अर जिणिंदस्स । पणयस्स सुभूमेणं', देवीए सुदरिसण सुयस्त ४९०। (पञ्चाशत्तु सहस्राणि शिष्यानां खल्वासन र जिनेन्द्रस्य । प्रणतस्य सुभूमेणं, देव्याः सुदर्शनस्य [च] सुतस्य ।)
१ मुनिसुव्रतनमिनाथयोरन्तराल वर्त्यष्टमवासुदेवाद्भिन्नः । २ तिलोयपन्नत्यादि दिगम्बरपरम्पराग्रन्थेषु ऐरा नामोपलभ्यते, तदपि
'प्रचिरा' (अइरा) शब्दस्यौव प्राकृत रूपान्तरम् । ३ अरमल्लिजिनयोतिगल काले जातेनाष्टम चक्रवर्तित: भिन्नः । ४ दिगम्बरपरम्परायाः ग्रन्थेषु 'मित्रा' वा 'मित्रसेना' नामोपलभ्यते ।
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तित्थोगाली पइन्नय ।
। १५५
___ महारानी देवी और महाराज सुदर्शन के सूत तथा राजा सुभूम (सुभूम चक्रवर्ती से भिन्न) द्वारा प्रणत अठारहवें तीर्थङ्कर अरनाथ के ५०,००० (पचास हजार) शिष्य थे ।४६०॥ चत्तालीस सहस्सा, मल्लिजिनिंदस्स सीसपरिवारो। अजियंजिय-महियस्स, पभावतीकुभ पुत्तस्स ४९१। (चत्वारिंशत्सहस्राणि, मल्लि जिनेन्द्रस्य शिष्यपरिवारः । अजितंजित महितस्य, प्रभावती-कुम्भपुत्रस्य ) ___महारानी प्रभावती और महाराज कुम्भ के (की) पुत्र (पुत्रो) तथा अजितंजित नरेन्द्र द्वारा पूजित उन्नीसवें तीर्थङ्कर मल्लिनाथ के शिष्य परिवार की सं० ४०,००० (चालीस हजार) थी । ४ ६ १ । मुणिसुव्वयस्त तीसं, साहस्सीओ आसी सीसाणं । चिलियस्स पणमियस्स , सुमित्तपउमावइ सुयस्स ।४९२। (मुनि सुव्रतस्य त्रिंशत्साहमिका आसीत् शिष्यानाम् । चिलितन प्रणमितस्य, सुमित्र-पद्मावती सुतस्य ।)
. महाराज सुमित्र और महारानी पद्मावती के पुत्र तथा राजा चिलित (विजयमह) द्वारा नमस्कृत बोसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत के ३०,००० (तीस हजार) शिष्य थे ।४ २। वीस साहस्सीओ, सीसाणं नमिजिणिदस्स परिवारो। जावगराय नयस्स , वप्पाए विजय तणयस्स ।४९३। (विंशत्साहत्रिका, शिष्यानां नमिजिनेन्द्रस्य परिवारः । यावकराज नतस्य, वप्रायां विजयतनयस्य ।)
महारानी वप्रा और महाराज विजय के पुत्र तथा यावक नरेश्वर के वन्दनीय इकवीसमें तीर्थंकर नमिनाथ के शिष्य परिवार की सं० २०,००० बोस हजार थी।४६३। अट्ठारस य सहस्सा, सीसाणं आसि रिट्टनेमिस्स । कण्हेण पणमियस्स य, सिवासमुदाण तणयस्स ।४९४।
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१५६ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(अष्टादश च सहस्राणि, शिष्यानामासीत् अरिष्टनेमिनः । कृष्णेन प्रण मितस्य, शिवासमुद्रयोः तनयस्य ।)
महारानी शिवा और महाराज समुद्रविजय के नन्दन तथा कृष्ण वासुदेव के नमस्य बावीसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के १८,००० (अठारह हजार) शिष्य थे ।४६४। सोलस साहस्सीओ, पास जिणिदस्स सीसपरिवारो । महियस्स पसेण इणा, सुयस्स वायससेणाणं ।४९५। (षोडश साहसिकः, पार्श्वजिनेन्द्रस्य शिष्यपरिवारः । महितस्य प्रसेनजितेन सुतस्य वामाश्वसेनयोः ।).
___ वामा महारानी और अश्वसेन महाराज के पुत्र तथा राजा प्रसेनजित् द्वारा पूजित तेवीसवें तीर्थङ्कर भगवान पार्श्वनाथ के शिष्यों को संख्या १६,००० (सोलह हजार) थी।४६५। चोदस साहसीओ, सीसाणं आसि वद्धमाणस्स । सेणियरायनयस्स, तिसलासिद्धत्थ तणयस्स ।४९६। (चतुर्दश साहस्रीकः, शिष्यानामासीत् वर्द्धमानस्य । . श्रेणिक राजनतस्य, त्रिशलासिद्धार्थतनयस्य ।) .
महारानी.त्रिशला और महाराज सिद्धार्थ के पुत्र तथा श्रोणिक द्वारा प्रणत चौवीसवें तीर्थङ्कर भगवान महावीर के १४००० (चौदह हजार) शिष्य थे ।४६६।
ओसप्पिणी इमीसे, जिणंतर सुमुट्ठिएण कालेणं । वोच्छामि चउव्वीसं, अरहते भारएवासे ४९७) (अवसर्पिण्यामस्यां, जिनान्तरं समुत्थितेन कालेन । वक्ष्यामि चतुर्विशति अरिहन्तान् भारते वर्षे )
प्रवर्तमान इस अवसपिणी काल में एक तीर्थकर के अनन्तर दूसरे तीर्थ कर के उत्पत्तिकाल के माध्यम से मैं भारतवर्ष के चौवीस तीर्थ करों का कथन करूगा।४६७।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १५७
तइयसमापरिनिव्वुइ, निवास अद्धनवमासः सेसम्मि । उसभजिणराय खत्तिय, जिणवंस पगट्ट वणियाए' ।४९८। (तृतीयस मापरिनिर्वृ चौ, त्रिवर्षा नवमासशेष । ऋषभ जिनः राज-क्षत्रिय-जिनवंशप्रकटकः विनीतायाम् ।)
सुषम दुःषमा नामक तीसरे प्रारक के समाप्त होने में जब ८४ लाख पूर्व तथा तीन वर्ष और साढ़े आठ मास अवशिष्ट थे, उस समय राजवंश, क्षत्रियवंश तथा जिनवश के प्रकटयिता प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव विनीता नगरी में उत्पन्न हुए ।४६८। उसभाओ उप्पण्णं, पाणासाकोडिसय सहस्सेहिं । । तं सागरोवमाणं, अजियजिणंदोविणीया उ' ।४९९। (ऋषभात् उत्पन्नं, पञ्चाशतकोटि शत सहस्रः। तत् सागरोपमैः. अजित जिनेन्द्रः विनितायाम् ।) _ ऋषभदेव से पचासलाख करोड़ सागरोपम व्यतीत हो जाने के पश्चात् विनीता नगरी में दूसरे तीर्थंकर अजितनाथ उत्पन्न हुए।४६६। तीसाए सागरोवम, कोडिसयसहस्स अन्तरुप्पण्णं । अजियाउ संभवजिणो, सावत्थीए वियाणा हि ।५००। (त्रिंशत् सागरोपमकोटिशतसहस्रानन्तरमुत्पन्नः । अजितात् संभवजिनः, श्रावस्त्यां विजानीहि ।)
अजितनाथ से तीसलाख करोड़ सागर पश्चात् तीसरे तीर्थंकर भगवान् सभवनाथ श्रावस्ती में उत्पन्न हुए, यह जानना चाहिए ।५००।
१ गाथा या अस्य श्चतुर्थचरणान्तिमाशोऽस्पष्टोऽशुद्धश्च लिपिकेन लिखितोऽ.
तोऽष्मभिः सम्यगालोच्य शोध्य च लिखितोऽस्ति । प्रतौ तु एवंविधो पाठः-' जिणचस पगट्टवरिणयाए।" एतद्धि तावच्छास्त्रपरिपंथि, ग्रन्थस्यास्य सप्त शीत्यधिक त्रिंशत संख्यकाया; गाथ या अपि विरुद्धमेव ।
२ विनीताया अपरनामानि-अयोध्या, साकेत कोसला च ।
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१५८ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय दसकोडिसयसहस्साई, अंतरं जस्स उदहि नामाणं ।' तं सम्भवाउ अभिनंदणं, विणीयाए उ उप्पण्णं ।५०१। (दशकोटिशतसहस्राणि, अंतरं यम्य उदधि नाम्नाम् । स सम्भवात् अभिनन्दनः, विनीतायान्तु उत्पन्नः ।)
संभवनाथ से दश लाम्ब करोड सागर पश्चात् चौथे तीर्थ कर अभिनन्दन विनीता नगरी में उत्पन्न हुए ५०१॥ नवकोडिसयसहस्माई, अन्तरं जम्स उदहि नामाणं । अभिनंदणाओ सुमई, उप्पण्णर विणीयाए ।५०२' (नवकोटि शत सहस्राणि, अन्तरं यस्य उदधिनाम्नाम् । अभिनन्दनात् सुमतिः उत्पन्नः विनीतायाम् ।)
अभिनन्दन से 8 लाख करोड सागर का जिनका अन्तर है. वे पांचवें तीर्थ कर सुमतिनाथ विनीता नगरी में उत्पन्न हुए ।५ ०२। नउती य सागरोवम, कोडि सहरसेहिं जो समुप्पण्णो । सुमइओ पउमाभो, सो कोसंबीए नायव्यो ।५०३। (नवतिश्च सागरोपमकोटिसह यः समुत्पन्नः । । सुमतितः पद्मप्रभः सः कौशाम्ब्यां ज्ञातव्यः ।)
सुमतिनाथ से ६० हजार करोड़ सागर पश्चात् छठे तीर्थंकर पद्माभ अर्थात् पद्मप्रभ कौसाम्बी में उत्पन्न हुए ।५०३। पउमाभाउ सुपासो, बाणारसी उत्तमं समुप्पण्णं । तं सागरोवमाणं कोडि सहस्सेहिं नवहिं जिणिं ।५०४। (पद्मप्रभात सुपावं वाराणसी उत्तमः समुत्पन्नः । स सागरोपमानां कोटिसहस्र नवभिर्यः ।)
पद्माभ अर्थात् पद्मप्रभ तीर्थंकर से ६ हजार करोड़ सागर पश्चात् सातवें तीर्थ कर सुपार्श्व वाराणसी में उत्पन्न हुए ।५०४।
१ सागरोपमानामित्यर्थः।
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तित्योगाली पइन्नय j
[ १५६
कोडिसए हिं नवहिं , उप्पण्णं चंदपुरवरे रम्मे । चंदप्पभो समुद्दोवमाण' सिझे सुपासाओ ।५०५। (कोटिशतैर्नवभिः, उत्पन्नः चन्द्रपुरवरे रम्ये । चन्द्रप्रभः समुद्रोपमानां सिद्ध सुपार्शात् ।)
सुपार्श्वनाथ के पश्चात् ६०० करोड़ सागर व्यतीत हो जाने पर अाठवें तीर्थ कर चन्द्रप्रभ अति सुन्दर एवं रम्य चन्द्रपुर में उत्पन्न हुए ।५०५॥ चंदप्पभाउ सुविहि, कुमुदकमलमल्लियाधवलदंतं । . कायंदी उप्पण्णं, वियाण नउतीए कोडीहिं ।५०६। (चन्द्रप्रभात्तु सुविधि, कुमुदकमलमल्लिका धवलदन्तम् । काकन्यामुत्पन्नं, विजानीहि नवतिभिः कोटिभिः ।)
चन्द्रप्रभ से ६० करोड़ सागर पश्चात्, कुमुद, कमल एवं मल्लिका के कुसुम के समान धवल दन्तपंक्ति वाले नौवें तीर्थकर सुविधिनाथ काकन्दो नगरी में उत्पन्न हुए जानिये ।५०६। कोडीहिं नवएहिं, भदिलपुरंमि सीयलजिणं समप्पण्णं । रयणायरोवमाणं, वियांण तं पुप्फदंताओ ।५०७। (कोटिभिनवभिः, भदिलपुरे शीतल जिन समुत्पन्नम् । रत्नाकरोपमान, विजानीहि तं पुष्पदन्तात्तु ।)
पुष्पदन्त अर्थात् सुविधिनाथ से 8 करोड़ सागर तुल्य काल पश्चात् भद्दिलपुर में दशवें तीर्थ कर शीतलनाथ को उत्पन्न हुआ जानो । ५०७
१ सागरोपमानामित्यर्थः । २ सिद्ध-व्यतीते । ३३ सागरोपमाणाम- इत्यर्थः । ४ सागरोपमाणाम-इत्यर्थः ।
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१६० ]
[ तिस्थोगाली पइन्लय
जाणाहि सीयलाओ, सेज्जंसं ऊणियाए कोडी ए । तं सागरोवमाणं, सएहि वासेहिय इमेहिं ।५०८। (जानीहि शीतलात्, श्रेयांसं ऊनितायाः कोट्याः । तं सागर-उपमानं, शतषश्च एभिः ।) छावट्ठिसय सहस्सा, छब्बीसं खलु भवे सहस्साई । एएहिं ऊणिया खलु, मग्गिल्ला कोडि सीहपुरे ।५०९: (षड षष्टि सहस्राणि, षड्विंशतिः खलु भवेयुः सहस्राणि । एतैरूनिता खल्वग्रिला कोटिः सिंहपुरे ।)
शीतलनाथ के पश्चात् १०० सागर. तथा ६६,२६००० वर्ष कम एक कोटि सागरोपम काल व्यतीत हो जाने पर सिंहपुर में ग्यारहवें तीर्थ कर श्रेयांसनाथ का जन्म हुआ ।५०८-५०६। . सेजसाओ वासुपुज्ज, चंपाए सगल चंद सोम-मुहं । चउप्पण्णा, उप्पण्णं सागरसिरिनामधेज्जाणं । ५१०।' (श्रेयांसात् वासुपूज्यं, चंपायां सकलचन्द्र सौम्य मुखम् । चतुर्पञ्चाशत् उत्पन्नं सागरश्री नामधेयानाम ) ।
श्रेयांसनाथ के पश्चात् ५४ सागरोपकाल व्यतीत हो जाने पर पूर्णिमा के चन्द्र तुल्य सौम्य मुखवाले १२ वें तीर्थकर वासुपूज्य का चम्पा नगरो में जन्म हुआ ।५१०। विमलं च वासुपुज्जा, कम्पिल्लपुरी विलीण संसारे । तीसाए समुप्पन्नं, सागरसिरि नाम धेज्जाणं ।५११। (विमलं च वासुपूज्यात् , काम्पिल्यपुरे विलीन संसारम् । त्रिंशत्सु उत्पन्नं, सागरश्रीनामधेयानाम् ।)
वासपज्य से ३० सागरोपम पश्चात् काम्पिल्यपुर में जन्ममरण का अन्त करने वाले १३ वें तीर्थकर विमलनाथ का जन्म हुआ।५११॥ १ सागरोपमारणाम-इत्यर्थः ।
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ १६१
नवहिं वियाण सुनव चंपगप्पभं सागरोवमसमुप्पण्णं । तमणंतमयोज्झाए, विमलाओ गतिगयं विमलं ।५१२। (नवभिर्विजानीहि सुनव-चम्पकप्रभ सागरोएमसमुत्पन्नम् । तमनंतमयोध्यायां, विमलात् गतिगतं विमलाम् ।)
विमलनाथ के पश्चात् ६ सागरोपम काल बीत जाने पर चम्पक-पूष्प के समान शरीर की कान्ति वाले तथा विमल गति को प्राप्त करने वाले चौदहवें तीर्थ कर अनन्तनाथ का अयोध्या में जन्म हुा ।५१२॥ चत्वारि अणंत जिणाओ, अंतरं जस्स उदहिनामाणं । रयणपुरे उप्पण्णं, अप्पडिहिय] धम्मं जिणं धम्मं ।५१३। (चत्वारि अनन्त जिनात्, अन्तरं यस्य उदधिनाम्नाम् । रत्नपुरे उत्पन्न, अप्रति[हत]धन जिनं धर्म ।)
. अनन्तनाथ से ४ सागरोपम काल पश्चात् अनुपम धर्म वाले पन्द्रहवें तीर्थंकर अनन्तनाथ रत्नपुर में उत्पन्न हुए ।५१३॥ तिहिं पागरोव मेहिं, ऊणाहि य गयपुरंमि संति जिणं । धम्माओ उप्पण्णं, तिहिं चउभाग पलिएहिं ।५१४। (त्रिभिगिरोपमैः, उनैश्च गजपुरे शान्तिजिनं । धर्मात् उत्पन्नं, त्रिभिश्चतुर्भाग-पल्यैः ।)
___ धर्मनाथ के पश्चात् पौन पल्य कम ३ सागरोपम काल के व्यतीत होने पर गजपुर में सोलहवें तीर्थंकर शान्तिनाथ का जन्म हुआ । ५१४। पलिभोवमस्स अद्ध, संति जिणाओ य अंतरं होई । गयपुर [म्मि] उप्पण्णस्स, कुरुकुलतिलयस्स कुंथुस्स ।५१५॥ (पल्योपमस्याद्ध, शान्तिजिनात् च अन्तरं भवति । गजपुरे उत्पन्नस्य , कुरुकुलतिलकस्य कुंथोः ।)
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१६२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
गजपुर में उत्पन्न हुए सत्रहवें तीर्थंकर कुरुकुल तिलक कुथु. नाथ का १६ वें तीर्थंकर शान्तिनाथ से अर्द्ध पल्योपम काल का अन्तर जानना चाहिये अर्थात् शान्तिनाथ से अर्द्ध पल्य पश्चात् कुथुनाथ का जन्म हुआ । ५१५ ॥ पलिय चउब्भागेण य, कोडि सहस्सूणएण वासाणं । अर जिणवरं गयपुरे, कुंथुजिणाओ समुपण्णं ।५१६। (पल्य चतुर्भागेन च कोटि सहस्र-उनेन वर्षाणाम् । अर जिनवरं गजपुरे, कुंथुजिनात् समुत्पन्न ) ___कुन्थुनाथ से एक हजार करोड़ वर्ष कम पाव (एक चौथाई। पल्योपम काल व्यतीत होने पर गजपुर में अठारहवें तीर्थंकर अरनाथ का जन्म हुआ।५१६। मल्लिजिनं मिहिलाए, अराओ एकूणवीसमरिहंत । जाणाहि समुप्पण्णं, कोडिसहस्सेण वासाणं ।५१७। (मल्लिजिनं मिथिलायां, अरात् एकोनविंशमहतम् । जानीहि समुत्पन्नं, कोटिसहस्र ण वर्षाणाम् ।) ___अरनाथ से एक हजार करोड़ वर्ष व्यतीत. हो जाने पर मिथिला नगरी में उन्नीसवें तीर्थकर मल्लिनाथ का जन्म हुआ समझना चाहिए।५१७ मल्लिजिणा उप्पण्णं, चउपण्णवासाणसय सहम्सेहिं । मुणिसुव्वयं मुणिवर, हरिवंसकुलम्मि रायगिहे ॥५१८। (मल्लिजिनात् उत्पन्नं चतुर्पञ्चाशत् वर्षाणां शतसहस्रः । मुनि सुव्रतं मुनिवरं . हरिवंश कुले गजगृहे ।)
___ मल्लि जिनवर से ५४ लाख वर्ष पश्चात् राजगह नगर में बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रत का जन्म हरिवंश में हुआ। ५१८। मिहिलाए नमि जिणिंद. नवनवणीय सुकुमाल सव्वंगं । छव्वासप्सयसहस्सेहिं [मणि सुव्वयाउ समुप्पण्णं ।५१९।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १६३ (मिथिलायां नमि जिनेन्द्रः, नवनवनीत सुकुमाल-सर्वांगः । पडू वर्षे शतसहसः, मुनिसुव्रतात्तु समुत्पन्नः ।)
तीर्थंकर सुव्रत (मुनिसुव्रत) के छः लाख वर्ष पश्चात् अभिनव नवनीत के समान सर्वांग सुकोमल इकवीसवें तीर्थंकर नमिनाथ का मिथिला में जन्म हुआ।५१६॥ वासमयसहस्साणं, पंचण्हपुव्ववीर कुलकेउं । सोरिय अरिहनेमि , दसारकुलनंदणं जाणे ।५२०। (वर्षशतसहस्राणां, पंचभिर पूर्ववीर कुलकेतुम् । . शौरि अरिष्टनेमि, दशाह-कुल-नन्दनं जानीतः ।)
तीर्थंकर नमिनाथ से पांच लाख वर्ष पश्चात् उत्पन्न हुए अपूर्व वीर कुल के केतु अथवा यदुवंश कुल केतु और दशाहकुल के नन्दन बावीसवें तीर्थंकर नेमिनाथ को जानिये ।५२०। तेपोइ सहम्सेहिं, मएहिं अट्ठपेहिं बरिसा । नेमीओ समुप्पण्णं, वाणारमिसंभवं पासं १५२१। (व्यशीति-सहस्र : शतैः अष्टिभिवः । नेमीतः समुत्पन्नं, वाराणसिप्तमवं पार्श्वम् ।)
अरिष्टनेमि से ८३ ७५० वर्ष पश्चात् वाराणसी नगरी में उत्पन्न हुए २३ वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ को जानिये ।५२१। वाससरहिं. वियाणह, अढाइज्जेहिं नायकुलकेउ । पासाओ समुप्पण्णं. कुडपुरंमि महावीरं ।५२२। (वर्षशतैः विजानीथ, सार्द्ध द्विभितिकुलकेतुम् । पार्थात् समुत्पन्न; कुंडपुरे महावीरम् :)
पार्श्वनाथ से २५० वर्ष पश्चात् (क्षत्रिय) कुडपुर में उत्पन्न हुए ज्ञात कुल के केतु २४ वें (अन्तिम) तीर्थंकर महावीर को जानिये ।५२२॥
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[ तित्थोगाली पइन्नय
१६४ ]
जाव य उसम जिणिंदो, जावेव य वद्धमाण जिणचंदो । अह सागरोत्रमाणं, कोडा कोडी भवे कालो | ५२३ | ( यावच्च वृषभजिनेन्द्र यावदेव च वर्द्धमान जिमचन्द्रः । अथ सागरोपमानां कोट्याकोटि : भवेत् कालः । )
बायालीस सहस्सेहिं ऊणि या वच्चराणा जाणाहि ।
'
एक्कं कोडा कोडि, उदहिसमाणाणमाणाणं [जुयलं] | ५२४| (द्विचत्वारिंशत्सहत्र: ऊनिनाः वत्सराणां जानीहि । एक कोट्याकोटिं उदधिसमानानां मानानाम् ।)
जिस समय तक प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव विद्यमान थे उस समय से लेकर जब तक अन्तिम तीर्थ कर भगवान् महावोर विद्यमान थे उस समय तक अर्थात् भगवान् ऋषभदेव के निर्वाण से भगवान् महावीर के निर्वाण तक (लगभग) एक कोटा कोटि सागरोपम काल होता है ( उस काल को ) । ५२३ ।
४२,००० वर्ष कम एक कोटा कोटि सागरोपम जानिये | ५२४ | पुरिम चरिमेस असु, अबोच्छिष्णं जिणेसु तित्थंति' । मज्झिम सु य सत्तसु, वुच्छेओ एत्तियं कालं । ५२५ । (प्रथमचरमेषु अष्टसु, अविच्छिन्नं जिनेषु तीर्थम् । मध्यमेषु च सप्तसु व्युच्छेदः एतावद् कालम् ।)
प्रथम आठ और अन्तिम आठ- इन सोलह अन्तरालों में तीर्थकरों के धर्म तीर्थ का कहीं विच्छेद नहीं हुआ, वह अबाध गति से निरन्तर चलता रहा । किन्तु मध्यमवर्ती आाठ तीर्थंकरों( सुविधिनाथ से शान्तिनाथ) के बोच के सात अन्तरालों में इतने ( निम्नलिखित ) काल तक तीर्थ की व्युच्छित्ति हुई :
:—५२५॥
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१ अस्याः गाथायाः द्वितीय चरणे - श्रवोच्छिष्णं जिणंतरेसु तित्थ त्ति" - इति पाठेन भाव्यम् ।
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तित्थोगाली पइन्नय ।
[ १६५
चउगभाग चउभागो तिण्णि, चउभाग पलियमेगं च । तिण्णेव चउभागा-चउत्थभागो य चउभागो ।५२६। (चतुर्भागः चतुर्भागः, त्रीणि चतुर्भागो पल्योपमेकस्य । त्रीण्येव चतुर्भागानां, चतुर्थभागः चतुर्भागः ।)
चतुर्भाग- (१) सुविधिनाथ और शीतलनाथ के अन्तर काल में एक पल्योपम का चौथा भाग चतुर्भाग-(२) शीतलनाथ और श्रेयांसनाथ के अन्तराल के अन्तिम समय में एक पल्योपम का चौथा भाग (पाव पल्य), तिण्णि (तीन)---(३) श्रेयांसनाथ और वासुपूज्य के अन्तर के अन्तिम समय में एक पल्योपम के चार भागों में से तीन भाग अर्थात् पौन पल्य तक, च उभाग पलियमेगं च...(४) वासुपूज्य और विमलनाथ के अन्तराल के चरम समय में एक पल्योपम के चतुर्थ भाग अर्थात् पाव पल्य तक, तिणेव च उभागा-- (५) विमलनाथ और अनन्तनाथ के अन्तराल के अन्तिम भाग में पौन पल्य तक, च उत्थभागो...(६) अनन्तनाथ और धर्मनाथ के अन्तर काल के अन्तिम भाग में पाव पल्य तक, य च उभागो'...(७) और धर्मनाथ तथा शान्तिनाथ के अन्तराल अन्तिम भाग में पाव पल्य तक, इस प्रकार सात अन्तरालों में सब मिलाकर पौने तीन पल्योपम काल तक साधु-साध्वी श्रावक श्राविका रूप चतुर्विध तीर्थ का विच्छेद रहा १५२६ एवं तु मए भणिया जिणंतरा जिणवरिंद चंदाणं । एत्तो परं तु वोच्छं, सिद्धिगया जाए वेलाए ।५२७। (एवं तु मया भणिताः, जिनान्तराः जिनवरेन्द्र चन्द्राणाम् । इतः परं तु वक्ष्ये, सिद्धिं गता यस्यां वेलायाम् ।)
इस प्रकार मैंने तीर्थङ्करों के अन्तर काल का वर्णन किया। अब मैं तीर्थ करों के मोक्षगमन की वेला का कथन करूगा ।५२७॥ उसभो य भरहवासे, बाल चंदाणणो य एरवए । दसवि य उत्तरसाढाहिं, पुत्रसूरंमि सिद्धिगया ।४२८।
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१६६ }
[ तित्थोगाली पइन्नय
(ऋषभश्च भरतवर्षे, बाल चन्द्राननश्च एरवते । दशोऽपि चोत्तराषाढायां, पूर्व सूर्य सिद्धिं गताः ।)
पांच भरत क्षेत्रों में ऋषभदेव और पांच ऐरवत क्षेत्रों में बालचन्द्रानन...ये दशों तीर्थकर पर्वाल की वेला में चन्द्र का उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के साथ योग होने पर सिद्धगति को प्राप्त हुए ।५२८॥ अजिओ य भरहवासे, एरवयंमि सुचंद जिणचंदो । रोहिणि जोगे दस विय, सिद्धि गया पुव्वसूरंमि ।५२९। (अजितश्च भरतवर्षे, एरवते सुचन्द्र जिनचन्द्रः । रोहिणि योगे दशोऽपि च, सिद्धिं गताः पूर्वसूयें ।)
पांच भरत क्षेत्रों में तीर्थ कर अजितनाथ और पांच ऐरवत क्षेत्रों में सचंद नाम के इन दशों ही तीर्थकरों ने चन्द्र का रोहिणी नक्षत्र के साथ योग होने पर पूर्वाह्न वेला में मुनि गमन किया ।५२६ । अभिनंदणो य भरहे, एग्वए य नदिसेण जिणचंदो । दसवि पुणव्यसु जोगे, सिद्धि गया पुबसूरंमि ।५३०। (अभिनन्दनश्च भरते. एरवने च नन्दिषेण जिनचन्द्रः । दशोऽपि पुनर्वसु योगे, सिद्धिं गताः पूर्वसूर्ये ।)
पांच भरत क्षेत्रों के अभिनन्दन और पांच ऐरवत क्षेत्रों के नंदिषेण--इन दशों ही तीर्थंकरों ने चन्द्र का पुनर्वसु नक्षत्र के साथ योग होने पर पूर्वाह्ण वेला में सिद्धगति प्राप्त की ५३०? *सुमती य भरहवासे, इसिदिन्न जिणोअ एरवयवासे । दस वि जिणेउ मघाहि, सिद्धि गया पुव्वसर्गमि ५३२। (सुमतिश्च भरतवर्षे, ऋषिदत्त जितश्चैरवत वर्षे । दशोऽपि जिनास्तु मघायां, सिद्धिं गताः पूर्वसूर्ये ।)
भरत क्षेत्र में सुमतिनाथ और ऐरवत में इसि दिन्न इन दशों
* गाथासंख्यालेखने लिपिकेन कपि त्रुटि कृतेति प्रतिभाति ।
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तित्थोगाली पइन्नय ] .
[ १६७ तीर्थकरों ने चन्द्र का मघा नक्षत्र के साथ योग होने पर पूर्वाह्न की वेला में सिद्ध गति प्राप्त की ।५३२॥ भरहे य सुपास जिणो, एरवए सोमचंद जिण चंदो । दसवि विसाहाजोगे, सिद्धि गये पुचसूरंमि ।५३३। (भरते च सुपार्श्वजिन, एरवते सोमचन्द्र जिनचन्द्रः। दशोऽपि विषाखा योगे, सिद्धिं गताः पूर्वसूर्ये ।)
पांच भरत क्षेत्रों में सुपार्श्व और पांच ऐरवत क्षेत्रों में सोमचंद--ये दशों ही तीर्थकर पूर्वाल में चन्द्र का विशाखा नक्षत्र के साथ योग होने पर सिद्ध गति में गये ।५३३। चंदप्पभो य भरहे. एरवए दीहसेण जिणचंदो । दसवि अणुराह जोगे, सिद्धि गया पुबसूरंमि ५३४ (चन्द्रप्रभश्च भरते, ऐरवते दीर्घषेण जिनचन्द्रः । दशोऽप्यनुराधायोगे, सिद्धिं गताः पूर्व सूर्ये ।)
भरत क्षेत्र में चन्द्रप्रभ और ऐरवत क्षेत्र में दोघसेन--ये दशों तीर्थ कर चंद्र का अनुराधा नक्षत्र के साथ योग होने पर पूर्वाह्न की वेला में सिद्ध गति प्राप्त की।५३४।। • भरहे य सीयल जिणो, एरवए सुबइ जिणवरिंदो। दसवि दगदेवयाएं, सिद्धि गया पुव्वसूरंमि ।५३५। (भरते च शीतलजिनः, ऐरवते सुव्रतीजिनवरेन्द्रः । दशोऽपि उदक देवतायां, सिद्धिं गताः पूर्वसूयें ।)
भरत क्षेत्र में शीतलनाथ और ऐरवत क्षेत्र में सुव्रती इन दशों तीर्थकरों ने चन्द्र का उदक देवता अर्थात् पूर्वाषाढा नक्षत्र के साथ योग होने पर पर्वाल वेला में सिद्धिगमन किया ।५३५॥ भग्हे य संभवजिणो, एरवए अग्गिसेण जिणचंदो। मिगसिर जोगे दसवि, सिद्धि गया अवर सूरंमि ।५३६।
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१६८ ॥
। तित्थोगाली पइन्नय
(भरते च संभवजिनः, ऐरवते अग्निषेण जिनचन्द्रः । मृगशीर्ष योगे दशाऽपि, सिद्धि गता अपरसूर्य )
भरत क्षेत्र में संभवनाथ तथा ऐरवत क्षेत्र में अग्निसेन - इन दशों तीर्थकरों ने अपराह्न की वेला में चन्द्र का मृगशिरा नक्षत्र के साथ योग होने पर सिद्ध गति प्राप्त की ।५३६।। *पउमप्पभो य भरहे, वयधारि जिणो य एरवयवासे । . दसवि मघा जोएणं, सिद्धि गया अवरसूरंमि ।५३७। (पद्मप्रभश्च भरते, वयधारीजिनश्चैरवतवर्षे । दशाऽपि मघा योगेन, सिद्धिं गता अपरसूर्ये ।) .
भरत क्षेत्र में पद्मप्रभ और ऐरवत क्षेत्र में वयधारी (वयरधारीरवयधारी-खयधारी) इन दशों तीर्थङ्करों ने चन्द्र का मघा नक्षत्र के साथ योग होने पर अपराह्न की वेला में मुक्ति गमन किया ।५३७॥
सुविही य भरहवासे, एरवयंमि य सयाउ जिणचंदो । दसवि जिणा मूलेणं, सिद्धि गया अवर सूरंमि . ५३७) (सुविधिश्च भरतवर्षे, ऐरवते च शतायुः जिनचन्द्रः । दशापि जिनाः मूलेन, मिद्धिगता अपर सूर्ये ।).
भरत क्षेत्र में सुविधिनाथ और ऐरवत क्षेत्र में शतायु- ये दशों तीर्थकर मूल नक्षत्र के योग में अपराह की वेला में सिद्ध गति को प्राप्त हुए ।५३७॥ भरहे य वासुपुज्जो, सेजसि जिणो य एरवयवासे । दसवि जिणा समणेणं सिद्धि गया अवरसूरम्मि ।५३८। (भरते च वासुपूज्यः श्रेयांस जिनश्च ऐरवतवर्षे । दशापि जिनाः श्रवणेन, सिद्धिगता अपरसूर्ये ।)
भरत में वासुपूज्य तथा ऐरवत क्षेत्र में श्रेयांस- ये दशों १५३१ संख्याया: लेखने लिपिकेन या त्रुटि कृता सात्र परिमाजितव्य ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १६६
तीर्थङ्कर चन्द्र का श्रवण नक्षत्र के साथ योग होने पर अपराल में सिद्धगति को प्राप्त हुए ।५३८। एते चत्तालीसं. अट्ठमयठाणे निट्टवियकम्मा । दससुवि वासेसेवं, सिद्धि गया अवर सूरम्मि ।५३९। (एते चत्वारिंशत् . अष्टमदस्थाने निष्ठापितकर्माणः । दशष्वपि वर्षेष्वेवं, सिद्धिं गता अपरसूर्ये ।)
दशों ही क्षेत्रों में ये चालीस तीर्थ कर इस प्रकार आठों मदस्थानों में समस्त कर्मों को समूल नष्ट कर अपराल वेला में सिद्ध गति को प्राप्त हुए .५३६। विमलोय भरहवासे, एरवए सीहसेण जिणचंदो । उत्तरभद्दव दसवि, सिद्धिं गया पुनरत्तमि ५४०। (विमलश्च भरतवर्षे. ऐरवते सिंहषेण जिनचन्द्रः । उत्तराभाद्रपदायां दशाऽपि. सिद्धिं गताः पूर्वरात्रौ ।)
भरत क्षेत्र में विमलनाथ और ऐरवत क्षेत्र में सिंहसेन-ये दशों तीर्थकर चन्द्र का उत्तर भाद्रपदा नक्षत्र के साथ योग होने पर पूर्वरात्रि में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हुए ।५४०। भरहे अणंतइ जिणो, एरवए असंजलो जिणवरिंदो । रेवइ जोगे दसवि, सिद्धि गया पुव्वरत्तमि ।५४१। (भरते अनन्त जिन; ऐरवते असंजल जिनवरेन्द्रः । रेवतीयोगे दशापि, सिद्धिं गताः पूर्वरात्रौ ।)
भरत क्षेत्र में अनन्तनाथ और ऐरवत क्षेत्र में असंजल--ये दशों तीर्थंकर रेवती नक्षत्र के योग में पूर्वरात्रि को वेला में सिद्धगति को प्राप्त हुए ।५४१। . संती य भरहवासे, एरवए दीहासणो जिणचंदो।। भरणीजोगे दसवि, सिद्धि गया पुव्वरत्तमि ।५४२।
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१७० ]
(शान्तिश्च भरतवर्षे देवते दीर्घासन - जिनचन्द्रः । भरणी योगे दशाऽपि, सिद्धिं गताः पूर्वरात्रौ । )
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[ तित्योगाली पइन्नय
भरत क्षेत्र में शान्तिनाथ और ऐरवत' क्षेत्र में दीर्घासन --- ये दश तीर्थंकर भरणी नक्षत्र के साथ चन्द्रमा का योग होने पर पूर्व - रात्रि में निर्वाण को प्राप्त हुए । ५४२ ।
कुथू य भरहवासे, एरवमि य महाहि लोगबलो । कित्तिय जोगे दसवि, सिद्धि गया पुव्वरतंमि । ५४३ | ( कुथुश्च भरतवर्षे, ऐरवते च महा हि लोकवलः । कृत्तिकायोगे दशाऽपि, सिद्धिं गताः पूर्वरात्रौ ।)
भरत क्षेत्र में कुन्थुनाथ और ऐरवत क्षेत्र में महाहि लोकबल--- इन दश तीर्थंकरों ने चन्द्र का कृतिका नक्षत्र के साथ योग होने पर पूर्व रात्रि में सिद्ध गति प्राप्त की । ५४३ | मल्लिजिनिंदो भरहे, मरुदेवी जिणो य एवए वासे । रेव जोगे दसवि, सिद्धि गया पुव्वर मि | ५४४ | (मल्लिजिनेन्द्र : भरते, मरुदेवी जिनश्चचैरवते वर्षे । रेवतीयोगे दशाऽपि, सिद्धिं गताः पूर्वरात्रौ ।)
भरत क्षेत्र में मल्लिनाथ ने और ऐरवत क्षेत्र में मरुदेवी --- इन दश तीर्थंकरों ने चन्द्रमा का रेवती नक्षत्र के साथ योग होने पर रात्रि के पूर्व भाग में सिद्ध गति प्राप्त की । ५४४
मुणि सुव्य भरहे, एरवयंमि य धरो [वरो] जिणवरिंदो | सवणेण दसजिनिंदा, सिद्धि गया पुव्वरतंमि । ५४५ ।
( मुनि सुव्रतश्च भरते ऐरवते च धरः [वरः ] जिनवरेन्द्रः । श्रवणेन दशजिनेन्द्राः सिद्धि गताः पूर्वरात्रौ ।)
,
मुनि सुव्रत ने भरत में और घर नामक जिनेन्द्र ने ऐरवत क्षेत्र में - इस प्रकार दश तीर्थकरों ने श्रवण नक्षत्र के योग में, पूर्व रात्रि में सिद्धि प्राप्त की । ५४५ |
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तित्थोगाली पइन्नय ]
भर अरिनेमी, एरवए अग्गिसेण जिणचंदो |
1
दसवि जिणा चित्ताहिं, सिद्धि गया पुव्वरतंमि । ५४६ | (भरते अरिष्टनेमी, ऐरवते अग्निषेण जिनचन्द्रः |
दशाऽपि जनाः चित्रायां सिद्धिं गताः पूर्वरात्रौ 1)
1
भरत क्षेत्र में अरिष्टनेमि और ऐरवत क्षेत्र में अग्निसेन - इन दश तीर्थकरों ने पूर्व रात्रि में चन्द्र का चित्रा नक्षत्र के साथ योग होने पर सिद्ध गति प्राप्त को । ५४६ ।
पासो य भरहवासे, एरवए अग्गिदत्त [ उत्त] जिणचंदो । दसव बिसाहा जोगे, सिद्धि गया पुव्वरतंमि । ५४७ । (पार्श्वश्च भरतवर्षे, ऐरवते अग्निदत्त - जिनचन्द्रः । दशाऽपि विशाखा योगे, सिद्धि गताः पूर्वरात्रौ 1)
[ १७१
भरत क्षेत्र में पार्श्वनाथ और ऐरवत क्षेत्र में ग्रग्निदत्त - इन दश तीर्थंकरों ने पूर्व रात्रि की वेला में चन्द्र का विशाखा नक्षत्र के साथ योग होने पर सिद्धि गमन किया । ५४७
एवमसीति जिनिंदा, अडमयड्डाण निवियकम्मा |
सुविखेत्ते सेए, सिद्धि गया पुव्वरतंमि ५४८ । ( एवमशीतिः जिनेन्द्राः, अष्ट मदस्थान निष्ठापित कर्माणः । दशष्वपि क्षेत्रेष्वेते, सिद्धि गताः पूर्वरात्रौ ।
इस प्रकार पांच भरत और पांच ऐरवत क्षेत्रों के इस अवसर्पिणी काल के ८० तीर्थंकर मठों मदस्थानों के समस्त कर्मों को निश्शेष कर पूर्व रात्रि की वेला में सिद्ध गति को प्राप्त हुए । ५४८ ।
धम्मो य भरहवासे, वसंत जिणो य एरवय वासे । दसव जिणा पुस्सेणं, सिद्धि गया अवररत मि | ५४९। (धर्मश्च भरतवर्षे, उपशान्तजिनश्चैरवतवर्षे ।
दशाऽपि जनाः पुष्येण सिद्धि गताः अपररात्रौ । )
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१७२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
भरत क्षेत्र में धर्मनाथ और ऐरवत क्षेत्र में उपशान्त -- ये दश तोर्थंकर चन्द्र का पुष्य नक्षत्र के साथ योग होने पर पश्चिम रात्रि में सिद्ध गति में गये ५४६।
अर जिणवरो य भरहे, अइपास जिणो य एरवयवासे । रेव जोगे दसमी, सिद्धि गया अवररत मि । ५५० । ( अर जिनवरश्च भरते, अतिपार्श्व जिनश्चैरवतवर्षे रेवतीयोगे दशमी, सिद्धिं गता अपररात्रौ ।)
भरत क्षेत्र में अरनाथ और ऐरवत क्षेत्र में प्रतिपार्श्व -- ये दश तोर्थंकर चन्द्र के साथ रेवती नक्षत्र का योग होने पर अपर रात्रि के परार्द्ध में मोक्ष पधारे । ५५०
नमि जिणचन्दो भरहे, एरवए सामकोट्ठ जिणचंदो । अस्सिणिजोगे दसवि, सिद्धि गया अवररत मि । ५५१ । ( नमिजिनचन्द्रः भरते, ऐखते श्यामकोष्ठ जिनचन्द्रः | अश्विनीयोगे दशाऽपि सिद्धिं गता अपर रात्रौ )
1
भरत क्षेत्र में नमिनाथ और ऐरवत क्षेत्र में श्यांमकोष्ठ - ये दश तीर्थ कर चन्द्र और अश्विनी नक्षत्र का योग होने पर रात्रि के परार्द्ध में सिद्ध हुए । ५५१ |
भर य वद्धमाणो, एरवए वारिसेण जिणचंदो |
1
दसवि य साती जोगे, सिद्धि गया अवररत मि । ५५२। ( भरते च वर्द्धमान, ऐखते वारिषेणजिनचन्द्रः । दशाऽपि च स्वातियोगे, सिद्धिं गता अपररात्रौ ।)
भरत क्षेत्र में वर्द्धमान और ऐरवत में वरिषेण - ये दश तीर्थंकर पर रात्रि के समय चन्द्र का स्वाति नक्षत्र के साथ योग होने पर सिद्धि में गये । ५५२ ।
एते चत्तालीसं दस विवासेसु खीणसंसारा ।
सव्वे ते केवलिणो, सिद्धि गया अवरतंमि । ५५३ |
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तित्योगाली पइन्नय ।
[ १७३
(एते चत्वारिशत् , दशष्वपि वर्षेषु क्षीणसंसाराः । सर्वे ते केवलिनः, सिद्धिं गता अपररात्रौ ।)
पांच भरत और पांच ऐरवत इन दशों क्षेत्रों के इस अवसपिरणो काल के उपरि नामोल्लिखित चालीसों जन्म-मरण मुक्त केवलीतीर्थंकर पश्चिम रात्रि की वेला में मोक्ष पधारे । ५५३। उसभो य भरहवासे, बाल चंदाणणो य एरवए । दसवि निसिज्जोवगया, दससुवि खेत्तेसु सिद्धि गया १५५४| (ऋषभश्च भरतवर्षे, बालचन्द्राननश्च ऐरवते । दशाऽपि निषिद्योपगता, दशस्वपि क्षेत्रोषु सिद्धिं गताः ।)
___ भरत क्षेत्र में ऋषभदव और ऐरवत क्षेत्र में बालचन्द्रानन ये दशों क्षेत्रों के दशों ही तीर्थंकर निषिद्या में विराजमान अर्थात् पर्यंकासन से सिद्ध हुए ।५५४। भरहे अरिडुनेमि, एरवए अग्गिसेण जिणचन्दो । दसवि निसिज्जोवगया, दससुवि खेत्तेसु सिद्धिगया ।५५५। (भरते अरिष्टनेमि, ऐरवते अग्निसेन-जिनचन्द्रः । दशाऽपि निषियोपगताः, दशस्वपि क्षेत्रेषु सिद्धि गताः ।)
भरत क्षेत्र में अरिष्टनेमि और ऐरवत क्षेत्र में तीर्थंकर अग्निसेन---ये दशों क्षेत्रों के दशों तीर्थंकर निषिद्या में विराजमान अर्थात् पर्णकासन से मोक्ष गये ।५५५। भरहे य वद्धमाणो, एरवए वारिसेण जिणचन्दो।। दसवि निसिज्जोवगया, दससुवि खेत्तेसु सिद्धि गया ।५५६। (भरते च वर्द्धमान, ऐरवते वारिषेणजिनचन्द्रः । दशापि निषियोपगताः, दशस्वपि क्षेत्रेषु सिद्धि गताः ।)
भरत क्षेत्र में वर्द्धमान और ऐरवत क्षेत्र में वारिषेण--- दशों क्षेत्रों के ये दशों तीर्थ कर निषिद्या में विराजमान-पर्यंकासन से मोक्ष पधारे ।५५६।
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१७४ ]
| तिस्थोगाली पइन्नय
स्पिष्टीकरण :-दशों क्षेत्रों के इस चौवीसी के २४० तीर्थंकरों में से इस प्रकार उपरि चचित ३० तीर्थ कर निषिद्या---पर्यंकासन से सिद्ध हुए। दोण्णि सया उ दहुत्तर, जिणवर चंदाण केवलीणं तु । दससु वि वासेसु सेसा, वाघारियपाणिणो सिद्धा ५५७। (द्वशते तु दशोत्तर, जिनवरचन्द्राणां केवलिनां तु । दशस्वपि वर्षेषु शेषाः व्याधारितपाणयः सिद्धाः ।)
दशों क्षेत्रों के अवशिष्ट २१० केवलज्ञानी जिनेश्वर व्याघारितपाणि (प्रलम्बभुज) अर्थात् कायोत्सर्ग मुद्रा में सिद्ध हुए।५५७। चंदाणण उसभजिणो, आइगरा चोदसेण भत्तेण । एते य दसवि सिद्धा, दससु वि वासेसु जिणचंदा ।५५८। (चन्दाननः ऋषभजिनः आदिकराश्चतुर्दशेन भक्तन । .. एते च दशाऽपि सिद्धा, दशस्वपि वर्षेषु जिनचन्द्राः ।)
चन्द्रानन और ऋषभ देव क्रमशः पांच ऐरवत और पांच भरत इन दशों क्षेत्रों में धर्म को आदि करने वाले ये १० तीर्थंकर दशों क्षेत्रों में चतुर्दश भवत अर्थात् छः उपवासों की तपस्या से सिद्ध हुए ।५५८। (५५६ वीं गाथा मूल प्रति में नहीं है।) भरहे य बद्धगाणो, एरवए वारिसेण जिणचन्दो। छट्ठण दसविसिद्धा, दससु विवासेसु जिणचंदा ।५६०। (भरते च वर्द्धमानः, ऐरवते वारिषेणजिनचन्द्रः । पष्ठेन दशाऽपि सिद्धाः, दशष्वपि वर्षेषु जिनचन्द्राः ।)
भरत क्षेत्र में वर्द्धमान और एरवत क्षेत्र में वारिषेण ये दशों तीर्थंकर दशों क्षेत्रों में षष्ठ भक्त अर्थात् दो उपवासों की तपस्या से सिद्ध गति को प्राप्त हुए ।५६०।
(स्पष्टी करण:--इस प्रकार ढाई द्वीप के ५ भरत और ५ एरवत इन दश क्षेत्रों में प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के २४० तीर्थकरों में से ऋषभादि दश प्रथम तीर्थंकर ६ उपवासों की तपस्या से सिद्ध हुए।)
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तित्थोगाली पइन्नय }
[ १७५
दोणिसया वीसोत्तर, तित्थयराणं तु लोगनाहाणं । दससुवि वासेसु सेसे, मासिय भत्तेण सिद्धि गया ।५६१। (द्विशताः विंशोत्तराणि तीर्थंकराणां तु लोकनाथानाम् । दशष्वपि वर्षेषु शेषाः, मासिकभक्त न सिद्धि गताः ।)
दशों क्षेत्रों की १० चौबीसियों के २४० तीर्थंकरों में उपरिवणित २० तीर्थङ्करों को छोड़ कर शेष २२० शैलोक्यनाथ तीर्थङ्कर दशों क्षेत्रों में मासोपवास के तप से सिद्ध हुए ।५६१॥ अट्ठावयंमि उसभो, सिद्धिगओ भारहमि वासंमि । चंदाणण एरवए, सिद्धिगया मेहकूडं मि ।५६२। (अष्टापदे ऋषभः, सिद्धिंगतः भारते वर्षे । चन्द्रानन-ऐरवते, सिद्धिं गताः मेघकूटे ।) .. भरत क्षेत्र में भगवान् ऋषभदेव अष्टापद पर्वत पर सिद्ध हुए और ऐरवत क्षेत्र में चन्द्रानन (प्रथम तीर्थंकर) मेघेकूट पर्वत पर सिद्ध गति को प्राप्त हुए ।५६२। संमेयंमि जिणिंदा, वीसं परिनिव्वुया भरहवासे । एरवए सुपइट्ट, वीसं मुणिपुंगवा सिद्धा ।५६३। (सम्मेत जिनेन्द्राः, विंशतिः परिनिता भरतवर्षे । ऐरवते सुप्रतिष्ठे, विंशति मुनिपुंगवाः सिद्धाः ।)
भरत क्षेत्र में २० तीर्थङ्कर सम्मेत गिरि पर और ऐरवत क्षेत्र में सुप्रतिष्ठ पर्वत पर बीस तीर्थङ्कर सिद्ध गति को प्राप्त हुए ।५६३। चंपांए वासुपुज्जो, सिद्धि गतो भारहमि वासंमि । एरवए सेज्जंसो, सिद्धि गतो नाग नगरीए ।५६४। (चंपायां वासुपूज्यः सिद्धिं गतः [वित्तकटे] भारते वर्षे । ऐरवते श्रेयांशः, सिद्धिं गतः नाग नगर्याम् ।)
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१७६ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
भरत क्षेत्र में भगवान वासुपूज्य चम्पानगरी में तथा ऐरवत क्षेत्र में भगवान् श्रेयांसनाथ नाग नगरी में सिद्ध गति को प्राप्त हुए ।५६४। हरिवर कुलनंदिकरो, उज्जते निव्वुओ जिणो नेमी । एरवए अग्गिसेणो, सिद्धि गतो वित्तकडंमि ५६५। (हरिवंशकुलनन्दिकरः, उज्जयन्ते निर्वृ तो जिनो नेमी। ऐरवते अग्निषेणः, सिद्धिं गतः वित्तकटे ।)
(भरत क्षेत्र में) श्रेष्ठ हरिवंश को आनन्दित करने वाले अरिष्टनेमि उज्जयंत पर्वत पर तथा ऐवत क्षेत्र में तीर्थङ्कर अग्निषेण चित्रकूट पर्वत पर सिद्ध गति को प्राप्त हुए ।५६५। पावाए वद्धमाणो, सिद्धि गतो भारइंमि वासंमि । एरवए वारिसेणो, सिद्धो कमलुज्जलु पुरीए ।५६६। । (पावायां[अपापायां] वर्द्धमानः, सिद्धिं गाः भागते वर्षे । .. ऐरवते वारिषणः, सिद्धः कमलुज्वलपुर्याम् ।)
भरत क्षत्र में भगवान महावोर पावा में मोक्ष पधारे। एरवत क्षेत्र में तीर्थंकर वारिसेन कमलोज्वल पुरी में सिद्ध गति को प्राप्त हुए ।५६६। अट्ठण्हं जणणीओ, तित्थगराणं तु होति सिद्धाउ । अट्ठ य सणं कुमारे, माहिंदे अट्ठबोधव्वा ।५ ६७। (अष्टानां जनन्यः, तीर्थकराणां तु भवन्ति सिद्धास्तु ।
अष्टौ च सनत्कुमारे, माहेन्द्र अष्ट बोद्धव्याः ।) . भगवान् ऋषभदेव से चन्द्रप्रभ पर्यन्त प्रथम पाठ तीर्थङ्करों की माताए सिद्ध गति को प्राप्त हुईं। सुविधिनाथ से शान्तिनाथ तक आठ तीर्थङ्करों की माताए सनत्कुमार नामक तृतीय लोक में तथा शेष कुन्थुनाथ से महावीर तक अन्तिम आठ तीर्थङ्करों की जननियां माहेन्द्र नामक चतुर्थ देवलोक में उत्पन्न हुई ।५६७।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १७७
नागेसु उसभपिया, सेसाणं सत्तण्हं ति ईसाणे । अट्ठ य सणंकुमारे, माहिदे अट्ठ बोधव्वा ।५६८। (नागेषु ऋषभपिता, शेषानां सप्तानां तु ईशाने । अष्टौ च सनत्कुमारे, माहेन्द्रऽष्टौ बोधव्याः ।)
। भगवान् ऋषभदेव के पिता नाभिकुलकर भवनपति देवों की नागकुमार नामक द्वितीय निकाय के देवों में, अजितनाथ से चन्द्रप्रभ तक सात तोर्थङ्करों के पिता ईशान नामक दूसरे देवलोक में सुविधिनाथ से शान्तिनाथ तक-इन आठ तीर्थकरों के पिता सनत्कुमार नामक तृतीय देव लोक में, तथा शेष आठ (कुन्थुनाथ से महावीर तक) तीर्थ करों के पिता माहेन्द्र नामक चतुर्थ स्वर्ग में उत्पन्न हुएजानना चाहिये ।५६८।
(स्पष्टीकरण :--अनुयोग द्वार और त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र में अजितनाथ के पिता महाराज जित शत्रु का मोक्ष गमन म ना है जब कि प्रवचन सारोद्धार आदि ग्रन्थों में इनका ईशान स्वर्ग में उत्पन्न होना माना है।) तित्थंकर पढमघरे, भणिया वत्तव्यया समासेणं । एत्तो घरंमि बीए, बोच्छं चक्कीण उद्देशं ।५६९। (तीर्थंकर प्रथम गृहे, भणिता वक्तव्यता समासेन । इतः गृहे द्वितीये, वक्ष्यामि चक्रीणामुद्दे शम् ।) ___वाम से दक्षिण की ओर २७ घरों तथा ऊपर से नीचे पांच पंक्तियों में २७ घरों से बने उपर्युक्त तीर्थ कर चक्री और केशवों के यन्त्र में तीर्थंकरों के प्रथम घ (कोष्ठकों) की वक्तव्यता का संक्ष पतः कथन किया गया। अब चक्रवतियों के सम्बन्ध में कथन करूगा ।५६६। भरहो सगरो मघवं, सणंकुमारो य राय सद्द लो। संती कुंथु य अरो, हवइ सुभूमो य कोरव्यो ।५७०। (भरतः सगरो मघवा, सनत्कुमारश्च राजशार्दूलः । शान्तिः कुथुश्च अरः, भवति सुभूमश्च कौरव्यः ।)
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१७८ )
[ तित्थोगाली पइन्नय
भरत, सगर, मघवा नृपशार्दूल सनत्कुमार, शान्तिनाथ, कुथुनाथ, अरनाथ, कुरुवंशी सुभूम--५७० । नवमो य महापउमो, हरिसेणो चेव राय सदूदूलो । जय नामो य नरवती, बारसमो बंभदत्तो य ।५७१। (नवमश्च महा पद्मः, हरिषेणश्चैव राजशार्दूलः । जय नामा च नर पतिः, द्वादशमः ब्रह्मदत्तश्च ।)
नौवें चक्रवर्ती महापद्म, नृपशार्दूल हरिषेण नृपति जय और बारहवें चक्री ब्रह्मदत्त---ये १२ चक्रवर्ती हुए ।५७१। उसमे भरहो अजिए, सगरो मघवं सणंकुमारो य ।। धम्मस्स य संतिस्स य, जिणंतरे चक्कवट्टि दुगं ।५७२। (ऋषभे भरतोऽजिते सगरो, मघवासनत्कुमारौ च । धर्मस्य च शान्तेश्च, जिनान्तरे चक्रवर्ति द्विकम् ।)
प्रथम तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव के समय में भरत तथा द्वितीय चक्रवर्ती सगर हुए। तीसरे चक्रवर्ती मघवा और चौथे चक्रवर्ती सनत्कुमार ये दो चक्री पन्द्रहवें तीर्थ कर धर्मनाथ तथा सोलहवें तीर्थ कर शान्तिनाथ के अन्तराल में हुए ।५७२। संती कुथू य अरो, अरहंता चेव चक्कवट्टी य । अर मल्लि अंतरंमिउ, हवइ सुभूमो य कोरव्यो ।५७३। (शान्तिः कुथुश्च अरः, अर्हन्ताश्चैव. चक्रवर्तिनश्च । अरमल्लि-अंतरे तु, भवति सुभूमश्च कौरव्यः ।)
शान्तिनाथ, कुथुनाथ और अरनाथ ये तीनों क्रमशः सोलहवें, सत्रहवें एवं अठारहवें तीर्थकर होने के साथ साथ क्रमशः पांचवें, छ? तथा सातवें चक्रवर्ती भी थे। तीर्थकर एवं चको भगवान् अरनाथ और १६ वें तीर्थ कर मल्लिाथ के अन्तर काल में आठवें चक्रवर्ती कौरव्य सुभूम हुए ।५७३।
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ १७६
मुणिसुब्वये महपउमो, नमिमि हरिसेण होइ बोधव्यो । नमि नेमि अंतरे जयो, अरिट्ठ पासंतरे बंभो ॥५७४। (मुनिसुव्रते महापद्मः, नमौ हरिषेणो-भवति बोधव्यः । नमिनेम्यन्तरे जय, अरिष्टपार्थान्तरे ब्रह्म ।)
बीसवें तीर्थंकर मनिसूत्रत के समय में नौवें चक्रवर्ती महापद्म, इकवीसवें तीर्थ कर नमिनाथ के समय में दशवें चक्रवर्ती हरिषेण, इकवीसवें तीर्थ कर नमिनाथ तथा बावीसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि के अन्तरकाल में ग्यारहवें चक्री जय और बावीसवें तीर्थंकर अरिष्टनेमि तथा तेवीसवें तीर्थ कर पार्श्वनाथ के अन्तराल में बारहवें चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त हुए ।५७४. अठेव गया मोक्खं, सुहुमो बंभो य सत्तमि पुढविं । मघवं सणंकुमारो, सणंकुमारं गया कप्पं ।५७५ । (अष्टावेव गताः मोक्षं, सुभूमो ब्रह्मश्च सप्तमां पृथिवीम् । मघवासनत्कुमारी, सनत्कुमारं गताः कल्पम् ।) ___ आठ चक्रवर्ती-- (भरत, सगर, शान्तिनाथ कुथुनाथ, अरनाथ, महापद्म, हरिषेण और जय) मोक्ष में गये। सुभूम और ब्रह्मदत्त ये दो चक्री सातवीं पृथ्वी (नरक) में गये। मघवा और सनत्कुमार ये दो चक्रवर्ती सनत्कुमार नामक तीसरे कल्प (स्वर्ग) में गये ५७५। छक्खण्ड भरहसामी, बारस चक्कीउ तेउ निद्दिठा । एत्तो परं तु वोच्छं, भरहद्धनराहिवा सव्वो ।५७६। (षट् खण्ड भरतस्वामिनः द्वादशचक्रिणस्ते तु निर्दिष्टाः । इतः परं तु वक्ष्यामि, भरतार्द्ध नराधिपान् सर्वान् ।)
भरत क्षेत्र के छहों खण्डों के स्वामी बारह चक्रवर्तियों के सम्बन्ध में मैंने निर्देश किया। अब आगे मैं अद्ध भरत अर्थात् भरत क्षेत्र के तीन खण्डों के नरेन्द्र ६ वासुदेवों के सम्बन्ध में कथन करूगा ।५७६।
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१८० ]
[ तित्योगाली पइन्नय तिविठू य दुविट्ट, य, सयंभु पुरिसुत्तमे पुरिससीहे । तह पुरिस-पुंडरीए, दत्ते नारायणे कण्हे ।५७७। (त्रिपृष्ठश्च द्विपृष्ठश्च, स्वयंभूः पुरुषोत्तमः पुरुषसिंहः । तथा पुरुष-पुण्डरीकः, दत्तः नारायणः कृष्णः ।)
त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ, स्वयंभू, पुरुषोत्तम, पुरुषसिंह, पुरुष पुण्डरीक, दत्त, नारायण और कृष्ण---ये ६ वासुदेव (प्रवर्तमान अवसपिणी काल में) भारतवर्ष में हुए ।५७७। अयले विजए भद्द, सुप्पभे य सुदंसणे । आणंद नंदण पउमे, रामे यावि अपच्छिमे ।५७८। (अचलः विजयः भद्रः, सुप्रभश्च सुदर्शनः । आनन्दः नन्दनः पद्मः, रामश्चाप्यपश्चिमः ।)
अचल, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द, नन्दन, पद्म और अन्तिम नौवें राम (बलराम)---ये ६ बलदेव हुए ।५७८। पुत्तो पयावइस्स, मियावई कुच्छंसि संभवो भयवं । नामेण विय-तिविठ्ठ., आदी आसी दसाराणं ।५७९।। (पुत्रः प्रजापतेः, मृगावती कुक्षौ संभवः भगवान् । नाम्नापि च त्रिपृष्ठः आदिरासीत् दशार्हाणाम् ।)
महाराज प्रजापति के पुत्र, मृगावती की कुक्षि से उत्पन्न भगवान् (प्रभु महावीर का जीव होने के कारण संभवतः यहां महासम्मान सूचक भगवं शब्द का प्रयोग त्रिपृष्ठ के लिये किया गया है) नाम से भी जो त्रिपृष्ठ थे वे दशाों के आदि पुरुष थे ।५७६। पुत्तो पयावतिस्स, भद्दा[या]अयलो वि कुच्छि संभूतो । गरुय पडिवक्ख महणा, तिविट्ठ अयलो ति दो विजणा ।५८०। (पुत्रः प्रजापतेः, भद्राया अचलोऽपि कुक्षि संभूतः । गुरु प्रतिपक्षमथनौ, त्रिपष्ठाचला विति द्वावपि जनौ ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १८१
प्रथम बलदेव अचल भी प्रजापति के ही पुत्र थे। उनका जन्म प्रजापति की बड़ी रानी भद्रा की कुक्षि से हुआ था। त्रिपृष्ठ और अचल---दोनों भाई महाबलशाली शत्रु सैन्यों का मथन करने वाले थे।५८०। अयल तिविठू दुन्निवि, संगामे अस्सग्गीव रायाणं । हंतूण सव्व-दाहिण, दाहिण भरहं अइ जिणंति ।५८१। (अचल त्रिपृष्ठौ द्वावपि, संग्रामेऽश्वग्रीव राजानं । . हत्वा सर्वदक्षिण भरतमतिजयन्ति ।)
अचल और त्रिपृष्ठ ने संग्राम में भरतार्द्ध के अधिपति प्रति वासुदेव अश्वग्रीव को मार कर सम्पूर्ण दक्षिण भरत पर विजय प्राप्त की ।५८१ उप्पण्णरयण विहवा, कोडि सिलाए बलं तुलेऊणं । अडूढभरहाहिसेयं, अयलो यति विठ्ठणो पत्ता ।५८२। (उत्पन्नरत्न विभवाः, कोटि शिलायां बलं तोलयित्वा । अर्द्ध भरताभिषेकं, अचलश्च त्रिपृष्ठश्च प्राप्तौ ।)
वासुदेव तथा बलदेवोचित महावैभवशाली रत्नों के उत्पन्न होने पर भरत क्षेत्र के तीनों खण्डों पर विजय वैजयन्ती फहरा कोटिक शिला पर उन्होंने अपने बल को तोला और तदनन्तर वे दोनों अर्द्ध भरताधिपति वासुदेव और बलदेव के पद पर अभिषिक्त हुए ।५८२। चक्कं सुदरिसणं से, संखोविय पंचयण नामोति । नंदय नामो य आमी, रितु सोणिय मंडितो आसी ।५८३॥ (चक्र सुदर्शनं तस्य; शंखोऽपि पाञ्चजन्य नामेति । नन्दक नामा च आसीत्, रिपुशोणित मंडित असी ।)
उस त्रिपृष्ठ वासुदेव के पास सुदर्शन चक्र. पाञ्चजन्य शंख, शत्रुओं के रक्त से रंजित नन्दक नाम की तलवार थी।५८३।
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१८२ ]
| तिस्थोगाली पइन्नय माला य वेजयंती. विचित्तरयणावसोहिया रम्मा । सारिक्खी जा तडियं, घणसमए इंदरायस्स ।५८४। (माला च वैजयन्ती, विचित्ररत्नावशोभिता रम्या । सदशी सा तडितया, घनसमये इन्द्रराज्ञः ।)
त्रिपृष्ठ के पास अद्भुत-अलभ्य रत्नों से मण्डित एवं सुशोभित अतीव सून्दर वैजयन्ती माला थी जो कि वर्षाकालीन सघन घनघटा में चमकती हुई बिजली के समान देदीप्यमान थी ।५८४। सत्तु जण भयकरं चावं दरि यारि' जीवउच्चावं [] । जीया' निघोसेणं, सयसाहस्सी पडइ जस्स ।५८५। (शत्रुजन भयंकरं चापं दृप्तारिजीवोच्चाटम् । ज्या निर्घोषण, शतसाहस्री पतति यस्य ।)
उस वासुदेव त्रिपृष्ठ के पास दर्पोन्मत्त वैरियों के मन का उच्चाटन कर देने वाला शत्राओं के लिये काल के समान भयंकर (साङ्ग) धनुष था, जिसकी प्रत्यंचा (ज्या) की टंकार मात्र से लाखों शा मूच्छित हो गिर पड़ते थे ।५८५॥ कोत्थुभ-मणी य दिव्बो, वच्छत्थल विभूसणो तिविठस्स । लच्छी ए परिग्गहीउ, रयणुत्तमसार संगहिओ ।५८६। (को स्तुभमणिश्च दिव्यो, वक्षस्थल विभूषणः त्रिपृष्ठस्य । लक्षम्याः परिगृहीतः, रत्नोत्तमसार-संगहीतः ।)
त्रिपृष्ठ के पास लक्ष्मी द्वारा सेवित, उत्तमोत्तम रत्नों के सार से उत्पन्न दिव्य कौस्तुभ मणि था जो उसके वक्षस्थल का विभूषण था ।५८६।
१ दरियारिदृनारिः। दरिय-दृप्त "दरियनागदप्प महणा" -दृप्तनाग
दर्पमथना (प्रश्न, ४ पाश्र० द्वार) २ जीया-ज्या । धनुषो गुणे । वाच० ।
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तित्योगाली पइन्नयन
[ १८३ अमरे हिं परिगहियाई, सत्तवि रयणाइ अहतिविठस्स । अमरेसु भसणेसु य, एयाई अजिय पुव्वाइं ।५८७) (अमरैः परिगहीतानि, सप्तापि रत्नानि अथ त्रिपष्ठस्य । अपरेसु भूषणेसु च. एतान्यजित पूर्वाणि ।)
त्रिपृष्ठ वासुदेव के ये सात रत्न देवों द्वारा अधिष्ठित---सेवित थे । दिव्य भूषणों में ये सदा सर्वदा अजेय माने गये हैं । ५८७।
(स्पष्टीकरण---गाथाओं के पर्यालोचन से स्पष्टतः प्रतीत होता है कि इनमें ६ रत्नों का ही नामोल्लेख एवं यत्किचित् विवरण दिया है । वासुदेव के सातवें रत्न---कौमोदकी गदा के उल्लेख वाली गाथा संभवत ताडपत्रीय प्रति में भी संभवतः नहीं लिखी गई होगी) वहइ हली वि हलं, जो पण य जिन्भं य तिक्ख वर चउं । परवंसु समरमहा, भड विढच कित्तीण जीयहरं ।५८८। (वहति हली अपि हलं, यत् पञ्च च जिह्वच तीक्ष्ण वज्र चउ[युतं] । पर-वंशे-समर महा-भट विस्तत कीर्तीनां जीवित हरम् ।)
- हली अचल बलदेव भी ऐसे हल को धारण करते हैं जो पांच जिह्वाओं एवं वज्र को तीखी चउओं (धरती को चीरने वाला हल का अधो भाग) वाला और रणांगण में शत्र ओं के महाकीर्तिशाली सुभटों के प्राणों का हरण करने वाला होता है ।५८८। साणंदं वाणिदिय, आसंकिय सत्तु मुक्कसय दलं ।। मुसलं सोभमहापुर, भंजण कुसलं वइरसारं ।५८९। (सुनन्दं वा नंदितं, आशंकित शत्रुमुत्कर्ष-दलम् । मुसलं सोभर-महापुर-भंजन कुशलं वज्रसारम् ।) १ सुनन्दं रामस्य मुसलम् । यथा
'प्रतिजग्राह बनवान्, सुनन्देनाहनच्च तम् ।"---श्रीमद्भागवत, स्कन्ध १०, अ. ६७, श्लोक १६ । विशाल नगराकारमयंस्मयं गगनगामी विमानम् । यथा--- तथेति गिरिशादिष्टो, मय: पर पूरञ्जयः। पुरं निर्माय शाल्वाय, प्रादात्सोभमयस्मयम ।।७।।
(भागवत, स्कन्ध १०, प्र. ७६, श्लोक ७)
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१८४ ]
[ तित्थोगालो पइन्नय सुनन्द अथवा नन्दित नामक मूसल की अचल बलदेव धारण करते हैं । अचल का वह मूसल टिड्डीदल के समान अपार एवं विशाल सेनाओं को भयभीत कर किंकर्तव्यविमूढ बना देने वाला, सौभ अर्थात् लोहमय गगन विहारी नगराकार विमानों बड़े-बड़े अभद्य नगरों को विचूर्णित करने में सिद्धहस्त और वज्र सार का बना हुआ था ॥५८६।। सव्वोउ पंच मालं, कुसुमासव लोल छप्प (य) विउलं। . मणिकुंडलं च वामं, कुबेरघरसारं आरामं । ५९०। (सर्वतु पंचमालं, कुसुमासव लोल षट्पद विपुलम् । मणि कुंडलं च वामं, कुबर गृहसार आरामम् ।)
अचल के वक्षस्थल पर सभी ऋतुओं के पांच वर्ण के फूलों की माला थी, जिस पर फूलों के रस को चूसने के लोभी चपल भ्रमर मंडराते रहते थे। अचल के कानों में धन कुबेर के धनागार के सभी आभूषणों में सारभूत मनोहर मणिकुण्डलों की जोड़ी थी ।।१०। अचलस्स वि अमर परिग्गहाई, एयाई पवररयणाई। सत्तू ण अजियाई, समरगुण पहाणगेयाई ।५९१।. (अचलस्यापि अमर परिग्रहाणि, एतानि प्रवररत्नानि । शत्रणामजितानि, समरगुण प्रधान गेयानि ।)
अचल बलदेव के पास भी शत्रुओं द्वारा अजेय, समर के सभो प्रधान गुणों से गेय अर्थात् युक्त ये (उपरि लिखित) उत्कृष्ट रत्न थे॥५६१॥ बद्धमउडाण निच्च, रज्जधुरुव्वहणधीरवसभाणां । भोइण नरिंदाभाणं, सोलसराती सहस्साई ।५९२। (बद्धमुकुटानां नित्यं, राज्यधुरोद्वहनधीरवृषभाणां । भोगिन् नरेन्द्राभानां, षोडश राजसहखाणि ।)
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तित्योगाली पइन्नय
[ १८५
वासुदेव त्रिपृष्ठ और हलो प्रवल को सेवा में वृषभों के समान राज्यधुरी को वहन करने में धीर, मुकुटबद्ध एवं नागराज के समान प्रचण्ड १६,००० (सोलह हजार) राजा नित्य रहते थे ॥५६२३॥ बायालीसं लक्खा, हेयाण रहगयवराण पडिपुण्णा । अट्ठय देवसहस्सा, अभिउग्गा सबकज्जेसु १५९३। (द्वाचत्वारिंशल्लक्षाः हेयानां रथ-गजवराणां प्रतिपूर्णाः । अष्टौ च देव सहस्रा, आभियोग्याः सर्वकार्येषु ।)
उनके पास सभी आवश्यक सज्जाओं से सजे हुए बयालीस लाख घोड़े, उतने ही रय तथा उतने ही श्रेष्ठ गजराज थे। उनके अभीप्सित सभी कार्यों को सम्पन्न करने हेतु ८००० (आठ हजार) देव सदा उनकी आज्ञा का पालन करने में तत्पर रहते थे ।। ५६३।। अडयाला कोडीउ पाइक्कनराण रणसमत्थाणं । सोलस साहस्सीउ, सजणवयाणं पुरवराणं ५९४। (अष्ट चत्वारिंशत् कोट्यस्तु पदातिनराणां रणसमर्थानाम् । षोडस साहस्रीस्तु, सजनपदानां पुरवराणाम् ।)
त्रिपृष्ठ तथा अचल को पदाति सेना में ४८ करोड़ रणकुशलरणसमर्थ सैनिक थे। उनके शासन के अन्तर्गत १६ हजार जनपद और १६ हजार ही विशाल नगर थे ॥५६४॥ पण्णासं विज्जाहर, नगराण सजणवयाण रंमाणं । पव्वंतरालवासी, नागाय फणुग्गधर मउडा ।५९५। (पञ्चाशत् विद्याधरनगराणां सजनपदानां रम्याणाम् । पर्वतान्तरालवासिनः नागाश्च फणोग्रधरमुकुटाः ।)
त्रिखण्डाधिपति त्रिपृष्ठ वासुदेव और अचल हलधर के अधीन विद्याधरों के जन पदों सहित ५० बड़े-बड़े नगर और पर्वत के अन्तराल में निवास करने वाले, उग्रफरणयुक्त मुकुट को धारण करने वाले ५० नागराज थे ॥५६५।।
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[ तित्थोगालो पइन्नय
१८६ ]
नेगाई सहस्साईं, गामागरणगर पट्टणादीनं । वियड्ढदाहिणेणउ, पुव्वावर अंतरडिया । ५९६ । ( अनेकानि सहस्राणि ग्रामागारनगरपतनादीनाम् । वैताय दक्षिणेन तु पूर्वापरान्तरस्थिताः । )
"
इनके अतिरिक्त वैताढ्य पर्वत के दक्षिणी भाग में पूर्व तथा पश्चिम की तलहटियों में बसी दो विद्याधर श्रेणियों के अनेक सहस्र ग्राम- आगार नगर तथा पत्तन त्रिपृष्ठ वासुदेव एवं अचल बलदेव के आधिपत्य में थे || ५६६।।
दरियरिमाणमहणा, अवसेवसमाणइत्त नरवणो |
,
दाहिण भरहं सगलं भुजंतिविलीण पडिवक्खा ५९७ । ( दृप्त ऋपुमान मथनाः अवशान् वशमानयित्वा नरपतयः । दक्षिण भरतं सकलं, भुञ्जन्ति विलीन प्रतिपक्षाः 1)
दन्मित्त (दृप्त) शत्रुओं के मान का मथन ( मर्दन) करने वाले त्रिपृष्ठ और अचल स्वतन्त्र राजा-महाराजाओं को अपने आज्ञानुवर्ती एवं अधीन बना कर शत्रुविहीन हो सम्पूर्ण दक्षिण भारत के निष्कण्टक राज्य का उपभोग करने लगे । ५६७ |
सोलस साहस्सी तो, नरवइतणयाण रूवकलियाणं । तावइओविय जणवय, कल्लाणीतो तिविटुस्स । ५९८ । ( षोडशसाहस्रीस्तु, नरपतितनयानां रूपकलितानाम् । तावत्योऽपि च जनपद - कल्याण्यस्तु त्रिपृष्ठस्य ।
राजाओं की अनुपम रूप लावण्यवती १६,००० कन्याएं और उतनी हो अर्थात् १६ हजार, विभिन्न जनपदों की रूप-गुण-यौवन संपन्ना सुन्दरियां । ५६८ ।
इय बत्तीस सहस्सा, चारुपत्तीण ता तिविट्ठुस्स ।
धारिणि पायोक्खाणय, अनुसहस्सा य अयलस्स | ५९९
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तित्थोगा ली पइन्नय ] .
[ १८७ (इमा द्वात्रिंश सहस्राः; चारुपत्नीनां तावत् त्रिपृष्ठस्य । धारिणिप्रमुखानां च, अष्टसहस्राश्च अचलस्य ।
ये त्रिपृष्ठ की धारिणी प्रमुखा ३२००० चारुहासिनी, चारु भाषिणी, चारुगामिनी, चारुदशिनी रानियां थीं । हल-मूसलधर अचल की भी ८००० (आठ हजार) रानियां थीं ।५६६।
ऊसिय मगरज्झयाणं, विदिण्ण वरच्छत्तवाल वियणाणं । सोलस गणिय सहस्सा, वसंतसेणा पहाणाणं ।६००। (उच्छितमकरध्वजानां, वितीर्ण वरच्छत्र-बालवीजनानाम् । षोडश गणिकासहस्राणां, वसन्तसेना-प्रधानानाम् ।)
त्रिपृष्ठ और अचल की सेवा में कामदेव की मकराङ्कित उत्तु न विजय वैजयन्ती के समान एवं राजा द्वारा प्रसाद पूर्वक प्रदत्त श्रेष्ठ छत्र और चवरों को धारण करने वाली वसन्त सेना आदि सोलह हजार गणिकाएं थीं।६००।। . एवं तु मए भणियं, अयलितिविठ्ठण दोण्हविजणाणं ।
एतो परं तु वोच्छं. अठण्हं नवर जुयलाणं ६०१। (एवं तु मया भणितं, अचलत्रिपृष्ठयोः द्वयोरपि जनयोः । इतः परं तु वक्ष्ये, अष्टानां (नवानां) नवरं युगलानाम् ।)
इस प्रकार मैंने अचल और त्रिपृष्ठ दोनों के सम्बन्ध में कथन किया। अब मैं वासुदेवों एवं बल देवों से सम्बन्धित आठ बातों का कथन करू गा।६०१ पयावती य बंभे य, रुद्द सोमे सिवेति य । महसीह अग्गिसीहे, दसरह नवमे य वसुदेवे ।६०२। (प्रजापतिश्च ब्रह्मश्च, रुद्रः सोमः शिवेति च । महासिंहोऽग्निसिंहः, दशरथः नवमश्च वसुदेवः ।)
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१८८ ॥
। तित्थोगाली पइन्नय
प्रजापति, ब्रह्म, रुद्र, सोम, शिव महासिंह, अग्निसिंह और नौवें वसुदेव-ये क्रमशः नौ बलदेवों एवं नौ ही वासुदेवों (अर्द्धचक्रियों) के पिता के नाम हैं ।६०२। मिगावतीउ पउमा चेव, पुहवी सीया य अम्मया । लच्छीमती सेसवती, केकती देवती य ।६०३ (मृगावती तु पद्मा चैव, पृथ्वी सीता च अम्बिका । . लक्ष्मीमती शेषवती, कैकेयी देवकी च अपि ।)
(एयाउ केसव मायरो) मृगावतो, पद्मा, पृथ्वी, सीता, अम्बिका, लक्ष्मीमती, शेषवती, कैकेयी और देवकी-ये केशवों अर्थात् अर्द्धचक्रियों की माताएं हैं।६०३। भद्दा सुभद्दा सुप्पभा, सुदंसणा विजय वेजयंती य ।। जयंती अपराजिया, रोहिणी य बलदेव जणणीओं ।६०४। (भद्रा सुभद्रा सुप्रभा, सुदर्शना विजया वैजयन्ती च । जयन्ती अपराजिता, रोहिणी च बलदेव जनन्यः।)
एयाउ बलदेवयाण मायरो (एताः बलदेवानां मातर ।)
भद्रा, सुभद्रा, सुप्रभा, सुदर्शना, विजया, वैजयन्ती, जयन्तो, अपराजिता और रोहिणी-ये बलदेवों की माताओं के नाम हैं ।६०४। । विस्सभति पव्वयए, धणमित्च समुद्ददत्त इसिवाले। पियमित्त ललियमित्ते, पुणव्वसू गंगदत्ते य ।६०५॥ (विश्वभतिः पर्वतकः, धनमित्रः समुद्रदत्त ऋषिपालः । प्रियमित्रः ललितमित्रः, पुनर्वसुः गंगदत्तश्च )
(एयाइं वासुदेवाणं पुवभव नामाइं) विश्वभूति, पर्वतक, धनमित्र, समुद्रदत्त, ऋषिपाल प्रिय मित्र, ललितमित्र, पुनर्वसु और गंगदत्त-ये वासुदेवों के पूर्वभवों के नाम हैं।६०५०
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तित्थोगालो पइन्न ।
. [१८६
बिस्सनंदी सुबन्धू य, सागरदत्ते असोगललिए य । वाराह धम्मसेणे, अबराइय रायललिए य ।६०६। (विश्वनन्दिः सुबन्धुश्च, सागरदत्तोऽशोकललितश्च । वाराहः धर्मसेनोऽपराजितः राजललितश्च ।)
(एयाई बलदेवाण पुब्वभव नामाइ) विश्वनन्दी, सुबन्धु. सागरदत्त, अशोक, ललित, वाराह, धर्म सेन, अपराजित और राजललित-ये बलदेवों के पूर्वभव के नाम
संभूते सुभद्द सुदंसणे य, सेज्जंस कण्ह गंगे य । सागर समुद्दनामे, नवमे दुमसेण नामे य ।६०७। (संभूतः सुभद्रः सुदर्शनश्च, श्रेयांसः कृष्णो गंगश्च । सागरः समुद्रनामा, नवमः द्र मसेन नामा च ।)
संभूत, सुभद्र सुदर्शन, श्रेयांस कृष्ण, गंग, सागर, समुद्र और द्रमसेन ।६०७। एते पुवायरिया, किचीपुरुसाण वासुदेवाणं । पुव्वभवे आसी य, जत्थ नियाणाई कासी य ६०८। (एते पूर्वाचार्याः, कीर्तिपुरुषाणां वासुदेवानाम् । पूर्व भवे आसन् च, यत्र निदानान्यकाएं श्च ।)
ये कोतिपुरुष वासुदेवों के पूर्वभव के आचार्य थे। जहां इन वासुदेवों ने अपने पूर्व भव में निदान किये उन नगरियों के निम्नलिखित नाम हैं । ६०८। महुरा य कणगवत्यु, सावत्थी पोयणं च रायगिहं । कोगंडी कोसंबी, महिलपुरी हत्थिणपुरं च ।६०९।
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१६० ]
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। तित्थोगाली पइन्नय
(मथुरा च कनकवस्तु, श्रावस्ती पोतनं च राजगृहम् । कोगंदी [काकन्दी] कौशाम्बीः, मिथिलापुरी हस्तिनापुरञ्च ।)
मथुरा, कनकवस्तु श्रावस्ती पोतनपुर, राजगृह, काकन्दी, कौशाम्बी, मिथिलापुरी और हस्तिनापुर ।६०६। आसग्गीवे तारय, मेरय महुकेटवे निसुभे य । बलिय हिराए' (हिरण्णे) तह, रावणे य नवमे जरासिंधू ।६१०। (अश्वग्रीवः तारक-मेरक-मधुकैटभाः निशुम्भश्च । बलिश्च हिरण्य [क्षिपुः] तथा, रावणश्च नवमः जरासिन्धु [सन्धः] ।) ____ अश्वग्रीव, तारक, मेरक. मधुकैटभ, निशुम्भ, बली हिरण्यकशिपु, रावण और जरासन्ध ।६१०। एते खलु पडिसत्तू , कित्तिपुरिसाण वासुदेवाणं : सव्वे य चक्क जोहा, सव्वे वि हया सचक्केहिं ।६११। (एते खलु प्रतिशत्रवः, कीर्तिपुरुषाणां वासुदेवानाम् । सर्वे च चक्रयोद्धारः, सर्वेऽपि हताः स्वचक्र)
ये कीर्तिशाली वासूदेवों के प्रतिशत्रु अर्थात् प्रतिवासुदेव थे। ये सब चक्रयोधो थे और सभी अपने ही चक्रों द्वारा मारे गये ।६ ११॥ पंच अरहते वंदंति, केसवा पंच आणु पुब्बीए । सेन्जंस-तिविद्वादि, धम्म-पुरिससीह परन्ता ।६१२। (पंच अर्हतान् वन्दन्ति. केशवा पञ्च आनुपूर्व्या । श्रेयांस-त्रिपृष्ठादि, धर्म-पुरुषसिंह पर्यन्ताः ।) १ श्वेताम्बर परम्परा ग्रन्थेषु सप्तमो प्रतिवासुदेवः प्रहलाद नाम्ना दिगम्बर
परम्पराया: तिलोयपण्णत्तो-ग्रन्थे च प्रहरण नाम्ना समुल्लिखिताऽस्ति प्रहलादस्तु परम भागवतोऽभिमतः सनातन परम्पराया पुराण ग्रन्थेषु । प्रनया गाथया हिरण्यक्षिपुरेव नवमो प्रतिवासुदेव मातीदित्यनुमीयते । विदूषां विमर्षणीयं विषयमेतत् प्रतिभाति ।
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तित्थोगाली पइन्नय |
[ १६१
त्रिपृष्ठ, द्विपृष्ठ स्वयंभू, पुरुषोत्तम और पुरुषसिंह ये प्रथम से पंचम वासुदेव (केशव) क्रमशः अपने अपने समय में हुए ग्यारहव से पन्द्रहवें तीर्थंकर अर्थात् श्र ेयांसनाथ, वासुपूज्य, विमलनाथ, अनन्तनाथ और धर्मनाथ की सेवा में उपस्थित हो उन्हें वन्दन करते हैं । ६१२ ।
1
अर-मल्लि अंतरे, दोन्नि केसवा पुरिस पुंडरीयदत्ता | सुन्वय नमीण मज्झमि अट्टमो, कण्ह नेर्मिमि । ६१३ । (अर - मल्यन्तरे, द्वौ केशव पुरुषपुण्डरीकदत्तौ । सुव्रतनमयोर्मध्ये, अष्टमः कृष्णः नेमौ ।)
अठारहवें तोर्थंकर अरनाथ और १६ वें तीर्थंकर मल्लिनाथ के अन्तर काल में पुरुष पुण्डरीक और दत्त नामक छठे और सातवें ये दो वासुदेव, बीसवें तीर्थंकर मुनि सुव्रत तथा २१ वें तीर्थ कर नमिनाथ के अन्तर काल में नारायण नामक आठवें वासुदेव और बावीसवें तीर्थंकर के समय नौवें वासुदेव श्री कृष्ण हुए । ६१३|
अनियाणकडा रामा, सव्वे विय केसवा नियाणकडा | उगामी रामा, केसवसच्चे अहोगामी ६१४ (अनिदानकृताः रामाः सर्वेऽपि च केशवाः निदानकृताः । ऊर्ध्वगामिनो रामाः केशवा सर्वेऽधोगामिनः )
बलदेव पूर्वजन्म में निदान (तपस्या के प्रतिफल के रूप में ऐश्वर्य को आकांक्षा) नहीं करते जब कि सभी वासुदेव अपने पूर्वभव में निदान करते हैं। सभी बलदव ऊर्ध्वगति अर्थात् मोक्ष अथवा स्वर्ग में तथा सभी वासुदेव अधो गति अर्थात् नरक में जाते हैं । ६१४ ।
एक्को य सत्ताए, पंच य छट्टीए पंचमी एगो |
एगो य चउत्थीए, कण्हो पुण तच्च पुढवीए । ६१५।
( एकश्च सप्तमायां, पंच च षष्टयां पंचम्यामेकः । एकश्च चतुर्थायां कृष्णः पुनः तृतीया - पृथिव्याम् ।)
"
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१६२ ।
[ तित्थोगालो पइन्नय एक वासुदेव पांचवीं नरक में, पाँच वासुदेव छठी नरक में, एक वासुदेव पाँचवीं नरक में, एक वासुदेव चौथो नरक में और अन्तिम वासुदेव कृष्ण तीसरी पृथ्वी में उत्पन्न हुए ।६१५। अट्ठतकडा रामा, एगोपुण बंभलोय कप्पंमि । उववन्नो तत्थ भोए, भोत्तु अयरोवम दसाएतो ।६१६। (अष्टान्तकृताः रामा; एकः पुनः ब्रह्मलोक कल्पे । . . उत्पन्नस्तत्र भोगान् भुक्त्वा अजरोपमदशायास्ततः ।)
आठ बलदेवों ने आठों कर्मों का अन्त किया-अर्थात् मोक्ष प्राप्त किया। एक बलदेव (नौवें तथा अन्तिम बलराम) ब्रह्म नामक पांचवें देवलोक में उत्पन्न हए। वहां वे दिव्य देव भोगों का उपभोग करने के पश्चात् ।६१६। तत्तोय चइत्ताणं, इहेव उस्सप्पिणीए भरहमि । भवसिद्धिओउ भयवं, सिज्झिसइ कण्ह तित्थंमि ।६१७) (ततश्च च्युत्वा, इहैव-उत्सर्पिण्यां भरते । भवसिद्धिकस्तु भगवान्, सेत्स्यति कृष्णतीर्थे ।)
एक भविक वे (नौवें बलदेव का जीव) ब्रह्मदेव लोक से च्यवन कर आगामी उत्सपिणी काल में इसी भरत क्षेत्र में श्री कृष्ण - अर्थात् तोर्थ कर भगवान् अमम के धर्मतीर्थ काल में सिद्ध-बुद्ध-मुक्त होंगे।६१७) तइए घरंमि एते, तिविट्ठ आदी य संठिया सव्वे । दुसम सुसमाए सेसे, जं होही तं निसामेह ।६१८। (तृतीये गृहे एते, त्रिपृष्ठाद्याश्च संस्थिताः सर्वे ।। दुःषम सुषमायां शेषो, यत् भविष्यति तत् निशामयत ।)
उपरि चचित (वाम से दक्षिण २७ और ऊपर से नोचे ५ घरों वाले) यन्त्र की तृतीय पंक्ति में त्रिपृष्ठ आदि सब वासदेवों का उल्लेख है। (उनका कथन किया गया) अब दुःषमा-सुषम नामक
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तित्थोगाली पइन्नय )
. [ १६३ चौथे पारे के शेष अन्तिम समय में जो होगा, हुआ है अथवा होता है, उसे सुनिये ।६१८॥ अद्ध नवमा य मासा, तिण्णि य वासाइं होंति सेसाई। दुसमसुसमाएतो, नवसुवि खेत्तेसु सिद्धिगया [जिणिंदा] ।६१९। (अर्द्ध नवमाश्च मासा, त्रीणि च वर्षाणि भवन्ति शेषाणि । दुःषमसुषमायास्ततः, नवस्वपि क्षेत्रेषु सिद्धिं गताः [जिनेन्द्राः ।)
दुःषमा सुषम नामक चतुर्थ प्रारक की समाप्ति में जब तीन वर्ष और साढ़ा पाठ मास अवशिष्ट थे उस समय (जम्बूद्वीप के भरतक्षेत्र . की तरह) ढाई द्वीप शेष ६ ही क्षेत्रों में अन्तिम तीर्थ कर सिद्ध हुए।६१६। जं रयणी सिद्धिगो अरहातित्थंकरो महावीरो। तं रयणीमवंतीए अभिसित्तो पालओ राया ।६२०/ (यस्यां रजन्यां सिद्धिगतोऽहत्तीर्थंकरो महावीरः । तस्यां रजन्यामवन्त्यामभिषिक्तः पालकः राजा )
जिस रात्रि में चौवीसवें तीर्थंकर महावीर मोक्ष पधारे उस रात्रि में अवन्ती में पालक का राज्याभिषेक हुआ।६२०। पालगरण्णो सट्ठी, पणपन्न सयं वियाण पंदाणं । मरुयाणमट्ठमयं, तीसा पुण पूसमित्वाणं ।६२१।। (पालक राज्ञः षष्टी, पंचपंचाशच [च शतं विजानीहि नन्दानाम् । मौर्याणामष्ट [च] शतं, त्रिंशत् पुनः पुण्यमित्राणाम् ।)
____ भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् पालक राजा का ६० वर्ष तक, नन्दों का १५५ वर्ष तक मौर्यो का १०८ वर्ष तक तथा पुष्यमित्रों का ३० वर्ष तक ।६२१।। बलमित्तभाणु मित्ता, सट्ठी चत्ता य होंति नहसेणे । गद्दभ सयमेगं पुण, पडिवन्नो तो सगो राया ।६२२। (बलमित्रभानुमित्रयोः, षष्टिः चत्वारिंशच्च भवन्ति नभसेने । गर्दभस्य शतमेकं पुनः, प्रतिपन्नः ततः शको राजा ।)
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१६४ ]
| तिस्थोगाली पइन्नय
बलमित्र - भानुमित्र का साठ, नभसेन का ४०, गर्दभिल्ल का १०० वर्ष तक क्रमशः राज्य चलने के पश्चात् शक राजा का शासन हुआ । ६२२ ।
पंच य मासा पंच य वासा, बच्चेव होंति वाससया । परिनिव्यस्य अरिहा, तो उप्पन्नो सगो राया । ६२३ । (पंच च मासा पंच च वर्षा, षट् चैव भवन्ति वर्षशता । परिनिर्वृतस्यार्हतः, तत उत्पन्नः शको राजा ।)
भगवान् महावीर के निर्वारण से ६०५ वर्ष और ५ मास व्यतोत हो जाने पर शक राजा हुआ । ६२३। सगवंसस्य तेरस सयाई, तेवीस च होंति वासाईं । होही जम्मं तस्सउ कुसुमपुरे दुबुद्धिस्स | ६ २४ | (शकवंशस्य त्रयोदश शतानि त्रयोविंशतिश्च भवन्ति वर्षाणि । भविष्यति जन्म तस्य तु (ततस्तु ). कुसुमपुरे दुष्टबुद्ध: ।)
1
शक वंश के १३२३ वर्ष होते हैं तब दुष्टबुद्धि का कुसुमपुर में जन्म होगा । ६२४ |
पत्तो प (च) त कुलंमि य, चेत्ते सुद्धदुमीय दिवसंमि । dear चंदे विकिरणे रविस्सुदए । ६२५ | ( प्राप्तस्त्यक्तकुले च चैत्रे शुद्धाष्टम्याश्च दिवसे । रौद्रोपगते चन्द्र वष्टिकरणे रवेरुदये )
,
चैत्र शुक्ला अष्टमी के दिन चन्द्र के रौद्र योग में आने पर वृष्टि करण में सूर्य के उदय के समय उस (दुष्ट बुद्धि) का त्यक्त ( नीच) कुल जन्म हुआ । ६२५ ।
जम्मोवगए सूरे, सणिच्छरे विण्हु [१] देवयागए य ।
सुक्के भोमेण हंते, चंद्रेण हए सुरगुरु मि । ६२६ । ( जन्मोपगते सूर्ये, शनिश्चरे विष्णुदेव गते च । शुक्र े भौमेन हते, चन्द्र ेण हते सुरगुरौ ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १६५ - जन्म स्थान में सूर्य के विष्णुदेवता में शनिश्चर के योग के साथ शुक्र के भौम (बुध) द्वारा और बृहस्पति के चन्द्र द्वारा प्रहत होने पर ।६२६॥ ससिमरत्थमणमिय, समागमेतित्थ एग पखंमि । सत्चरिसय चरक पमद्दएयधूम धूमए उ केउंमि ।६२७। (शशि सूर्ययोरस्तमने च समागमे तिथौ [तीथे] एक पक्षे । सप्तर्षयचक्रप्रमर्दके, च धूम्र धूम्रके तु केतौ ।)
एक हो तिथि और एक ही पक्ष में चन्द्र और सूर्य--दोनों के अस्तमान के समागम में सप्तर्षि मण्डल के धूम्र धूम्रक केतु द्वारा प्रमदित किये जाने पर ।६२७।। (तइया भुवणस्स पडणं) तइया भुवणं पडणस्स, जम्मनगरीए नगरी रामकण्हाणं । घोरं जणक्खयकर, पडिबोहदिणे य चिण्हस्स ।६२८॥ (तदा भवनानां पतनेन, जन्मनगर्या रामकृष्णयोः । घोरं जनक्षयकर, प्रतिबोधदिने च विष्णोः ।)
तब बलराम और कृष्ण की जन्मनगरी मथुरा में विष्णु के उत्थान (देवोत्थान की कार्तिक शुक्ला एकादशी) के दिन घोर धनजन क्षयकारी भवनों के भूमिसात् होने अर्थात् गिरने के दिन ।६२८। बहुकोहमाणमाया, लोभपसत्थस्स तस्स जम्ममि । संघ पुण हेसेही, गावीरूवेण अहिउन्हा ६२९। (बहुकोध-मान-माया-लोभ प्रसक्तस्य तस्य जन्मनि । संघं पुनः हसिस्यति, गौरूपेण अध्युष्णा ।)
अत्यधिक क्रोध-मान-माया और लोभ में प्रसक्त उस दुष्ट बुद्धि का जन्म होने पर कालान्तर में लोणा देवी...गौ का रूप धारण किये पथ पर खड़ी हो संघ को अपने सींगों से प्रताड़ित करेगी।६२६।
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१६६ ]
| तित्थोगाली पइन्नय
सिज्झति य पाडा, चोरेहिं य जणपया विलुप्पंति । होहि तदाणिं गामा, केवल संपाहमेचावि (केवल सण्णाह भीतावि) ६३० (सिध्यन्ति च पापंडाः, चौरेश्च जनपदाः विलुप्यन्ते । भविष्यन्ति तदानीं ग्रामाः, केवलं सण्णाह भीतापि [वै] :)
पाखण्डी अपने आपको सिद्ध घोषित करेंगे। जनपद आये दिन चोरों द्वारा लूटे जायेंगे। गाँव लुटेरों के प्रहारों से सदा भयभीत रहेंगे । ६३० ।
एत्थ किर मज्झसे, पविरंजमण एस नाम देसेसु । हयगय गो महिसाणं, कहिंचि किच्छाहि उवलंभो । ६३१ | ( or fee मध्यदेशे, परिज्ज मनुष्येषु नाम देशेषु । हय-गज - गौ-महिषीणां कुत्रचित् कृच्छ र्हि उपलम्भ: 1 )
"
यहां और मध्यवर्ती प्रदेश में लोगों के इस प्रकार प्रमदित (लुठित सन्त्रस्त) किये जाने पर घोड़ों, हाथी, गायें और भैंसे कठिनता से कहीं-कहीं ही देखने में आयेंगे । ६३१०
चोरा रायकुल भयं, गंधारसा विखज्जिहिति अणुसमयं । दुभिकखमणावुट्टीय, नाम पलिय एव मज्झी ही ६३२। (चौर - राजकुलभ, गन्धाः रसाः क्षयिष्यन्त्यनुसमयम् । दुर्भिक्षमनावृष्टिश्च नाम पलितमेवमधीतिः । )
,
लोगों को प्रतिक्षण चोरों एवं राज्य की ओर से भय रहेगा। पृथ्वी के गन्ध-रसादि गुरण निरन्तर क्षीण होते जायेंगे । अनावृष्टि से तथा दुर्भिक्षों के पड़ने से लोगों में चिन्ता व्याप्त रहेगी । ६३२ |
रातीणं किर होइ य, बहुला य जणवया तया । जम्मंत तस्स एते, निच्छिय भावा मुणेयव्त्रा । ६३३ | ( राज्ञां किल भविष्यन्ति, बहुलाश्च जनपदाः तदा । जन्मतस्तस्यैते निश्चिताः भावाः मुनेतव्याः ।)
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तित्थोगालो पइन्नय ]
[ १६७
उस समय राजाओं एवं जनपदों की संख्या बहुत हो जायगी। उस दुर्बुद्धि का जन्म होते ही ये सब अनिष्ट होंगे, यह निश्चित समझना चाहिए ।६३३। अट्ठारस य कुमारो, वरिसाडामरितो होति तत्तियं कालं । अस्सेसयम्मि काले, भरहे राया अच्छंतस्स ।६३४। (अष्टादश च कुमारः. वर्षाडम्बरितः भवति तावतिकं कालम् । अवशेष काले, भरते राजत्वेन स्थितस्य ।) - वह १८ वर्ष का होगा तब तक कुमार रहेगा। तदनतर वह अनेक वर्षों के अपने पूरे जीवन काल तक भारत का राजा रहेगा ।६३४। जं एवं वर नयरं, पाटलिपुत्तं तु विस्सुए लोए । एत्थं होही राया, चउम्मुहो नाम नामेण ।६३५। (यदेतद् वरनगरं, पाटलिपुत्रं तु विश्रुतं लोके । अत्र भविष्यति राजा, चतुर्मुखो नाम नाम्ना ।) ... यह जो जगत्प्रसिद्ध पाटलिपुत्र नामक नगर है, यहां चतुर्मुख नामक राजा होगा।६३५ सो अविणय पज्जतो, अण्ण नरिंदं तणमिव गणतो । नगरं आहिडतो. पेच्छी ही पंच थूभे उ ६३६। (सोऽविनयं पर्याप्तः, अन्य नरेन्द्रान् तृणमिव गणयन् । नगरमाहिण्डयन्, प्रोक्षिष्यति पञ्च स्तूपान् तु )
वह इतना अधिक अविनीत अर्थात् अभिमानी होगा कि दूसरे सब राजाओं को तरण तुल्य समझेगा। नगर के सभी भागों में घूमता हुमा एक दिन वह पांच स्तूपों को देखेगा ।६३६। पुट्ठा य वेंति मणुया, नंदो राया चिरं इहं आसि । बलितो अत्थ समिद्धो, रूव समिद्धो जस समिद्धो ६३७ (पृष्टाश्च ब्रुवन्ति मनुष्याः, नन्दो राजा चिरमत्रासीत् । बलितोऽर्थसमृद्धः, रूपसमृद्धः यशसमृद्धः ।)
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१६८ ]
[ तित्थोगाली पइत्रय
उन स्तूपों के सम्बन्ध में उसके द्वारा पूछताछ की जाने पर लोग उसे बतायेंगे कि बल धन, रूप एवं यश-- सभी दृष्टियों से समृद्ध नंद नामक राजा यहां बहुत समय तक शासनारूढ रहा । ६३७। ते इहं हिरणं, निक्खितंसि बहुबलमत्तेणं । नणं तरंति अण्णे, रायाणी दाणि धितु ं जे | ६३८ ।
( न त्विह हिरण्यं निक्षिप्तं (अस्ति ) बहुबलप्रमत्तेन ।
न च नु तरन्ति अन्ये, राजान इदानीं ग्रहीतु ये ।)
•
बलाधिक्य से प्रमत्त उस नन्द राजा ने इन स्तूपों में बहुत सा स्वर्ण गाड़ा था। अब इस स्वर्ण को लेने में कोई दूसरे राजा समर्थ नहीं हैं । ६३८ ।
तं वयणं सोडणं. खणेहीति समंतओ त धूभे ।
नंदस्स संतियं तं पडिवज्जह मो अहं हिरण्णं ६३९ ।
( तद्वचनं श्रुत्वा खनत इति समन्तात् ततः स्तूपान् ।
1
नन्दस्य संचितं तत् प्रतिपद्यते सोऽथ हिरण्यम् ।)
लोगों के उस वचन को सुन कर वह उन पांचों स्तूपों को सब और से खुदवायेगा और नन्द राजा द्वारा संचित उस सम्पूर्ण स्वर्ण को ग्रहण कर लेगा । ६३ ।
1
सो अत्थपथिद्धो, अण्ण नरिंदे तो वि अगणितो | अह सव्वतो महंत खणावही पुरवरं सव्वं ॥ ६४०
( स अर्थ प्रतिस्तब्ध अन्य नरेन्द्रान् तृणान्यध्यगणयन् । अथ सर्वतो महान्तम् खनापयिष्यति पुरवरं सर्वम् । )
।
वह उस अपार अर्थ राशि को पा कर प्रतिस्तब्ध अर्थोन्मत्त होगा । उसकी अर्थ लोलुपता और बढ़ेगी। अब तो वह अन्य सभा राजाओं को तृरणतुल्य भी न गिनता अर्थात् मानता हुआ (इस) समस्त महान् नगर को सब और से खुदवायेगा | ६४०|
नामेण लोण देवी, गावी रूवेण नाम अइबुच्छा | धरणियला उन्भूया, दीसिही सिलामई गावी | ६४१ |
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तित्थोगाली पइन्नय ।
[ १६६
(नाम्ना लोणदेवी, गौरूपेण नाम अभ्युत्था । धरणीतलात् उद्भूता, द्रक्ष्यते शिलामयी गावी ।)
उस नगर को खोदते समय पृथ्वीतल से खड़ी अवस्था में शिलामयी गाय के रूप में लोणा नामक देवी प्रकट हुई दृष्टिगोचर होगो ।६४१॥ सा किर तइया गावी, होइणं रायमग्गमोतिण्णा ।। साहुजणं हिंडतं, पिच्छही सुस्सुयायंती ।६४२।। (सा किल तदा गावी, भूत्वा राजमार्गमवतीण।। साधुजनं हिण्डन्तं, प्रक्षयिष्यति सुस्सुकायंती )
वह गाय राजमार्ग में आकर इधर-उधर आते-जाते साधुओं को देखते ही उनकी ओर सुसियायेगी (सूसाड़ करेगी) १६४२। ते भिण्णभिक्ख भायण, विलोलिया भिण्णकोप्पनिडाला ।) भिक्खं पि हु समणगणा. न चयंति हु हिंडिउ नयरे ।६४३ (ते भिन्नभिक्षाभाजन-विलोलितभिन्नकूर्णरललाटाः भिक्षामपि श्रमणगणा. न शक्नुवन्ति हिण्डितु नगरे ) ____ वह गाय भिक्षार्थ भ्रमण करत हुए साधुओं को अपने सींगों के आघात से नीचे गिरा दगी जिससे उनके भिक्षा-पात्र टूट-फूट जायेंगे तथा उनकी कोनियां व ललाड़ क्षत विक्षत होंगे और इस प्रकार उस गाय के डर से साधु नगर में भिक्षाथं भी नहीं निकल पायेंगे । ६४३। वोच्छत्तिय मयहरगो, आयरिय परंपरागयं तच्चं । एस अणागय दोसो, चिरदिठो बद्धगाणेण ।६४४। (वक्ष्यति च महत्तरकः आचार्य परम्परागतं तथ्यम् । एष अनागत दोषश्चिरदृष्टो वर्द्ध मानेन ।)
___ इस प्रकार की आश्चर्यजनक एवं अनिष्टकारी घटनाओं को दख कर महत्तर (आचार्य अथवा संघस्थविर) आचार्य-परम्परागत तथ्यपूर्ण श्र ति की साक्षी देते हुए कहेंगे कि त्रिकालदर्शी
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२०० ]
[ तित्थोगालो पइन्नय तोर्थ कर प्रभु महावीर ने इस अवश्यंभावी दोष (अनिष्ट) को बहुत पहले ही (केवलज्ञान द्वारा) देख और जान लिया था।६४४॥ अण्णेवि अत्थि देसा, लहुलहु ताई तो अवक्कमिमो । एसा वि हु अणुकंपइ, गावीरूवेण अहि उत्था ६४५ (अन्येऽपि संति देशाः, शीघौं शीघ तानितोऽवक्रामामः । एषापि खल्वनुकम्पते, गावी रूपेणाभ्युत्था )
राजमार्गों पर गाय के रूप में उपस्थित यह (दिव्य शक्ति) हम पर अनुकम्पा कर रही है। अतः हमें शीघ्र ही इस प्रदेश को त्याग कर अन्य प्रदेशों में चले जाना चाहिए ।६४५। गावीए उवसग्गा, जिणवर वयणं च जे सुणेहिति । गच्छंति अण्ण देसं. तहवि य बहवे न गच्छंति ६४६। गाव्या उपमर्गान् . जिनवर वचनं च ये अण्वन्ति (अशण्वन्) । गच्छन्त्यन्यदेशं, तथापि च बहवो न गच्छन्ति ।
गाय द्वारा उपस्थित किये गये उपसर्गों और इनकी पूर्व सूचना के रूप में पहले ही से प्रभु महावीर द्वारा कहे गये वचनों की बात सुन कर कतिपय साधु तो अन्य प्रान्तों की ओर प्रस्थान कर देंगे परन्तु अधिकांश साधु वहीं रहेंगे ।६४६। गंगा सोणुवसगां जिणवरवयणं च जे सुणेहिंति । गच्छंति अण्णदेसं तहवि य बहवे न गच्छति ।।६४७ (गंगा सोनोपसगं, जिनवर वचनं च ये श्रवन्ति । गच्छन्त्यन्यदेशं, तथापि च बहवो न गच्छंति ।
गंगा ओर सोन के उपसर्गों एवं तद्विषयक जिनेन्द्र देव के वचनों को जो सुनेंगे वे अन्य प्रदेशों में चले जायेंगे, किन्तु फिर भी बहत से साधु वहां से अन्य प्रान्तों की ओर प्रयाण न कर वहीं यथावत् रहेंगे।६४७। किं अम्ह पलाएण, भिक्खस्म किमिच्छयाइ लभते । एवं ति जंपमाणा, तह वि य बहुया न गच्छंति ।६४८।
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तित्योगाली पइन्नय ]
(किमस्मद् पलायनेन, मिक्षायाः किमिच्छया लभ्यन्ते । एवमिति जल्पमानास्तथापि च बहुका न गच्छन्ति ।)
"हमें यहां यथेच्छ भिक्षा मिल रही है । ऐसी दशा पलायन से क्या प्रयोजन ? " - इस प्रकार कहते हुए बहुत उस स्थान से अन्यत्र नहीं जायेंगे ६४८ |
पुव्वभव निम्मियाणं, दूरे नियडे व अलियवन्ताणं । कम्माण को पलायs, कालतुला संविभचाणं । ६४९ । (पूर्व भवनिर्मितानां दूरे निकटे वा अलीकवताम् । कर्मणां (णा) को पलायते, कालतुला संविभक्तानाम् । )
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दूरं वच्चइ पुरिसो, तत्थगतो निव्वु लभिस्सामि । तत्थ विपुव्वाईं, पुव्वगयाईं पडिक्खंति | ६५० । ( दूरं व्रजति पुरुषः, तत्रगतः निर्वृतिं लप्स्यामि । तत्रापि पूर्वकृतानि पूर्वगतानि प्रतीक्षन्ते ।)
[ २०१
काल की तुला द्वारा अच्छी तरह विभाजित अपने पूर्व भावों में स्वयं द्वारा उपार्जित कर्मों से कोई प्राणी दूर नहीं भाग सकता क्योंकि वे तो प्राणी के दूरातिदूर चले जाने पर भी सदा सन्निकट एवं साथ लगे रहते हैं । ६४ ।
में हमें से साधु
अह दाणि सो नरिंदो, चउम्मुह दुम्मुह अधम्ममुह | पाडे पिण्डेउ, भणिही सव्वे करं देह । ६५१ | ( अथेदानीं स नरेन्द्रश्चतुर्मुखः दुर्मुखोऽधर्ममुखः । पाषण्डान् पिण्डयित्वा भणति - सर्वे करं दत्त ।)
,
पुरुष यह सोच कर दूर जाता है कि वह वहां जा कर दुःखों से छुटकारा पायेगा किन्तु उसके पूर्वोपार्जित कर्म उस पुरुष के उस स्थान पर पहुंचने से पहले ही पहुँच कर उसकी प्रतीक्षा करने लगते हैं । ६५०।
,
स्तूपों तथा समस्त पाटलिपुत्र की खुदाई से अपार स्वर्ण राशि प्राप्त कर लेने के पश्चात् वह चतुर्मुख, दुर्मुख अथवा अधर्ममुख
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२०२ ।
[ तित्थोगाली पइन्नय
नामक राजा समस्त साधु-संन्यासियों को एकत्र कर कहेगा--- "तुम सब लोग मुझे कर दो" ।६५१॥ रुद्धोय समणसंघो, अच्छिहीति सेसया य पासंडा । सव्वे दाहिंति करं, सहिरण्णसुवण्णिया जत्था ।६५२। (रुद्धश्च श्रमण संघः, स्थास्यति शेषकाश्च पाषण्डा । सर्वे दास्यन्ति करं, सहिरण्य सुवर्णिकाः यत्र ।) ___कर देना स्वीकार न करने की दशा में श्रमण संघ उस राजा द्वारा अवरुद्ध हो वहीं रुका रहेगा। अन्य धर्मों के साधु संन्यासी तथा अन्य सभी पाखण्डी उस राजा को अपने-अपने पास के स्वर्ण में से कर के रूप में स्वर्ण देंगे ६५२। . . सव्वे य कुंपासंडे, मोयावेहि बला सलिंगाई । अइ तिव्वलोहघत्थो, समणे वि अभिहवेसीय ।६५३। . (सर्वांश्च कुपासण्डान्, मोचापयिष्यति बलात् स्वलिंगानि । अतितीव्रलोभग्रस्तः श्रमणानपि अभिद्रविष्यति च ।)
___ वह अन्य सब पाखण्डियों से बलपूर्वक उनका वेष उतरवा लेगा और प्रतीव तीव्र लोभ से अभिभूत हो वह श्रमणों को भी संताप देगा।६५३॥ वोच्छंति य मयहरगा, अम्हं दायद्दव्वं म किंचित्थ । जं नाम तुम्हलुब्भा, करेहि तं दायसी राय ।६५४। (वक्ष्यन्ति च महत्तरका, अस्माकं दातव्यं द्रव्यं न किंचिदत्र । यत्-नाम त्वं लोभात् करै आदायसि राजन् ।
___इस पर महत्तर संघ-स्थविर उसे कहेंगे -' हमारे पास देने के लिये ऐसी कोई वस्तु या द्रव्य नहीं है जिसे तुम लोभ के वशीभूत हो कर द्वारा लेना चाहते हो" १६५४। रोसेण सूसयंतो, सो कइ वि दिणा तहेव अच्छिही। अह नगर देवया तं, अप्पणिया' भणिही राय ।६५५
१. अप्पणिया दुरप्पा/उ. २०/
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[२०३ (रोषेण सुसुकायन्. स कत्यपि दिनानि तथैव स्थास्यति । अथ नगर देवता तं, आत्मीया भणिष्यति राजन् ।)
वह कतिपय दिनों तक क्रोध से तमतमाता हुआ श्रमण संघ को अवरुद्ध कर उनके साथ इसी प्रकार का व्यवहार करता रहेगा। अन्ततोगत्वा उसके नगर का अधिष्ठाता देव उससे कहेगा--1६५५॥ किं तूरसि मरीउ, जे निसंस किं बाहसे समणसंघ । सव्वं ते पज्जत्तं, नणु कइ दीहं पडिच्छाहि ।६५६। (किं त्वरसे मतु यत्, नृशंस किं बाधसे श्रमणसंघम् । सर्व ते पर्याप्तं, ननु कति दिवसानि प्रतीच्छसि ।) . क्या तुम शोघ्र ही मौत के मुंह में जाना चाहते हो जो श्रमण संघ को इस प्रकार पीड़ा पहुँचा रहे हो? तुम्हारी दुष्टता सीमा का अतिक्रमण कर चुकी है, अब तुम अधिक दिनों तक जोना नहीं चाहते ? ।६५६। उल्लपडसाडओ सो, पडिओ पाएसु समणसंघस्स । कोवो दिट्ठो भयवं कुणह पसायं पसाएमि ।६५७। (आर्द्र पटशाटकः स, पतितः पादेषु श्रमणसंघस्य । कोपः दृष्टः भगवन् ! कुरुत प्रसादं प्रसादयामि ।)
नगर देवता के ये वचन सुनते ही राजा चतुर्मुख भयत्रस्त हो श्रमण संघ के चरणों में गिर पड़ेगा। उसके सब वस्त्र अस्त-व्यस्त हो जायेंगे। वह गिड़गिड़ा कर कहेगा:--"भगवन् ! मैंने आपके
देखा अब मुझ पर दया कीजिये। मैं आपकी प्रसन्नता का प्रार्थी हूँ' १६५७। . किं अम्ह पसाएणं, तह वि य बहुया, तहिं न इ(अ)च्छंति । घोर निरंतर वासं. अह दिवा राई वासिहिती ।६५८। (किमस्माकं प्रसादेन, तथापि च बहुकाः तत्र न इच्छन्ति (तिष्ठन्ति)। घोर निरन्तर वर्षा, अथ दिवारानं वर्षिष्यति ।)
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२०४ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
हमारी कृपा से क्या होगा? (यह कह कर श्रमण-संघ अपने स्थान को लौट जायगा) यह सब कुछ हो जाने पर भी बहुत से साधु वहीं (पाटलिपुत्र में ही) ठहरे रहेंगे। तदनन्तर कई दिनों और रातों तक निरन्तर घोर वर्षा होगी।६५८। दिव्वंतरिक्ख भोमा, तइया होहिंति नगरनासाय । उप्पाया उ महल्ला, सुसमण समणीण पीडकरा ६५९।। (दिव्यान्तरिक्षभौमाः, तदा भवन्ति नगरनाशाय [भविष्यन्ति । उत्पातास्तु महान्तः, सुश्रमणश्रमणीनां पीडाकराः ।)
नगर के विनाश तथा श्रमणों के लिये भावी पीड़ा के सूचक अनेक दिव्य एवं बड़े बड़े उत्पात आकाशे में तथा पृथ्वी पर होंगे।६५९। संवच्छर पारणए, होहि असिवंति तो ततो निति । सुत्तत्थं कुव्वंता, अइसयमादीहिं नाऊण ।६६०। (संवत्सर पारणके, भविष्यति अशिवं इति तान् तत नयन्ति । सूत्रार्थ कुर्वन्तः अतिशयादिभित्विा ।)
संवत्सर (वर्ष) की समाप्ति पर अनेक अपशकुन होंगे। उन्हें देख कर और ज्ञानातिशय से भावी को जान कर सूत्रों को तथा सूत्रों के अर्थ (नियुक्ति चूणि वृत्ति आदि) को साधु गण वहां से बाहर यत्नपूर्वक ले जाते हैं :६६०। गंतु पि न चायंति, केइ उवगरणवसहिपडिबद्धा । केइ सावग निस्सा केइ पुण जं भविस्सा उ ६६१। (गन्तुमपि न शक्नुवन्ति, केचिदुपकरणवसति प्रतिबद्धाः । केचित् श्रावकनिस्राः केचित्पुनः यत्भविष्यास्तु ।)
अनेक साधु उपकरणों एवं वसति के राग में आबद्ध, अनेक साधु अपने श्रावकवर्ग के मोह पाश में बधे तथा कतिपय साधु--जो होना है, वह हो कर रहेगा--यह कह कर पाटलिपुत्र को छोड़ अन्यत्र जा ही न सकेंगे।६६११
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तित्थोगालो पइन्नय ]
[ २०५ तं दाणि समणुबद्ध, सत्तरस राति दिवाई वासिहिति । गंगा सोणापसरो, उव्वचइ तेण वेगेण ६६२। (तदिदानीं समनुबद्ध, सप्तदश रात्रिदिनानि वर्षिष्यति । गंगा सोणा प्रसर, उद्वर्तयति तेन वेगेन ।
निरन्तर सत्रह दिन और सत्रह रात तक निरन्तर मूसलधार वृष्टि होगी । उससे गंगा, सोणा और सर में प्रलयंकर बाढ़ आवेगी ।६६२। गंगाए वेगेण य, सोणस्स य दुद्धरेण सोतेणं । .. तेणं अह सव्वातो, महंता बुझिही पुरवरं रम्मं ।६६३। (गंगायाः वेगेन च, शोणायाश्च दुर्द्ध रेण खोतेन । तेनाथ सर्वतो मथयता, बूडिष्यति पुरवरं रम्यम् ।) - गंगा के अति तीव्र तथा सोणा के प्रबल स्रोत से यह अति सुरम्य एवं विशाल नगर पूरी तरह डूब जायगा।६६३। आलोइय गयसल्ला, पच्चक्खाणे सु धणिय मुज्जुत्ता । उत्थप्पहिति साहु, गंगाए अग्गवेगेणं ।६६४। (आलोचित गत-शल्याः, प्रत्याख्यानेषु धणिय [अत्यन्त] मुधु क्ताः। उत्थाप्स्यन्ते साधवः, गंगाया अग्रवेगेन ।)
आलोचना कर निश्शल्य बने तथा प्रत्याख्यान में पूरे यत्न के साथ संलग्न साधु-साध्वी गण गंगा के तीव्र वेग द्वारा बाढ़ से बाहर फेंक दिये जायेंगे ।६६४। के इत्थ साहुबग्गा, उवगरणे धणिय-राग पडिबद्धा । कलुणाई पलोइंता, वसही सहियाओ बुझंति ।६६५। (केचिदत्र साधुवर्गाः, उपकरणे धणिय (अतिशय) राग प्रतिबद्धाः । करुणानि प्रलोकयन्तः, वसति सहिता वाह्यन्ते ।)
उस समय अपने उपकरणों के प्रति प्रगाढ़ राग में बंधे हुए कतिपय साधु सकरुण दृष्टि से देखते हुए वसतिसहित उस बाढ़ में बह जायेंगे ।६६५।
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२०६ ।
[ तित्थोगाली पइन्नय
सामिय सणंकुमारा, सरणं ता होहि समणसंघस्स । इणमो वेयावच्चं, भणमाणाणं न वट्टिहिति ६६६। (स्वामिक सनत्कुमार, शरणं तावत् भव श्रमणसंघस्य । इदं वैयावृत्यं, भणमाणानां न वर्तिष्यते ।)
"यो सनत्कुमार देवलोक के स्वामी ! तुम श्रमण संघ के शरण्य बनो, यह श्रमण संघ की सेवा का अवसर है ' -इस प्रकार कहते हुए श्रमण बाढ़ में नहीं बहेंगे ।६६६। अलोइयं नीसल्ला, पच्चक्खाणेसु धणियमुज्जंता । उत्थपिहिति समणी, गंगाए अग्गवेगेणं ।६६७) (आलोचित निश्शल्या प्रत्याख्यानेषु धणिय (अतिशय) मुद्यच्छन्तः । उत्थाप्स्यन्ते श्रमण्यः, गंगाया अग्रवेगेन ।)
आलोचना कर निश्शल्य बनी हुई तथा प्रत्याख्यान करने में पूर्णतः उद्यत श्रमणियां गंगा के तीव्र वेग द्वारा पानी से बाहर पहुँचा दी जायेंगी।६६७। काओवि साहुणीओ, उवगरण धणिय राग पडिबद्धा । कलुण पलोयणि यातो, वसहि सहियातो बुझंति ।६६८। (काचिदपि साध्व्य, उपकरणघनितरागप्रतिबद्धाः । करुण प्रलोकनिकास्ता, वसति सहितास्ततः वाद्यन्ते ।)
अपने उपकरणों के प्रति प्रगाढ अनुराग में बंधी हुई कतिपय श्रमणियां करुण दृष्टि से अपने उपकरणों को देखती हुई वसतियों सहित उस बाढ़ में डूब जायेंगो ।६६८। सामिय सणंकुमारा, सरणं ता होहि समणसंघस्स । इणमो वेयावच्चं, भणमाणीणं न वट्टिहिति ।६६९। (स्वामिन् सनत्कुमार, शरणं तावत् भव श्रमणसंघस्य । इदं वैयावृत्यं, भणमानीनां न वर्तिष्यति ।)
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तित्थोगाली पइन्नयन
[ २०७
"श्रो सनत्कुमारेन्द्र ! तुम श्रमणसंघ के शरण्य बनो। यह वैयावृत्य (श्रमण श्रमणी की सेवा) का सुअवसर है"-इस प्रकार बोलती हुई साध्वियाँ बाढ़ से सुरक्षित रहेंगी।६६६। आलोइय तिसल्ला, समणीओ पच्चक्खाइऊण उज्जुत्ता । उत्थिप्पिहिति धणियं, गंगाए अग्गवेगेणं ६७०। आलोचितत्रिशल्याः श्रमण्यः प्रत्याख्यात्वा उद्युक्ताः । उत्थाप्स्यन्ते धणियं [तूण], गंगाया अग्रवेगेन ।)
तीनों प्रकार के शल्यों को आलोचना की हुई प्रत्याख्यान कर पण्डितमरण के लिये उद्यत साध्वियाँ गंगा के तीव्र वेग द्वारा शीघ्र ही पानी से बाहर पहुँचा दो जायेंगी । ६७०। केई फलगविलग्गा, वच्चंति समण समणीण संघाया । आयरियादीय तहा, उत्तिन्ना बीय कूलंमि ।६७१। (केचित् फलकविलग्नाः व्रजन्ति श्रमणश्रमणीनां संघाताः । आचार्यादयस्तथा, उत्तीर्णाः द्वितीय कूले ।)
- श्रमणों एवं श्रमणियों के कतिपय समूह तथा प्राचार्य आदि लक्कड़ों और लकड़ी के पाटियों पर बैठ कर तट पर पानी से पार उतरे ।६७१। नगरजणो वि य बूढो, केइ लद्ध ण फलग खंडाई । समुतिन्ना बीयतडं, केइ पुणतत्थ निहण गया ।६७२। (नगरजनोऽपि च बूहितः, केचित् लब्ध्वा फलकखण्डानि । समुत्तीर्णाः द्वितीय तटं, केचित्पुनस्तत्र निधनंगताः ।)
उस भयंकर बाढ में (बहत बडी संख्या में) नगर-निवासी भी डूब गये। जिन लोगों के हाथ काष्ठ के पट्टे लग गये वे तो तैर कर जल-प्रवाह के दूसरे तट पर पहुँच गये किन्तु अधिकांश लोग वहीं मृत्यु के ग्रास बन गये । ६७२। रणो य अत्थजायं, पाडिवस्तो चेव कक्कि राया य । एयं हवा हु [ण] बुड्ढं, बहुयं बूढं जलोहेण ।६७३।
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[ तित्थोगाली पइन्नय
२०८ ]
(राज्ञश्च अर्थजातं, प्रातीपत्रतश्चैव कल्कि राजा च । एतेन ब्रूडिताः बहुकं ब्रूडितं जलौघेन ।
a
राजा का धन, प्रातपव्रत आचार्य और कल्की राजा - ये नहीं बहे, शेष सब कुछ प्रबल जल प्रवाह में बह गया । ६७३ ।
पासंडाविय वण्हा (बहुआ), बूढा वेगेण काल संपत्ता | चोवरंतिज्जे वा [१] पविरल मणुयं च संजाया [ i ] ।६७४। ( पाषण्डापि च बहुकाः ब्रूडिता वेगेन कालं सम्प्राप्ताः । चोवरं [१] अंतरीप इव, प्रविरल मानुष्कं च संजातम् । )
बहुत से पाखण्डी भी उस बाढ के वेग में बह कर मर गये । समस्त क्षेत्र चोइवर ( ? ) अन्तरीप की तरह अति स्वल्प मानव आबादी वाला बन गया । ६७४ ।
सो अथ पडित्यो मझ होही जसो य कित्ती य । तंमि य नगरे बूढे, अण्णं नगरं निविसिहीति । ६७५ । (स अर्थ प्रतिस्तब्धः मह्यं भविष्यति यशश्च कीर्तिश्च । तस्मिन् नगरे वहिते, अन्यं नगरं निवेशयिष्यति )
अपार संपत्ति के गर्व में मदोन्मत्त वह चतुर्मुख - मेरा यश और कीर्ति फैलेगी- यह विचार कर उस नगर के बह जाने पर अन्य नगर बसायेगा ६७५।
अह सव्वतो समंता, कारेही पुरवरं महारम्मं । आरामुज्जाणजुयं, विरायते देवनगरं व ६७६ । ( अथ सर्वतः समन्तात्, कारयिष्यति पुरवरं महारम्यम् । आरामोद्यानयुतं विराजते देवनगरं वा । )
वह उद्यानों एवं प्रारामों से युक्त सभी प्रकार से प्रति सुरम्य समचतुरस्र एक श्रेष्ठ नगर बसायेगा, जो कि देवनगर के समान सुशोभित होगा । ६७६ ।
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ २०६
पुणरवि आयतणाई, पुणरवि साहू य तत्थ विहरंति । सम्मं च बुटिकाओ, वासीहिति संतीय वट्टिहिति ।६७७) (पुनरपि आयतनानि, पुनरपि साधवस्तत्र विहरन्ति । सम्यक् च वृष्टिकायः वर्षिष्यन्ति शान्तिश्च वर्तिष्यते ।)
उस नगर में पुनः प्रायतनों का निर्माण होगा, पुनः साधु गण वहां विचरण करेंगे. वहां आवश्यकतानुसार अच्छी वृष्टि होगी और शान्ति का प्रसार होगा।६७७। .. पडिएण वि कुंभेणं, किणं [ण्णं] तया य तहिं न होति । पण्णासं वासाई, होही य समुभवो कालो । ७८ (पतितेनापि कुम्भेन, कीर्ण तदा च तत्र न भवति । पञ्चाशत् वर्षाणि, भविष्यति च समुद्भवः कालः ।)
.. उस समय किसी कलश के गिर पड़ने पर भी शब्द नहीं होगा अर्थात् पूर्ण शान्ति का साम्राज्य होगा और वह ५० वर्ष का काल अभ्युदय-समुन्नति का समय होगा ।६७८। पुणरवि य कुपासंडे, मेल्लाविहिति बला सलिंगाई । अइ तिब्बलोह पत्थो, समणेवि अभिहवेसि य ६७९/ (पुनरपि कुपासंडान् मेलापयिष्यति बलात् स्वलिंगानि । अतितोत्र लोभग्रस्तः, श्रमणानपि अभिद्रोष्यति च ।
. तदनन्तर वह पुनः पाखण्डियों को एकत्र कर बलपूर्वक उनके वेष उतरायेगा। अति तीव्र लोभ के वशीभूत हो वह पुनः साधुओं को संताप पहुँचावेगा।६७६। तइया वि कप्पववहार, धारओ संजतो तवाउचो । आणा दिट्ठी समणो, भविअसुचो पसंत मणो ।६८०। (तदापि च कल्पव्यवहारधारकः संयतः तपायुक्तः । आज्ञादृष्टिः श्रमणः, भावितसूत्रः प्रशान्तमनाः ।)
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२१० ]
[ तित्थोगाली पइन्न
उस समय भो कल्प और व्यवहार का धारक पंच महाव्रत रूपी संयम से संयत. तपस्वी, सूत्रार्थों का मर्मज्ञ और पर शान्त आज्ञादृष्टि नामक श्रमण ।६८०। वीरेण समाइट्ठो, तित्थोगालीए जुगप्पहाणोति । सासण उण्णति जणणो, आयरितो होहिति धीरो ।६८१ (वीरेण समादिष्टः, तीर्थोद्गाल्यां युगप्रधान इति । . . शासनोन्नतिजनकः, आचार्या भविष्यति धीरः ।)
जिसे "तीर्थोद्गारी" में श्रमण भगवान महावीर ने युगप्रधान बताया है, जिन-शासन की उन्नति करने वाला अति धोर आचार्य होगा।६८१॥ पाडिवतो नामेण, अणगारो तह य सुविहिया समणा । दुक्खपरिमोयणट्ठा, छट्ठट्ठम तवे काहिति ।६८२। (प्रातीपत्रतः नाम्ना, अणगारस्तथा च सुविहिताः श्रमणाः । दुःखपरि मोचनार्थं , षष्टाष्टम तपांसि करिष्यन्ति ।)
प्रातिपद नामक एक अनगार तथा सुविहित परम्परा के श्रमण होंगे। वे जन्म-मरण के दुःख से मुक्त होने के लिये षष्ठम (बेला) और अष्टम (तेला) आदि तप करेंगे।६८२। . रोसेण मिसिमिसंतो, सो कइ दीहं तहेव अच्छीय । अह नगरदेवयाउ, अप्पिणिया बेत्ति वेसीया ६८३। (रोषेण मिसमिसायन् स कति [चित्] दिवसान् तथैव आस्थितः । अथ नगरदेवता तु, आत्मीया ब्रुवति आवेशिता ।)
क्रोधातिरेक से दांतों को किटकिटाता हुआ वह कतिपय दिनों तक उसी प्रकार श्रमण संघ को संताप देता रहेगा। इस पर नगर की अधिष्ठात्री देवी आवेश भरे स्वर में कहेगी-६८३। किं तूरसि मरिउ, जे निस्संसं किं वाहसे समणसंघ सव्वं तं पज्जत्तं, नणु कइ दीहं पडिच्छाहि ।६८४।
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• तित्थोगाली पइन्नय ]
,
( कि त्वरसि तु रे नृशंस किं बाधसे श्रमण संघम् । सर्वं तत् पर्याप्तं, ननु कति दिवसान् प्रतीच्छसि )
" श्रमण संघ को पीड़ा पहुँचा कर तू क्यों शीघ्र ही मरना चाहता हैं । बस, तू पर्याप्त दुष्टता कर चुका, बोल अब तू कितने दिन जीना चाहता है ? ६८४
[ २११
तासिंपि य असतो, छट्टु भिक्खस्स मग्गए भागं ।
कासगं चिट्ठिय, सक्कस्साराहणट्टाए । ६८५ | (तासामपि च [ वचनं ] अण्वन् षष्ठं भिक्षायाः मृग्यते भागम् । कायोत्सर्गं स्थिताः शक्रस्याराधनार्थाय ।)
देववाणी को अनसुनी करते हुए वह श्रमणों से भिक्षा का छट्ठा भाग मांगने लगा श्रमण वर्ग शक्र की आराधनार्थ कायोत्सर्ग कर निश्चल खड़ा हो गया । ६८५।
गोवाडंमि निरुद्धा, समणा रोसेण मिसमियायंता |
खो यति राय कट्टो हिं सप्पं [व्यं] चि
,
[ राय मा बाधेह संघति ] | ६८६ ।
(arch निरुद्धा: श्रमणा रोषेण मिसमिसायन्तः । अम्बा यक्षश्च भणतः, राजन् मा बाधय संघ मिति ।)
श्रमण संघ द्वारा भिक्षा का छट्टा भाग कर के रूप में देना स्वीकार न किये जाने की दशा में क्रोधातिरेक से दांतों को पीसते हुए कल्की ने श्रमण संघ को गायों को गवाड़ में बन्द कर दिया । यह देख अम्बा और यक्ष उससे कहते हैं -- "राजन् ! अब बस करो, श्रमणों को बहुत कष्ट दे चुके हो ।" । ६८४ । काउसग्गठिएसु, सक्कस्साकंपियं तओ ठाणं ।
भोsय ओहीए, खिप्पं तिदसाहिवो एह | ६८७ |
1
( कायोत्सर्ग - स्थितेषु शक्रस्य आकम्पितं ततः स्थानम् | आभोग्य अवधिना, क्षिप्रं त्रिदशाधिपः एति ।)
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२१२ ]
| तिस्थोगाली पइन्नय
कायोत्सर्ग की मुद्रा में स्थित साधुत्रों के चित्त की एकाग्रता से शक्र का सिंहासन प्रकम्पित हुआ । अवधिज्ञान के उपयोग से सब स्थिति को जान कर देवेन्द्र शक्र तत्काल वहां आता है । ६८७ | सो दाहिण लोगपती, धम्माणुमती अहम्मबुढमतिं । जिणत्रयण ( सारण ) पडिकुड, नासीहिति खिप्पमेव तयं । ६८८ | ( स दक्षिण लोकपतिः, धर्मानुमतिः अधर्म वृद्धमतिम् ।
: जिनशासन प्रतिक्र ुष्टं नाशयिष्यति क्षिप्रमेव तकम् 1)
धर्म के अनुकूल मति वाला वह दक्षिण लोक का स्वामी देवराज अधर्मपूर्ण आचरण करने वाले, जिन शासन के द्रोही उस कल्की राज का तत्काल नाश करेगा । ६८८
छासीतीउ समाओ उग्गो उगाए दंडनीतीए ।
भोत ं गच्छइ निहणं, निव्वाण सहस्स दो पुणे | ६८९ । ( पडसीतिस्तु समाः, उग्र उग्रथा दण्डनीत्या ।
भुक्त्वा गच्छति निधनं निर्वाण सहस्र द्व े पूर्णे 1)
1
निर्वारण पश्चात् दो हजार वर्ष पूर्ण होने पर ८६ वर्षों तक प्रति कठोर दंडनीति द्वारा अत्युग्र राजतन्त्र का उपभोग करने के पश्चात् (वीर) निर्वाण के दो हजार (२०००) वर्ष पूर्ण होने पर वह चतुर्मुख कल्की मृत्यु के मुख में चला गया । ६८६ ।
१ चतुविंशत्यधिक षट्सत संख्यकायाः गाथाया उल्लेखानुसारेण १३२३ तमे वीर निर्वाण संवत्सरे कल्किन; जन्म, चतुस्त्रिशत्षट्शत संख्यकायां गाथायां च १३४१ तम: वीर निर्धारण संवत्सरस्तस्य राज्याभिषेककालः समुल्लि खित: । तथाहि एकोननवत्यधिक षट्शत संख्यकायाः गाथाया उल्लेखानुसारतश्च कल्किन: शासनकालः षटसीति वर्षमितो निर्दिष्टः । एवं हि तावत् १३२३+१८ + ८६, एतासां संख्यानां योगतः वीर निर्वारण संवत्सर: १४२७ तम एव कल्किनः निधन कालः सुनिश्चितो भवति । तथ्यानामेतेषां पर्यालोचने गाथायामस्य कैल्किनः निधनकालः यदि २००० तम: वीर निर्वाण संवत्सरः निर्दिष्टस्तद्धि तावत् त्रुटिपूर्णोऽसमीचीनश्च स्पष्टत प्रतिभाति ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
तस्य पुत्तं दत्तं इंदो अणुसासिऊण जणमज्झे ।
2
काऊण पाडि हेरें, गच्छइ समणे पणामि ऊण ।६९०। ( तस्य च पुत्रं दत्तं इन्द्रोऽनुशासयित्वा जनमध्ये | कृत्वा प्रातिहार्य, गच्छति श्रमणान् प्रणमयित्वा ।)
इन्द्र समस्त जन समूह के समक्ष मृत कल्की के पुत्र दत्त को आवश्यक निर्देश देकर राज्य का अधिकारी बनायेगा । तदनन्तर इन्द्र श्रमण संघ को प्रणाम कर सुर लोक की ओर लौट जायगा । ६६०।
भद्द धीतिवेला परिगयस्स, सज्झाय सलिलपुन्नस्स । अक्खोब्भस्स भगवओ, संघसमुदस्स रु ६स्स । ६९९ । (भद्र ं धृतिवेला - परिगतस्य, स्वाध्यायसलिलपूर्णस्य । अक्षोभस्य भगवतः, संघसमुद्रस्य रुंदस्य ।)
[ २१३
धैर्य की अनतिक्रमणीय वेला ( मर्यादा - सीमा) में विराजमान स्वाध्याय रूपी अपार जलराशि से पूर्ण, किसी भी दशा में कभी क्षुब्ध न होने वाले भगवत्स्वरूप महान् संघ समुद्र का कल्याण हो । ६६१।
दवा पव्त्रयं, इंदाणुमयं सधम्प्रजणिय च । सव्वंमि भरवासे, होही समणाण सक्कारो | ६९२ । (इन्द्रभुजा-प्रवर्तितं, इन्द्रानुमतं सद्धर्मजनितं च । सर्वस्मिन् भारतवर्षे, भविष्यति श्रमणानां सत्कारः । )
इन्द्र की भुजाओं द्वारा प्रवर्तित अर्थात् श्रमणों को हाथ जोड़ कर प्रमाण करते हुए इन्द्र को देख कर, इस प्रकार इन्द्र द्वारा अनुमत सद्धर्म की प्रतिष्ठा के फलस्वरूप सम्पूर्ण भारतवर्ष में श्रमणों का सत्कार होगा ।६१२।
देवोव्वसमण संघ, पुज्जिही सव्वनगरगामेसु ।
ऊणा वीस सहस्सा, अणोवमा होहीति सक्कारो | ६९३ |
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२१४ ।
[ तित्थोगाली पइन्नय
(देव इव श्रमणसंघः, पूजिष्यते सर्वनगरग्रामेषु । उनाः विंशति सहस्राः अनुपमः भविष्यति सत्कारः ।)
सभी नगरों एवं ग्रामों में देवोपम श्रमणसंध की पूजा होगी। कुछ ही न्यून बीस हजार वर्षों तक श्रमण संघ का अपूर्व सत्कार होगा ।६६३। एवं चिय वासेसु, नवसुवि होहीति सक्काउ राया। एगसमएण दसवि सक्कीसाणाओ काहिति ।६९४। (एवं चैव वर्षेसु. नवस्वपि भविष्यन्ति शकाः राजानः । एक समयेन दशाऽपि शकेशा आज्ञां करिष्यन्ति )
इसी प्रकार ढाई द्वीप के शेष चार भरत और पांच ऐरवत.. इन नौ ही क्षत्रों में शक राजा होंगे। ये दशों हो शक गजा एक ही समय में अपनी राजाज्ञा चलायेंगे अर्थात् शासन करेंगे ।६६४। दत्तो वि महाराया, जिणाययण मंडियं वसुमतिं तु । कारेहि सो सिग्धं, दिवसे दिवसे य सक्कारं ६९५। (दत्तोऽपि महाराजा, जिनायतन-मंडितं वसुमतीं तु । कारयिष्यति स शीघं , दिवसे दिवसे च सत्कारम् )
___ महाराजा दत्त भी शीघ्र ही पृथ्वी को जिनायतनों (जिनालयों) से मण्डित कर श्रमण संघ का दिन प्रतिदिन सत्कार करेगा ।६६५। तस्स सुओ जिय सत्तू , तस्सविय सुतो उ मेघघोसोत्ति । अन्नोन्नरायवंसा, जाव विमलवाहणो शया ।६९६। (तस्य सुतः जितशत्रुः, तस्यापि च सुतस्तु मेघघोष इति । अन्योऽन्यराजवंशाः, यावत्-विमलवाहनः राजा ।)
राजा दत्त का पुत्र होगा राजा जितशत्रु और जिनशत्र का पुत्र राजा मेधघोष । इस प्रकार राजा विमलवाहन तक अन्यान्य राजवंश होंगे।६६६।
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तित्थोगाली पइन्नय }
{ २१५ एवं तु मए भणिओ, रातीणं वंससंभवो जाव । जावउ दुप्पसहो विय, एत्तो वोच्छामि सुयहाणि ६९७ (एवं तु मया भणितः, राज्ञां वंशसंभवः यावत् । यावत्तु दुःप्रसहोऽपि च, इतः वक्ष्यामि श्रुत हानिम् ।)
इस प्रकार मैंने (नये) राजन्य वंश के उद्भव के सम्बन्ध में कहा । अब मैं इस अवसर्पिणी काल के अन्ति आचार्य दुःप्रसह तक होने वाली श्रुत शास्त्र की हानि का उल्लेख करूंगा ।६६७। चउसट्ठी वरिसेहि, णिव्याण गयस्स जिणवरिंदस्स । साहूण केवलीणं, वोछित्ति जंबुणामंमि ।६९८ । (चतुष्षष्टिवः, निर्वाणगतस्य जिनवरेन्द्रस्य । साधूनां केवलीनां, व्युच्छित्तिः जम्बुनाम्नि ) . भगवान् महावीर के निर्वाणानन्तर ६४ वर्ष व्यतीत हो जाने पर जम्बू नामक केवली के मोक्षगमन के साथ ही केवलज्ञानी साधुओं का लोप हो जायगा---अर्थात् केवलज्ञान भरतादि दश क्षेत्रों में विलुप्त हो जायगा।६६८॥ मणपरमोहि पुलाए, आहारग खवग उवसमेकप्पे । संजमतिय-केवली-सिज्झणा य, जंबुमि वोच्छिन्ना ।६९९। (मनः परमावधि पुलाकाः, आहारक क्षपक उपशमेकल्पाः । संयमत्रिक-केवलिनः सिद्धना च, जम्बुनि व्युत्च्छिन्नाः ।)
मनःपर्यवज्ञान. परमावधिज्ञान, पुलाकलब्धि, आहारक शरीर, क्षपक श्रेणी उपशमश्रणी, जिनकल्प, संयमत्रिक...अर्थात् परिहारविशुद्धि, सूक्ष्म संपराय और यथाख्यात नामक तीन प्रकार के चारित्र. केवली अर्थात् केवलज्ञान और मुक्तिगमन -- इन दश विशिष्ट आध्यात्मिक शक्तियों का जम्ब के निर्वाण के साथ ही विच्छेद हो गया।६६६। नवसुविधासे सेवं, मण परमोही पुलागमादीणं । समकालं वोछओ, तित्थोगालीए निद्दिट्ठो ।७००।
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२१६
"
( नवस्वपि वर्षे स्वेवं मनः परमावधि पुलाकादीनाम् । समकाले व्युच्छेदः, तीर्थोद्गाल्यां निर्दिष्टः । )
[ तित्योगालो पइन्नय
इस प्रकार शेष 8 क्षेत्रों में भी मनःपर्यवज्ञान, परमावधि, पुलाकलब्धि आदि १० विशिष्ट आध्यात्मिक शक्तियों का एक साथ एक ही समय में विच्छेद होना "तीर्थोगाली" (तीर्थ--- ओगाली. तीर्थ प्रवाह) में बताया गया है ।७०० |
चोहस पुन्वच्छेदो, वरिससतेसत्तरे विणिदिट्ठो । साहुम्म धूल भद्द े अन्न य इमे भवे भावा । ७०१ | ( चतुर्दशपूर्व च्छेदः ' वर्ष शते [च] सप्ततौ विनिर्दृष्टः । साधौ स्थूल-भद्र े, अन्ये च इमे भवेयुः भावाः । )
( श्रुतकेवली भद्रबाहु के स्वर्गगमन के पश्चात् ) वीर निर्वारण वर्ष १७० में साधु स्थूलभद्र में चतुर्दश पूर्वों का छेद अर्थात् ह्रास बताया गया है। अन्य भी ये (निम्नलिखित) घटनाएं घटित होने का निर्देश किया गया है ७०१ ।
कोवीकय सज्झातो, समणो समण गुण निउण चिंतड़ उ । पुच्छर मणि सुविहियं, अइसयनाणि महासत्तं । ७०२ ( कोऽपि कृतस्वाध्यायः, श्रमणः श्रमणगुणनिपुणचिन्तकः । पृच्छति गणिनं सुविहितं, अतिशय ज्ञानिनं महासत्त्वम् )
श्रमण के गुणों में निपुण एवं चिन्तक एक साधु स्वाध्याय करने के पश्चात् सुविहित परम्परा के प्रतिशय ज्ञानी एवं महासत्वशाली गणाचार्य से पूछता है । ७०२ |
भगवं कह पुव्वाओ, नहाओ उवरियाई चत्तारि । एयं जहा विदिट्ठ, इच्छह सम्भावतो कहिउ | ७०३ | (भगवन् कथं पूर्वाणि नष्टानि उपरिमानि चत्वारि । एतद् यथा विदृष्टं, इच्छथ सद्भावतः कथितु ं ।)
१ पूर्वतर चतुर्वाणां विच्छेदात् चतुर्दशपूर्वं ह्रासं - हानिरित्यर्थः । छेदशब्दोऽत्र ह्रास द्योतक एव न तु विलुप्ति द्योतकः ।
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[ २१७
तित्थोगाली पइन्नय ]
"भगवन् । ऊपर के चार पूर्व (ग्यारहवें पूर्व से चौदहवें तक) किस प्रकार नष्ट हो गये ? यह आपने जिस प्रकार देखा (ज्ञानातिशय से देखा जाना अथवा सुना ) है उसी प्रकार कहने की कृपा कीजिये ।” |७०३ ।
जह पाडलस्स गुणपायडस्सवि परंपरागओ गंधो । संसग्गी संकतो अहिययरं पाडो हो । ७०४ | ( यथा पाटलस्य गुण प्रकटस्यापि परम्परागतः गंधः । संसर्गी संक्रान्त अधिकतरं प्रकटीभवति ।)
जिस
आचार्य ने श्रमण के प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा प्रकार सर्वविदितं गुणों वाले पाटल अर्थात् गुलाब के पुष्प की परम्परागत सुगन्ध अच्छे गांधी के संसर्ग से और अधिक विकसित हो प्रकट होती है । ७०४ |
एवं सुयधर पडिपुच्छतो, नरो परम मंदमेहावी ।
घोडि पुच्छतो पुण, जस पाय दुगंधतो होई । ७०५ |
( एवं श्रुतधर प्रतिपृच्छातः नरो परममंद मेधावी ।
,
घोटिका पुच्छतः पुनः, यथा प्राय दुर्गन्धितः भवति ।
उसो प्रकार परम मन्द मनुष्य भी श्रुतधर से श्रुतसम्बन्धी प्रश्न पूछ-पूछ कर मेधावी बन जाता है । उसी पाटल पुष्प को घोड़ी को पूछ ध देने पर वह दुर्गन्धपूर्ण हो जाता है : ७०५ |
1. स्पष्टीकरणम् - यथा सौगन्धिकस्य प्रयासेन पाटल पुष्पस्य सुगन्धी बहुगुणा संजायते तथैव श्रुतधर गणिनः सकाशात् प्रतिपृच्छया ज्ञानमत्राप्नुवतः मेवाविनः साधोः गुणानि भूरिशो वृद्धिमवाप्य प्रकटाभवन्ति | किन्तु तथैव प्रतिपृच्छया मंदमते अधमनरस्य यत्किचित्कं ज्ञानं तद्वत् दूषितमसुखकरं च भवति यद्वत् बडवायाः पुच्छ आबद्ध पाटल पुष्पं प्रायः मूत्र पूरीषादि संयोगात् दूषितं भवति । विष्णाणं जिणवणं, कयावि न वि दिज्जए अधन्नस्स | धण्णस्स दिज्जए पुणो, सद्दहमाणस्स भावेणं । ७०६ ।
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[ तित्योगाली पइन्नय
२१८ ]
( विज्ञानं जिन वचनं, कदापि नापि दीयते अधन्यस्य । धन्यस्य दीयते पुनः, श्रद्दधानस्य भावेन ।)
जिन वारणी एवं विशिष्ट ज्ञान कभी किसी धन्य अर्थात् हीन अथवा अधम पुरुष को नहीं देना चाहिये । वह केवल आन्तरिक श्रद्धाशील उत्तम पुरुष को ही देना चाहिए ७०६।
अहं आयरियाणं, सुतीए कण्णाहढं वा सोउं । जे तित्थो गालीएयं, एगमणा से निसामेह | ७०७ | (अस्माकं आचार्याणां श्रुत्या कर्णाहृतं वा श्रुत्वा ।
यत् तीर्थोद्गालिकायां, एकमनसा तत् निशामयतः ।
मैंने अपने आचार्यों के मुख से अथवा परम्परागत श्रुति के आधार से तीर्थोंगाली अर्थात् तीर्थों के प्रवाह के सम्बन्ध में सुन कर जो जाना है, उसे तुम एकाग्रचित्त हो सुनो ७०७/
तिणि य वासा मासद्ध अड्ड बाबतरिय सेसाई । सेसाए चउत्थीए, तो जातो वदमाण रिसी । ७०८ | (त्रयश्च वर्षाः मासार्द्धाष्ट द्वासप्ततिश्च शेषाणि । शेषायां चतुर्थ्यां ततः जातो वर्द्धमानर्षिः । )
,
चतुर्थ आरक को समाप्ति में जब पचहत्तर (७५) वर्ष और साढा आठ मास शेष रहे तब महर्षि भगवान् महावीर का जन्म हुआ । ७०८।
अद्ध य सट्ठामासा, निन्न ेव हवन्ति तह य वासाईं । सेसाए चत्थीए, तो कालगतो महावीरो । ७०९ | (अर्द्धश्च साष्टामासाः त्रय एव भवन्ति तथा च वर्षाः । शेषायां चतुर्थ्यां ततः कालगतो महावीरः । )
,
जब चतुर्थ आारक की समाप्ति में तीन वर्ष और साढा आठ मास अवशिष्टं थे, तब भगवान् महावीर मोक्ष पधारे ७०६।
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ २१६
तमि गए य गय रागे, वोच्छिन्न पुणुव्भवे जिणवरिंदे । तित्थोगालि समासं, एगमणा मे निसामेह |७१०। (तस्मिन् गते च गतरागे, व्युच्छिन्नं पुनर्भवे जिनवरेन्द्र ।) तीर्थोद्गालिसमासं एकमना मे निशामयतः ।)
उन वीतराग प्रभु महावीर के निर्वाण तथा आगामी चौवीसी की उत्पत्ति तक तीर्थंकरों को इस क्षेत्र में व्युच्छित्ति के पश्चात् तीर्थ प्रवाह का मैं जो संक्षेपतः कथन कर रहा हूँ, उसे ध्यानपूर्वक सुनो।७१० नाणुत्तमस्स धम्मुत्तमस्स, धंमिल्ल जणोवएसगस्स ! आसि सुधम्मो सीसो, वायरधम्मो य उरधम्मो ७११।। ज्ञानोत्तमस्य सूत्तम संधमितजनोपदेशस्य । आसीत् सुधर्मः शिष्यः, बहिधर्मा च उरधर्मा ।)
. उत्तम ज्ञान और उतम धर्म वाले तथा धर्मरुचि जनों को उपदेश देने वाले उन भगवान महावीर के शिष्य आर्य सुधर्मा थे जिनका. कि बहिरंग और अन्तरंग धर्म के रंग में रंगा हमा था ।७११। तस्स वि य जंबुणामो, जंबुणयरासि तवियसमवण्णो । तस्त वि प्पभवो सीसो, तस्स वि सेज्जंभवो सीसो ।७१२। : (तस्यापि च जंबुनामा, जाम्बुनदराशितप्तसमवर्णः। . तस्यापि प्रभवः शिष्यः, तस्यापि शय्यंभवः शिष्यः ।
आर्य सुधर्मा के शिष्य थे आर्य जम्बू जिनका कि वर्ण तपाई हुई जाम्बुनद स्वर्ण को राशि के समान था। आर्य जम्बू के शिष्य प्रभव और आर्य प्रभव के शिष्य शय्यंभव थे।७१२। सेज्जंभवस्स सीसो, असभदोनाम आसि गुणरासी। सुन्दर कुलप्पसूतो, संभूतो नाम तस्सावि ।७१३। (शय्यं भवस्य शिष्यः, यशोभद्रनामा आसीत् गुणराशिः । सुन्दरकुलप्रसूतः, सम्भूत नामा तस्यापि ।
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२२० ]
[तित्थोगाली पइन्नय
आर्य शय्यंभव के शिष्य का नाम यशोभद्र था। वे गुणों को राशि थे। आर्य यशोभद्र के शिष्य अति यशस्वी कुल में उत्पन्न हुए आर्य संभूत थे ।७१३। सत्तमतो थिरबाहू, जाणु य सीसुपडिच्छय सुबाहू । नामेण भद्दबाहू, अवि हि साधम्म भदोत्ति ७१४। (सप्तमतः स्थिरबाहु, जानु च शीश प्रतिच्छद सुबाहुः । । नाम्ना भद्रबाहुः, अपि हि स्वधर्मभद्र इति ।)
भगवान् महावीर के सातवें पट्टधर आजानु सुन्दर एवं सुदृढ़ भुजाओं वाले भद्रबाहु थे जिनका कि दूसरा नाम स्वधर्मभद्र भी था ।७१४॥ सो पुण चौदस पुची, बारसवासाई जोग पडिवन्नो । सुत्तत्थेण निबंधइ, अत्थं अज्झयण बन्धस्स ।७१५॥ (स पुनः चतुर्दश पूर्वी, द्वादशवर्षान् योगप्रतिपन्नः । सूत्रार्थेन निबध्नाति, अर्थमध्ययनबन्धस्य ।)
वे आचार्य भद्रबाहु चौदह पूर्वो के धारक थे। वे बारह वर्ष तक योग (महा प्राण ध्यान) की साधना में निरत रहे। उन्होंने छेद सूत्रों की रचना की।७१५॥ पलिया च अणावुटठी, तझ्या आसी य मज्झदेसमि । दुभिक्ख विप्पणट्ठा, अण्णं विसयं गता साहू ७१६। (पलिता च अनावृष्टिः, तदा आसीत् मध्यदेशे । दुर्भिक्ष विप्रणष्टाः, अन्य विषयं गताः साधवः ।)
उनके समय में मध्य प्रदेश में अनावृष्टि के कारण भयंकर दुष्काल पड़ा। दुर्भिक्ष में अनेक लोग नष्ट हो गए और साधु गण अन्य प्रदेशों में चले गये ।७१६। कइवि विराहणा भीरूएहिं, अइभीरुएहि कम्माणं । समणेहिं संकिलिट्ठ, पच्चक्खायाई भचाई ७१७)
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तित्योगालो पइन्नय ]
[ २२१
(कत्यपि विराधनाभीरुभिरतिभीरुभिः कर्मणाम् । श्रमणैः संश्लिष्टानि, प्रत्याख्यातानि भक्तानि ।)
अनेक धर्मभीरु साधुओं ने इस डर से कि कहीं उनके विशुद्ध संयम में किसी प्रकार का दोष न लग जाय अथवा कर्मबन्ध न हो जाय, अशनपानादि का प्रत्याख्यान कर अति कठोर आजीवन अनशन का व्रत ग्रहण कर लिया ७१७॥ वेयड़ ढकंदरासु य नदीसु सेढीसमुद्दकूलेसु । इहलोग अपडिबद्धाय, तत्थ जयणाए वदति ।७१८॥ (वैताढ्यकंदरासु च नदीसुश्रोणि समुद्रकुलेषु । इहलोके अप्रतिबद्धाश्च, तत्र यत्नया वर्तन्ते ।) — कतिपय साधु वैताढ्य की कन्दरामों में, कतिपय महा नदियों के तटवर्ती प्रदेशों में, कतिपय साधु पर्वत श्रेणियों की तलहटियों में तथा अनेक साधु समुद्र के तटवर्ती प्रदेशों में चले गये। इस लोक तथा अपने शरीर तक से निस्पृह निलिप्त एवं उदासीन हो उन क्षेत्रों में बड़ी सावधानी और यतना पूर्वक विचरण करने लगे । ७ १८ ते आगया सुकाले, सग्गगमण सेसया ततो साहू । बहुयाणं वासाणं, मगहा विसयं अगुपत्ता ७१९। (ते आगताः सुकाले, स्वर्गगमनावशेषकाः ततः साधवः । बहुभिर्वर्षे, मगध विषयमनुप्राप्ताः ।)
अनेक वर्षों पश्चात् सुकाल होने पर स्वर्गगमन से शेष बचे जो साधु थे वे मगध प्रदेश में पुनः प्राये ।७१६। ते दाई एक्कमेकं, मय सेसा चिरं य दट्टणं । परलोगगमण पच्चागयव्व, मण्णंति अप्पाणं ।७२०। (ते इदानीं एकमेकं, मृतशेषाश्चिराच्च दृष्ट्वा । परलोकगमनप्रत्यागता इव मन्यन्ते आत्मानम् ।)
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२२२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
मृत्यु से बचे हुए शेष साधु सुदीर्घ काल के पश्चात् उस समय एक दूसरे को देख कर यह अनुभव करने लगे मानो वे परलोक में जा कर पुनः जीवित हो लौटे हों । ७२० ।
ते बिंति एक्मेक्कं, सज्झाउ कस्स कित्तउ धरति ।
1
हंदि हु दुक्कालेणं, अम्हं नट्ठो हु सज्झातो । ७२१ ।
( ते वन्ति एकमेकं स्वाध्यायः कस्य कियान् धरति । ब्रु
हंत ! इह तु दुष्कालेन, अस्माकं नष्टो हि स्वाध्यायः ।)
वे परस्पर एक दूसरे से पूछते हैं कि किस किस को कितनाकितना आगम पाठ कण्ठस्थ हैं । हा ! दुष्काल के कारण हमें तो स्वाध्याय-अर्थात् आगम-पाठ विस्मृत हो गया है । ७२१।
जं जस्स धरइ कंठे, तं तं परि यट्टिऊण सव्वेसिं । तीणेहिं पिंडिताई, तहियं एक्कार संगाई | ७२२ | ( यद् यस्य धरति कण्ठे, तचत् परावर्तयित्वा सर्वेषाम् । तैः पण्डितानि, तत्र एकादशांगानि ।)
जिस जिस साधु को जितना जितना पाठ कण्ठस्थ था, उस उस पाठ को सुन कर सब के आगम पाठों का परावर्तन किया गया और इस प्रकार उन्होंने (ज्ञान स्थविरों ने) वहां ग्यारह अंगों का पाठ यथावत् क्रमबद्ध, सुनिश्चित, सुव्यवस्थित कर प्रत्येक अंग को पूर्णतः एकत्रित किया | २२
ते विंति सव्च सारस्स, दिठिवास्स नत्थि पडिसारे ।
कह पुव्वगण विणा य, पत्रयणं सारं घरेहामो । ७२३ । ( ते वन्ति सर्वसारस्य, दृष्टिवादस्य नास्ति प्रतिसार [प्रतिस्मारः ] कथं पूर्वगतेन विना च, प्रवचनसारं धरिष्यामः ।)
एकादशांगी को सुव्यवस्थित करने के पश्चात् वे श्रमण कहते हैं - " सम्पूर्ण ज्ञान का सारभूत दृष्टिवाद तो किसी को स्मरण नहीं है । पूर्वगत ज्ञान के बिना हम सब प्रवचन के सार को किस प्रकार धारण कर सकेंगे ? ।७२३।
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तित्योगाली पइन्नय ]
[ २२३
समणस्स (सम्मस्स) भदबाहुस्स, नवरि चौदसवि अपरिसेसाई । पुवाई अण्णत्थय उ, न कहिंचिवि अस्थि पडिसारो ।७२४।। (श्रमणस्य भद्रबाहोः, नवरं चतुर्दशापि अपरिशेषाः । पूर्वाणि अन्यत्रं च तु, न कुत्रचिदपि अस्ति प्रतिसारः ।)
समभावनिष्ठ भद्रबाहु को सम्पूर्ण चौदह पूर्षों का ज्ञान हृदयंगम एवं कण्ठस्थ है। अन्यत्र कहीं किसी को स्मृति में पूर्वो का ज्ञान नहीं है ।७२४। सो विय चोइस पुब्बी, बारसवासाई जोग पडिवन्नो । दिज्ज न वि दिज्ज वा, वायणं ति वाहिप्पउ ताव ७२५। (सोऽपिच चतुर्दशपूर्वी, द्वादशवर्षान् योगप्रतिपन्नः । दद्यात् न वा दद्यात् वा, वाचनामिति व्यजिगिप्यतु तावत् ।
किन्तु वे चतुर्दशे पूर्वधर भद्रबाहु बारह वर्ष की योग साधना में संलग्न हैं। ऐसी स्थिति में वे पर्वगत की वाचना दें या न दें-इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तथापि उन्हें विज्ञप्त तो कर ही देना चाहिए ।७२५।। संघाडएण गंतूणं, आणत्तो समणसंघवयणेणं । सो संघथेरपमुहेहि, गणसमूहेहिं आभट्ठो ।७२६। (संघाटकेन गत्वा, आज्ञप्तः श्रमणसंघवचनेन । स संघस्थविरप्रमुखैः, गण समूहैरापृष्टः ।)
साधुओं के एक संघाटक ने भद्रबाहु के पास पहुंच कर उन्हें श्रमण संघ के वचनों में ही प्राज्ञप्त किया। गण समूहों के अग्रणी संघ स्थविरों ने भद्रबाहु से कहा--१७२६। तं अज्जकालिय यिणवरसंघो तं जायए सव्यो। पुब्बसुयकम्पधारय ! पुव्वाणं वायणं देहि ।७२७। (तद् अयकालिकः जिनवरसंघः त्वं याचते सर्वः । पूर्व श्रु तक्रमधारक ! पूर्वाणां वाचनां देहि ।)
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२२४ ]
[तित्योगाली पइन्नय
"पूर्वश्रु तक्रमधर ! भगवान् महावीर का वर्तमानकालिक समस्त संघ आपसे प्रार्थना करता है-याचना करता है कि आप पूर्वो को वाचना दें' ७२७१ सो भणति एव भणिए, अतिड्ढ किलिट्ठएण वायणाणं । न हु ता अहं समत्थो, इण्हि मे वायणं दाउं १७२८। (स भणति एवं भणिते, अतिऋद्ध-क्लिष्टत्वात् वाचनानाम् । न खलु तावदह समर्थः, एताषां भो वाचनां दातुम् ।
संघाटक के इस कथन को सुन कर भद्रबाह ने कहा-"पूर्वो की वाचनाएं गहन-गम्भीर, गूढार्थपूर्ण और नितान्त क्लिष्ट हैं अतः मैं इनकी वाचनाएं देने में समर्थ नहीं हूँ ।७२८। अप्प? आउत्तस्स, मज्झ किं वायणाए कायव्यं । एवं च भणियमेत्ता, रोसस्सवसं गया साहू ७२९। (आत्मार्थे आयुक्तस्य, मम किं वाचनया कर्त्तव्यम् (करणीयम्) । एवं च भणितमात्रा, रोषस्यवशं गताः साधवः ।)
आत्मकल्याण में संलग्न मुझे वाचनाओं से क्या करना है। भद्रबाह इतना ही कह पाये थे कि संघातक के साधु. रोष के वशीभूत हो गये ।७२६। अह विण्णविंति साहू, हंतेवं पसिणपुच्छणं अम्हं । एवं भणंतस्स तुहं, को दंडो होइ तं भणसु ७३०। (अथ विज्ञपयन्ति साधवः, हंत ! एवं प्रश्न पृच्छनमस्माकम् । एवं भणतस्य तव, को दंडः भवति तद् भण |)
तदनन्तर वे साधु भद्रबाहु को विज्ञप्त करते हुए कहते हैं-- "हमें दुःख के साथ आप से एक प्रश्न पूछना पड़ रहा है कि इस प्रकार को बात कहते हए आप किस दण्ड के भागी होते हैं ? आप हमें यह बता दीजिये ।७३०।। सो भणति एव भणिए, अविसनो वीरवयणे नियमेण । वज्जेयव्यो सुयनिण्हवोचि, अह सव्व साहूहिं ।७३१।
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तित्थोगाजी पइन्नय ]
( स भणति एवं भणिते, अविषण्णः वीरवचननियमेन । वर्जयितव्यः श्रतनिन्हव इति अथ सर्व साधुभिः । )
साधु संघाटक के इस कथन पर भद्रबाहु ने प्रभु महावीर के वचनों के नियमानुसार सहज स्वर में कहा - "सब साधुओं द्वारा ऐसे तनिव का परित्याग कर दिया जाना चाहिए । ७३१ । तं एवं जाणमाणो, नेच्छसि से पाडिपुत्रयं दाउ | तं ठाणं पसंते, कहे तं पासे ठवेहामी १ । ७३२/ (तदेवं जान्यमानः, न इच्छसि नः प्रतिपृच्छां दातुम् । तत्स्थानं प्राप्तं तव कथं तत् पार्श्वे स्थास्यामः । ) --' आप यह सब कुछ जानते
1
।
[ २२५
संघाटक के साधुओं ने कहाहुए भी प्रतिपृच्छा -- -- वाचना देना नहीं चाहते ? आप (आप द्वारा बताये गये) उस ( त्याज्य निह्नव के) स्थान को हम आपको अपने साथ अथवा अपने हैं । ७३२।
प्राप्त हो चुके हैं। अब पास कैसे रख सकते
बारसविह संभोगे, वज्जए ते समं समण संघो । जन्ने जाइतो, न वि इच्छसि वायणं दाउ | ७३३। (द्वादशविधसंभोगान् वर्जयते तव समं श्रमण संघः । यद् ने' याच्यमानः नापि इच्छसि वाचनां दातुम् ।)
आप प्रार्थना की जाने पर भी वाचना देना नहीं चाहते अतः श्रमण संघ आपके साथ बारह प्रकार के संभोगों का विच्छेद करता है । ७३३|
सो भणति एवं भणिय जसमरितो अवसभीरुतो धीरो । एक्केण कारणं, इच्छं मे वायणं दाउ | ७३४ । (स भणति एवं भणिते, यशभूतः अयशभीरुकः धीरः । एकेन कारणेन, इच्छामि भवतां वाचनां दातुम् ।)
१ नः श्रस्माभिरित्यर्थः ।
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२२६ ]
। तिस्थोगाली पइन्नय श्रमण संघाटक के इस कथन पर अपयशभीरु, यशस्वी एवं धैर्यशाली भद्रबाहु ने कहा--- "मैं एक स्थिति में अर्थात् एक शर्त पर वाचना देना चाहता हूं--७३४।। अप्प? आउत्तो, परमट्ठ सुट्ट दाणि उज्जुत्तो । न विं हं वाहरियव्यो, अहं पि न विवाहरिस्सामि १७३५। (आत्मार्थे आयुक्तः, परमार्थे सुष्ठु इदानी उद्युक्तः । नाप्यहं व्याहर्त्तव्यः अहमपि न विव्याहरिष्यामि ।)
आत्मकल्याण में संलग्न तथा परमार्थ में इस समय अच्छी तरह उद्यत मुझे न तो कोई अन्य कुछ कहे और न मैं ही किसी को । कुछ कहूंगा।७३५॥ पारिय काउसग्गो, भट्टितो व अहव सज्झाए । नितो व आइंतो वा, एवं भे वायणं दाहं ७३६। (पारित कायोत्सर्गः, भक्तास्थितो वाथवा स्वाध्याये (शय्यायाम्) । गच्छन वा आगच्छन् वा एवं भवतां वाचनां दास्यामि ।)
कायोत्सर्ग के पारण के पश्चात् भोजनार्थ बैठा हुआ, अथवा स्वाध्याय में निरत, कहीं जाता हुआ अथवा कहीं पाता हुआ-- मैं वाचनाएं दूंगा ।७३६।। बाढं चि समणसंघो, अम्हे अणुमत्तिमो तुहं छंदं । देहि य धम्मो वाहं, तुम्हं छदेण हिच्चामो ।७३७। (वाढं ! इति श्रमणसंघः, वयमनुमन्यामहे तव छंदम् । देहि य धर्मे वाहं त्वां छन्देन जहिमः ।
___ श्रमण संघ के प्रतिनिधि संघाटक ने कहा-- 'बिल्कुल ठीक है, हम आपके इस छंद (शर्त) को स्वीकार करते हैं। आप धर्म को प्रवाह दीजिये अर्थात् वाचनाएं दीजिये । हम आपको सब प्रकार के छंद (शर्त) से मुक्त करते हैं ।७३७।
२ सेज्जाए-(शय्यायां) इति पाठान्तरमप्युपलभ्यते ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
जे आसी मेहावी, उज्जुत्ता गहण धारण समत्था | ताणं पंचसयाई, सिक्खगसाहण गहियाई | ७३८ | (ये आसन मेधाविनः उक्ताः, ग्रहणधारणसमर्थाः । तेषां पञ्चशतानि शैक्षक साधूनां गृहीतानि ।
;
1
जो पूर्वगत ज्ञान को ग्रहण एवं धारण करने में समर्थ तथा पूर्वों का अभ्यास करने के लिये लालायित थे ऐसे ५०० मेधावी शिक्षार्थी श्रमणों को पूर्वों के ज्ञान की वाचना ग्रहण करने के लिये चुना गया । ७३८ ।
यावच्चगरा से एक्केrकस्सुवटुव्विया दो दो ।.
भिक्खमि अपविद्धा, दिया य रतिं च सिक्खति । ७३९|
वैयावृत्यकरास्तेषां एकैकस्य उपस्थापिता द्वौ द्वौ ।
भिक्षायाम प्रतिबद्धाः दिवा च रात्रं च शिक्षन्ते ।)
4
[ २२७
उन ५० श्रमणों में से प्रत्येक की वैयावृत्य अर्थात् सेवा के लिये दो-दो श्रमणों को नियुक्त किया गया । भिक्षाटन आदि कार्यो विनिर्मुक्त ५०० शिक्षार्थी साधु रात और दिन पूर्वो का ज्ञान सीखने लगे ७३६०
ते एग, संघ साहू, वायण परिपृच्छणाए परितंता । वाहारं अलहंता, तत्थ य जं किंचि अमुणन्ता |७४० ते एकसंधाः साधवः, वाचन परिपृच्छनया परित्रान्ताः । व्याहारं अलभमानाः, तत्र च यत्किंचित् अमुणन्तः । )
एक जुट्ट अथवा एक ही संघ के शिक्षार्थी साधु वाचना तथा परिपृच्छा अर्थात् बार-बार की पूछताछ से हतप्रभ हो एवं गहनगंभीर पूर्वगत ज्ञान की यथेप्सित विस्तृत व्याख्या प्राप्त होने की दशा में पूरी तरह उसे न समझ पाने कारण - १८४०|
उज्जुत्ता मेहावी, सिट्ठा उ वायणं अलभमाणा | अह ते थोवा थोवा, सव्वे समणा विनिस्सरिया । ७४१ ।
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२२८ ]
[ तित्थोगालो पइन्नय
(उद्युक्ताः मेधाविनः, अवशिष्टास्तु वाचनां अलभमानाः । अथ ते स्तोकाः स्तोकाः, सर्वे श्रमणाः विनिस्सृताः ।)
शिक्षा ग्रहण करने के लिये समुद्यत शेष मेधावी शिक्षार्थी साधु यथेप्सित वाचनाओं के न मिलने के कारण वहां से थोड़ी संख्या में निकलने लगे। इस प्रकार सभी शिक्षार्थी श्रमण नेपाल छोड़ कर निकल आये ।७४। एको नवरि न मुचति, सकडाल कुलस्स जसकरो धीरो । नामेण थूलभद्दो, अविहिंसा-धम्मभद्दो त्ति ।७४२। (एको नवरं न मुचति, सकडाल कुलस्य यशकरः धीरो । नाम्ना स्थूलभद्र, अविहिंसा-धर्मभद्रः इति ।)
__ केवल एक--शकडाल कुल का यश बढ़ाने वाले धीर अहिंसा रूपी आत्म धर्म में जागरूक स्थूलभद्र नामक साधु व तकेवली भद्रबाहु के सान्निध्य को नहीं छोड़ता है अर्थात् पूर्वगत की वाचनाएं ग्रहण करता रहता है ।७४२। सो नवरि अपरितंतो, पयमद्धपयं च तत्थ सिक्खंतो। ' अन्तेइ भदबाहु, थिरवाहु अट्ठवरिसाई ७४३। स नवरं अपरित्रान्तः, पदमर्द्ध पदं च तत्र शैक्ष्यन् । अन्ते एति [अन्तेवसति] भद्रबाहु, स्थिरबाहु अष्ट-वर्षाणि )
बिना किसी प्रकार की निराशा एवं संताप के वह बड़े ौर्य के साथ प्रतिदिन एक पद अथवा आधा पद सीखता हुअा दृढ़ बाहुओं वालो भद्रबाहु को सेवा में पाठ (८) वर्षों तक रहता है ।७४३। सुन्दर अट्ठपयाई, अट्टहिं वासेहिं अट्ठमं पुव्वं । भिंदति अभिण्णहियतो, आमेले उ अह पवत्तो । ७४४। (सुन्दरार्थपदानि, अष्टभिर्वरैरष्टमं पूर्वम् । भिनत्ति अभिन्नहृदये, आमेलयितुमथप्रवृत्तः ।)
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तिरयोगाली पद्मन्त्रय ]
{ २२६
स्थूलभद्र एकाग्रचित्त हो पूर्वगत के सुन्दर गूढार्थं भरे गहनगम्भीर अर्थ पदों एवं आठ वर्षों में आठवें पूर्व का अवगाहन करता हुआ उन्हें हृदयंगम करने में प्रवृत्त रहा । ७४४
तस्स विदाई समतो, तवनियमो एव भद्दबाहुस्स ।
सो पारित तवनियमो वाहरिउ जे अह पवतो । ७४५ ।
1
( तस्यापि इदानीं समाप्तः, तपनियम एवं भद्रबाहोः । स पारित -तपनियमः व्याहतु यत् अथ प्रवृत्तः । *
उधर अब भद्रबाहु का भी तप-नियम सम्पन्न हुआ । तपनियम को पारित कर भद्रबाह, अपने शिक्षार्थी शिष्य स्थूलभद्र को पूर्वो की अधिकाधिक वाचनाएँ देने में प्रवृत्त हुए । ७४५ । ( ७४६ की संख्या लिपिक ने छोड़ दी है)
अह भइ भदवाहू, पढमं ता अटूमस्स वासस्स । अणगार न हु किलिस्सासि, भिक्खे सज्झाय-जोगे य । ७४७ | (अथ भणति भद्रबाहू, प्रथमं तावत् अष्टमस्य वर्षस्य |
अनगार' ! न खलु क्लिष्यसि भिक्षायां स्वाध्याय - योगे च ।)
1
आचार्य भद्रबाहु आठवें वर्ष के प्रारम्भ में शिष्य से पूछते हैं -- " अनगार ! तुम्हें भिक्षा एवं स्वाध्याय के योग में किसी प्रकार का कष्ट तो नहीं हो रहा है ? ७४७
सो अस्स वासस्स, तेण पढमिल्लुयं समापट्टो |
कीस य परि मीहं, धम्मावार अहिज्जतो । ७४८।
1
,
( अष्टमस्य वर्षस्य तेन प्रथमिल्ले समापृष्टः । कीदृशं च पलितं मह्यं धर्मवादान् अधीयानस्य ।)
,
आठवें वर्ष के प्रारम्भ में भद्रबाहु द्वारा पूछे गये उक्त प्रश्न के उत्तर में स्थूलभद्र ने कहा--- "भगवन् ! धर्मवाद का अध्ययन करते
* उपलब्ध प्रती ७४६ तमा संख्या लिखितैव नास्ति ।
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२३० ]
। तित्थोगाली पइन्नय
समय मुझे किसी भी प्रकार का कष्ट कैसे हो सकता है. अर्थात् मुझे किसी प्रकार का कष्ट नहीं है ।७४। एक्कं तो में पुच्छं, केत्तियमे मि सिक्खतो होज्जा । कत्तियमेत्तं च गयं, अट्टहिं वासेहिं ता कि लद्धं ७४९। (एकं तु भवन्तं पृच्छामि, कियन्मात्र मया शिक्षितं भवेत् । कियन्मानं च गतं, अष्टभिर्व स्तावत् किं लब्धम् ।) .
हाँ, मैं एक बात आपसे जानना चाहता हूँ कि मुझे कुल कितना सीखना था, उसमें से कितना मोख चूका है...इन (विगत) आठ वर्षों में मैंने क्या (कितना) प्राप्त कर लिया है ? ७४६। मंदर गिरिस्स पासंमि, सरिसवं निक्खिवैज्ज जो पुरिसो । सरिसव मेत्तं ति गर्य, मंदरमेत्तं च ते सेसं .७५०। . (मन्दरगिरेः पार्वे, सर्ष निक्षिपेत यः पुरुषः । । सर्षपमात्रं ते गतं, मंदरमितं च ते शेषम् ।)
गिरिराज मन्दराचल के पार्श्व में कोई पुरुष सरसों का एक दाना रख दे और फिर तुम्हारे द्वारा सीखे हुए ज्ञान और अब सीखने के लिये अवशिष्ट रहे ज्ञान को तुलना की जाय तो वस्तुतः मन्दराचल के पार्श्व में पड़ सरसों के एक दाने जितना ज्ञान तुमने सीखा है तथा मंदराचल जितना ज्ञान सीखने के लिये अवशिष्ट रहा है ।७५०। सो भणइ एवं भणिए, भीतो व वि ताअहं समत्थोमि | अप्पं च मई आउ, बहुसुय मन्दरो सेसो ।७५१। (स भणति एवं भणिते, भीतो नापि तावदहं समर्थोऽस्मि | अल्पं च मम आयुः, बहुश्रु तमन्दरः शेषः ।)
भद्रबाह के इस कथन को सुन कर श्रमगा स्थलभद्र ने भय विह्वल स्वर में कहा---"तो मैं तो इसे सीखने में समर्थ नहीं हूँ क्योंकि आयु तो मेरी थोड़ी है और श्रुत शास्त्र का इतना सुविशाल मन्दराचल तुल्य भाग सीखना शेष है" ।७५१॥
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तित्योगाली पइन्नव
[ २३१
मा भाहि निट्ठविहिसि, अप्पतरेण वीर कालेण । मझ नियमो समत्तो, पुच्छाहि दिवा य रत्तं च ७५२ . (मा भैसिः निष्ठापयिष्यसि, अल्पतरेण वीर ! कालेन । मम नियमः समाप्तः, पच्छ दिवा च रात्रिं च I)
___स्थूलभद्र को आश्वस्त करते दुए भद्रबाहु ने कहा--"वीर ! डरो नहीं। तुम थोड़े से ही समय में इसे समाप्त कर दोगे। मेरा नियम समाप्त हो गया है । अतः अब तुम रात दिन पृच्छाए करते हुए पूर्वो का अध्ययन करो' ७५२। सो सिक्खि पयत्तो, दद्वत्थो सुट्ठ दिद्विवायंमि ।) पुचक्खतोव समियं,' पुबगतं पुत्र-निदिट्ठ।७५३। (स शिक्षितु प्रवृत्तः, दृष्टार्थः सुष्ठु दृष्टिवादे । पूर्वक्षयोपशनिक, पूर्वगतं पूर्व निर्दिष्टम् ।) ___ इस से प्रोत्साहित हो दृष्टिवाद में समीचीनतया सार देख कर मुनि स्थूलभद्र पूर्व क्षयोपशम के फलस्वरूप पूर्व निर्दिष्ट पूर्वगत को सीखने में और अधिक प्रयत्नशील हुए ।७५३। संपति एक्कारसमं पुव्वं अनिवयति वणगओ चेव । जति तओ भगिणीतो. सुट्ठमणा वंदण निमित्तं ७५४। (संप्रति एकादशमं पूर्व , अतिवदति वनगतश्चैत्र । यान्ति ततः भगिन्यः, सुष्टुमनसः वन्दननिमित्वम् ।)
अब स्थलभद्र एकान्त वन में बैठ कर ग्यारहवें अंग का पाठ याद करने लगे। उस समय उनकी बहिनें हर्ष के साथ उन्हें वन्दन करने गई।७५४। जक्खा य जक्खदिन्ना, भूया तह हवति भूयदिनाय । सेणा वेणा रेणा, भगिणीतो थूलभदस्स ।७५५
१ पूवक्खयोवस मिगं'- इत्यपि संभाव्यते ।
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२३२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(यक्षा च यक्षदिन्ना, भूना तथा भवति भृतदिना च । सेना वेना रेना, भगिन्यः स्थूलभद्रस्य ।)
यक्षा, यक्षदिन्ना, भूता, भूतदिन्ना, सेरणा, वेणा और रेणा-.. ये स्थलभद्र की सात बहिनें थीं।७५५।
एया सत्तजणीओ, बहुस्सुया नाणचरणसंपन्ना । . . सगडालबालियातो, भाउ अवलोइङ एंति ७५६। (एताः सप्तजनाः बहुश्रु ताः ज्ञानचरणसम्पन्नाः । शकटालबालिकाः भ्रातरमवलोकितु आयान्ति ।)
ज्ञान और चरण अर्थात् क्रिया से सम्पन्ना तथा बहुश्रुता ये शकडाल की सातों पुत्रियां अपने भाई स्थूलभद्र को देखने के लिये उद्यान में पहुंचती हैं १७५६।
ता वंदिऊण पाएसु, महबाहुस्स दीहबाहुस्स । पुच्छंति य भाउ णे, कत्थगओ थूलभदोत्ति ।७५७. (ताः वन्दित्वा पादयोः, भद्रबाहोः दीर्घबाहोः । . पृच्छन्ति च भ्राता नः, कुत्र गतः स्थूलभद्र इति ।)
वे सातों साध्वियां प्रलम्बभुज भद्रबाहु के चरणों में नमन कर उनसे पूछती हैं..."भगवन् ! हमारे भ्राता स्थूलभद्र कहां गये हैं ?" १७५७। अइ भणइ भद्रबाहू, सो परियति शिवघरे' अंतो । वच्चह तहिं विदच्छिह, सज्झायज्झाण उज्जुत्तं १७५८। (अथ भणति भद्रबाहुः, स परिवर्तयति शिवगृह अन्तः । व्रजत तत्र विद्रक्ष्यथ, स्वाध्यायध्यान उद्युक्तम् ।)
१ शिवघरे-- शून्यमृहे-इत्यर्थः ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ २३३
उत्तर में भद्रबाहु कहते हैं--"वह शिवगृह-शून्य घर के अन्दर अपने पाठ का परावर्तन कर रहा है। आप वहां जाइये। वहीं आप उसे स्वाध्याय-ध्यान में निरत देखेंगी" ।७५८। इयरो वि य भयणीओ, दट्टण तत्थ थूलभदरिसी । चिंतेइ गारवयाए, सुयइदि ताव दाहेमि |७५९। (इतरोऽपि च भगिन्यः, दृष्ट्वा तत्र स्थलभद्रर्षिः । चिन्तयति गारवतया, श्रुतर्द्धि तावत् दर्शयामि ।)
ऋषि स्थूलभद्र ने वहां (प्राती हुई) अपनी बहिनों को देख कर गर्व के साथ उन्हें अपनी श्र तऋद्धि का चमत्कार दिखाने का विचार किया ।७५६। • सोधवल वेसभमेचो, जातो विक्किण्ण केसर जडालो ।
पुण्णसुक्क ससि सरिच्छो, कुंजरकुलभीसणो सीहो ।७६०। (स धवलवृषभ मात्रः जातो विकीर्ण केसर जटालः। पूर्ण शुक्ल शशि सदृशः, कुञ्जरकुल भीषणः सिंहः ।)
____ स्थूलभद्र ने अपनी विद्या के बल से बिखरी हुई जटाजूट केसर वाले श्वेत वृषभ तुल्य, शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा के चन्द्र के समान प्रकाशपूर्ण और हाथियों के कुछ के लिये भयोत्पादक सिंह का रूप धारण कर लिया ७६०। तं सीहं दट्टणं, भीयाउ शिवघरा विनिस्सरिया । भणितो य ताहि गुरु, एत्थ हु सीहो अतिगतो चि ७६१। (तं सिंहं दृष्ट्वा, भीताः शिवगृहात् विनिस्सृताः । भणितश्च ताभिगुरु, अत्र खलु सिंहोऽतिगत इति ।)
उस सिंह को देख कर वे सातो बहिनें डरी और उस शून्य घर से बाहर निकल गई। उन्होंने भद्रबाहु के पास जाकर कहा कि वहां तो सिंह है ।७६१। नत्थीत्थ को वि सीहो, सो चेव य एस भाउओतुब्भं । इड्ढी पत्तो जातो, सुयस्स इडिं पयंसेइ ।७६२।
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२३४ ]
[ तित्थोगालो पइन्नय
(नास्त्यत्र कोऽपि सिंहः, स चैव चैषः भ्रातृकः युष्माकम् । ऋद्धिपात्रो जातः, श्रुतस्य ऋद्धिं प्रदर्शयति ।)
भद्रबाहु ने कहा---''यहां कोई सिंह नहीं है, वह तुम्हारा भाई ही है । वह ऋद्धियों का पात्र अर्थात् ऋद्धि घर बन गया है और श्रु तऋद्धि का प्रदर्शन कर रहा है ।७६२। तं वयणं सोऊणं, तातो अंचियतणुरुहसरीरा। संपत्तिया उ तत्तो, जत्तो सो थूलभदरिसी।७६३। (तद् वचनं श्रुत्वा, तास्तु अंचिततनुरुहशरीराः । सम्प्राप्तास्ततः यत्र स स्थूलभद्र ऋषिः ।)
भद्रबाहु के वचन सुनते ही हर्षवशात् रोमांचित हुई वे सातों साध्वियां उस स्थान पर पहुंची जहां स्थूलभद्र ऋषि थे ।७६३। जह सागरोव्व उव्वल मतिगतो पडिगतो सयं ठाणं । स पलियंक निसन्नो, धम्मझाणं पुणो झाइ ७६४। (यथा सागरो वा उद्वल मतिगतः प्रतिगतः स्वकं स्थानम् । स पर्यकनिषण्णः, धमध्यानं पुनः ध्याति ।)
उद्वलित समुद्र जिस प्रकार उद्वेलन के पश्चात् पुनः अपने स्थान पर चला जाता है ठीक उसी प्रकार स्थूलभद्र भी सिंह के रूप से पूनः निज स्वरूप में आकर पर्यकासन से बैठ कर पुनः धर्म ध्यान में संलग्न हुए ।७६४। दुपुटुमहुकंठ, सो परियट्टोइ ताव पाढमयं । भणियं च ताहि भाउम, सीहं ठूण ते भीया ।७६५। (द्र त पुष्ट मधुरकण्ठेन स परावर्तयति तावत्पाठमयम् । भणितं च ताभित्रक ! सिंह दृष्ट्वा तव भीताः )
वे मधुर स्वर में द्रत गति से अपने पाठ का परावर्तन करने लगे। बहिनों ने कहा...' भैय्या! हम तो आपके सिंह को देख कर डर गई थीं।७६५॥
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तित्थोगाली पइन्नय ].
[ २३५
सो वि य पागडदंत, दक्खिय सियकमल सप्पहं हसिउं । भणइय गारवयाए, सुय इड्ढी दरिसीया य मए ७६६। (सोऽपि च प्रकटदन्तं, द्रक्ष्य सितकमल सप्रभ हसित्वा । भणति च गारवतया, श्रु तद्धिः दर्शिता च मया ।)
स्थूल भद्र ने हंस कर श्वेत कमल के समान प्रभा वाले अपने दांतों को दिखाते हुए गर्व के साथ कहा ..' वह तो मैंने श्रु त ऋद्धि प्रदर्शित की थी ७६६। तं वयणं सोऊणं, तातो अंचिय तणरुहसरीरा। पुच्छंति पंजलिय उडा, वागरणत्थे सुणिऊणत्थे ।७६७। (तद्वचनं श्रुत्वा. तास्तु अंचिततनूरुहशरीराः । पृच्छन्ति प्राञ्जलिक पुटाः व्याकरणार्थान् सुनिपुणार्थान् ।) ... अपने भाई के वचनों को सुन कर हर्षातिरेक से उनके शरीर के रोंगटे खड़े हो गए। तदनन्तर वे सातों साध्वियां हाथ जोड़ कर स्थूलभद्र से व्याकरण (प्रश्न व्याकरण सूत्र) के अति सुन्दर गूढार्थ पूछने लगीं ।७६७ इयरोविय भगिणीओ, विसज्जिउण थूलेभद्द रिसी । उचियंमि देसकाले, सज्झायमुवट्ठिओ काउं।७६८। (इतरोऽपि च भगिन्यः, विसर्जयित्वा स्थूलभद्र ऋषिः । उचिते देशकाले, स्वाध्यायमुपस्थितः कर्तुम् ।)
. तदनन्तर स्थूलभद्र ऋषि अपनी बहिनों को विदा कर समुचित समय पर वाचना ग्रहण करने भद्रबहु की सेवा में उपस्थित हुए।७६८। अह भणइ भद्दबाहु, अणगार अलाहि एत्तियं तुब्भं । . परियट्टतो अच्छसु, एचियमेत्तं वियत् भे १७६९। (अथ भणति भद्रबाहू, अनगार ! अलं हि इयत् तुभ्यम् । परावर्तयम् आस्व, इयत् मानं व्यक्त भो ।)
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२३६ ']
[ तित्थोगालो पइन्नय
स्थूलभद्र को वाचना लेने हेतु उपस्थित देख भद्रबाहु ने कहा"अणगार ! तुम्हारे लिये इतना पूर्वज्ञान ही पर्याप्त है। अब इन्हीं का परावर्तन करते हुए और स्पष्टतः इन्हें हृदयंगम करते रहो"।७६६। अह भणइ थूलभद्दो, पच्छायावेण ताविय सरीरो । इड्ढीगारवयाए, सुयविसयं जेण अवरद्ध ७७०। (अथ भणति स्थूलभद्रः, पश्चाचापेन तापित शरीरः । ऋद्धिगारवतया, श्रुतविषयं येन अपराद्ध ।) ___ऋद्धि के गर्व के वशीभूत हो जिन्होंने श्रुत विषयक अपराध किया था, उन स्थूल भद्र का शरीर (तन-मन) पश्चात्ताप की अग्नि में जलने लगा। उन्होंने भद्रबाहु की सेवा में निवेदन किया--७७०। न वि ताव मज्झ मणु, जह मे ण समाणियाई पुव्वाई। . अप्पा हु मए अवराहितो ति, पलियं खु मे मणु ७७१। (नापि तावत् मह्यं मन्युः, यथा मया न समानितानि पूर्वाणि । आत्मा खलु मया अपराद्ध इति, पलितं खलु मे मन्युः ।) ___ मुझे इस बात का उतना दुःख नहीं है कि मैंने सम्पूर्ण पूर्वो का ज्ञान प्राप्त नहीं कि किन्तु मुझे इस बात का घोर दुःख है कि मैंने अपनी आत्मा के साथ अपराध किया है ७७१। . एतेहिं नासियव्वं, मए विणा विजह सासणे भणियं । जं पुण मे अवरद्धं, एयं पुण डहति सव्वंगं ।७७२। (एतैः नाशितव्यं, मया विनापि, यथा शासने भणितम् । यत् पुनः मया अपराद्ध एतत् पुनर्दहति सर्वाङ्गम् ।)
__ जैसा कि जिनशासन में कहा गया है, मेरे बिना भी इनका नाश अवश्यंभावी है। पर जो मैंने अपराध किया है, वह मेरे अंग प्रत्यंग को जला रहा हैं ७७२। वोच्छंति य मयहरगा, अणागया जे य संपतिकाले । गारविय थूलभदम्मि, नाम नट्ठाई पुव्वाइं ।७७३।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[२३७
(वक्ष्यन्ति च महत्तरका, अनागताः ये च सम्प्रति काले । गारविक स्थूलभद्र', नाम नष्टानि पूर्वाणि ।)
भविष्यत् काल और वर्तमान काल के महत्तर (प्राचार्य आदि) यही कहेंगे गर्वीले स्थूलभद्र में (चार) पूर्व नष्ट हुए ।७७३। अह विण्णविति साहू, सगच्छया करिय अंजलिं सीसे । भदस्स ता पसीयह, इमस्स एक्कावराहस्स [७७४। (अथ विज्ञपयन्ति साधवः, स्वगच्छकाः कृत्वा अंजलिं शीर्षे । भद्रस्य तावत् प्रसीद, अस्य एकापराधस्य ।)
उस गच्छ के साधु साञ्जलि शीश झुका कर भद्रबाह से प्रार्थना करते हैं-'स्थूलभद्र के एक मात्र इस अपराध को क्षमा कर उस पर आप प्रसन्न हों।७७४। रागेण व दोसेण व, जं च पमाएण किंचि अवरद्ध । तं भेस उत्तरगुणं, अवुणकारं खमावेति ।७७५। (रागेण वा दोषेण वा, यच्च प्रमादेन किंचिदपराद्धम् । तत् भवतां स उत्तरगुणं, अपुनःकारं क्षमापयति ।)
रागवश, दोषवश अथवा प्रमादवश हो स्थूलभद्र ने जो भी अपराध किया है, श्रमणत्व के उत्तरगुण के उस अपराध की-फिर कभी इस प्रकार का अपराध नहीं करेगा- इस प्रतिज्ञा के साथ क्षमा मांगता है ।७७५॥ अह सुरकरिकर उवमाणबाहुणा भद्दबाहुणा भणियं । मा गच्छह निव्वेतं, कारणमेगं निसामेह ।७७६। अथ सुरकरि-करोपमान-बाहुना भद्रबाहुना भाणितम् । मा गच्छत निर्वेदं , कारणमेकं निशामयत ।)
__ अपने गच्छ के साधुनों की प्रार्थना सुन कर एरावत की सूड के समान बाहु युगल वाले भद्रबाहु ने कहा--"आप लोग दुःखित न हों। आगे के पूर्वो की वाचना न देने के पीछे एक कारण है, उसे आप सुनिये ।७७६।
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[ तित्योमाली पत्रक
२३८ ]
रायकुल सरिसभूते, सगडाल कुलम्मि एस संभूतो । गेह गओ चैत्र पुणो, निण्हातो सव्च सत्थेसु । ७७७ | (राजकुल सदृश भूते, शकटालकुले एषः सम्भूतः । गेह गतश्चैव पुनः, निष्णातः सर्वशास्त्रेषु 1 )
राजकुल के समान महान् शकडाल कुल में इसका ( स्थूलभद्र का) जन्म हुआ है। गृहस्थावस्था में ही यह सब शास्त्रों में निष्णात हो गया था । ७७७ |
कोसा नामं गणिया, समिद्धकोसा य विउल कोसा य । जीए घरे उवडो, (उचरिट्ठो) रति संविसेसम्म वेसम्म । ७७८ | (कोशा नामा गणिका, समृद्धकोशा च विपुलकोशा च । यस्था गृहे उपदिष्टः [उपरिष्ठः ] रति- सविशेषे वेश्मनि । )
यह अति समृद्ध एवं विपुल कोश की स्वामिनी कोशा नामक गणिका के - -- रति के प्रासाद से भी विशिष्ट भवन में यह रहा है ७७८
बारस वासाई उत्थो [उसिओ] कोसए घरम्मि सिरिघर समम्मि । सोऊण य पिउ मरणं, रण्णो वयणं नि गिज्झीय ७७९ । ( द्वादशवर्षान् च उक्षितः, कोशायाः गृहे श्रीगृह समे । श्रुत्वा च पितुः मरणं, राज्ञः वचनं च निगृह्य ।)
लक्ष्मी के प्रासाद के समान कोशा के घर में यह बारह वर्षों तक रहा । पिता के मरण को बात सुन कर तथा नंदराज के बुलाने के आदेश को प्राप्त कर- 1७७६|
तिमिच्छि सरिस वण्णं [?] कोसं आपुच्छए तयं धणियं । खिषं खु एह सामिय, अहयं न हु चाय ए सहं । ७८० । dea [१] सदृशवर्णा, कोशामापृच्छति तदा त्वरितम् । क्षिप्रं खलु एहि स्वामिन् अहं न खलु शक्नोमि सोढुम् 1)
1
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तित्वोगाली पइन्नघ
. [ २३६
-स्थूलभद्र ने विद्युत् के समान वर्ण वाली कोशा से पूछा। कोशा ने कहा- “स्वामिन् । राजभवन से आप शीघ्र ही लौटें। मैं आपके विछोह को क्षण भर भी सहन करने में समर्थ नहीं हूँ।७८०। भवणा रोह विमुक्को, छज्जइ चंदो व्व सोमगंभीरो । परिमलसिरि वहतो, जोण्हा निवहं ससी चेव ।७८१।। (भवनारोह विमुक्तः, छाजते चन्द्र इव सोमगम्भीरः । परिमलश्रियं वहन् , ज्योत्स्नानिवहं शशी चैव ।)
___ भवन की सोढियों से उत्तरता हुआ परिमल. की शोभा को धारण किये हुए यह ज्योत्स्ना पुंज रजनीश के समान तथा अमृत के संसर्ग से गम्भीर बने चन्द्र की तरह सुशोभित हो रहा था ७८१॥ भवणाउ निग्गो सो, सारंगे परियणेण वुढितो । मत्तवर वारणगओ, इह पत्तो राउलं दारं ७८२। (भवनात् निर्गतः स, सारंगे परिजनेन वा पितः । मत्तवरवारणगत, इह प्राप्तः राजकुलद्वारम् ।)
कोशा-भवन से बाहर आने के पश्चात् राजपथ पर परिजनों द्वारा वार्डापित किया जाता हुआ मदोन्मत्त गजराज की सी गति से चलता हुआ राजभवन में पहुँचा ७८२। अंते उरं अइगतो, विणीय विणओ परित्त संसारो । काऊण य जय सद्दो, रण्णो पुरओ ठिओ आसी ।७८३। (अंतेपुरं अतिगतः, विनीत विनयः प्ररिक्त संसारः । कृत्वा च जय शब्दं, राज्ञः पुरतः स्थित आसीत् ।)
संसार के आकर्षणों के प्रति उदासीन यह बड़े विनय के साथ नन्दराज के अंतेपुर में पहुंचा। "जय" शब्द का उच्चारण कर यह राजा के सम्मुख बैठा ।७८३। अह भणइ नंदराया, मंति पयं गिण्ह थूलभद्द महं । पडिवज्जसु तेवट्ठाई, तिण्णि नगरागरसयाई ७८४।
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२४० ]
(अथ भणति नंदराजा, मंत्रिपदं गृहाण स्थूलभद्र ! मम । प्रतिपद्यस्व त्रिषष्टिः त्रीणि नगराकरशतानि )
तित्योगाली पइन्नय ]
नन्दराज ने इसे सम्बोधित करते हुए कहा - ': स्थूलभद्र ! मेरे महामात्य पद को ग्रहण कर त्रेसठ (६३) सौ नगरों और तीन सौ कोशागारों की व्यवस्था का भार अपने हाथों में लो । ७८४१.
रायकुल सरिसभूए, सगडाल कुलम्मि तंसि संभूओ । सत्थेसु य निम्मा [हा] तो, गिण्हसु पिउसंतियं एयं । ७८५ । (राजकुल सदृशभूते, शकटालकुले त्वमसि सम्भूतः । शास्त्रेषु च निर्मातः [निष्णातः] गृहाण पितृ सत्कर्म तद् ।
राजकुल के समान प्रतिष्ठित शकडाल कुल में तुम उत्पन्न हुए हो। तुम शास्त्रों में भी निष्णात हो । अपने इस पैत्रिक पद को ग्रहरण करो" ७८५।
अह भणइ धूल मद्दो, गणिया परिमलसमप्पिय सरीरो । सामी सामत्थो, पुणो अभे विष्णविसामि । ७८६ | ( अथ भणति स्थूलभद्रः, गणिका परिमल समर्पित-शरीरः । स्वामिन् कृतसामर्थ्यः पुनश्च त्वयि विज्ञपयिष्यामि ।)
कोशा गरिणका द्वारा लगाये गये अगराम से सुशोभित एवं सुगन्धित शरीर वाले स्थूलभद्र ने नन्दराज को उत्तर में कहा
स्वामिन् ! अपने सामर्थ्य के सम्बन्ध में मैं विचार कर पुनः आपकी सेवा में निवेदन करूंगा ।७८६ ।
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अह भणति नंद राया, केण समं दाई तुज्झ सामत्थं ।
को अण्णो वरतरओ, निहूणातो सव्वसत्सु । ७८७ | ( अथ भणति नन्द राजा. केन समं इदानीं तव सामर्थ्यम् । कोऽन्यो वरतरकः, निष्णातः सर्वशास्त्रेषु । )
इस पर राजा नन्द ने कहा - "इस समय तुम्हारे सामर्थ्य की तुलना करने वाला कौन है ? सब शास्त्रों में निष्णात तुम से श्रेष्ठ दूसरा और कौन है ?" | ७८७ |
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तित्योगाली पइन्नय )
[२४१
कंबल रयणेय तओ, अप्पाणं सुट्ठ संवरिचा गं । अंसूणि निण्हयंतो, असोग वणियं अह पविट्ठो ७८८। (कम्बल रत्नेन तत, आत्मानं सुष्टु संवरित्वा ननु । . अश्र णि निस्सारयन्. अशोकवनिकां अथ प्रविष्टः ।)
___ कम्बल रत्न (रत्नकम्बल) से अपने शरीर को अच्छी तरह संवरित (ढक) कर आंसू बहाता हुआ स्थूलभद्र राजभवन की अशोकवाटिका में प्रविष्ट हुा ।७८८। जेत्तियमेत्तं दिण्णं, तेतियमेवं इममि भुत्त त्ति । एचो नवरि पडामो, असोब मीणाउल घरम्मि ७८९। (यावन्मानं दत्तं' तावन्मात्रं अस्मिन् भुक्तमिति । इतः नवरं पतामः, झष इव मीनाकुलगृहे ।)
अशोकवाटिका में बैठ कर स्थूलभद्र चिन्तन करने लगा"पूर्व भव में जितना दिया उतना इस भव में उपभोग किया । अब आगे मगरमच्छों से संकुल समुद्र में मछली के गिरने के समान मुझे दुःखाकुल संसार सागर में नहीं गिरना चाहिए ।७८६। आणा रज्जं भोगा, रण्णो पासंमि आसणं पढमं । सुब्भत्थ इमं न खमं, खमं तु अप्पखमं काउं ।७९०। (आज्ञा राज्यं भोगाः, राज्ञः पार्वे आसनं प्रथमम् । शुभार्थं इदं न क्षम, क्षमं तु आत्मक्षमं कत्तुम् ।)
अनुलंघ्य आज्ञा, राज्य, भोग और राजा के पास ही उच्च प्रथम प्रासनं-ये सब शुभ अर्थात् आत्मकल्याण करने में समर्थ नहीं। वस्तुतः अपने आपको आत्मजयी बनाना ही शुभ प्राप्ति का समर्थ साधन है ।७६०।। केसे परिचिंतंतो, रायकुलाओ य जे परिकिलेसे । निरयेसु य जे केसे, तालुचति अप्पणो केसे ।७९१। १ पूर्व भवे इति शेषः । २ 'भवे' इत्यध्याहारेण वाच्यम् । ३ इतः परमित्यर्थः ।
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२४२ ]
तित्थोगाली पइन्नय
(क्लेशान् परिचिन्तयन् राजकुलाच्च ये परिम्लेशाः । नरकेषु च ये क्लेशाः, तावत् लुञ्चति आत्मनः केशान् )
संसार के अनेक प्रकार के असह्य कष्ट्रों राजकुल से प्राप्त होने वाले विविध क्लेशों और नारकीय भीषण क्लेशों का चिन्तन करते करते स्थूलभंद्र ने अपने केशों का स्वयं ही लुञ्चन कर लिया १७६१। तंविय परिहिय वत्थं छेत्त णं कुणइ अग्गतो आरं । कंबलरयणो गुठि काउं, रण्णो ठियं पुरतो ।७९२। (तमपि च परिहितवस्त्रं, छित्वा करोति अग्रहारम् । .. कम्बलरत्ने ग्रन्थि कृत्वा, राज्ञः स्थितः पुरतः )
अपने पहने हुए वस्त्र को उतार तथा फाड़ कर उसका अग्रहार (कटि प्रदेश पर रखने का वस्त्र खण्ड) बना लिया। रत्न कम्बल में गांठे लगा (उसका ओघा बना) स्थूलभद्र (साधुवेष) में राजा नन्द के सम्मुख आ खड़ा हुआ ।७६२।। एयं मे सामत्थं, भणइ अवणेहि मत्थतो गुडिं। तो णं केसविहूणं, केसेहिं विणा पलोएति ।७९३।। एतत् मे सामर्थ्यम्, भणति अपनय मस्तकात् ग्रन्थिम् । ततः ननु केशविहीनं, क्लेशैविना प्रलोकयति ।)
राजा नंद को सम्बोधित कर स्थूलभद्र ने कहा- "मेरा यह सामर्थ्य है। मेरे सिर के भार को दूर कीजिये ।" केश-विहीन (मण्डित) स्थूलभद्र को सब प्रकार के क्लेशों से रहित अर्थात् प्रसन्न देख कर राजा नन्द विस्मित हो उनकी ओर देखता ही रह गया ।७६३। अह भणइ नंद राया, लाभेति धीर नत्थि रोहियणं [रोहणयं] । बादं चि भणिऊणं, अह सो संपत्थितो तत्तो ७९४। . (अथ भणति नन्दराजा, 'लाभ' इति धीर नास्ति रोधनकम् । बाढम् ! इति भणित्वा, अथ स संप्रस्थितस्ततः ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ २४३
नन्दराज ने कहा - "धीर ! आपको अपने अभीप्सित का लाभ हो। अब आप के मार्ग में कोई अवरोध नहीं है तदनन्तर स्थूलभद्र "बाढम्” -कह कर राजभवन से प्रस्थान कर गया ७६४।
ܙܙ
( यह गाथा आहोर नगरस्थ राजेन्द्रसूरि ग्रन्थ भण्डार' से उपलब्ध प्राचीन प्रति में उल्लिखित नहीं है )
अह भणइ नंदराया, वच्चइ गणियाघरं जइ कहिंचि । तो तं असच्चवादीं, तीसे पुरतो विवामि । ७९५ । ( अथ भणति नन्दराजा, व्रजति गणिका गृहं यदि कथंचित् । ततः तं असत्यवादी, तस्याः पुरतः व्यापादयामि | )
स्थलभद्र के चल े जाने के पश्चात् मगध सम्राट् नन्द ने कहा --- यदि यह कदाचित गणिका के घर की ओर जाता है तो मैं " इस असत्यवादी को उस गणिका के सम्मुख ही मार डालूं गा ॥७६५।
सो कुलघरस सिद्धिं गणियघर संतियं च सामिद्धिं । पाएण पणोल्लेड, णातिणगरा अणवयक्खो । ७९६। ( स कुलगृहस्य सिद्धिं गणिकागृह संचितां च समृद्धिम् । पादेन प्रणोद्य याति नगरात् अनपेक्ष: 1)
1
स्थूलभद्र अपनी कुल परम्परागत सिद्धि और कोशा गरिणका के घर में संचित समृद्धि को पैरों से ठुकरा कर निस्पृह - निरपेक्ष भाव से नगर से बाहर चला जाता है।७६६'
जो एवं पव्वइओ एवं सज्झाय झाणउज्जुतो ।
*
गारवकरण हिओ, सीलभरुव्वद्दणधोरेओ । ७९७
( य एवं प्रब्रजित, एवं स्वाध्यायध्यान उद्य क्तः । गारवकरणेन हितः शीलभरोद्वहनधौरेयः ।
'
जो इस प्रकार प्रव्रजित हुआ और इस प्रकार स्वाध्याय एवं ध्यान में उद्यत रहा, वही शील के भार को वहन करने में अग्रणी स्थूलभद्र गारव करने के कारण श्रुत के प्रति अपराध कर हानि में रहा ।७६७।
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२४४ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
जह जह एहि कालो तह तह अप्पावराह संरद्धा | अणगारा पडणीते, निसंसयं उट्टवेर्हिति । ७९८ | ( यथा यथा आगमिष्यति कालः तथा तथा अल्पापराधसंरब्धाः । अनगाराः प्रत्यनीकाः निःशंसयं तु वर्तयिष्यन्ति ।)
"
अब आगे ज्यों ज्यों काल व्यतीत होगा त्यों त्यों निःशंसय छोटे से छोटे अपराध पर भी प्रक्रुद्ध होने वाल े अविनीत अगंगार होंगे | ७६८।
उप्पायनीहि अवरे, केह विज्जा य उप्पर ताणं । चउरुव्विहि विज्जाहिं, दाई काहिंति उड्डाहं । ७९९ | - ( उत्पादनीभिरपरे, केचित् विद्या च उत्पादयित्वा । चतुःरूपामिवियामि तदानीं करिष्यन्ति ( उड्डाहम् ) | )
उस समय कतिपय अणगार उत्पादनियों से अनेक प्रकार की विद्याएं उत्पन्न कर चार प्रकार की विद्याओं से लोगों का उड्डाह अर्थात् उच्चादन अथवा उत्पीडन करेंगे |७६६
मंतेहि य चुहिय, कुच्छिय विज्जाहिं तह निमित्तेणं ।
काउण उवग्घायं, भमिहिंति अनंत संसारे । ८०० |
( मन्त्रैश्च चूर्णैश्च कुत्सित विद्याभिस्तथा निमित्तेन । कृत्वा उपघातं भ्रमिष्यन्त्यनन्त संसारे ।)
,
मन्त्रों, चूर्गों, कुत्सित विद्याओं तथा निमित्तों द्वारा मानवों का उपघात कर अनन्त काल तक संसार में भटकते रहेंगे | ८००। अह भइ धूल भदो, अण्णं रूवं न किंचि काहामो ) इच्छामि जाणिउ जे, अहयं चत्तारि पुव्बाई ८०१ । ( अथ भणति स्थूलभद्र, अन्यं रूपं न किञ्चित्कथयिष्यामः । इच्छामि ज्ञातु ं यत्, अहं चत्वारि पूर्वाणि ।)
भद्रबाहु के इस कथन को सुन कर स्थूलभद्र ने कहा--' अन्य तो मैं कुछ नहीं कहूंगा। मैं तो केवल उपरिम चार पूर्वो को जानना चाहता हूँ ८०१
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तित्थोगाली पइन्नय ।
.. [ २४५ नाहिसि तं पुवाई, सुयमेत्ताई वि भुग्गहाहिति । दस पुण ते अणुजाणे, जाणपणट्ठाई चत्वारि' |८०२। (ज्ञास्यसि त्वं पूर्वाणि, सूत्रमात्राण्यपि भूग्रसितानीति । दश पुनः ते अनुजानामि, जानीहि प्रणष्टानि चत्वारि ।
भद्रबाहु ने कहा- 'तुम उन चार पूर्वो के सूत्र मात्र अर्थात् व्याख्या रहित मूल मात्र को जान लोगे; पर इनके सम्बन्ध में भी तुम समझ लेना कि इन्हें पृथ्वी ने ग्रस लिया है, किसी अन्य को इनका ज्ञान न देना। दश पूर्वो का ज्ञान अन्य श्रमणों को देने की मैं तुम्हें अनुज्ञा देता है। शेष चार पूओं को नष्ट हुमा हो समझना ।८०२।
(इस गाथा का प्रथम चरण "राजेन्द्र सूरि शास्त्र भण्डार"आहोर. मे प्राप्त प्राचीन प्रति में नहीं है। शेष ३ चरण हमारे पास • की प्रति के समान ही हैं।) एतेण कारणेण उ, पुरिसजुगे अट्ठमम्मि वीरस्स । सयराहेण पणट्ठाई, जाणचत्वारि पुवाई ।८०३। . (एतेन. कारणेन तु पुरुषयुगे अष्टमे वीरस्य । स्वापराधेन प्रणष्टानि, जानीहि चत्वारि पूर्वाणि ।)
___ इस प्रकार भगवान महावीर के आठवें पट्टधर स्थूलभद्र में उनके स्वयं के अपराध से उपरिम चार पूर्व नष्ट हुए जानो ।८०३। अणवठ्ठप्पो य तवो, तब पारंची य दो वि वोच्छिन्ना । चउदस पुत्र धरंमि धरंति, सेसाउ जा तित्थं ।८०४। (अनंवष्ठपश्च तपः, तपः पाराञ्चिकश्च द्वावपि व्युत्च्छिन्नौः । चतुर्दश पूर्वधरे धृयन्ते, शेषास्तु यावतीर्थम् ।)
अनवष्टप तप,और पारंचित तप---ये दोनों तप भी स्थूलभद्र
-
-
१ गाथाया: भावार्थमेवं प्रतीयते-- शेषाणां चतुर्णा पूर्वाणां केवलां सूत्रमात्रां
वाचनां ते ददामि । तानि त्वं एकसूत्रमितान्यपि नाध्यापयिष्यसि कमप्यन्यम्. भुवा ग्रस्तान्येतानीति प्रणष्टानि चेति मत्वा । दशपर्वाणां वाचनां त्वं तव शिष्येभ्य: दातु शक्नोसीत्यहं त्वामनुजानामि ।
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२४६ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
में नष्ट हो गये। क्यों कि ये दोनों तप केवल चतुर्दश पूर्वधर ही कर सकते हैं। शेष तप चतुविध तीर्थ की विद्यमानता तक विद्यमान रहेंगे ८०४।
तं एवमंगवंसो य, नंदवंसो मरुयवंसो य ।
सवराहेण पणड्डा, समयं सज्झायवंसेण |८०५ |
(तद् एवं अंगवंशश्च नन्दवंशः मरुतवंशश्च ।
9
स्वापराधेन प्रणष्टाः समं स्वाध्यायवंशेन )
,
१
तो इस प्रकार सज्झाय वंश के साथ - साथ अग वंश, नन्द वंश और मरुत (मौर्य ? ) वंश अपने अपराध मे नष्ट हुए । ८०५। पढमो दस पुव्वीणं, सडालकुलस्स जसकरो धीरो । नामेण थूलभदो, अविहिसाधम्म - भदो चि ।८०६ |
(प्रथमः दश पूर्वाणां शकटालकुलस्य यशस्करः धीरः ।
नाम्ना स्थूलभद्रः, अविहिंसा धर्मभद्र इति ।)
A
दशपूर्वधारियों में प्रथम शकटार कुल का यशोवर्द्धक स्वधर्मभद्र धैर्यशाली स्थूलभद्र होगा | ८०६०
नामेण सच्चमित्तो, समणो समणगुण निउण चित्रतीउ । हो ही अपच्छिमो किर. दस पुच्ची धारओ वीरो । ८०७ ( नाम्ना सत्यमित्रः, श्रमणः श्रमणगुणनिपुणचिन्तकस्तु | भविष्यति अपश्चिमः किल, दशपूर्वी धारकः वीरः । )
श्रमणगुणों में निपुण और श्रमणगुणों का चिन्तक सत्य - मित्र नामक वीर श्रमर अन्तिम दश पूर्वधर होगा | ८०७ | एयस्स पुञ्चसुपसायरस, उदहिव्व अपरिमेयस्स । सुसु जह अथकाले, परिहाणी दीसते पच्छा | ८०८ | ( एतस्य पूर्व तसागरस्य, उदधिरिव अपरिमेयस्य । श्र णुस्व यथा अथकाले, परिहानि दृश्यते पश्चात् ।)
दशानां पूर्वाणां समाहारः - इति दशपूर्वी ।
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तित्योगाली पइन्नय
[ २४७
समुद्र के समान अपरिमेय इस पूर्वश्रुत - सागर की कालान्तर में उत्तरोत्तर जिस प्रकार हानि दिखाई देती है उसे सुनो पुव्व सुय तेल्ल- भरिय विज्झाए सच्चमित दीवंमि । धम्मावाय निमित्तो, होही लोगो सुयनिमितो ८०९ | ( पूर्व त तैल भरिते. विध्याते सत्यमित्र - दीपे |
धर्मवाद निभृतः भविष्यति लोकः श्रुत निभृतः 1 )
,
पूर्वश्रुत रूपी तैल से भरे सत्यमित्र रूपी दीपक के बुझ जाने पर धर्मवाद अर्थात् दृष्टिवाद पर निर्भर लोक अर्थात् श्रमण वर्ग श्रत का आश्रित हो जायगा ८० बोलीम्मि सहस्से, वरिसाणं वीरमोक्ख गमणाओ ।
λ
उत्तरवाय गवस, पुव्वगयस्स भवेच्छेदो | ८१० | (विलीने सहस्र वर्षाणां वीरमोक्षगमनात् । उत्तरवाचकवृषभ, पूर्वगतस्य भवेच्छेदः । )
:
१८०८।
भगवान् महावीर के मोक्षगमन के पश्चात् एक हजार (१०००) वर्ष व्यतीत हा जाने पर अन्तिम अथवा उत्तर बलि स्सह के वाचक वंश में उत्पन्न वाचक श्रेष्ठ ( देवद्विगरिण क्षमाश्रमण ) में पूर्वगत का विच्छेद हो जायगा । ८१०।
वरिससहस्सेण पुणो तित्थोगालीए वद्धमाणस्स । नासिही पुञ्चगतं, अणुपरिवाडीए जं जस्स ८११ (वर्षसहस्र ेण पुनः तीर्थोद्गालिके वद्ध मानस्य | नंक्ष्यति पूर्वगतं अनुपरिपाट्या यद् यस्य । )
;
तीर्थ · ओगाली अर्थात् तीर्थ - प्रवाह में भगवान् वर्द्धमान के निर्वारणानन्तर एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर परिपाटी के अनुसार जिसके पास जितना पूर्वगत ज्ञान होगा, वह नष्ट हो जायगा ८११ । पण्णासा वरिसेहिं य बारस वरिस सएहिं बोच्छेदो । दिण्णगणि प्रसमिते, सविवाहाणं बलंगाणं ८१२ ।
१ धर्मवादी दृष्टिवाद: तन्निर्भर: लोको श्रुतनिर्भर: भविष्यतीत्यर्थः ।
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२४८ ]
(पञ्चाशत् वर्षैश्च द्वादशवर्षशतैर्ध्य वछेदः ।
1
दिन [ दत्त ] गणि पुष्यमित्रः सविवाहानां पढंगानाम् । )
;
[ तित्योगालो पइन्नय
वीर निर्वाण के १२५० वर्ष पश्चात् दिन्न गणि पुष्यमित्र में विवाहपत्ति सहित छ ः अंगों का व्यवच्छेद हो जायगा ।८१२।
,
नामेण समित्तो. समणोसमणगुण निउण चिंवतिओ । होही अपच्छिमो किर, वियाह सुयधारको वीरो ।८१३ | ( नाम्ना पुष्यमित्रः, श्रमणः श्रमणगुणनिपुणचिन्तयिता । भविष्यति अपश्चिमः किल विवाहश्र तधारकः वीरः ।)
9
श्रमण गुणों का चिन्तक एवं श्रमरण गुणों में निपुण पुष्यमित्र नामक वीर श्रमरण पूर्ण वियाह- पण्णत्ति ( व्याख्या - प्रज्ञप्ति ) सूत्र का धारक होगा ।८१३'
तम्मिय वियाहरुक्खे, चुलसीति पयसहरुसगुण कलिओ [ए] । सहसंच्चिए संभंतो, होही गुण निष्फलो लोगो ८१४ । (तस्मिन् व्याख्या वृक्षे [ व्याख्याप्रज्ञप्ती] चतुरसीति, पदसहस्रगुणकलिते ।
सहसा अंचिते [संकुचिते] सम्भ्रान्तः, भविष्यति गुण निष्फलो लोकः ।)
उस ५४००० (चौरासी हजार) पदों वाले गुरणों से भरे व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग रूपी कल्प वृक्ष का ह्रास होने पर गुरण रूपी फल से वंचित हुए लोग सहसा संभ्रान्त हो जायेंगे । - १४ |
समवाय- ववच्छेदो, तेरसहिं सतेहिं होहिति वासाणं ।
माढर गोत्तस्स इहं, संभूतजतिस्स मरणम्मि | ८१५ । (समवाय व्यवच्छेदः त्रयोदशभिर्शतैः भविष्यति वर्षाणाम् । माढर गोत्रस्य इह, सम्भूत यतेर्मं रणे ।)
वीर निर्वाण के १३०० वर्ष पश्चात् माढरगोत्रीय संभूत नामक यति (श्रमण ) के मरणोपरान्त चतुर्थ प्रांग समवायांग सूत्र का व्यवच्छेद अर्थात् ह्रास होगा । ८१५ |
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तित्थोगाली पइलय ।
. [ २४६
तेरस वरिस सतेहिं , पण्णास समहिएहिं वोच्छेदो । अज्जव जतिस्स मरणे. ठाणस्स जिणेहिं निहिहो ।८१६। (त्रयोदशवर्षशतैः, पञ्चाशतसमधिकर्व्यवच्छेदः । आर्जव यतेः मरणे, स्थानस्य [स्थानांगस्य] जिनैर्निर्दिष्टः ।)
वीर निवारण के १३५० (तेरह सौ पचास) वर्ष पश्चात् आर्जव यति के मरने पर स्थानांग सूत्र का व्यवच्छेद अर्थात् ह्रास जिनेश्वर ने बताया ।८१६। चोदस वरिस सतेहिं, वोच्छेदो जिट्ठभति समणमि । कासवगुत्ते णेओ, कप्प ववहार सुत्तस्स ८१७' - (चतुर्दश वर्ष शतैः, व्यवच्छेदः ज्येष्ठभूतिश्रमणे । · काश्यपगोत्रे शेयः, कल्पव्यवहारसूत्रस्य ।)
वीर निर्वाण के चौदह सौ (१४००) वर्ष पश्चात् काश्यप गोत्रीय ज्येष्ठभूति नामक श्रमण में कल्पव्यबहारसूत्र का ह्रास होगा, यह जानना चाहिए।८१७ भणिदो दसाण छेदो, पनरम सएहि होइ वरिसाणं । समणम्मि फरगुमित्ते, गोयमगोत्ते महासत्त ८१८। (भणितः दशानां छेदः पञ्चदशशतैर्भवति वर्षाणाम् । श्रमणे फल्गुमित्र. गौतम गोत्रो महासत्त्वे ।)
. वीर निर्वाण के पन्द्रह सौ (१५००) वर्ष पश्चात् गौतम गोत्रीय महासत्त्वशाली श्रमण फल्गृमित्र के निधन पर दशाभुत स्कन्ध का विच्छेद (ह्रास) बताया गया है ।८१८॥ भारदायसगोत्ते, सूर्यगडंगं महासमण-नामे । अगुणब्बीससतेहि, जाही वरिसाण वोच्छित्ति ।८१९। भारद्वाज-सगोत्रो, सूत्रकृताङ्गस्य महाश्रमण नाम्नि । एकोनविंशशतः, यास्यति वर्षव्यवच्छित्तिः ।)
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२५० ।
| तित्थोगाली पइन्नय
वीर निर्वाण सं० उन्नीस सौ (१६००) में भारद्वाज गोत्रीय महाश्रमण नाम से विख्यात श्रमण के निधन पर सूत्रकृताङ्ग का विच्छेद (ह्रास) होगा ।८१६। . वरिस सहस्सेहि इहं दोहि, विसाहे मुणिम्मि वोच्छेदो। वीर जिण धम्मतित्थे, दोहि तिन्नि सहस्स निद्दिट्ठो' ।८२० वर्ष सहस्रौरिह द्वाभिः विशाखे मुनौ व्यवच्छेदः । . . वीरजिन धर्मतीर्थे , द्वि त्रि सहस्र निर्दिष्टः ।)
वीर निर्वाण सं० दो हजार (२०००) में तथा वीर निर्वाण पश्चात् दो हजार से तीन हजार वर्षों के बीच भी भगवान महावीर के धर्म तीर्थ में कतिपय सूत्रों के व्यवच्छेद (ह्रास) का निर्देश किया गया है '८२०। विण्हु मुणिम्मि मरते, हारित गोत्तम्मि होति वीसाए। . वरिसाण सहस्सेहिं, आयारंगस्स वोच्छेदो ।८२१। (विष्णु मुनौ मृते. हारित गोत्र भवति विंशतिभिः । वर्षाणां सहस्रः, चाराङ्गस्य विच्छेदः ।)
वीर निर्वाण सं० २०,००० (बीस हजार) में हारित गोत्रीय विष्णु नामक मुनि का निधन होते ही आचारांग का व्यवच्छेद (ह्रास) हो जायगा ।।२१।। अह दुसमाए सेसे, होही नामेण दुप्पसह समणो । अणगारो गुणगारो, खमागारो तवागारो ।८२२। (अथ दुःषमायां शेषे. भविष्यति नाम्ना दुःप्रसहः श्रमणः । अनगारः गुणागारः, क्षमागार तपागारः )
__ तदनन्तर दुषमा नामक पंचम आरक का थोड़ा सा समय अवशिष्ट रहने पर क्षमा, तप तथा गुणों के भण्डार दुःप्रसह नामक अरणगार होंगे।८२२।।
अस्यां गाथायां विच्छिन्नमानस्य न कस्यचिदप्यंगस्य नामोल्लेख; कृतः । प्रतोऽनुमीयते यत समुच्चयरूपेण कतिपयाङ्गानां ह्रासस्यैवात्रोल्लेख: कृतोऽस्ति।
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तत्थोगाली पइन्नय]
[ २५१ सो किर आयारधरो, अपच्छिमो होहीति भरहवासे । तेण समं आयारो नस्सिही समं चरित्तेणं |८३२। (स किल आचारधर, अपश्चिमः भविष्यति भारतवर्षे । तेन समं आचार, नक्ष्यति समं चारित्रोण ।) ..
वे भरत क्षेत्र में अन्तिम आचारांगघर होंगे उनके निधन के साथ ही चारित्र सहित आचारांग पूर्णतः नष्ट हो जायगा ८२३। अणुओगच्छिण्णायारो, अह समणगणस्स दीविवायारो । आयारम्मि पण?, होहीति तइया अणायारो ।८२४।। (अनुयोगच्छिन्नाचार, अथ श्रमणगणस्य दीपेवाचारः ।
आचारे प्रणष्टे, भविष्यति तदा अनाचारः ). ____ अनुयोग सहित आचारांग ही श्रमण गण को प्रदीप के समान आचार का बोध कराने वाला है अतः आचारांग के प्रष्ट हो जाने पर भरत क्षेत्र में सर्वत्र अनाचार का साम्राज्य व्याप्त हो जायगा।८२४॥ चंकमिउं वरतरं, तिमिसगुहाए तमंधकाराए । न य तइया समणाणं, आयार-सुत्ते पणट्ठमि ८२५। (चंक्रम्य परतरं, तमित्रगुहायां तमोऽधकारायां । न च तदा श्रमणानां, आचारसूत्रे प्रणष्टे )
तदनन्तर आगे चल कर सब लोग घोर अन्धकारपर्ण तमिस्र गुफा में ही रहेंगे। प्राचारांग सूत्र के नष्ट हो जाने पर श्रमणों का नाममात्र भी अवशिष्ट नहीं रहेगा ।२५। निज्झीणा पाषंडा, घोरेहिंजणो विलुप्पते अहियं । होहिंति तया गामा, केवल नामाव सेसाउ ।८२६। (निहींणाः पाषण्डा, चौरैर्जनः विलुम्प्यते अधिकम् । भविष्यन्ति तदा ग्रामाः केवलं नामावशेषास्तु ।).
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२५२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय उस समय में लोग निर्लज्ज और पाखण्डी होंगे। चोरों द्वारा लोग आये दिन लूटे जायोंगे। उस समय ग्राम नाममात्र ही शेष रहेंगे ।२६। वीसाए सहस्सेहि, पंचहिं सएहिं होइ बरिसाणं । पूसे वच्छ सगोते, वोच्छेदो उचरज्झाए ।८२७। (विंशत्याः सहस्रः पञ्चभिर्शतैः भवति वर्षाणाम् । ... पुण्ये वत्स-सगोत्रे, व्यवच्छेद उत्तराध्ययनस्य ।)
वीर निर्वाण से बीस हजार पांच सौ (२०,५००) वर्ष पश्चात् वत्स गोत्रीय पुष्य मुनि के अनन्तर उत्तराध्ययन का विच्छेद हो जायेगा।२७। वीसाए सहस्सेहिं वरिस सएहिं नवहिं वोच्छेदो । दसवेतालिय सुत्तस्स, दिण्ण साहुम्मि बोधव्वो ।८२८।। (विंशति सहस्र वर्षशतैनवमिळवच्छेदः । दशकालिक सूत्रस्य, दिन्न साधौ बौद्धव्यः ।)
वीर निर्वाण सं० २०,६०० (बोस हजार नौ सौ) में दिन्न नामक साधु के पश्चात् दश-वैकालिक सूत्र का व्युच्छेद होगा, यह जानना चाहिए ।८२८। पविरल गामं जाणवदं, पविरल मणुएसु नाम देसेसु । नामेण नाइलो नाम, गणहरो होहीइ महप्पा ८२९। प्रविरल ग्रामं जनपदं, प्रविरलमनुष्येषु नाम देशेषु । नाम्ना नाइल नामा, गणधरो भविष्यति महात्मा ।)
कालान्तर में प्रदेशों में नाम मात्र के लिये विरले ग्राम, विरले जनपद और अति स्वल्प संख्याक विरले ही मनुष्य अवशिष्ट रह जायेंगे। उस समय नाइल नामक एक महात्मा गणधर होंगे।८२६। धम्ममि निरालोए, जिणमत दुस्सद्दहमि लोगम्मि । पव्वावेही सीसं, दुप्पसहं नाम नामेणं ।८३०
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तिस्थोगाली पइन्नय
(धर्मे निरालोके, जिनमतदुःश्रद्दधाने लोके । प्रवाजयिष्यति शिष्यं दप्रसहं नाम नाम्ना )
वे नाइल नामक प्राचार्य, जिस समय लोगों में धर्म का प्रकाश धूमिल हो जायगा और लोग बड़ी ही कठिनाई से जिन मत में श्रद्धा करेंगे उस समय दुःप्रसह नामक व्यक्ति को अपने शिष्य के रूप में श्रमण धर्म की दीक्षा देंगे।८३०।। सो पुण संपतिकाले कामालोए सु देवलोगेसु । लोगहीति [लोहीतम्मि १] विमाणे, अच्छति य विमाणितो देवो
. ८३१। (स पुनः सम्प्रतिकाले, कालोकेषु देवलोकेषु । लोहित्यके विमाने अच्छति च वैमानिकः देवः ।) - वह, भावी दुःप्रसह आचार्य का जीव वर्तमान काल में (भ० महावीर की विद्यमानता के समय में) दिव्य काम-भोग पूर्ण देवलोकों के लोकहिती (लोहित ) नामक विमान में वैमानिक देव के रूप में रह रहा है ।८३१॥ सो सागर गंभीरो, देवा सागरोवमं तस्स । तचो चुओ विमाणा, आयाही मज्झ देसम्मि ।८३२। (स सागरगम्भीरः देवायुः सागरोपमं तस्य । ततः च्युतः विमानात्, आगमिष्यति मध्यदेशे ।)
वह देव समुद्र के समान गम्भीर तथा उसकी देवायु एक सागरोपम को है। देवायु पूर्ण होने पर वह देवलोक से च्यवन कर भरत क्षेत्र के मध्य देश में जन्म ग्रहण करेगा । ८३२॥ सो जाय अहवासो, दियलोय सुहं सुयं अणुगणंतो । पवज्जिहि दुप्पसहो. अपासट्ठो नाइलज्जेणं ।८३३। (स जात-अष्टवर्षः, देवलोकसुखं श्रुतं अनुगणयन् । प्रव्रजिष्यति दुःप्रसहः, अनुशिष्ट नाइलार्येण ।)
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२५४ ]
तिस्थोगाली पइन्न
आठ वर्ष की अवस्था में वह दुःप्रसह, आचार्य नाइल से देवलोकों के सुखों के सम्बन्ध में सृन कर, उन पर चिन्तन करता हुआ आचार्य नाइल के पास श्रमरण धर्म में प्रव्रजित हो जायगा।८३३। सो पव्वइतो संतो, महया जोगेण सुंदरुज्जोगो। कम्मक्खतोवसमियं, सिक्खिही सुतं दसवेतालं '८३४. (स प्रवजितः सन् महता योगेन सुन्दरोद्योगः । कर्मक्षयोपशमिकं, शिक्षिष्यति सूत्रं [श्रुतं] दशकालिकम् ।) . श्रमण धर्म में दीक्षित होने के पश्चात् श्रमण दुःप्रसह बड़ी तन्मयता के साथ अहर्निश परिश्रम कर ज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोप. शम के फलस्वरूप दशकालिक सूत्र का अध्ययन करेगा उसे कण्ठस्थ करेगा ।८३४। दसवेतालियधारी, पुज्जिही जणेण जहब दसपुब्बी । सो पुण सुट्ठतरागं, पुज्जिही समण संघेणं ८.३५ (दशवकालिकधारीः पूजयिष्यते जनेन यथैव दशपूर्वी । स पुनः सुष्टुतया, पूजयिष्यते श्रमणसंघेन ।)
उस समय दशवकालिक सूत्र को कण्ठस्थ करने वाला श्रमण लोगों द्वारा दश-पर्वधर के समान पूजित-सम्मानित होगा। श्रमणसंघ भी दश वैकालिकधारी मुनि का भलीभांति पूजा-- सम्मान करेगा।८३५।
। अउणा वीससहस्सो, सामाणिओ होहिति सक्कयालोए । दुस्सह दूसमकाले, खीणे अप्पावसेसजुगे ।८३६। (अऊन [अन्यून] विंशतिसहस्रः, सामानिकः भविष्यति शक्रस्य लोके । दुस्सहे दुःषमाकाले, क्षीणे अल्पावशेष युगे ।)
दुःसह्य कष्ट पूर्ण दुःषम नामक पांचवें प्रारक की समाप्ति में जब कुछ ही घड़ियां शेष रह जायेंगी, उस समय दुःप्रसह आचार्य शक्रलोक अर्थात् सौधर्म कल्प नामक प्रथम देवलोक में अन्यून बीस हजार देव परिवार वाले सामानिक देव के रूप में उत्पन्न
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तित्थोगाली पइन्नयन
1 २५५
धम्मो जिणाणमत्तो, राया य जणस्स लोगमज्जायाई ते हवंति खीणा, जं सेसं तं निसामेह ।८३७।। (धर्मः जिनानुमतः, राजा च जनस्य लोकमर्यादाः । (ते भवन्ति क्षीणाः, यत् शेषं तत् निशामयत ।
जिनेन्द्र प्रभु द्वारा अनुमोदित धर्म, राजा और मानव समाज को लोकमर्यादाए- ये तीनों हो बातें उस समय क्षीण हो जायेंगी। अन्त में जो शेष भावी घटनाक्रम है ; उसे सुनिये ।८३७। सापग मिहुणं समणो, समणी राया तह अमच्चो य ।) एते हवंति सेमं, अण्णो जणो बहुतरातो '८३८। (श्रावैकमिथुनं श्रमणः, श्रमणी राजा तथा अमात्यश्च । एते भवन्ति शेषा, अन्यो जनः-बहुतरकः ।)
दुःषम काल के अंत में एक श्रावक मिथुन अर्थात् एक श्रावक और एक ही श्राविका, एक श्रमण, एक श्रमणी. एक राजा, एक राजामात्य...ये ६ विशिष्ट मानव होते हैं, शेष बहुत से अन्य जन अर्थात् प्रजाजन होते हैं ।८३८। ओसप्पिणी इमीसे, चत्तारि अपच्छिमाई संघस्स । अंतम्मि दूसमाए. दससु वि वासेसु एवं तु ८३९। (अवसर्पिण्यामस्यां. चत्वारि अपश्चिमानि संघस्य । अन्ते दुषमायां. दशस्वपि वर्षेषु एवं तु ।)......
इस अवसर्पिणी काल के दुःषम नामक पचम आरक के अंत में पांच भरत तथा पांच ऐरवत---इन दशों ही क्षेत्रों में प्रत्येक अन्तिम तीर्थंकर के धर्मसंघ में एक साधू, एक साध्वी, एक श्रावक और एक श्राविका ये चार ही अंतिम सदस्य होते हैं । ८३६। दुप्पप्रभो अणगारो, नामेण अपच्छिमो पवयणस्स । फगुसिरी समणीणं, साविय समणी अपच्छिमिया ८४०।
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२५६ }
(दुः प्रसभोऽणगारः, नाम्ना अपश्चिमः प्रवचनस्य । फल्गुश्रीः श्रमणीनां, सापि च श्रमणी अपश्चिमा ।)
[ तित्योगाली पइन्नय
प्रवचन अर्थात् जिन शासन का अन्तिम अरणगार दुःप्रसभ नामक श्रमण और जिन शासन की अन्तिम श्रमणी फल्गुश्री नाम की श्रमणी होगी | ८४० ।
विग्गहवती वियदया, कमल विहूणा सिरिव्व पच्चक्खा | होहीति तथा समणी, फग्गुसिरी नाम नामेण ८४१ | (विग्रहवती अपि च दया, कमलविहीना श्रीव प्रत्यक्षा | भविष्यति तदा श्रमणी फल्गुश्री नाम नाम्ना ।)
:
उस समय (दुःषम नामक आरक के अन्त में), साक्षात् सदेहा दया और प्रत्यक्ष कमल विहीना लक्ष्मी तुल्या वह फल्गुश्री नाम की श्रमणी होग८४१
तम् य नगरे सेड्डी, होही नामण नाइलो नाम ।
सो सव्वसावगाणं, होही तया अपच्छिमि । ८४२ ।
,
( तस्मिन् च नगरे श्रेष्ठीः, भविष्यति नाम्ना नाइलो नाम । स सर्व श्रावकाणां भविष्यति तदा अपश्चिमकः । )
उसो नगर में नाइल नामक एक श्रेष्ठी होगा जो भगवान् महावीर के शासन के श्रावकों में सब से अन्तिम श्रावक होगा |८४२ ।
सेट्ठी य नाइलो नाम, गिवई सावगाणं पच्छिम | सव्वसिरी साबियाणं, साविय तथा अपच्छिमिया | ८४३ | (श्रेष्ठी च नाइलः नामा, गृहपतिः श्रावकाणां अपश्चिमः ।
सर्वश्री श्राविकानां सापि च तदा अपश्चिमका ।)
,
१ सशरीरा दया- इत्यर्थः ।
"विग्गहवती वावया" (विग्रहवती वावदूका ) - इति पाठे सति सशरीरा सरस्वतीत्यर्थः ।
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तित्थोगाली पइन्नय
[ २५७ श्रावकों में अन्तिम श्रावक गाथापति श्रेष्ठी नाइल और श्राविकाओं में अन्तिम श्राविका सर्वश्री होगी।८४३। अभिगय जीवाजीवा, सा या किर साविया अपच्छिमिया । धम्ममि निच्छितमती, सबसिरी नाम नामेणं ।८४४। (अभिगत जीव-अजीवा, सा या किल श्राविका अपश्चिमका । धर्मे निश्चितमतिः, सर्वश्री नामा नाम्ना :)
सर्वश्री नाम की वह अन्तिम श्राविका जीव तथा अजीव तत्त्व की अभिज्ञा तथा धर्म के प्रति दृढ़ आस्थावती होगी।८४४। राया य विमलवाहणो, सुमुहो नामेण तस्स य अमच्चो । इय दुसमाए काले, रायामच्चो अपच्छिमिगो ।८४५। (राजा च विमलवाहनः, सुमुखो नाम्ना तस्य च अमात्यः । अस्या दुःषमायाः काले, राजामात्यो अपश्चिमकः )
इस अवसर्पिणी के दुःषम प्रारक के अन्त में विमलवाहन नाम का अन्तिम राजा और उसका सुमुख नामक अमात्य अन्तिम राजामात्य होगा।८४५॥ दुप्पप्तहो फरगुसिरी सव्वसिरी नाइलो य राया य । इय दुस्सम चरिमंते, वीसतिवासाउया एते ।८४६। (दुःप्रसभः फल्गुश्रीः. सर्वश्री नाइलश्च राजा च । अस्य दुःषमस्यांने चरिमान्त, ते विंशतिवर्षायुष्या एते ।) ___इस दुःषम काल के अन्त में दुःप्रसह, फल्गुश्री, सर्वश्री, नाइल और राजा ये सब बीस-बीस वर्ष की आयु वाले होंगे।८४६। . छ? चउत्थं च तया, होही उक्कोसयं तवोकम्मं । दुप्पसहो आयरियो, काही किर अट्ठमं भत्तं ।८४७। (षष्ठ चतुर्थं च तदा, भविष्यति उत्कृष्टकं तपःकर्म । दुःप्रसभ आचार्यः, करिष्यति किल अष्टमं भक्तम् ।)
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२५८ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
उस समय में चतुर्थ भक्त ( उवास ) और षष्ठ भक्त (बेला) ये उत्कृष्ट तप होंगे। आचार्य दुःप्रसह अष्टम भक्त (तेला) का तप करेंगे ८४७ |
सो दाहिण लोगवती, इंदो धम्मागुराग रत्तो य । आगंतूणं तइया, पुणो पुणो बंदते संघ | ८४८ | ( स दक्षिण लोकपतिः, इन्द्रः धर्मानुरागरतश्च । आगत्वा तदा, पुनः पुनः वन्दते संघ )
दक्षिण लोक का स्वामी सौधर्मेन्द्र धर्मानुराग में अनुरक्त हो वहां आकर बारम्बार संघ को वन्दन करता है--- ---1८४८० गुणभवण गहण सुरयणभरिय, दंसणविसुद्धरच्छागा | संघ नगर ! भद्द ते, अखंड चारितपागारा | ८४९ | (गुणभवनगहन ! श्रुतरत्नभृत ! दर्शन विशुद्ध रथ्याकः ! | संघनगर ! भद्र ं ते, अखंड चारित्र प्राकार ! )
पिण्ड विशुद्धि आदि अमित उत्तरगुणरूपी भवनों की विद्य मानता के कारण प्रति गहन ! आचाराङ्गादि अनेक सुखदाई श्रुतरत्नों से परिपूर्ण ! मिथ्यात्वादि कूड़ े कर्कट से रहित विशुद्ध दर्शन रूपी रथ्याओं वाले ! और अखण्ड चारित्र के प्राकार ( परकोटे ) से सदा सुरक्षित ! ओ संघ नगर ! तुम्हारा कल्याण हो । ८४६
भद्द सील पडागू सियस, तव नियम-तुरय जुत्तस्स | संघरहस्स भगवतो, सज्झाय सुनंदि घोसस्स । (भद्र शीलोच्छ्रित पताकस्य', तपोनियम तुरगयुक्तस्य । संघ - रथस्य भगवतः स्वाध्याय सुनन्दि घोषस्य ।)
"
शोल रूपी उत्तरंग पताका वाले, तप और संयम रूपो आगामी अश्वों से युक्त अर्थात् जुते हुए और स्वाध्याय के सुमधुर स्वर रूपी सुन्दर नन्दी घोष वाले हे भगवत्स्वरूप संघ - रथ ! तुम्हारा कल्याण हो । ८५०।
१ प्राकृतशैल्या ऽन्यथोपन्यासः ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
. [ २५६
संजमतव तुबारयस्स, नमो सम्मत्त-पारियल्लस्स : अप्पडिचक्कस्स जओ, होउसया संघचक्कस्स ।८५१। (संयम तपस्तुम्बारकस्य, नमः सम्यक्त्व परियल्लस्य' । अप्रतिचक्रस्य जयः, भवतु सदा संघचक्रस्य ।)
सत्रह प्रकार के संयम तथा बारह प्रकार के (छह प्रकार के बाह्य एवं ६ प्रकार के प्राभ्यन्तर) तप रूपी तुम्ब एवं अरक वाले, सम्यक्त्व रूपी बाह्य, परिकर वाले और संसार में अपने प्रतिद्वन्द्वी चक्र से रहित ओ संघचक्र ! तुम्हें नमस्कार है, तुम्हारी सदा जय हो ।८५१॥ कम्मरय-जलोह-विणिग्गयस्स, सुयरयण दीहनालस्स । पंचमहव्वय-धिरकन्नियस्य, गुणकेसरालस्स ।८५२। (कर्मरजोजलौघविनिर्गतस्य, अ तरत्न दीर्घनालस्य । पंच महाव्रत-स्थिर कर्णिकस्य, गुणकेसरालस्य ।)
__ज्ञानावरणादि आठ कर्म रूपी रजोपूर्ण जलौघ से विनिर्गत अर्थात् प्रकट हुए, श्रु तरत्न रूपी दीर्घ नाल वाले, प्राणातिपात विरमण आदि पांच महाव्रत रूपी सुदृढ़ कणिका (मध्य गण्डिका) वाले, उत्तर गुण रूपी केसर वाले-८५२।। सावगजण-महुयरि-परिवुडस्स, जिण-सूर-तेय बुद्धस्स । संघ पउमस्स भई, समण गण सहस्स पत्तस्स |८५३। (श्रावकजन-मधुकर परिवृतस्य, जिन-सूर्य तेजो बुद्धस्य । संघ-पास्य भद्र, श्रमणगण सहस्रपत्रस्य ।)
श्रावक जन रूपी भ्रमरों से घिरे हुए, जिनेन्द्र भगवान् के केवल ज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश से प्रबुद्ध (खिले) और श्रमणगण रूपी सहस्र पत्रों वाले हे संघ-पद्म तुम्हारा कल्याण हो ।८५३। नवसुवि वासेसेवं, इंदो थोऊण समण संघं तु । ईसाणो वि तहविय, खणेण अमरालयं पत्तो ।८५४। १ पारियल्लं - बाह्यपुष्ठकस्य बाह्या भ्रमिरुच्यते ।
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[ तित्थोगाली पइन्नय
२६० ]
( नवस्वपि वर्षेष्वेवं, इन्द्रः स्तुत्वा श्रमण संघ तु । ईशानोऽपि तथैव च, क्षणेन अमरालयं प्राप्तः । )
शेष क्षेत्रों में भी सौधर्मेन्द्र तथा ईशानेन्द्र इसी प्रकार श्रमण संघ की स्तुति कर अपने-अपने सुरलोक को लौट गये । ८५४ |
दसवेतालय अत्थस्स, धारतो संजउ तवाउचो ।
1
समणेहिं विप्पीणो, विहरिही एक्कगो धीरो । ८५५ । ( दशवैकालिक अर्थस्य, धारकः संयतः तपायुक्तः । श्रमणैर्विप्रहीणः, विहरिष्यति - एकको धीरः । )
दशश-वैकालिक सूत्र के अर्थ को धारण करने वाला संयम और तप में उद्यत वह धीर दुःप्रसह आचार्य श्रमणों से विहीन एकाकी ही विचरण करेगा । ८५५ ।
अट्ठव य गिहवासो, बारसवरिसाई तस्स परियातो ।
एवं वसति वासा, दुप्पसहो होहिंही वीरो । ८५६ | (अष्टावेव च गृहवासः, द्वादशवर्षाणि तस्य [श्रमण ] पर्यायः । एवं विंशतिवर्ण्यः, दुःप्रसभः भविष्यति वीरः । )
दुःप्रसह आचार्य आठ वर्ष तक गृहवास में और १२ वर्ष तक श्रमण पर्याय में रहेगा। इस प्रकार वह २० वर्ष की आयु वाला होगा | ८५६ | .
छज्जीवकाय हियतो, सो समणो संजमे तवाउत्तो ।
भत्ते पच्चक्खाते, गच्छिही अमरालयं वीरो |८५७ । (षड़ जीवकाय हितकः स श्रमणः संयमे तपसि आयुक्तः । भक्त प्रत्याख्याते, गमिष्यति अमरालयं वीरः 1)
षड्जीव निकाय का हितैषी वह वीर प्राचार्य दुःप्रसह संयम तथा तप में निरत रहता हुआ अन्त में अनशन कर सुरलोक को प्रयाण करेगा | ८५७।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
अट्ठवरिसगिहवासो, बारसव रिसाई होइ परियाउ । कालं काही य तहया, अट्ठम भत्तेण दुप्पस हो । ८५८ | (अष्टवर्ष गृहवासः द्वादशवर्षाणि भवति [ संयम ] पर्यायः । कालं करिष्यति च तदा, अष्टमभक्त ेन दुःप्रसभः । )
दुःप्रसह प्राचार्य ८ वर्ष गृहवास में और १२ वर्ष तक श्रमण पर्याय में रहेगा । और अन्ततोगत्वा तेल की तपस्या से पण्डित मरण द्वारा इह लीला को समाप्त करेगा |८५८ |
सोहम्मे उववातो, दप्पसह जइस्स होइ नायव्वो । तस्स य सरीरमहिमा, काहिही लोगपाले हिं । ८५९ । (सौधर्मे उपपातः, दुःप्रसभयतेः भविष्यति, ज्ञातव्यः । तस्य च शरीरमहिमा, करिष्यते लोकपालैः ।
दुः प्रसह यति मरणोपरान्त सौधर्म कल्प में उत्पन्न होगा और उसके पार्थिव शरीर को लोकपालों द्वारा महिमापूर्वक अन्तिम क्रियाएं की जायेंगी । ८५ ।
का मुणिस्स महिम, निययावासेसु तो गता तियसा । दससुवि वासेसेवं, होई महिमा उ तित्थस्स | ८६० । ( कृत्वा मुनेर्महिमां निजकावासेसु ततः गताः त्रिदशाः । दशस्वपि वर्षेष्वेवं भवति महिमा तु तीर्थस्य 1 )
[ २६१
,
दुः प्रसह मुनि को महिमा कर देवगण अपने-अपने सुरालय को लौटेंगे। दशों ही क्षेत्रों में इस प्रकार तोर्थ को महिमा होगी
।८६०।
उववज्जिही विमाणे, सागर नामंमि सो य सोह मे । तत्तो य चहत्ताणं, सिज्जिही नीरजो धीरो ।८६१ | ( उत्पत्स्यति विमानं, सागर नाम्नि स च सौधर्मे । ततश्च च्युत्वा ननु, सेत्स्यति नीरजः धीरः ।)
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२६२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय दुःप्रसह प्राचार्य सौधर्म कल्प के सागर नामक विमान में उत्पन्न होगा और वहां से च्यवन कर वह धीर वीर पाठों कर्मों की रज को दूर कर सिद्धगति को प्राप्त करेगा ।८६१। पढमाए पुढवीए, उप्पणो विमलवाहणो राया । सोहम्मे उववण्णं, सावगमि हुणं च समणी य ।८६२। (प्रथमायां पृथिव्यां, उत्पन्नः विमलवाहनो राजा। . . सौधर्मे उत्पन्न, श्रावकमिथुनं च श्रमणी च ।)
___ राजा विमलवाहन प्रथम नरक में उत्पन्न होगा। फल्गु श्री साध्वी, नाइल श्रावक और सर्वश्री श्राविका.--ये तीनों. सौधर्म कल्प में उत्पन्न होंगे ।८६२। वासाण सहस्सेहि य, एकवीसाए इहं भरहवासे । दसवेतालिय अत्थो, दुप्पसह जइ म्मि नासिहिति ।८६३। (वर्षाणां सहनश्चैकविंशत्या इह भारतवर्षे । दशवैकालिकार्थः, दःप्रसभ यत्यौ नक्ष्यति ।)
इकवीस हजार (२१,०००) वर्ष के इस दुःषम नामक पंचम आरक के अन्त में दुःप्रसह यति के स्वर्गगमन के साथ ही यहां भरतक्षत्र में अर्थ सहित दश-वैकालिक सूत्र नष्ट हो जायेगा ८६३। पुयाए संझाए, वोच्छेदो होइ धम्म चरणम्स । मज्झण्हे रातीणं. अवरण्हे जायते जस्स ।८६४। (पूर्वायां संध्यायां, व्युच्छेदः भविष्यति धर्मचरणस्य । मध्याह्न राज्ञां, अपराह्न जाततेजसः )
पंचम प्रारक की समाप्ति की पूर्व संध्या में धर्माचरण का, मध्याह्न बेला में राजाओं (अमात्य सहित राजा) अर्थात् राजसत्ता का और अपरालू की बेला में अग्नि का अन्त होगा ।८६४। रायाणादंडधरो, उसही अग्गी य संजया चेव ।। चरम दिवसावसाणे, अणु सज्जित्ता न हो हत्ति ।८६५।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
. [ २६३ (राजाज्ञा-दंडधर, औषधिअग्निश्च संयता चैव ।। चरम दिवसावसाने, अनुसज्जिता न भविष्यन्ति ।)
राजाज्ञा का पालन कराने वाला, वनस्पति, अग्नि और संयम-यम-नियम आदि के पालक-ये पंचम आरक के अन्तिम दिवस की अवसान वेला में भरत क्षेत्र में विद्यमान नहीं रहेंगे।८६५। पुयाए संझाए, वोच्छेदो इगवीस सहस्साई बासाणं । वीरमोक्ख गमणाओ, अवोच्छिन्नं होही अवस्सगं जाव तित्थं तु
८६६। (पूर्वायां संध्यायां, विच्छेद एकविंशतिः सहस्राणि वर्षाणाम् । वीरमोक्षगमनात्, अव्युच्छिन्नं भविष्यति आवश्यकं यावत् तीर्थंतु।)
आवश्यक सूत्र भगवान महावीर के धर्म तीर्थ की विद्यमानता पर्यन्त विद्यमान रहेगा। वीर निर्वाण के इकवीस हजार (और ३ वर्ष एवं साढ़े आठ मास) वर्ष पश्चात् आवश्यक सूत्र का व्युच्छेद होगा।८६६।
[आहोर नगरस्य "श्री राजेन्द्र सूरि शास्त्र भण्डार' से प्राप्त प्रति में यह गाथा उल्लिखित नहीं है ।] इगवीस सहस्साई, वासाणं वीरमोक्ख गमणाओ। अणुओगदार नंदी, अवोच्छिन्ना उ जा तिथ्थं ।८६७। (एक विंशतिसहस्राणि, वर्षाणां वीरमोक्षगमनात् । अनुयोगद्वार नन्दी, अव्युच्छिन्नाः तु यावतीर्थम् ।)
तीर्थ की विद्यमानता तक अनुयोग द्वार और नन्दिसूत्र अविच्छिन्न रहेंगे ! भगवान महावीर के निर्वाण से इकवीस हजार वर्ष (तीन वर्ष और साढे आठ मास इन में और मिलाने चाहिए) पश्चात् इनका विच्छेद होगा ।८६७। सामाइयत्थ पढमं, छेदोवट्ठावणं भवे बीयं । एते दोन्नि चरित्ता, होहिंति जाव तित्थं तु ।८६८।
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२६४ ]
( सामायिकमत्र प्रथमं छेदोपस्थापनं भवेत् द्वितीयम् । एतौ द्वावपि चारित्रौ, भविष्यतः यावत् तीर्थं तु । )
,
प्रथम सामायिक चारित्र और दूसरा छेदोपस्थापनीय चारित्र - ये दोनों तीर्थ के अन्तिम दिन तक विद्यमान रहेंगे | ८६८ । जो भणति नत्थि धम्मो, न य सामाइयं न चैव य वयाईं । सो समणसंघ वज्जो, कायव्वो समण संघेण १८६९ । (यो भणति नास्ति धर्मः न च सामायिकं न चैव च व्रतानि । स श्रमण संघवज्यः कर्त्तव्यः श्रमणसंघेन ।)
,
[ तित्थोगाली पइन्नय
,
जो व्यक्ति (साधु) यह कहता है कि धर्म नहीं है, सामायिक नहीं है और व्रत भी नहीं हैं श्रमण मंधू को चाहिए कि ऐसे व्यक्ति को श्रमण संघ से निष्कासित कर दिया जाय ।
८६
जड़ जिण मतं पवज्जह, ता मा ववहार दंसणं मुयह । ववहारस्स उछे, तित्थच्छेदो जओवस्सं ८७० । ( यदि जिन तं प्रव्रजथ, तर्हि मा व्यवहारदर्शनं मुञ्चथ । व्यवहारस्य तु छेदे, तीर्थच्छेदो यतोऽवश्यम् ।)
यदि जनमत में दीक्षित होते हो अथवा जिनमत को अंगीकार करते हो तो व्यंवहार दर्शन का परित्याग मत करो। क्योंकि व्यवहार का विच्छेद होने पर तीर्थ का विच्छेद सुनिश्चित है ८७०
| हमारा अनुमान है कि गाथा संख्या ८६ और ८७० पूर्वकाल में उत्पन्न हुए क्रिया सम्बन्धी मतभेद अथवा शिथिलाचार की ओर संकेत करती हैं ।]
,
इच्चेयं गणिपिडगं, निच्चं दव्वट्टयाए नायव्वं ।
पज्जाएण अणिच्चं निच्चानिच्चं सिय वादे । ८७१।
(इत्येतद् गणिपिटकं नित्यं द्रव्यार्थतया ज्ञातव्यम् ।
,
पर्यायेण अनित्यं नित्यानित्यं स्याद्वादे ।)
1
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ २६५
इस गणिपिटक (द्वादशांगी) को द्रव्य की दृष्टि से नित्य (अविनश्वर) और पर्याय की दृष्टि से अनित्य (नश्वर) समझना चाहिये क्योंकि स्याद्वाद में इसे नित्य एवं अनित्य-दोनों रूपों में माना गया है ।८७१। जो सियवायं भासति, पमाणनय पेसलं गुणाधारं । भावेइ मणेण सया, सो हु पमाणं पवयणस्स |८७२। (यः स्याद्वादं भाषति, प्रमाणनयपेशलं गुणाधारम् । भावयति मनसा सदा, स खलु प्रमाणं प्रवचनस्य ।) . जो पूष्ट प्रमाणों. नयों एवं गुणों के आधारभूत स्याद्वाद को बात कहता तथा उसका अन्तर्मन से सदा चिन्तन मनन करता है, वह वस्तुतः प्रवचन का प्रमाण अर्थात् प्रवचनानुसार प्रामाणिक है।८७२। जो सियवायं निंदति, पमाणनय पेसलं गुणाधारं । भावह दुढ भावा, न सो पमाणं पश्यणस्स |८७३। (यः स्याद्वादं निन्दति, प्रमाणनयपेशलं गुणाधारम् । भावयति दुष्ट भावान्. न स प्रमाणं प्रवचनस्य । . जो पुष्ट प्रमाण, नय एवं गुणों के आधारभूत स्याद्वाद को निन्दा करता और मन में भी इस प्रकार की दुष्ट भावना का चिन्तन मनन करता रहता है, वह प्रवचन का प्रमाण अर्थात् प्रवचनानुसार प्रामाणिक नहीं है ।८७३।
ओसप्पिणी इमीसे, चत्तारि अपच्छिमाइं इह भरहे । अत्थंमि दूसमाए. [अत्यं] संघस्स चउ पिहस्सावि ।८७४। (अवसर्पिण्यामस्यां, चत्वारि अपश्चिमानि इह भरते । अस्तमितायां दुष्षमायां, [अस्तं] संघस्य चतुर्विधस्यापि ।)
इस अवसर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में दुःप्रसह प्राचार्य, फल्गुश्री साध्वी, नाइल श्रावक और सर्वश्री श्राविका--ये चार व्यक्ति
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२६६ ]
[ तित्थोगालो पइन्नय धमतीर्थ के अन्तिम सदस्य होंगे। दुःषम आरक के अस्तंगत होते ही चतुर्विध तीर्थ का भी अस्तमन हो जायेगा ।८७४। तेसु य काल गतेसु, तदिवसं चेव होही अधम्मो । इय दूसमाए काले, वच्चंते पाव भूइडे । ८७५। (तेषु' च काल गतेषु, तदिवसे चैव भविष्यति अधर्मः । . अस्या दुष्षमायाः काले, व्यतीते पापभूयिष्ठो ।)
इसपाप प्रधान अथवा पापाधिक दुःषम नामक पंचम पारक के जाते (समाप्त होते) समय साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाउन चारों के दिवंगत होते ही, उसी दिन से भरत क्षेत्र में अधर्म का आधिपत्य हो जायेगा।८७५। सामाइय समणाणं, महाणुभावाण चेइयायारो। सव्वाय गंधजुत्ती दोसुवि, सज्झाएमु [दससुवि खेतेसु] नासिहिति
८७६। (सामायिकं श्रमणानां, महानुभावानां चैत्याचारः। सर्वा च गंधयुक्तिः दशस्वपि क्षेत्रेषु नश्ययिष्यति ।)
श्रमणों की सामायिक, महानुभावों ( श्रद्धालुओं) का चैत्याचार, और सब प्रकार की गन्ध युक्ति दशों ही क्षेत्रों में नष्ट हो जायेगी।८७६। चंकमि वरतरयं नरतिरियं, तिमिसगुहाए तमंधयाराए । न य तइया मणुयाणं, जिणवरतित्थे पणट्ठम्मि ।८७७१ [युग्मम् (चंकमितु नरतियचं तमिनगुहायां तमोऽन्धकारायाम् । न च तदा मनुष्याणां२, जिनवर तीर्थे प्रणष्टे ।)
मान और तिर्यंच अन्धकार पूर्ण तमिस्र गुफा में रहने लगेंगे उस समय जिनेन्द्र भगवान के तोर्थ का त्यूच्छेद हो जाने के कारण मनुष्यों में उपर्युल्लिखित सामायिक आदि धर्माचार नहीं होंगे ।८७७। १ तेषु-दुःप्रसहादिषुचतुर्यु --इत्यर्थः । २ सामायिका दि इति शेषः ।
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तत्थोगाली पइन्नय]
[२६७
पावा पावायारा, निद्धम्मा धम्मबुद्धि परिहीणा । रोदा कुणिमाहारा, नरा य नारी य होहिंति ८७८। (पापाः पापाचाराः, निधर्माः धर्मबुद्धि-परिहीनाः । रौद्राः कुणिमाहाराः, नराश्च नार्यश्च भविष्यन्ति । ___ज्यों-ज्यों काल व्यतीत होता जायेगा त्यों-त्यों नर-नारीगण पापबुद्धि, पापाचारी, धर्मबुद्धि से हीन अधर्मी, रौद्र रूप एवं स्वभाव वाले और कुत्सितभोजी होंगे।८७८। जह जह सिज्झइ कालो, तह तह सज्झाएज्झाण करणाई । सिझंति जाव तित्थं, भणियं सज्झाय वंसो य ८७९। (यथा यथा सिद्धयति कालः, तथा तथा स्वाध्यायध्यानकरणानि । सिद्धयन्ति, यावत् तीथ, भणितः स्वाध्यायवंशश्च ।) - ज्यों-ज्यों समय बीतता जायेगा. त्यों-त्यों स्वाध्याय-ध्यान आदि क्रियाए तीर्थ की विद्यमानता तक निरन्तर क्षीण होती जायेंगी। यह स्वाध्याय वंश का कथन समाप्त हुआ ।८७६। जिणवयणव्य संपत्ते सज्झाय रायवंस आहारे [आयारे] । सुव्बउ जिणवर भणियं, तित्थोगालीए संखे ।८८०। (जिनवचनमिव सम्प्राप्ताः, सज्झाय-राजवंश-आहाराः । शणोतु जिनवर भणितं, तीर्थोद्गालिके संक्षेपम् ।)
स्वाध्यायवंश, राजवंश और आहार अथवा प्राचार आदि सब कुछ जिन-वचनों के अनुसार हो आज तक चला आ रहा है। तीर्थओगालो में तीर्थकर प्रभू ने इनके सम्बन्ध में जो कहा है, उसे संक्षिप्त रूप में सुनिये ।८८०। रिद्धिस्थिमियसमिद्ध, भारहवासं जिणिंदकालम्मि । बहु अइसय संपण्णं, सुरलोगसमंगुण समिद्ध८८१॥ (ऋद्धिस्तिमित समृद्ध, भारतवर्ष जिनेन्द्रकाले । बह्वतिशयसम्पन्न, सुरलोक समं गुणसमृद्धम् ।)
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२६८ ]
[ तित्योगाली पइन्नय
तीर्थंकर काल में भारत वर्ष ऋद्धि से भरपूर - समृद्ध, अनेक अतिशयों से सम्पन्न, देवलोक के समान और गुणों से भरा पूरा
था । ५८१|
गामानगरब्भूया, नगराणि य देवलोय सरिसाणि । रायसमा य कुटुंबी, वेसमण समा य रायाणो । ८८२। ( ग्रामाः नगरभूताः, नगराणि च देवलोक सदृशानि । राजसमाश्च कुटुम्बिनः, वैश्रवणसमाश्च राजानः ।)
उस समय भारत के ग्राम नगरों के तुल्य नगर देवलोक के समान, गृहस्थ राजा के समान और राजागरण वैश्रवण के समान सर्वतः सम्पन्न थे । ८८२
चंद समा आयरिया, अम्मापियरो य देवत समाणा । मायसमाविय सासू, ससुराविय पितिसमा आसी ।८८३ ( चन्द्रसमा आचार्या, अम्बापितरौ च दैवतसमानाः । मातासमापि च श्वश्रूः श्वशुरा अपि च पितृसमा आसन् ।)
आचार्य गण चन्द्रमा के समान सौम्य शीतल एवं ज्ञान का प्रकाश करने वाले माता-पिता देव-दम्पती तुल्य, सासें माताओं के समान और श्वसुर पिता के समान थे । ८८३ |
·
धम्मा धम्मविहिन्नू, विणयण्णू सव्वसोय संपण्णो । गुरुसाहू पूणरतो, सदारनिरतो जो तहया | ८८४ | (धर्माधर्म विधिज्ञः, विनयज्ञः सत्यशौचसंपन्नः । गुरुसाधुपूजनरतः स्वदारनिरतः जनस्तदा । )
उस समय के मनुष्य धर्म तथा अधर्म की विधि के ज्ञाता, विनोत, सत्य- शौच सम्पन्न, गुरु एवं साधु की पूजा सत्कार में सदा तत्पर और स्वदार-संतोषी होते थे ८८४ |
1
अच्छय सविण्णाणो, धम्मे य जणस्स आयरो तहया । विज्जा पुरिसा पुज्जा, धरिज्जर कुलं च सीलं च । ८८५ |
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ २६६
(अच्छति च सविज्ञानः, धर्मे च जनस्य आदरः तदा । विद्यापुरुषाः पूज्या, धार्यते कुलं च शीलं च ।
उस समय के लोग विशिष्ट ज्ञान से सम्पन्न होते हैं। धर्म के प्रति जनमानस में बड़ा आदर होता है। वे लोग विद्या सम्पन्न गुणी पुरुषों की पूजा-सत्कार सम्मान, कूल की मर्यादाओं और शीलसदाचार का पूर्ण रूपेण पालन करते हैं ।८८५। भंगत्तास विरहिओ, डमरुल्लोलभयदंडरहिओ य । दुभिक्खं ईति तक्कर, करभरविवज्जिओ लोगो ।८८६। (भंगत्रास विरहितः, डमरोल्लोल-भय-दण्डरहितश्च । दुर्भिक्ष-ईति-तस्कर, करभरविवर्जितः लोकः ।)
उस समय के लोग भंग (फूट) त्रास, विप्लव को किल्लोलों, भय तथा दण्ड से दूर (रहित) तथा दुर्भिक्ष, ईति-भीति, चोर-लुटेरों से रहित और कर भार से मुक्त होते हैं ।८८६। रिद्धिस्थिमियसमिद्ध, भारहवासं जिणिंद कालम्मि । बहुयच्छेर पपुण्णं, उसभातो जाव वीरजिणो ।८८७) (ऋद्धिस्तिमितसमृद्ध, भारतवर्ष जिनेन्द्रकाले । बह्वाश्चर्यप्रपूर्ण, ऋषभात् यावत् वीर-जिनः ।)
प्रथम तीर्थकर भगवान ऋषभदेव से लेकर अन्तिम तीर्थ कर भगवान महावीर तक के तीर्थ कर-काल में भारतवर्ष समस्त ऋद्धियों से भरापूरा-समुन्नत और समृद्ध बहुत से आश्चर्यों से परिपूर्ण था ।८८७। दससुवि वासेसेवं, दस दस अच्छेरगाई जायाई ।
ओसप्पिणीए एवं, तित्थोगालीए भणियाई ।८८८ (दशस्वपि वर्षेष्वेवं, दश दश आश्चर्यकानि जातानि । अवसर्पिण्यामेवं, तीर्थोद्गालिके भणितानि ।)
ढाई द्वीप के ५ भरत तथा ५ ऐरवत-इन दशों क्षेत्रों में प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल में निम्न दश-दश आश्चर्य हए ऐसा तीथप्रोगाली में बताया गया है ।८८८।
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[ तित्योगाली पत्रय
२७० ]
उवसग्ग गम्भहरणं, इस्थितित्थं अभाविया - परिसा । कण्हस्स अवरकंका, उत्तरणं चंद-सूराणं |८८९ | (उपसर्ग - गर्भहरणं, स्त्रीतीर्थं अभावितापरिषद् ! कृष्णस्य अपरकंका, उत्तरणं चन्द्रसूर्ययोः ।)
उपसर्ग (१), गर्भापहार (२), स्त्री तीर्थ कर (३), प्रभाविता परिषद ( ४ ), कृष्ण का अपर कंका गमन ( ५ ), चन्द्र-सूर्य का उतरना ( ६ ) -- ८८
हरिवंसकुलुप्पत्ती, चमरुप्पाओ य अट्ठमयसिद्धा । अस्संजयाण पूया, दसवि अनंतेण कालेणं । ८९० । (हरिवंश कुलोत्पत्तिः, चमरोत्पातश्च अष्टशतसिद्धाः | असंयतानां पूजा, दश अपि अनन्तेन कालेन ।)
हरिवंश कुलोत्पत्ति (७), चमरेन्द्र का उत्पात (८), उत्कृष्ट अवगाहना के १०८ सिद्ध ( 8 ) और असंयत-पूजा (१०)--ये दश आश्चर्य अनन्त काल पश्चात् होते हैं |50|
लोगुत्तम पुरिसेहिं, चउप्पणाए इहं अती एहिं । सुबहुहिं केवलिहि य, मणपज्जव उहिनाहिं । ८९१ | (लोकोत्तम पुरुषैः, चतुष्पंचाशता इह अतीतः । सुबहुभिः केवलिभिश्च मनः पर्यवावधिज्ञानिभिः । )
,
यहां चौवन लोकोत्तम ( महान् ) पुरुषों के हो चुकने के पश्चात् | बहुत से केवलियों, मनः पर्यवज्ञानियों एवं अवधिज्ञानियों
८६१|
बहुरिद्धी पतेहि य, मह सुयनाणेहि बुहिय सारेहिं । काल गतेहिं बुहेहिं मोक्खविण्णाण रासीहिं । ८९२ बहुऋद्धिपात्रैश्च मतिश्र तज्ञानीभिः व्यूढसारैः । कालगतै बुधैः मोक्षविज्ञानराशीभिः ।)
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तित्थोगाली पइन्नय |
[ २७१
अनेकों ऋद्धियों एवं लब्धियों के पात्रों, मति और श्र ुतज्ञान के द्वारा सर्वसारभूत ज्ञान को वहन करने वालों और मोक्षविज्ञान के अतुल भण्डार उत्तम बुद्धिनिधानों के परलोक चले जाने पर | ८६२। तेहिय समतीहिं, भरदेवासम्मिगय दोसेहिं । मव्वोधतो व्व वप्पो, जातो संभिण्णमज्जादो |८९३ । (तैश्च समतीत भारतेवर्षे गतदोष ।
अवध्वस्त प्रव (लोकः), जातः संभिन्नमर्याद: ।)
अर्थात् भरतक्षेत्र में इन दोष रहित महापुरुषों के अवसान के पश्चात् टूटे परकोटे वाले नगर के नागरिकों के समान लोग मर्यादाविहीन हो गये । ८३ ।
जह जह वच्चर कालो, तह तह कुलं सीलदाण परिहीणो । अहियं अहम्मसीलो, सच्चवयण दुल्लहो लोगो । ८९४ । ( यथा यथा व्यत्येति कालः, तथा तथा कुलशीलदानपरिहीनः । अधिकं अधर्मशीलः, सत्यवचन दुर्लभो लोकः । )
ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों लोग कुल, शील तथा दान से उत्तरोत्तर हीन और अधिकाधिक अधर्मशील होते चल े जाते हैं । सत्यवादी लोग दुर्लभ होते जाते हैं ८४
वरीय लोगधम्मे, परिहार्यंते पणट्टमज्जाए । सक्कार दाणगिदा, कुहम्म पासंडिणो जाता । ८९५ । ( नवरं च लोकधर्मे, परिहीयमाणे प्रणष्टमर्यादे | सत्कारदानगृद्धाः, कुधर्मपाषंडिनः जाताः । )
और इस प्रकार लोकधर्म के उत्तरोत्तर दूषित होने तथा मर्यादाओं के नष्ट हो जाने पर सत्कार लोलुप एवं दानगृद्ध पाखण्डियों का प्रादुर्भाव हुआ । ८६५।
होहिंति य पासंडा, मंतक्खर कुहग संपउताय ।
मंडल मुद्दाजोगा, वस उच्चारणपरा य दढं । ८९६ ।
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२७२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(भविष्यन्ति च पाखण्डा, मंत्राक्षरकुहकसंप्रयुक्ताश्च । मण्डलं मुद्रायोगाः, वशोच्चाटनपराश्च दृढम् ।)
___ मन्त्र, यन्त्र, इन्द्रजाल आदि कौतूक विद्या एवं मण्डल मुद्रायोग आदि के द्वारा वशीकरण, उच्चाटन आदि हीन क्रियाओं में अहर्निश तत्पर रहने वाले पाखण्डियों का उस काल में बाहुल्य होगा ।८६६। तेहिं मुसिज्जमाणो, लोगो सच्छंद रइय कव्वेहिं । अवमन्निय सम्भावो, जातो अलितो य पलितो य ।८९७। (ते मुष्यमानः लोक स्वच्छन्दरचितकाव्यैः । अवमान्य सद्भावं', जातोऽलितश्च पलितश्च ।)
उन पाखण्डियों के द्वारा ठगे और लुटे जाते हुए उस समय के लोग स्वच्छन्दतापूर्वक रचित मनमाने काव्यों द्वारा वीतराग द्वारा उपदिष्ट आगमों की अवमानना करते हुए अलित-पलित हो जायेंगे ।८६७। होहिंति साहुणो वि य, सप्पक्खनिरवेक्खनिया धणियं । समणगुण मुक्क जोगा, केइ संसारछेत्तारो ।८९८। . (भविष्यन्ति साधवोऽपि च, स्वपक्षनिरपेक्षनिन्दका आधिक्येन । श्रमणगुणतुक्तयोगा, केचित् संमार-छेत्तारः ।)
__ साधू भी अधिकांशतः स्वपक्ष की अवहेलना करने वाले, बड़े निर्दय और श्रमण गुणों एवं योग से हीन होंगे। कोई विरले ही साधु संसार के बंधनों को काटने वाले होंगे ।८६८। होहीति मुरुकुलवासे, मंदा य मंदमतीय समण धम्ममि । एयं तं संपत्तं, बहुमुंडे अप्पसमणे य ८९९। (भविष्यन्ति गुरुकुलवासे, मन्दाश्च मन्दमतयश्च श्रमणधर्मे । एतत् तत् सम्प्राप्तं, बहुमुण्डा अल्पश्रमणाश्च ।) १ सद्भावं-गणिपिटकमित्यर्थ ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ २७३
उस समय के साधु गुरुकुलवास (गुरु की आज्ञा में रहने) एवं श्रमण धर्म के पालन में मन्दरुचि तथा मन्दबुद्धि होंगे। यह वह काल होगा जिसमें मुण्डितों की संख्या अधिक पर सच्चे साधुओं की संख्या प्रति स्वल्प होगी |८
रहगाव जास सत्थो, गोयमादीण वीर कहियो उ । कप्पद मसीहा विय, तित्थोगालीए दिता । ९०० ॥ (tent' येषां शास्त्रः गौतमादीनां वीरकथितस्तु ।
,
कल्पद्र ुम सिंहावपि च, तीर्थोद्गालिके दृष्टान्तौं ।)
भगवान् महावीर ने गौतम आदि गणधरों को शास्त्र और साधु का सम्बन्ध रथ ं एवं वृषभ तुल्य बताया है । तीर्थोद्गारी में साधु को कल्पवृक्ष और सिंह की उपमा दी गई है । ६०० लुद्धाय साहुवग्गा, संपतिओप्पालमूयगा बहुगा ।
अलिय वयणं च परं धम्मो य जितो अहम्मेण । ९०१ | (लुब्धाश्च साधुवर्गाः, संप्रति वप्रालमोचकाः बहुकाः । अलीकवचनं च प्रचुरं धर्मश्च जितोऽधर्मेण । )
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उस समय में साधु लोभी और श्रमण मर्यादा को तोड़ने अथवा छोड़ने वाल े बड़ी संख्या में होंगे । उस समय सर्वत्र असत्य वचन का प्राचुर्य होगा और अधर्म द्वारा धर्म को जीत लिया जायेगा ।०१।
सुद्दा य पुहविपाला, पयति ओप्पाल्लमूयगा बहुला । अलियवयणं च पउरं, धम्मो य जितो अहम्मेण । ९०२ । (शूद्राश्च पृथ्विपालाः, प्रकृति वप्रालमोचकाः बहुलाः । अलीकवचनं च प्रचुरं, धर्मश्च जितोऽधर्मेण । )
उस समय शूद्र राजा होंगे और प्रकृति अर्थात् प्रजा वप्राल अर्थात् मर्यादाओं के प्राकार (पाल) को तोडने वाली होगी । असत्य भाषण का प्राचुर्य होगा और धर्म का स्थान अधर्म ग्रहण कर लेगा |०२|
१ रथगी- रथ- वृषभतुल्यो सम्बन्धः द्वादशांग्या साद्ध गरणीनाम् ।
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२७४ ]
| तिस्थोगाली पइन्नय
गामा मसाण भूया, नयराणि य पेयलोय-सरिसाणि । दास समाय कुडुबी, जमदंडसमा य रायाणो ।९०३। (ग्रामाः श्मशानभृताः, नगराणि च प्रतलोक सदृशानि । दास समाश्च कुटुम्बिनः, यमदण्डसमाश्च राजानः ।)
उस समय के ग्राम श्मशान के समान और नगर प्रतलोक के समान भयावह, गृहस्थ दास के समान दीन और राजा लोग साक्षात् यमदण्ड के समान उत्पीड़क होंगे ।०३। रायामच्चे भिजाया, भिच्चा जणवएसु य रायाणो । खायंति एक्कमेक्कं, मच्छा इव दुब्बले बलिया ।९०४। (राजामात्याभिजाताः, भृत्याः जनपदेसु च राजानः । खादन्ति एकमेकं, मत्स्या इव दुर्बलान् बलिनः ।)
उस समय जनपदों में राजामात्य, अभिजार कुल के लोग. राजभृत्य और राजा परस्पर एक दूसरे को इस प्रकार खायेंग जिस प्रकार कि बलवान् मच्छ अपने से दुर्बल मत्स्यों को खाते हैं । ६ ०४।' जे अंता ते मज्झा, मज्झा य कमेण होत्ति णं चत्ता । ' अपडागा इव नावा, डोल्लंति समंततो देसा ।९०५। (ये अन्त्याः[अन्त्यजाः]ते मध्याः, मध्याश्च क्रमेण भवन्ति ननु त्यक्ताः। अपताका इव नौः, दोलयन्ति समन्ततः देशे ।)
___ जो लोग अन्त्य अर्थात् सब से हीन हैं वे मध्यम वर्ग के होंगे और जो मध्यम वर्ग के हैं वे क्रमशः परित्यक्त होंगे। समुद्र में पड़ो बिना पाल की नाव के समान लोग देश में इधर से उधर भटकते रहेंगे।६०५॥ पगलित गो महिसाणं, उत्चच्छाणं पलायमाणाणं । अजहन्निया पवित्ती, उक्कक्खाणं जणवयाणं ।९०६। प्रगलित गौ महिषाणां, उत्त्रस्तानां पलायमानानाम् । अजघन्या प्रवृत्तिः, उत्कक्षानां जनपदानाम् ।
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तित्थोगाली पइन्नय ।
[ २७५
___ दुर्बल एवं क्षीण त्रस्त तथा इधर उधर भागती हुई गायों एवं भैंसों वाल', उखड़ी हई कक्षा वाले अर्थात् उखड़े हुए जनपदों की यह दयनीय प्रवृत्ति पर्याप्त लम्बे समय तक चलती रहेगी।६०६। संपत्ता य जणवदा, पणट्ठसोभा य गिरभिरामा । तियदार सावएज्जा [१] चोराउल दुग्गमा देसा ।९०७। सम्प्राप्ताश्च जनपदाः, प्रणष्टशोभा च अनभिरामाः।
[१], चोराकुल दुर्गमाः देशा । आज जो ये जनपद हैं. इनकी शोभा उस समय नष्ट हो जायेगी और ये बड़े असुन्दर हो जायेंगे।"प्रदेश चोरों से आकुल व्याकुल और दुर्गम होंगे ६०७ चोरे हणंति देसे, राया करपीडियाई रट्ठाई। अइ रोदज्झवसाया, भिच्चा य हणंति रायाणो ।९०८। चौरा घ्नन्ति देशान्. राजा करपीडितानि राष्ट्राणि । अति रौद्र-अध्यवसायाः, भत्याश्च घ्नन्ति राजानः ।
उस समय प्रदेश चोरों को मार से मरे के समान और राष्ट्र राजा द्वारा लगाये गये करों से पीडित रहेंगे। बड़े ही क्र र अध्यवसायों वाले भत्य (दास) राजाओं को मारेंगे ।०८। धण-धण्णे अवि तण्हो, भिक्खावलिदाण धम्मपरिहीणो । पावो मोहमतीओ गुरुजणंमि परंमुहो लोगो। (धन-धान्ये अपि [अति] तृष्णः, भिक्षा बलिदान धर्मपरिहीनः । पापः मोहमतिकः गुरुजने पराङ्मुखो लोकः ।
उस समय का लोक समूह धन-धान्य में प्रति गद्ध, भिक्षा, बलिदान और धर्म से नितान्त रहित पापी, मोह के कारण मदान्ध और गुरुजनों से सदा पराङ मुख होगा ।६०६। सीसा वि न पूईति, आयरिए दसमाणु भावेणं । आयरिया सुमणसा, न दिति उवदेसरयणाई ।९१०।
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२७६ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(शिष्या अपि न पूजयन्ति, आचार्यान् दुषमानुभावेन । आचार्या सुमनसा, न ददति उपदेशरत्नानि ।)
दुःषम काल के प्रभाववशात् शिष्य अपने प्राचार्यों की सत्कारसम्मान आदि से पूजा नहीं करेंगे और आचार्य भी अन्तर्मन से उन्हें उपदेश नहीं देंगे।१०। समणाणं गोयर तो, नासिहिति दुःसमप्पभावणं । । सावगधम्मो वि तहा, अज्जाणं पण्णवी सावि [१] ।९११। (श्रमणानां गोचरं ततः, नाशयिष्यति दुःषमाप्रभावेन । श्रावक धर्मोऽपि तथा, आर्यिकाणां प्रज्ञप्ति सापि ।)
दुःषम आरक के प्रभाव से आगे चल कर श्रमणों की मधुकरी, श्रावक धर्म और साध्वियों का प्राचार भी धीरे-धीरे नाश को प्राप्त होगा।६११। देवा न देति दरिसणं, धम्मे य मती जणस्स पम्हट्ठा । सत्ताकुला य पुहवी, बहुअंकिण्णा य पासंडा ।९१२। (देवा न ददति दर्शनं, धर्मे च मतिः जनस्य प्रमुष्टा । . सत्वाकुला च पृथ्वी, बहुकं कीर्णाश्च पाषण्डाः ।) .
देवता मनुष्यों को दर्शन नहीं देंगे। मानव समाज की धर्म बुद्धि नष्ट हो जायेगी। अपना-अपना प्रभुत्व जमाने की मानव-मानव में होड के कारण पृथ्वी सत्ताकुल हो जायेगी और अधिकांशतः सर्वत्र पाखण्डियों का प्रसार होगा।६१२। सयणे निच्च विरुद्धो, निसोहिय साहिवासमित्तेहिं । चण्डो दुराणुयत्तो, लज्जारहितो जणो जातो ।९१३। (स्वजनेनित्यविरुद्धः, निशोधित साधिवास मित्रैः । चण्डः दुरानुवृत्तो, लज्जारहितः जनो जातः ।) ___ उस समय में लोग सदा साथ रहने वाले मित्रों एवं स्वजनों के साथ विरोध रखने वाले, बड़े क्रोधी दुष्टतापूर्ण कार्यों में प्रवृत्त और लज्जारहित होंगे।६१३।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
. [ २७७
पुत्ता अम्मापियरो, अवमणंति कटयाइ भासंति । सुन्हा य जंतसमिया, सासूविय किण्हसप्पसमा ।९१४। (पुत्रा अम्बापितरौ, अवमन्यन्ते कटुकानि भाषन्ति । स्नुषा च यन्तृशमिता, श्वश्रपि च कृष्णसर्पसमा ।)
पुत्र अपने माता-पिता का तिरस्कार करेंगे और उन्हें कटु वचन कहेंगे। पुत्रवधु जन्त्री (मोटे तार को पतले से पतला बना देने वाली छोटे बड़े अनेक छिद्रों वाली लोहे की पट्टो) के समान सास काली नागिन के समान होगी ।।१४।। सह पं [पु] सुकीलियाता, अणवरयं गुरुयनेह पडिबद्धा । मित्तदार हसिएहि लुभति वयंस सब्भासु ।९१५॥ (सहपांशुक्रीडितास्ताः अनवरतं गुरुकस्नेह प्रतिबद्धाः । मित्रदारहसितैः, लुभ्यन्ति वयस्य सभासु ।)
बाल्यकाल में धूलि में साथ खेले हुए समवयस्क युवकों के साथ उस समय की कुल वधुएँ प्रगाढ़-स्नेह में प्राबद्ध रहेंगी। युवक भी अपने मित्र की पत्नी की मधुर मुस्कान से साथियों की पत्नियों में लुब्ध रहेंगे ६१५॥ हसितेहि जंपिएहिय, अच्छिविकारेहिं नट्ठलज्जातो । सविलास नियच्छेहि य, पहुवा सिक्खंति वेसाणं ९१६। हसितैः जत्पितैश्च, अक्षिविकारैर्नष्टलज्जाः । सविलास निजाक्षौश्च प्रभूता शिक्षयन्ति वेश्यानाम् ।)
उस समय को कुलवधुएं निर्लज्ज हो हास्य, प्रेमालाप, भ्रूभङ्ग और सविलास कटाक्ष आदि वेश्याओं के बहुत से लक्षणों को सीखेंगी ।।१६। । सावग साविग हाणी, भावण तवसीलदाण परिहीणं । समणाणं समणीणं असंख डाइणि थेवेति ।९१७) (श्रावक श्राविकाहानिः, भावनातपः शील दानं परिहीनम् । श्रमणानां श्रमणीनां च, संघाटकानि स्तोकानि ।)
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२७८ ।
[ तित्थोगाली पइन्नय
उस समय में श्रावक-श्राविकाओं, दान, शील, तप और भावनाओं तथा श्रमण श्रमणियों के संघाटकों की निरन्तर हानि होगी ।९१७ विज्जाणय परिहाणी, पुप्फफलाणं च ओसहीणं च । आउय सुहरिद्धीणं, सड् ढाणुब्बत्त धम्माणं ।९१८। (विद्यानां च परिहानिः, पुष्पफलानां च औषधीनां च । .. आयुश्च सुखीनां, श्रद्धा अणुव्रत धर्माणाम् ।)
__उस समय में विद्यानों, पुष्पों, फलों, औषधियों, आयु, सुख, ऋद्धि और श्रावक अणुव्रत धर्मों की हानि होगी।६१८। केवलि वयणं सव्वं, तित्थोगालीए भाणियं एयं । ताव न छिज्जइ तित्थं, जाव [सग्ग] मपत्तं तु दुप्पसहं ।९१९। (केवलिवचनं सर्वं, तीर्थोद्गालिके भणितं एतत् । तावत् न क्षीयते तीर्थं, यावत् स्वर्गमप्राप्तं तु दुःप्रसभम् ।) ..
तीर्थ -ओगालो में इन सब के वलिभाषित बानों का कथन किया गया है। तीर्थ तब तक व्युच्छिन्न नहीं होगा जब तक कि प्राचार्य दुःप्रसह स्वर्गस्थ नहीं होंगे ६१६।। विज्जाण य परिहाणी, रोहिणी पमुहाण सोलसण्हं पि । मंडलमुदादीणं, जह भणिया वीयराएणं ९२०। (विद्यानां च परिहानिः, रोहिणी प्रमुखानां षोडशानामपि । मण्डल मुद्रादीनां, यथा भणिता वीतरागेण ।)
दुःषम काल में प्रभाव से रोहिणी आदि सोलह (१६) विद्याओं एवं मंडल मुद्रादि को वीतराग के कथनानुसार हानि होगी।६२०। चुण्णंजणाण हाणी, पायप्पलेवाण ओसहीणं च । अंतज्झाण वसीकरणाण, खग्ग [१] गोरोयणादीणं ।९२१॥ (चूर्णाञ्जनानां हानिः, पादप्रलेपानां औषधीनां च । अन्तर्धान वशीकरणानां, खग्र [१] गौरोचनादीनाम् ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
| २७६
चूर्णों, अंजनों, पांवों में किये जाने वाले लेपों को प्रौषधियों, अन्तर्धान, वशीकरण खङ्ग ( ? ) गोरोचन आदि की हानि होगी । २१ ।
ताण य परिहाणी, पसिणावच्छलमणो जोगाणं । कलहभक्खाणाणं, बुड्ढी एवं जिणा वेंति । ९२२ । ( मन्त्राणां च परिहानिः, प्रश्नावत्सलमनो (१) योगानाम् | कलहाभ्याख्यानानां वृद्धि एवं जिनाः वदन्ति )
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मन्त्रों एवं वन्सल (प्रिय) मनोयोगों सम्बन्धी प्रश्नों के उत्तर देने की विद्या का ह्रास होगा । कलह और अभ्याख्यानों (परस्पर एक दूसरे को बुरा बताने) की वृद्धि होगी, ऐसा सर्वज्ञ जिनेश्वर कहते हैं २२
कलहकरा डमरकरा, असमाहिकरा अनिव्वुझ्करा य । होहिंति एत्थ समणा, नवसुवि खेत्ते एमेव । ९२३ । ( कलहकराः डमरकरा, असमाधिकरा अनिवृतिकराश्च । भविष्यन्ति अत्र श्रमणाः, नवस्वपि क्षेत्रेषु एवमेव )
इस भरत क्षेत्र की तरह शेष 8 क्षेत्रों में भी उस समय के श्रमण कलह, विप्लव अशान्ति एवं प्रारम्भ समारम्भ करने वाले होंगे २३
दूसमकाले होही, एवं एयं जिणा परिकहंति । एगंत दुस्समाए, पाव तरगं अतो बिंति । ९२४ । (दुःषमाकाले भविष्यति एवं एतद् जिनाः परिकथयन्ति । एकान्त दुःषमायां, पापतरकं अतः ब्रुवन्ति ।)
दुष्षम नामक पंचम प्रारक में ये सब बातें होंगी ऐसा जिनेश्वर कहते हैं । इसके पश्चात् एकान्त दुष्षम अर्थात् दुष्ष दुष्षमा नामक ( अवसर्पिणी के षष्ठम तथा उत्सर्पिणी के प्रथम ) आारक में जिनेश्वर ने पाप की पराकाष्ठा बताई है । ६२४|
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२८० ]
[ तित्योगाली पइन्नय एवं परिहीयमाणे, लोगे चंदोव्वकाल पक्खम्मि । जे धम्मिया मणुस्सा, सुजीवियं जीवियं तेसि ।९२५॥ (एवं परिहीयमाने, लोके चन्द्र इव कृष्णपक्षे । ये धार्मिकाः मनुष्याः, सुजीवितं जीवितं तेषाम् ।) .
इस प्रकार कृष्ण पक्ष के चन्द्र की तरह निरन्तर क्षीण होते हुए लोक (काल) में जो मनुष्य धर्माचरण करने वाले होंगे उन्हीं का जोवन वस्तुतः अच्छा जीवन कहा जायेगा ।६२५। दुस्सम सुस्समकालो, महाविदेहेण आसि परितुल्लो । सोउ चउत्थोकालो, वीरे परिनिव्वु ते छिन्नो ।९२६।. (दुःषम सुषमकालः, महाविदेहेन आसीत् परितुल्यः । स तु चतुर्थः कालः, वीरे परिनिवृते छिन्नः ।)
दुःषम सुष्षम काल (जो भरत ऐरवत आदि दक्ष क्षेत्रों में था, वह), महाविदेह क्षेत्र में सदा एक ही समान रूप में प्रवर्तमान काल के तुल्य था। वह इस अवसर्पिणी काल का चतुर्थ आरक भगवान् के निर्वाण के (निम्नलिखित काल के) पश्चात् समाप्त हुआ।६२६। . तिहिं वासेहिं गतेहि, गएहिं मासेहिं अद्धनवमेहिं । एवं परिहायंते, दूसमकालो इमो जातो ।९२७। (त्रिभिर्वर्षे गतः, गतैः मासैरर्द्ध नवमैः । एवं परिहीयमाने, दुःषम काल इमो जातः ।
भगवान् महावीर के निर्वाण के पश्चात् तीन वर्ष और साढ़े आठ मास व्यतीत होने पर यह दुष्षम नामक पंचम आरक प्रारम्भ हुआ ।६२७। एयम्मि अइक्कते, वाससहस्सेहि एक्कवीसाए।। फिट्टिहिति लोग धम्मो, अग्गिमग्गो जिणक्खातो ।९२८ (एतस्मिन्नति क्रान्ते, वर्ष सहस्रः एकविंशत्या । स्फोटिष्यति लोकधर्म, अग्निमार्गः जिनाख्यातः ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ २८१
इकवीस हजार वर्ष पश्चात् इस दुष्षम नामक पंचम आरक के समाप्त होते ही जिनेन्द्र प्रभु के कथनानुसार (भरतादि १० क्षेत्रों में) लोक धर्म और अग्नि का विच्छेद हो जायेगा ।६२८। होही हाहाभूतो, दुक्खभूतो य पावभूतो य । काले इमाइ पत्ते, गोधम्मसमो जणो पच्छा ।९२९। (भविष्यति हाहाभूतः, दुःखभूतश्च पापभूतश्च । काले एतस्मिन् प्राप्ते, गोधर्मसमः जनो पश्चात् ।) ___ दुःषम-दुःषम नामक आरक के आने पर भरत, ऐरवत आदि दश क्षेत्रों में सर्वत्र हाहाकार, दारुण दुःख और घोर पाप का साम्राज्य हो जायेगा । तदनन्तर मानव पशुतुल्य हो जायेंगे । ६२६। खरफरुसे धूलि पउरा, अणिद्धफासा समंततो वाया । वाहित्ति भयकरा वि य, दुविसहा सव्वजीवाणं ।९३०। (खर-परुष-धूलि प्रचुरा, अनिद्ध स्पर्शाः समन्ततः वाताः । वाहिष्यन्ति भयंकरा अपि च, दुर्विषहाः सर्वजीवानाम् ।)
उस छ8 आरक में चारों ओर सर्वत्र प्राणिमात्र के लिये असह्य, तीखो. कठोर, प्रचुर धूलि भरी और दुःखद स्पर्श वाली प्रांधियां चलेगी ।६३० धूमायंति दिसाओ, रओसिला पंक रेणु बहुला उ । भीमा भय जणणीओ, समंततो अंतकालम्मि ।९३१। धूम्रायन्ते दिशाः, रजो-शिला-पंक-रेणुबहुलास्तु । भीमाः भयजनन्यः, समन्तात् अन्तकाले ।)
रज, शिला, कीचड़ और रेणु बजरी कण-मय धूलि से भरी दशों दिशाएं पंचम आरक के अन्त में सब ओर घने धूम से धूमायमान (काली) प्रतीत होंगी।६३१॥ अह दूसमाए तीसे, वितिकताए चरम समयम्मि । वासीहि सव्व [सत्त] रनिंसु महंत निरंतरं वासं ।९३२।
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२८२]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(अथ दुषमायां तस्यां, व्यतिक्रान्तायां चरम समये । वर्षिष्यति सप्त रात्रिषु, महत् निरन्तरं वर्षम् ।)
उस दुष्षम प्रारक की समाप्ति की अन्तिम वेला में सात रात (रात दिन) निरन्तर घोर वर्षा बरसेगी ।९३२। तेण हरिया य रुक्खा, तण गुम्मलया वणप्फतीओ य । अग्गिस्स य किर जोणी, तमहोरत्तं पडिस्सिहिति' ।९३३। (तेन हरिताश्च वृक्षाः, तृणगुल्मलता वनस्पतयश्च ।। अग्नेश्च किल योनिः, तस्मिन् अहोरात्र प्रतिसेत्स्यति ।)
उस घोर वर्षा से हरे वृक्ष, तृण, गुल्म, लता, वनस्पति और अग्नि की योनि उसो अहोरात्र (एक दिन तथा एक रात) में नष्ट हो जायेगी।६३३। एते सणियं सणियं, सव्वे विय पव्वेया न होहिंति । वेयड्ढो रयणड्ढो, नवरं किच्छाए दीसिहिति ।९३४। (एते शनैः शनैः, सर्वेऽपि च पर्वता न भविष्यन्ति । वैताढ्यः रत्नाढ्यः नवरं कृच्छया द्रक्ष्यन्ति ।) ।
ये सब पर्वत भी धीरे-धीरे नहीं रहेंगे। रत्नभण्डार वैताढ्य पर्वत भी बड़ा छोटा दिखाई देगा।६३४। चंदा मुच्चिहिंति हिमं, अहियं य सूरिया तविहिंति । जेण इहं नर तिरिया, सीउण्हहया किलिस्संति ।९३५॥ (चन्द्राः मुचिष्यन्ति हिमं, अधिकं च सूर्याः तप्स्यन्ति । येन इह नरतिर्यञ्चा, शीतोष्णहताः क्लिशिष्यन्ति ।)
चन्द्र हिमवर्षा करेंगे और सूर्य बड़ी तीव्रता से तपेंगे जिससे कि इन दश क्षेत्रों के मनुष्य एवं तिर्यञ्च शीत और घाम के मारे असह्य कष्ट पायेंगे ।६३५॥ १ निर्वृत्तिमवाप्स्यति-लुप्ला भविष्तीयर्थः ।
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तित्थोगाली पइन्नय]
. [२८३ अहियं होही सीतं, अहियं उण्हो वि होहीति सततं । हो ही तइया लोगो, मुम्मुर निकरेण सारिच्छो ।९३६। (अधिकं भविष्यति शीतं, अधिकं उष्णोऽपि भविष्यति सततम् । भविष्यति तदा लोकः, मुमु रनिकरेण सदृशः ।)
अत्यधिक शीत पड़ेगा और तपन भी निरन्तर अधिकाधिक होती जायेगी। उस समय लोक आग की चिन्गारियों के पुज के समान हो जायेगा।६३६। होही मुम्मिरा भूमी, पडंत इंगाल मुम्मरसरिच्छा। अग्गी हरियतणाणि य, नवरं नासीही न होही ।९३७) (भविष्यति मुर्मुरा भूमिः, पतत्-अंगार-मुमु र सदृशाः। .. अग्निः हरित तृणानि च, नवरं नाशयिष्यति न भविष्यति ।)
भूमि गिरते हुए अंगारों की चिन्गारियों के समान तपी हुई हो जायेगी । अग्नि और हरे तृण पूर्णतः नष्ट हो जायेंगे ।६३७। उदएणं बूढो सोउजणो, पुष्कफलपत्त परिहीणो । कलुण किविणो वराओ, होहिति उ दुल्लहो दट्ठ १९३८। (उदकेन वाहितः स तु जनः, पुष्पफलपत्र परिहीणः । करुणकृपणो वराका, भविष्यति तु दुर्लभः द्रष्टुम् ।)
___ जल-प्रवाह द्वारा बहाये हुए फल और पत्र तक न पाकर करुण दीन-हीन बने हुए लोग दिखने तक दुर्लभ हो जायेंगे अर्थात् बोजमात्र अवशिष्ट रहेंगे ।६३८। विक्कल्ल कालिया उ, विक्कल्ल पिसाइया महिला उ । ववगत नियंसणाउ, नवरं के सेहिं पडिबद्धा ।९३९। (विकराल कालिकास्तु, विकराल पिशाचिकाः महिलास्तु । व्यपगत निदर्शनास्तु, नवरं केशः प्रतिबद्धाः ।)
उस समय में महिलाएँ विकराल कालिका अथवा विकराल पिशाचिनी के तुल्य बीभत्स, लज्जाविहीन और केशों अथवा क्लेशों से आबद्ध होंगी।६३६॥
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२८४ ]
[ तित्योगाली पइन्नय
भसुडिय रूवगणा, विवण्णदेह-छवि-निरभिरामा । नग्गा वि गया भरणा, वीभच्छा दीह रोमनहा ।९४०। (भसुण्डित रूपगणाः, विवर्णदेहछवि निरभिरामाः । नग्नाः विगताभरणाः, वीभत्साः दीर्घरोमनखाः :) . उस समय लोग ग्रामशूकरों के समान विवर्ण एवं घृणास्पद देह वाल, नग्न, वस्त्र रहित, लम्बे-लम्बे केशों एवं नखों वाले तथा बड़े ही वीभत्स होंगे । ६४०। कुणिम सिरीसिव कदम, मुत्त पुरीसासिणो मडहदेहा । हणमिदछिंद पवरा, दोग्गतिगामी य होहिंति ।९४१। (कुणिमा सरीसृपकर्दम, मूत्रपुरीषासिनः मृतकदेहाः। . हन भेदय छेदयप्रवराः दुर्गतिगामिनश्च भविष्यन्ति ।)
वे लोग कुबड़े, सर्प, कीचड़, मूत्र और पुरीष (विष्टा) खाने वाले, मुर्दे के समान देह वाल , मारो, काटो, छेद डालो-इस प्रकार के दुष्ट वचन बोलने वाले एवं मृत्यु के पश्चात् दुर्गतिगामी होंगे ।९४१। पुणरवि अभिक्खभिक्खं, अरसं विरसं य खार खट्टच । अग्गिविस असणि सहियं, मुचहिंति मेहा जलमणि8 ९४२।। (पुनरपि अभिक्षभिक्ष, अरसं विरसं च क्षारमम्लं च । अग्नि-विष-अशनिसहितं, मुचिष्यन्ति मेघा जलमनिष्टम् ।)
बार-बार भीषण दुष्काल पड़ेंगे। उस समय बादल अरस, विरस, कडवा, खट्टा, अग्नि, विष एवं वज्र सहित अनिष्ट करें जल बरसायेंगे।९४२। जेण इहं मणुयाणं, कासो सासो भगंदरं कोड्ढो । होहिंती एवमाई, रोगा अण्णे अणेग विहा ।९४३। (येन इह मनुष्यानां, कासः श्वासो भगंदरं कुष्ठः । भविष्यन्ति एवमादयः रोगा अन्ये अनेक विधाः ।)
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तित्थोगाली पइन्न ।
{ २८५
जिससे यहां मनुष्यों को खांसी, श्वास. भगंदर, कुष्ठ आदि तथा अन्य अनेक प्रकार के भयंकर रोग घेरे रहेंगे ।६४३। होहिइ तिरिएय दुहा, जल थलणभ चारिणो य तिविहेवि । नासीहिति रुक्खादी, कूब तडागाणदी ओ य ।९४४। (भविष्यन्ति तिर्यञ्च दुःखिनः, जलथलनभचारिणश्च त्रिविधापि । नाशयिष्यन्ति वृक्षादयः कूप-तड़ागानधश्च .) ___जल स्थल और आकाश में विचरण करने वाले तीनों प्रकार के प्राणी तथा पशु पक्षी आदि तिर्यच बड़े दुःखी हो जायेंगे । वृक्ष, कूए, तालाब और नदियां ये सब नष्ट हो जायेंगे । ६४४। दससुवि खेते सु एवं, नर नारी हवंति नग्गाई। गोधम्मसमाणाई, तेसिं मणुयाण सुक्खाई।९४५॥ (दशस्वपि क्षेत्रेष्वेयं, नरनार्यः भवन्ति नग्नाः । गोधर्मसमानानि, तेषां मनुजानां सुखानि ।)
भरत-ऐरवत आदि दशों क्षेत्रों में उस समय नर-नारी नग्न रहते हैं। पशुधर्मा उन मनुष्यों के सुख पशुओं के सुख तुल्य होते
हैं ।६४५।
जह किर दाणिं महिला, पुत्ते जपंति जीव वाससयं । वोचिंति (तह) तया महिला, सोलसवासाउयो होह ।९४६। (यथा किलेदानी महिलाः, पुत्रान् जल्पन्ति जीव वर्षशतम् । वक्ष्यन्ति (तथा) तदा महिलाः, षोडशेवर्षायुषो भव ।)
आज के समय में जिस प्रकार महिलाएं अपने पुत्र को आशीर्वाद के रूप में कहती हैं -- सौ बरसों तक जोवो" उस प्रकार उस काल को माताएँ अपने पुत्रों को आशीर्वाद देती हुई कहेंगी-'सोलह वर्षों तक जीते रहो ।६४६। . सोलस वासामणुए, तया मया नत्तु यपण मुहे दीच्छिति । ऊणग छब्बरिसाउ, तया पयाहिति महिलाओ । .
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२८६ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय (षोडशवर्षीयाः मनुष्या, तदा मृता नप्तृपंचमुखानि द्रक्ष्यन्ति । ऊन षडवास्तु तदा प्रजायिष्यन्ति महिलाः ।)
सोलह वर्ष की उस समय को पूर्ण प्रामु भोग कर मरते समय उस समय अपने पांच दोहित्रों के मुख देख लेंगे। छह वर्ष से कुछ कम अवस्था में हो महिलाए पुत्र पुत्रियों को जन्म देंगी।६४७। छव्वरिसी गब्भधरी, होही नारीओ दुक्ख बीभच्छा। दच्छिति पुत्तनत्तु यदस, सोलसवासिया थेरा ।९४८। (षड्वर्षीयाः गर्भधराः, भविष्यन्ति नार्यः दुःखबीभत्साः । द्रक्ष्यन्ति पुत्रनप्त ञ्च दश, षोडशवर्षीयाः स्थविराः ।)
छह वर्ष की अवस्था में ही गर्भ धारण कर लेने वालो नारियां जब सोलह वर्ष की उम्र में स्थविरा (पूर्ण वृद्धा) होंगी तब वे दश पौत्र-दोहित्रों को देख लेंगी । ६४८ सोलसवासा महिला, पण सुए नतु ए य दच्छिति । एगंत दूसमाए, पुत्तपउत्तहिं परिकिण्णा ।९४९। (षोडशवर्षीयाः महिलाः, पञ्च सुतान् नप्तश्च द्रक्ष्यन्ति । एकान्त दुःषमायां पुत्रपौत्रः परिकीर्णाः ।)
दुष्षमादुष्षम नामक प्रारक में १६ वर्ष की महिला पांच पौत्र और पांच दोहित्रों को देखेंगी और वे पुत्र-पौत्रों से घिरी रहेंगी।६४६। भसुडिय रूवगुणा, सव्वे तवनियम सोय परिहीणा । उक्कोस रयणिमित्ता, मेत्तीरहिया य होहिंति ।९५०। (भसुडित रूपगुणाः, सर्वे तपनियशौच्य परिहीनाः । उत्कृष्ट (तः) रत्निमिताः, मैत्रीरहिताश्च भविष्यन्ति ।)
ग्राम शूकर तुल्य रूप और गुण वाले उस समय के वे सभो नर-नारी तप, नियम और शौच से रहित मैत्री भाव से परिहीन और एक मुण्ड हाथ की लम्बाई के शरीर वाले होंगे ।९५०।
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तित्थोगाली पइन्नय )
। २८७
होहीति सममणूण य, वैयड्ढ महानदीओ मोत्तू ण । मोत्त ण उसभकूडे , वे (चे) इयकूडे य सेसंतु ।९५१ । (भविष्यति समं अन्यूनं च, वैताढय महानदीः मुक्त्वा । मक्त्वा ऋषभकूट, चैत्य कूटं च शेषं तु ।)
उस समय में इन दश क्षेत्रों की धरती वैताढ्य पर्वत, महानदियों ( गंगा-सिन्धु ), ऋषभकूट और चैत्य कूट को छोड़ कर सर्वत्र समान रूप से पूरणतः समतल हो जायेगी ।६५१। . इंगाल मुग्मुरसमा, च्छार भूया भविस्सइ धरणी । तत्तकविल्लग भता, तत्तायस जोइ भया य ।९५२। (अंगार ममुर समा, क्षारभूता भविष्यति धरणी । तप्त कवेलकमताः, तप्तायःज्योति-भता च ।) - यह धरती अग्नि स्फुलिंगों के समान, प्रतप्त कवेलक (केलु) तथा तपाये हुए लोहे की ज्योति के समान एवं क्षारभूत हो जायेगी ।९५२। धूली रेणू बहुला, घण चिक्कण कद्दमाउलाधरणी । चंकमणे य असहा, सव्वेसि मणुयजातीणं ।९५३। (धूली रेणु बहुला, घनचिक्कन कर्दमाकुला धरणिः । चङ् क्रणे च असह या, सर्वाषां मनुष्यजातीनाम् ।)
उस समय धरती अत्यधिक धूलि और रेणुमयो, धने चिकने कीचड़ से भरी रहेगी। उस पर मानवमात्र के लिये चलना असह्य अर्थात् अत्यन्त कठिन होगा।६५३। मणुया खरफरुसनहा, उब्भडघड-मुहाविगडनाभा । वण्णादीहि गुणेहि य सुनिठुरतरा भवे सव्वे ९५४। (मनुष्याः खरपरुषनखा उद्भटघटमुखा विकटनाभयः । वर्णादिभिर्गुणैश्च सुनिष्ठुरतराः भवेयुः सर्वे ।)
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२८८ ]
[ तित्योगाली पइन्नय
उस समय के मनुष्य बड़े तीक्ष्ण एवं कठोर नखों वाले. घड़घड़ े के समान मुख तथा बोलने में अति विकट ग्रटपटे नामों वाले होंगे वे सब के सब वर्ण आदि सब गुणों से अति कर्कश और निष्ठुरातिनिष्ठुर स्वभाव वाले होंगे । ६५४॥
रवणी पमाणमेत्ता, उक्कोसेणं तू बीस सोलाउ । बहुपुत न च सहिया, निल्लज्जा विषय परिहीणा । (रत्निप्रमाणमात्रा, उत्कृष्टतस्तु विंशतिः षोडशायुष्काः । ९५५ । बहुपुत्र नप्तसहिता, निर्लज्जाः विनय परिहीनाः । )
उन मनुष्यों के शरीर की ऊंचाई एक मुण्ड हाथ की, उनकी उत्कृष्ट आयु २० अथवा १६ वर्ष की होगी। वे बहुत से पुत्रों पौत्रों और दोहित्रों के परिवार वाल े, नितान्त निर्लज्ज एव अविनीत होंगे । ६५५।
fier मक्कर, भोगो, सूरपक्कमंसासी ।
1
"
अणु गंगा सिंधु, पव्वय बिलवासी करकम्माय । ९५६ | ( नष्ट गुहा मकर भोजिनः, सूर्यपक्व मांसाशिनः ।
अनु गंगा सिंधु, पर्वतबिलवासिनः क्रूरकर्माणश्च ।)
ܬ
ू
वे गृहविहीन नरनारी मत्स्य मकरभोजी सूर्य की गरमी से पके मांस को खाने वाले गंगा एवं सिन्धु नदियों के तटों के पास की वैताढ्य पर्वत की गुफाओं में रहने वाले और बड़े ही क्रूरकर्मा होंगे । ५६ ।
होहिति य बिलवासी, बावचरि ते बिलाउ वेयड्ढे । उभतो तडे नदीणं, नव नव एक्के+ए कूले । ९५७ । (भविष्यन्ति च बिलवासिनः, द्वासप्तति ते बिलास्तु वैताये | उभयतो तटे नदीनां नव नव एकैक के कले )
1
वे लोग बिलवामी ( गुहावसी) होंगे। वे बहत्तर (७२) बिल वैताढ्य पर्वत में नदियों के दोनों तटों पर होंगे । प्रत्येक तट पर नौ-नौ बिल होंगे । ५७ ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
सेसं तु बीयगेत, हो हो सव्वेसु जीव जातीसु । कुणिमाहारा सव्वे, नीसाए संझ कालस्स ९५८। ( शेषं तु बीजमात्रं भविष्यति सर्वेषु जीव जातीषु कुणिमाहाराः सर्वे निशायाः संधिकालयोः । )
,
•
उस समय सब जीवों की जातियों का बीजमात्र अवशिष्ट रहेगा । वे सब प्राणी रात्रि के दोनों संध्याकाल में मत्स्य मकरादि के मांस का आहार करेंगे । ६५८ ।
रह पह मेतं तु जलं, हो ही बहु मच्छ कच्छ वाइण्णं । तम्मि समए नदीणं, गंगादीणं दसहं वि । ९५९ । (रथपथमात्रं तु जंलं. भविष्यति बहुमत्स्य कच्छपाकीर्णम् । तस्मिन् समये नदीनां गंगादीनां दशानामपि ।)
१
[ २८६
उस समय दशों क्षेत्रों की गंगा श्रादि नदियों में रथ-पथ के बराबर भाग में जल होगा, जो मछलियों, कछुओं आदि से संकुल रहेगा |५|
अह मासूर भीरू, निसाचरा बिल गया य दिवसम्म | गंगा सिन्धु नदीणं, काहिंति ततो थले मच्छा ९६० । ( अथ मायाशूराः भीरवः, निशाचराः बिलगताश्च दिवसे । गंगा सिन्धु नद्योः करिष्यन्ति ततः स्थले गत्स्यान् ।
,
वे कपट-शूर डरपोक, निशाचर मनुष्य दिन भर बिलों में दबे पड़ रहेंगे। वे दिन और रात के दोनों संधियों की वेला में बिलों से निकल कर मत्स्यों और कछुओं आदि जलजन्तुयों को गंगा-सिन्धु नदियों के तटों पर धूलि पें दबा देंगे । ९६० ।
गंगा सिन्धू य नदी, वेयड्ढ गिरि य भरह वासम्मि ।
या नवरि तिन्निवि, होहिंति न होहिति सेसाई । ९६१ । (गंगा सिन्धु च नयौ, वैताढ्य गिरिश्च भरतवर्षे ।
एतानि नवरं त्रीण्यपि भविष्यन्ति न भविष्यन्ति शेषाणि । )
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२६० ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
भरत क्षेत्र में गंगा एवं सिन्धु नदियां और वैताढ्य पर्वत, केवल ये तीन ही बचे रहेंगे. शेष कुछ भो अवशिष्ट नहीं रहेगा । ६१ ।
इगवीस [वास ] सहस्सा, भणिया अति दूसमा उवीरेणं । रायगिहे गुण सिलए, गोयममादीण सिस्साणं । ९६२ ।
( एकविंशति (वर्ष) सहस्राणि भणिता अति दुःषमाः तु वीरेण । राजगृहे गुणशीलके, गौतमादीनां शिष्याणाम् । )
,
राजगृह नगर के गुणशील चैत्य में भगवान् महावीर ने गौतम आदि गणधरों को दुष्षम दुष्षम नामक आरक की स्थिति २१००० (इकवीस हजार ) वर्ष बताई है । ६२ ।
ओपिणी उसा, कोडा कोडी उ होइ दस चेव । अवरोह अरगाण निययं, अरगा बच्चैव विक्खाया | ९६३ ( अवसर्पिणीतु एषा कोट्या कोट्यस्तु भवन्ति दश चैव । अवरोहो आरकाणां नियतः, आरकाः षड् चैव विख्याताः । )
यह अवसर्पिणो काल दश कोट्या कोटि सागर प्रमाण स्थिति वाला होता है । इसमें छह आारक विख्यात हैं । उन छहों आरकों का अवरोह ( क्रमशः होयमान उतार ) अर्थात् अपसर्पण नियत है । ६३ ।
एतो परं तु बोच्छं, उस्सप्पिणीए किचि उद्दसं ।
इगवस सहस्साणं, अई दूसम होइ वासाणं । ९६४ ।
( इतः परं तु वक्ष्ये उत्सर्पिण्याः किंचिदुद्दशम् ।
9
एक विंशतिः सहस्राणां अति दुःषमः भवति वर्षाणाम् । )
,
अब मैं उत्सर्पिणी काल के सम्बन्ध में थोड़ा कथन करूँगा । इसका दुष्षम दुष्षम नामक प्रथम आारक २१००० ( इकवीस हजार ) वर्ष का होता है । ६६४
दससु वि वासेसेसा, काहिति दुखाइं मणुय तिरियाणं । होही सुस्सिरा भूमी, मुम्मुर इंगाल समतावा | ९६५ ।
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तित्थोगाली पइन्नय]
[ २६१
(दशस्वपि वर्षेष्वेषा, करिष्यति दुःखानि मनुष्यतिर्यञ्चानाम् । भविष्यति सुस्सिरा [१] भूमिः मुर्मुर अंगारसमतापा ।)
यह दुष्षम-दुष्षमा ढाई द्वीप के ५ भरत और ५ ऐरवत, इन दशों क्षेत्रों में मनुष्यों और तिर्यञ्चों के लिये दारुण दुःखपूर्णा होगी। इस काल में भूमि अंगारों की चिन्गारियों के समान ताप वाली धूकधुकायमान होगी।६६। सीउण्हं बिलवासी, गमेति कह कहवि दुक्खसंतत्ता । वसण विहूणा मणुया. इत्थीओ विगयबलाओ ९६६। (शीतोष्णं बिलवासिनः, गमयन्ति कथं कथमपि दुःख संतप्ताः । वसनविहीनाः मनुजाः स्त्रियः विगतबलाः ।) । . ठिठुरा देने वाले शीत और झुलसाकर पिघला देने वाले आतप को दुःख से संतप्त बिलवासी येन केन प्रकारेण सहते अवश हो सहते हुए समय को व्यतीत करेंगे। वे बिलवासी वस्त्र विहीन-नग्न रहेंगे। स्त्रियां बड़ी निर्बल होंगी।६६६।
. कुणिमाहारा सव्वे, निसायरा विगलिए रत्ति दिवसंमि । गंगा दीहर मोचा, काहिंति ततो थले मीना ।९६७) (कुणिमाहाराः सर्वे, निशाचराः विगलितयोः रात्रि दिवसयोः । गंगा द्रहान् मुक्त्वा, करिष्यन्ति ततः स्थले मीनान् ।)
वे सब कुत्सित पाहार अर्थात् मत्स्यादि जलचरों के मांस को खाने वाले होंगे। दिन तथा रात का अवमान होने पर वे लोग बिलों से निकल मछलियों को नदियों में से पकड कर दोनों नदियों के तटों पर रेती में दबा देंगे ।६६७। मेची रहिया मणुया, विंसति वासाउया दुहत्थ उच्चा पढमं । अंताम्मि सोल वासाउ, हत्युच्चा चेव होहिंति । ९६८। (मैत्रीरहिता मनुष्याः, विंशति वर्षायुष्याः द्विहस्तोच्चाः प्रथमं । अन्ते षोडशवर्षायुष्याः, हस्तोच्चाश्चैव भविष्यन्ति ।)
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२६२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
वे नर-नारी दुष्षम दुष्षमा के प्रारम्भ में बोस वर्ष की आयु और शरीर को दो हाथ ऊँचाई वाले होंगे। इस प्रारक के अन्त में उनकी आयु १६ वर्ष और शरीर की ऊँचाई एक मुण्ड हाथ होगी।६६८। जिय पक्खिवग्ग सीह, चउपया पंच इंदिया जे य ।। गय गो महिस खरोट्ठ पसूय विविहा य पाणिगणो ।९६९। (यावन्तः पक्षिवर्ग सिंहचतुष्पदाः पंचेन्द्रियाः ये च । गज गो महिष खरोष्ट्रपशवश्च विविधश्च प्राणिगणः ।)
जितने पक्षिवर्ग के सभी जाति के पक्षी. सिंह. हाथी, गौ, महिष, गधे, ऊंट आदि पंचेन्द्रिय चतुष्पद पशुवर्ग और अन्य विविध प्राणिवर्ग हैं, वे सब--।६६६। आगमियाए उस्सप्पिणीए, होहिंति बीय मेत्ताई । बावत्तरि जुयलाई, नराणतत्तोय सवण्णाउ ।९७०। (आगामिन्यां उत्सर्पिण्यां, भविष्यन्ति बीजमात्राणि । द्वासप्ततिः युगलानि, नराणां ततश्च सवर्णानि ।)
आगामी उत्सपिणी काल ( के प्रथम प्रारक ) में बीज मात्र होंगे। उस समय में मानव वर्ग के बहत्तर (७२) सवर्ण अर्थात् सहोदर नर-नारी-युगल हींगे।६७०। होहिंति बिलावासी, बावत्तरि ते बिलाउ वेयड्ढे । उभतो तडे नईणं, नव नव एक्के क्कए कले ९७१। (भविष्यन्ति बिला आवासिनः, द्वासप्ततिः ते बिलास्तु वैताढ़ये । उभयतोः तटयोः नदीनां, नव नव एक्कैकके कुले ।)
वैताढ्य पर्वत में वे ७२ बिल होंगे । नदियों, के दोनों तटों पर, प्रत्येक तट पर नौ, नौ बिलों के हिसाब से होंगे ।९७१। सेसं तु वीजमेत्तं, होहिं सव्वेसि-जीवजातीणं । कुणिमाहारा सव्वे, निसाए संज्झ कालस्स ।९७२।
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तिस्थोगाली पइन्नय।
1 २६३
(शेषं तु बीजमात्रं, भविष्यति सर्वाणां जीवजातीनाम् । कुणिमाहाराः सर्वे , निश्रयां संध्या कालस्य ।)
सभी जीव जातियों का बीज मात्र शेष रहेगा। वे सब रात्रि के दोनों संधिकालों में निकृष्ट प्राहार करने वाले होंये ९७२। रहपहमेतं तु जलं. होही बहुमच्छकच्छभाइण्णं । तम्मि समए नदीणं, गंगादीणं. दसण्हं पि ९७३। (रथपथमात्रं तु जलं, भविष्यति बहुमत्स्यकच्छपाकीर्णम् । तस्मिन् समये नदीनां, गंगादीनां दशानामपि ) .
. उस समय दश गंगा और दश सिन्धु नदियों में रथ के मार्ग तुल्य प्रवाह में मछलियों और कछुओं से भरा पानी होगा।९७३। विसग्गिखार-पांणि य, वरिसहि मंघा य घोर परिसा य । एक्केक्क सत्तराई, होहिंति भरहेरवामि ९७४। (विषाग्नि क्षार पानीयं, वर्षिष्यन्ति मेघाश्च घोर वर्षाश्च । एकैक सप्त रात्राणि, भविष्यन्ति भरतैरव योः ।)
उस समय भरत क्षेत्र में बादल सात-सात रात दिन तक क्रमशः विष, अग्नि और क्षार मिश्रित जल की घोर वर्षा करेंगे ।६७४ चुण्णिय सेलं भिण्णसलिलं, गंभीर विसम भूमितलं । उदही जहा समतलं. होही भरहं निरभिरामं ९७५। (चूर्णित शैलं भिन्नसलिलं, गम्भीर विसम-भूमितलम् । उदधिः यथा [वत्] समतलं, भविष्यति भरतं निरभिरामम् )
सात-सात अहोरात्रों की उन तीन घोर वृष्टियों के जल प्रवाह से पर्बत विचूणित और विषम स्थल पूर्णतः समतल हो जायेंगे। इस प्रकार समस्त भरत क्षेत्र समुद्र के समान समतल हो जायगा ।६७५। उस्सप्पिणीए तीसे, वितिकताए चरमसमयम्मि । तो आगमेसियाए, ओसप्पिणी ए तहव्वुवठवणा .९७६।
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२६४ ]
तित्थोगालो पाइन्नय
(उत्सर्पिण्यां तस्यां, व्यतिक्रान्तायां चरम समये । ततो आगामिन्यां, अवसर्पिण्यां तथैवोपस्थापना ।)
उस उत्सपिणी काल के प्रारम्भ से अन्त तक जो स्थिति होगी, वही सब स्थिति उसके पश्चात् आने वाले अवसर्पिणी काल में भी व्यतिक्रम अर्थात् उल्टे क्रम से होगी, इस प्रकार की उपस्थापना कर लेनी चाहिए ।९७६ ओसप्पिणी इमाए, जो होही [एगंत] दुस्समाए अणुभावो । सो चेव अणुभावो, उस्सप्पिणीए ठवण गम्मि ९७७। (अवसर्पिण्यामस्यां, यो भविष्यति [ए न्ति] दःषमायां अनुभावः । स चैव अनुभावः, उत्सर्पिण्याः स्थापनके )
इस अवसर्पिणी काल के एकान्त दुष्षम अर्थात् दुष्षमदुष्षमा नामक आरक में जिस जिस प्रकार के अनुभाव (स्थिति अथवा घटना चक्र) होंगे वे ही अनूभाव आगामी उत्सर्पिणी काल की स्थापना के समय अर्थात् प्रारम्भ काल में होंगे ।६७७।
[स्पष्टीकरण -- इस गाथा के द्वितीय चरण में प्रयुक्त- 'दुस्समाए' शब्द के स्थान पर 'एगत दुस्सभाए' होना चाहिए। संभवतः 'तित्थोगाली पइन्नाकार ने एकांत दुष्षम के अर्थ में ही 'दुस्समाए' शब्द का प्रयोग किया होगा। अन्यथा शास्त्रीय मान्यता ही नहीं अपितु प्रस्तुत ग्रंथ में उल्लिखित मान्यता से भी यह गाथा विपरीत हो जाती है। ] . सी उण्ह पगलिएहिं, वित्ती तेसिं तु होइ मच्छेहिं । इगवीस सहस्साई, वासाणं णिरवसेसा उ ।९७८। (शीतोष्ण प्रगलितः, वृत्ति-तेषां तु भवति मत्स्यैः । एकविंशतिः सहस्राणि, वर्षाणां निरवशेषास्तु ।)
तीव्र शीत और गर्मी से गले मत्स्यों के मांस से उन बिलवासी (गुहावासी) मनुष्यों की पूरे इकवीस हजार वर्षों तक उदर पूर्ति होती रहेगी।६७८॥
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[ २६५
तित्योगालो पइन्नय ] सीउण्ह पगलिएहिं, वित्ती तेसिं तु होई मच्छेहिं । बायालीस सहस्सा. वासाणं निरवसेसाउ ।९७९।। (शीतोष्ण प्रगलितैः, वृत्तिस्तेषां तु भवति मत्स्यः । द्वाचत्वारिंशत् सहस्राः. वर्षाणां निरवशेषास्तु ।)
इस प्रकार अवसर्पिण काल के अन्तिम इकवीस हजार वर्ष के दुष्षमदुष्षमा नामक षष्ठम आरक और उत्सर्पिणो काल के उतनी ही स्थिति वाले दुष्षमदुष्षमा नामक प्रथम प्रारक में कुल मिला कर पूरे ४२००० (बयालीस हजार) वर्षों तक बिलवासी मनुष्यों की वत्ति ( आजीविका-अथवा उदरपूर्ति ) शीत तथा उष्णता से गले मत्स्यों के मांस से चलती रहेगी।९७६।
ओसप्पिणीए अद्ध, [तह] अद्ध उस्सप्पिणीए तं होई । एयम्मि गए काले, होइंति पंच मेहा उ ९८०। (अवसर्पिण्या अद्ध, [तथा] अद्ध उत्सपिण्यां तद् भवति । एतस्मिन् गते काले, भवन्ति पंच मेघास्तु ।)
उन बयालीस हजार वर्षों का आधा काल अर्थात् २१ हजार वर्ष का काल अवसपिणी में और शेष २१ हजार वर्ष का आधा काल उत्मपिगी में होगा। इस ४२,००० वर्ष के दो दुष्षमादृष्षम आरकों के काल के व्यतीत हो जाने के पश्चात् आकाश में क्रमशः निम्नलिखित पांच प्रकार के मेघ प्रकट होंगे ।६८०। पुक्खल संवट्टोविय, खीरो घयतोय अमयमहो य । पंचमओ रसमेघो, सव्वे वरिसिंहि दससुवि खेत सु ।९८१। (पुष्करसंवर्तोऽपि च. क्षीरः घततोय-अमृत मेघश्च । पंचमकः रसमेघः, सर्व वर्षिष्यन्ति दशस्वपि क्षेत्रेषु ।)
पुष्कर संवर्त मेघ, क्षोरमेघ घृततोय मेघ, अमृत मेघ और पांचवाँ रस मेघ-ये पांचों मेघ उपर्युक्त दशों क्षेत्रों में क्रमशः बरसेंगे ।६८१।
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| तित्थोगाली पइन्नय
२६६ ]
एक्केको अणुबद्ध, वासीहिति सत्तं सच दिवसाई । पंचतीसं दिवसे, बदलिया होहिंति सोमा [उ] ९८२ । ( एकैकोऽनुबद्धः, वर्षिष्यति सप्त सप्त दिवसानि । पञ्चत्रिंशहिवसे, बलाहकाः भविष्यन्ति सोमाः )
इन पांचों में से अनुक्रमशः प्रत्येक मेघ एक के पश्चात् एक निरन्तर सात सात दिन तक वर्षा करेंगे। पेंतीसवें दिन में सौम्य होंगे ६८२ |
बादल
पढमो उहां निवत् हिति, धन्नं बीओकरेहि मेहोय । तो नहं [सणेहं] जणयिहि ओसहि आई चउत्थो य । ९८३ ( प्रथम उष्णतां निवर्तयिष्यति. धान्यं द्वितीयः करिष्यति संघश्च । तृतीयः स्नेहः जनयिष्यति. औषधिकानि चतुर्थश्च ।)
प्रथम पुष्कर संवर्त मेघ पृथ्वी के ताप का हरण करेगा। दूसरा क्षीर मेघ धान्य उत्पन्न करेगा । तोसरा घृततोय मेघ पृथ्वी में स्नेह अर्थात् चिकनाहट और चौथा अमृत मेघ औषधियां उत्पन्न करेगा | ६८३ |
पंचमओ रसमेहा, ते सिंचिहि पुढवि-रुक्ख-भादीण | एवं कमेणजाया, वण्णा गुणेहिं उवोवेया ९८४ | (पंचमकः रसमेघाः, तेषां चेह पृथ्वीवादीनां । एवं क्रमेण जाता, वर्णादिगुणैः उपपताः )
पांचवें रसमेघ पृथ्वी, वृक्ष लता, गुल्मादि को सिंचित करेंगे। इस प्रकार पृथ्वी वर्ण गन्ध रूप रसादि से युक्त एवं क्रमशः समृद्ध होगी | ६८४ |
उस्सप्पिणी [पर] - दुस्समाए, पत्ताई चरम रातीए । वासिहिति सव्वराई, महत्तरनिरंतरं वासं । ९८५ । (उत्सर्पिण्या: परम दुष्षम दुष्षमायां प्राप्तायां चरम रात्रौ । वर्षिष्यति सर्वंरागं, महत्तर निरन्तरं वर्षम् । )
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तित्योगालो पइन्नय ]
[ २६७
स्पतयः ।
उत्सपिरणो काल के दुष्षम दुष्षमा नामक प्रथम प्रारक की अन्तिम रात्रि के पाते ही रात भर निरन्तर अति घोर वृष्टि होगी ।९८५। तेण हरिया य रुक्खा, तणगुम्मलश वणप्फतीउ । अभियस्स किरणजोणी, पंचतीसं अहोरत्ता ।९८६। (तेन हरिताश्च वृक्षाः, तृण गुल्मलतावनस्पतयः । अमृतस्य किरणयोनि [?], पंचत्रिशत् अहो रात्रा ।)
उस वर्षा के फलस्वरूप अमृतरस के उद्गम स्रोत हरे भरे वक्ष, तृण, गुल्म, लता आदि वनस्पति वर्ग उत्पन्न हुए। पैंतीस अहो. रात्र पर्यन्त-३५६ः धारावलि धवलाहि य, अहते धाराइ आहया संता । आसत्था मणुयगणा, चिंते अह पवत्ता ।९८७। (धारावलि धवलाहि च, अथ ते धारया आहता सन्तः । आश्वस्ताः मनुजगणाः, चिन्तयितु ते अथ प्रवृत्ताः ।)
मेघों से जल की धवल धारावली निरन्तर बरसती रही। तदनन्तर जलधाराओं से आहत एवं आश्वस्त हुए वे बिलवासी लोग चिन्तन करने लगे--1६८७। अच्छेरयं महन्लं, अज्झतो पडइ सीयलं उदयं । किं दाई इण्हि काही ? अण्णं एचो य परमतरं ।९८८।। (आश्चयं महत् अद्यतः पतति शीतलं उदकम् । किमिदानी ऐभिः करिष्ये, अन्यं एतेभ्यश्च परमतरम् ।) ___ अहो ! महान् आश्चर्य ! आज तो शीतल जल बरस रहा है। अब इन मत्स्यादि के मांस से क्या प्रयोजन, जब कि इससे परम श्रेष्ठ और स्वादिष्ट कन्द, मूल, पुष्प, फल, धान्यादि अन्य बहुत सी खाद्य वस्तुएं हमें उपलब्ध हैं ।६८८।। तो ते बिलवासि नरा, पासिचान्न महंत सामिद्धि । काहिंति इमं सव्वं, सव्वे वि समागता संता ।९८९। '
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२६८ ]
[ तिस्थोगालो पइन्नय
(ततः ते बिलवासिनः नराम, दृष्ट्वा अन्नं महती समृद्धिम् । करिष्यन्ति इदं सर्व , सर्वेऽपि समागताः सन्तः ।)
तदनन्तर वे सभो बिलवासी मानव बिलों से बाहर आ एक स्थान पर एकत्रित हो अन्न और पृथ्वी की उस विशाल समृद्धि को देख कर सर्वसम्मत रूप में इस प्रकार का निर्णय करेंगे-- ६८६। जातं खु सुह विहारं , कुसुम समिळू इह भरहवासं। तो जो कुणिमं खाही, अम्हं सो वज्जणिज्जोउ ।९९० । (जातं खलु सुख विहारं , कुसुम समृद्धमिदं भरतवर्षम् । ततः यः कुणिमं खादिष्यति, अस्मामिः स वर्जनीयस्तु :)
यह भारतवर्ष कुसुम आदि से समृद्ध एवं सुखपूर्वक विचरण करने योग्य बन गया है। अतः भविष्य में यदि काई व्यक्ति मांस खायगा, तो वह हम लोगों से पृथक् बहिष्कृत कर ।दया जायेगा ।६६०। (नवसुवि वासेसेवं, भणियं वीरेण आयमे संतु । रायगिहे गुणसिलए, गोयममादीण सेसाणं ।) नवस्वपि वर्षेष्वेवं, भणितं वीरेण आगमे एतत्तु । राज गृहे गुणशीलके, गौतमादीन् शेषान् ९९१।
शेष ह क्षेत्रों में भी सब कुछ इसी प्रकार होगा" - यह भगवान महावीर ने राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में अपने गौतम आदि शिष्यों को कहा था।९६१। एवं कमेण पुणरवि, दससु वि वासेसु दुस्समा एसा । इगवीस सहस्सई, वासाणं वट्टए जाव ।९९२। (एवं क्रमेण पुनरपि, दशस्वपि वर्षेषु दुःषमा एषा। एकविंशति सहस्राणि, वर्षाणां वर्तने यावत् ।)
इस प्रकार क्रमशः २१,००० वर्ष की स्थिति वाला यह दु.षम नामक आरक दशों थोत्रों में पुनः प्रवर्तित होगा ।६६२।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
एवं संघयणाई, बलवीरियाई तहेव आउंच । सदरस रूव गंधा, फासा अहियं पवति । ९९३ । ( एवं संहननानि, बलवीर्यादि तथैव आयुश्च । शब्दरसरूपगन्धाः, स्पर्शा अधिकं प्रवर्द्धन्ते ।)
इस प्रकार दसों क्षेत्रों में संहनन, बल, वीर्य, आयु, शब्द, रस, रूप, गन्ध और स्पर्श आदि की उत्तरोत्तर उन्नति एवं अभिवृद्धि होगी । ६३ ।
[ २६६
पीति पणओ नेहो, सब्भावो सोहियं च विणओ य ! लज्जा य पुरिसकारो, ज सोय कित्तीय वडढंति । ९९४ | (प्रीतिः प्रणयः स्नेहः सद्भावः शोभिकं च विनयश्च । लज्जा व पुरुषकारः यशश्च कीर्तिश्च वर्द्धन्ते ।)
इस प्रकार मनुष्यों में प्रीति प्रणय, स्नेह. शुद्धभाव, विनय, लज्जा पौरुष-पराक्रम, यश और कीर्ति की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होगी । ६६४
जहह वह कालो, तहातहा रूवसील परिबुडी । दो रयणीओ मणुया, आरम्भे अंत छच्चेव । ९९५ । ( यथा यथा वर्तते कालः, तथा तथा रूपशीलपरिवृद्धिः । द्वौ रत्निकाः मनुजाः आरम्भे अन्ते षड् चैव ।)
ज्यों-ज्यों काल व्यतीत होता जायेगा, त्यों-त्यों रूप, शील आदि की वृद्धि होती जायेगी और मनुष्यों के देह की ऊंचाई जो आरम्भ में दो मुण्ड हाथ होगी वह क्रमशः बढ़ते-बढ़ते ६ मुण्ड हाथ हो जायेगा ||
एवं परिमार्ण, लोए चंदेव धवल पक्खमि ।
तेसिं मणुयाण तया, सहसच्चिय होई मणसुद्धी । ९९६ ।
( एवं परिवर्तमाने, लोके, चंद्रोव धवल पक्षे ।
तेषां मनुजानां तदा, सहसा चिद् भवति मनः शुद्धिः ।)
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३०० ]
[ तित्योगाली पइन्नय इस प्रकार धवल पक्ष के चन्द्रमा की तरह वृद्धि को ओर अग्रसर लोक एवं काल में उस समय के मनुष्यों की सहसा ही मनःशुद्धि होती है ।६६६। विज्जाण य परिबुड्ढी, पुष्फ फलाणं च ओहीणं च । आउय सुह रिद्धीणं, संटाणुश्चत्त धम्माणं ।९९७। (विद्यानां च परिवृद्धिः, पुष्पफलानां चौषधीनां च । . आयुश्च सुखऋद्धीणः, संस्थान-उच्चत्व-धर्माणाम् ।)
विद्याओं, पूष्प-फलों, औषधियोंः प्राय, सुख, समद्धि. संस्थान, उत्सेध (ऊंचाई) और धर्म- इन सब की उत्तरोत्तर अभिवद्धि होगी ।६६७ दूसमकालो होही, एवं एयं जिणो परिकहेइ । दूस्समसुस्सुमकाले, पवड्ढमाणं असो वेति ९९८॥ दुःषमकालेः भविष्यति, एवं एतत् जिनः परिकथयति । दुःपम सुष्षम कालं प्रबद्ध मानं अतः ब्रुवन्ति ।)
इस प्रकार का दुष्षम काल होगा-ऐसा जिनेश्वर. कहते हैं। दृष्षमसूषम काल को इसी लिये प्रवर्द्धमान काल कहा जाता है।६६८ पन्नयनदीण वुड्ढी, वुड्ढी विनाण नाण सोखाणं । छण्ह वि रिऊण वुड्ढी, दससु वि वासेसु बोधव्या ।९९९। (पर्वतनदीनां वृद्धिः, वृद्धिर्विज्ञानज्ञानसौख्यानाम् । षण्णामपि ऋतूनां वद्धिः, दशस्वपि वर्षेषु बोद्धव्या ) ....
उत्सर्पिणी काल के उस दुःषम-सुषम आरक में दशों ही क्षेत्रों में पर्वतों तथा नदियों की वृद्धि होगी। विज्ञान, ज्ञान एवं सौख्य की वृद्धि होगी। छहों ऋतुओं के प्रभाव गुण आदि में भी अभिवृद्धि होगी ।६६। धण सत्तरसंवण्णं, फलाई मूलाई सम्वरुक्खाणं । खजूर दक्ख दाडिम, फणसा तउसा य वदंति ।१०००।
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तिस्थोगाली पइन्नय ]
(धान्यं सप्तदशवर्णं, फलानि मूलानि सर्ववृक्षाणाम् । खजूर द्राक्षादाडिम, फणसा, त्रपुषी च वर्द्धन्ते ।)
सत्रह प्रकार के धान्य, सब प्रकार के वृक्षों के फल एवं मूल खजूर द्राक्षा, दाडिम, फनस एवं कर्कटी आदि की भी वृद्धि होती है । १०००
विहरति भरहवास, नरनारीउ जहिच्छियं रम्मं ।
दस विखेत्ते सेवं चउप्पया पक्खिणो चैव । १००१ ।
,
( विहरन्ति भरतवर्षं नरनार्यः यथेच्छं रम्यम् ।
दशस्वपि क्षेत्रेष्वेवं, चतुष्पदाः पक्षिणश्चैव । )
1
उस समय सुन्दर भरत क्षेत्र में नर-नारीगण यथेच्छ विहार करते हैं । इस प्रकार दसों (नवों) क्षेत्रों में नर-नारीगण, चतुष्पद और पक्षिगण अपनी इच्छानुसार विचरण करते हैं । १००१ ।
बासेंति अमय मेहा, चंदाइच्चाय सीय उण्ह सुहा । वासा देसा य सोमा, भूमी उदगं च महुराई । १००२। ( वर्षन्ति अमृतं मेघाः, चन्द्रादित्याश्च शीतोष्ण सुखाः । वर्षा : देशाश्च सोमाः, भूमिरुदकं च मधुरम् ।)
1
[ ३०१
बादल अमृत की वर्षा करेंगे, चन्द्र सुखद शीतलता एवं सूर्य सुहानी ऊष्मा पहुँचायेंगे । वर्ष ( आवर्त क्षेत्र) और देश-प्रदेश बड़े ही सौम्य तथा भूमि एवं पानो मधुर आस्वाद वाले होंगे । १००२ ।
1
पुणरवि अ (सु) भिक्खभिक्खं, अमियरसरसोवमं महावासं । जेण इहं मणुयाणं, होर्हिति न रोगसंघाया । १००३ । (पुनरपि सुक्षिभिक्ष, अमृतरसरसोपमं महत् वर्षाम् । येनेह मनुजानां भविष्यन्ति न रोगसंघाताः ।)
* कर्कटी इत्यर्थः ।
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३०२ ]
[ तित्योगाली पनय
पुनः यथा समय अमृत के समान सरस जल की अच्छी वर्षाएं होंगी जिससे कि मानव वर्ग में किसी प्रकार के रोग संघात उत्पन्न नहीं होंगे । १००३ ।
अह दुसमाए तीसे, सत्तण्हं कुलगराण उप्पत्ती । कायव्वा आणपुच्ची, जह परिवाडीए सव्वेसिं । १००४ । (अय दुःषमायां तस्यां सप्तानां कुलकराणां उत्पत्तिः । कर्त्तव्या आनुपूर्वीः, यथा परिपाट्या सर्वेणाम् । )
उत्सर्पिणी काल के उस दुःषम नामक द्वितीय आरक में सात कुलकर उत्पन्न होंगे। उन सब का परिपाटी के अनुसार आनुपूर्वी कर लेनी चाहिए । १००४
पढमेत्थ विमलवाहण, सुदाम संगम सुपास नामे य । दत्ते सुनतसु मं, इसरोव निदिट्ठा | १००५ | (प्रथमोऽत्र विमलवाहनः, सुदाम संगम सुपार्श्व नामा च । दत्तः सुनखः तसुमं इति सप्तैव निर्दिष्टाः ।)
,
प्रथम कुलकर का नाव विमलवाहन, द्वितीय सुदाम, तीसरे संगम. चौथे सुपार्श्व नामक, पांचवें दत्त, छट्ठ े सुनख और सातवे तसुमं होगा । इस प्रकार ये सात कुलकर बताये गये हैं । १००५ । उस्सप्पिणी इमीसे, विनियाए समाए य गंग सिघृणं । एत्थ बहुमज्झ देसे, उप्पण्णा कुलगरा सच | १००६ । उत्सर्पिण्या: हमायाः, द्वितीयायां समायां च गंगासिन्वोः । अत्र बहुमध्य देशे, उत्पन्ना कुलकराः सप्तः । )
उस आगामी उत्सर्पिणी की दूसरी समा अर्थात् द्वितीय आरक में गंगा और सिन्धु के मध्यवर्ती प्रदेश में सात कुलकर उत्पन्न होंगे । १००६ ।
[ स्पष्टीकरणः -- समवायांग सूत्र में आगामी उत्सर्पिणीकाल के द्वितीय चरक में भरत क्षेत्र के भावी सात कुलकरों के नाम इस प्रकार उल्लिखित हैं:
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मा।
.
तित्थोगाली पइन्नय ।
[ ३०३ "जंबूद्दीवेणं दीवे आगमिस्साए उस्सप्पिणीए भारहे वासे सत्त कुलगरा भविसंति, तं जहाः--
मियवाहणे सुभूमे य, सुप्पभे य सयंपभे।
दत्रो सुहुमे सुबंधू या आगमिस्साण होक्खति ॥'] एरावयम्मि सत्तेव, कुलगरा विमलवाहणो पढमो। बीउ हु विउलवाहण, नय समग्ग विशारदो धीरो ।१००७। (एरावते सप्तव, कुलकरा, विमलवाहन प्रथमः । पीउहु विपुलवाहन नय समग्र विषादरः धीरः ।)
. ऐरवत क्षक्ष में भी उस समय क्रमशः सात कुलकर उत्पन्न होंगे जिनमें विमलवाहन प्रथम. समस्त नयों का विशारद धीर कुलकर विपुलवाहन द्वितीयः--११००७। दढधणु दसधणुगो विय तत्वोसय घणु पडि सुई चेव । संमुची सत्तम गो विय, गामनगर पट्टणा इगरा ।१००८। (दशधनुः दशधानुष्कोऽपिच, ततः शतधनुः प्रतिषेधी चैव । संमुत्ती सप्तमकोऽपिच ग्रामनगरपत्तनादिकराः ।)
तीसरा दृढ़धन, चौथा दशधनुक, पांचवां शतधनु, छठ्ठा प्रतिश्र ति और सातवां संमुत्ती । ये ग्राम-नगर-पत्तन प्रादि का निर्माण कराने वाले होंगे । १००८। ...
__[समवायांग और स्थानांग में उल्लेख है कि आगामी उत्सर्पिणी में ऐरक्त क्षेत्र में १० कुलकर होंगे।] . उस्सप्पिणी इमीसे, बीति समाए य उत्तरंतीए । तत्थ बहुमञ्झ देसे, उप्पण्या कुलगरा सत्त ।१००९। । (उत्सर्पिण्या इमायाः, द्वितीयायां समायां च उत्तरन्त्याम् । तत्र बहुमध्यदेशे, उत्पन्ना कुलकरा सप्तः ।)
उत्सर्पिणी की दूसरी दुःषमा नाम की समा के ढलते समय में भरत क्षेत्र के गहरे मध्य भाग में सात कुलकर उत्पन्न होंगे। १००६।
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३०४ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय चउ सुवि एरवए सु, एवं चउसुवि य भरहवासे सु । एक्केक्कम्मि उ, होहिंति कुलगरा सत्त ।१०१०। (चतसष्वपि ऐरवतेषु, एवं चतुष्ष्वपि च भरतवर्षेषु । एकैकके तु, भविष्यन्ति कुलकराः सप्तः ।)
इसी प्रकार शेष चारों ही ऐरवत क्षेत्रों तथा चारों . भरत क्षेत्रों में, प्रत्येक में सात-सात कुलकर होंगे।१०१०। गाम नगरागराणं, गोउल संबाह संनिवेसाणं । कुलनीति रायनीतीण, कारगा कुलगरा तइया ।१०११। (ग्रामनगराकराणं, गोकुल संवाह सन्निवेषाणाम् । कुल नीतिः राजनीत्योः, कारका कुलकराः तदा ।)
उस समय के वे कलकर ग्राम, नगर, प्राकर, गोकल, संवाह एवं सन्निवेशों तथा कुल नीति एवं राजनीति के निर्माता होंगे।१०११॥ आसा हत्थी गावो, गहियाई रज्ज संगह निमित्तं । . .. ववहारो लेहवणं, होही सामाइ एसिं तु ।१०१२। (अश्वाः हस्तिनः गावः गृहीतानि राज्यसंग्रहनिमित्तम् । व्यवहारः लेखापन, भविष्यति सामादि एषां तु ।)
उन कुलकरों द्वारा घोड़ों, हाथियों, गायों आदि को राज्य संग्रह के लिये पकड़ा जायेगा। व्यवहार अर्थात् आदान-प्रदान, लेखन
और साम आदि दण्ड नीतियों का भी इन्हीं के समय में प्रचलन होगा।१०१२। उग्गा मोगा राइण्ण, खेत्तिया संगहो भवे च उहा । उप्पण्णे अगणिमिय, रंधणमातीणी काहिंति ।१०१३। (उग्राः भोगा (जाः) राजन्याः, क्षत्रियाः संग्रहः भवेत् चतुर्धा । उत्पन्न अग्नौ च, रन्धनादीनि करिष्यन्ति ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ३०५
उग्र, भोग राजन्य और क्षत्रिय - यह चार प्रकार का संग्रह भी राज्य चलाने के लिये किया जायेगा। अग्नि के उत्पन्न होने पर लोग रंघन - पाकादि भी इन कुलकरों के समय में करेंगे । १०१३ ।
जह जह वट्टति कालो, तह तह बहूति रूव सो भग्गा । जस कित्ती सील लज्जा, नरनारी गणाण रिदी ओ । १०१४। ( यथा यथा वर्तते कालः, तथा तथा वर्द्धन्ते रूप सौभाग्याः । यशः कीर्ति - शील- लज्जा, नरनारिगणानां ऋद्धयःतु ।)
ज्यों-ज्यों काल व्यतीत होता जायेगा, त्यों-त्यों नरनारीगण के रूप, सौभाग्य, यश, कीर्ति, शील, लज्जा और ऋद्धियों की भिवृद्धि होती जायेमी । १०१४ |
हल करिसण कम्मत्ता, सुवण्ण मणिरयण कंस दूसावि । भोण गंध विहीउ, वडू देति नरगणाण चिरं । १०१५ । ( हलकर्षणकर्मता (कर्मकारिता), स्वर्ण मणिरत्न कांस्य दृष्यान्यपि । भोजनगन्ध विधयः, वर्द्धन्ते नरगणानां चिरम् 1 )
उस समय के लोगों के हल, कृषि कार्य, कर्मकारिता, स्वर्ण, मणिरत्न, कांसी, वस्त्र, भोजन, गन्ध विधि आदि की भी उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होगी । १०१५
दुद्धदहीणवणीयं, घयं च तेल्लं च होहिती रम्मं । महुमज्ज भोई (य) णाई, बढती नरगणाण चिरं । १०१६। (दुग्धदधिनवनीतं घृतं च तेलं च भविष्यति रम्यम् । मधुमद्य भोजनादिनि, वर्द्धन्ते नरगणानां चिरम् ।)
,
दूध, दही, मक्खन, घृत और तैल आदि सुस्वादु होंगे । उस समय के लोगों के पास मधु, मद्य एवं भोज्य पदार्थों की भी अभिवृद्धि होगी । १०१६।
पढमो उ कुल गराणं, नामेणं विमलवाहणोतइया ।
जातीसरी उ राया, काही कुल रायधम्मो उ । १०१७ |
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३०६ ]
[ तित्योगालो पइन्नय
प्रथमस्तु कुलकराणां, नाम्ना विमलवाहनस्तदा । जातिस्मरस्तु राजा, करिष्यति कुलराजधर्मान् तु ।)
उस समय का विमलवाहन नाम का प्रथम कुलकर जातिस्मर ज्ञान का धारक और राजा होगा। वह कुल धर्म और राज धर्म को संस्थापना करेगा ।१.१७। एवं सव्वे काहिंति, सुम्मनी* कुलगरो उ सत्तमतो । वेयड्ढगिरि समीवे, पुंडम्मि य जणवदे रम्मे ।१०१८।। (एवं सर्वे करिष्यन्ति, सुमतिः कुलकरस्तु सप्तमकः । वैतादयगिरेः समीपे, पुण्डू च जनपदे रम्ये :)
___इसी प्रकार विमल वाहन के पश्चाद्वर्ती कुलकर भी राज्य का संचालन करने के साथ-साथ कुलनीति का संचालन करेंगे। सुम्मती नामका सातवां कुलकर वैताढ्य गिरि के पास पुण्ड नामक सुरम्य जनपद में - ११०१८। नगरम्मि सयद्वारे, होही राया उ सुमती नामो । सब कलाणं निहि सो, सब पयाणं च पुट्ठिकरो।१०१९। (नगरे शतद्वारे, भविष्यति राजा तु सुमतिः नामा। सर्वकलानां निधिः स, सर्व प्रजानां च पुष्टिकरः।)
शतद्वार नामक नगर में सुम्मती ( सुमति ) नामक राजा होगा। वह सब कलाओं का भण्डार और सब प्रजाओं का भली भांति पोषण करने वाला होगा।१०१६। हय-गय-रह-जोहजुत्तो, हेला विविय दरिय पडिवक्खो । गरुय परक्कमपयडो, वेसमणसमाणविभवो य ।१०२०। (हय-गज-रथ-योध युक्तः, हेलाविद्रवितदरितप्रतिपक्षः । गुरुक पराक्रमप्रकटः, वैश्रवणममानविभवश्च :)
* स्थानाङ्ग तु भावी सप्तम कुलकरस्य नाम सुबन्धू इति समुल्लिखितमस्ति ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
... [ ३०७ वह अश्वारोही, गजारोहो और रथारोही योद्धाओं से सन्नद्ध, सहज ही हाकल मात्र से प्रतिपक्षी शत्रुओं का विदारण कर उन्हें रम से भगा देने वाला, प्रसिद्ध महा पराक्रमी और वैश्रवण के समान वैभवशाली होगा ।१०२०।
उत्तमरूवसरूवो, उत्तम विण्णाण णाण संपन्नो । वज्ज रिसमसंघयणो, इंदीवरलोयणो राया ।१०२१॥ (उत्तम रूपस्वरूप, उत्तमविज्ञान-ज्ञान सम्पन्नः । वज्रर्षभ संहननः, इन्दीवरलोचनः राजा ।)
कमल के विकसित फूलों के समान विशाल लोचनों वाला वह राजा वज्र ऋषभनाराच-संहनन का धनी, उत्तम रूप स्वरूप एवं उत्तम ज्ञान तथा विज्ञान से सम्पन्न होगा।१०२१।
होही भदा पची, सुवण्णवण्णा वराणणा सुभगा । पढ मिल्ले संघयणे, चउसटिकलाण गहियन्या ।१०२२॥ (भविष्यति भद्रा पत्नी, सुवर्णवर्णा वरानना सुभगा। प्रथमक संहननाः, चतुःषष्टि कलानां गृहीतव्या ।)
उस सुमति नामक कुलकगर के स्वर्ण के समान वर्ण वाली, समुखी सुभगा, वच ऋषभ नाराच संहनन की धारिका और चौसठ कलाओं की निधान भद्रा नाम की पत्नी होगी ।१०२२॥
उस्सप्पिणी इमीसे, बीति समाए उ वणियं किंचि । इगवीस सहस्साई, बीओ अरगो य नायव्यो ।१०२३। (उत्सर्पिण्या अस्यां, द्वितीय समायाः तु वर्णितं किञ्चित् । एक विंशतिः सहस्राणि, द्वितीयः आरकश्च ज्ञातव्यः ।).
. आगामी उत्सर्पिणी काल के द्वितीय आरक के सम्बन्ध में कुछ वर्णन किया गया। वह द्वितीय आरक २१,००० वर्ष की स्थिति वाला जानना चाहिए।१०२३।
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३०८ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
दूसम सुस्सम कालो, उदही समाणाण कोडी कोडीओ। जिण चक्कि दसाराणं(वासुदेवाणं), किंवि समासं पवक्खामि ।१०२४। (दुःषमसुषमाकाल, उदधि समानानां (सागरोपम) कोट्या कोटिकः । जिनचक्रि वासुदेवानां, किमपि समासेन प्रवक्ष्यामि ।)
उत्सर्पिणी का दुःषम सुष्षम काल एक कोटा कोटि सागरोपम(४२,००० वर्ष कम इस प्रकार का उल्लेख होना चाहिए पर इस गाथा में ऐसा उल्लेख नहीं है)-का होगा । अब मैं जिन (तीर्थकर), चक्रवर्ती और दशा) के सम्बन्ध में संक्षेपतः कुछ कहूँगा।१०२४॥ नगरम्मि सत दुवारे, सुमइ रायस्स भारिया भद्दा । सयणिज्जे सुह सुत्ता, चोदस सुमिणे उ पेच्छिहिति ।१०२५। (नगरे शतद्वारे, सुमति राज्ञः भार्या भद्रा । शयनीये सुखसुप्ता, चतुर्दश स्वप्नानि तु प्रक्षयिष्यति ।)
__ शतद्वार नामक नगर में राजा सुमति की रानी भद्रा शय्या पर सुख पूर्वक सोती हुई (निम्नलिखित) चौदह स्वप्न देखेगी ।१०२५। गय-उसम-सीह-अभिसेय-दाम-ससि-दिणयरं झयं कुभं । पउमसर-सागर-विमाण भवण* रयणुच्चय-सिहिं च ।१०२६। (गज-वृषम-सिंह-अभिषेक-दाम-शशि-दिनकर-झसं-कुम्भम् । . पद्मसर-सागर-विमान भवन-रत्नोच्चय-शिखि च।)
___ गज, वृषभ, सिंह, अभिषेक, दाम शशि, सूर्य, मत्स्य, कुभकलश, पद्मसर, सागर, भवन ( विमान नहीं), रत्नराशि और निर्धू माग्नि ।१०२६।। एते चउद्दस सुमिणे, पासइ भद्दा सुहेण पस्सुत्ता । जं रयणि उबवण्णो, कुच्छिसि महायसो पउमो ।१०२७/ * यदा तीर्थंकरजीव: देवलोकात् गर्भ च्यवति तदा तीर्थ करमाता द्वादशमे . स्वप्ने विमानं. पश्यति । तीर्थंकर जीवस्य नरकात् गर्भ च्यवनावस्थायां तु माता भवनं पश्यति ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
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( एतानि चतुर्दश स्वप्नानि पश्यति भद्रा सुखेन प्रसुप्ता | यस्या रजन्यां उत्पन्नः, कुक्षौ महायशाः पद्मः । )
जिस रात्रि में उत्सर्पिणी काल के महान् यशस्वी प्रथम तीर्थकर पद्म रानी भद्रा की कुक्षि में उपपन्न होंगे उस रात्रि में सुखपूर्वक सोती हुई भद्रा रानी ये चौदह स्वप्न देखेगी । १२७
[ ३०६
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एरवते वय एवं समुह (सुमइ) रायस्स भारिया भद्दा ! सयणिज्जे सुह सुचा, चउद्दस सुमिणे य दिच्छिहिति । १०२८ । ( ऐर वतेऽपि च एवं सुमतिराज्ञः भार्या भद्रा । शयनीये सुखसुप्ता, चतुर्दश स्वप्नानि च द्रक्ष्यति । )
ऐरवत क्षेत्र में भी सुमति नामक राजा की रानी भद्रा शैया पर सुखपूर्वक सोती हुई चौदह स्वप्न देखेगी । १०२८ ।
-गय उसभ गाहा
(गज़, वृषभ आदि चतुर्दश स्वप्नों की वही उपरिलिखित गाथा ।)
एते चउदस सुमिणे पासइ. भद्दा सुहेण पासुता ।
जं स्यणिं उबवण्णो, कुच्छिसि सिद्धत्थ तित्थयरो । १०२९ । ( एतानि चतुर्दश स्वप्नानि पश्यति भद्रा सुखेन प्रसुप्ता यस्यां रजन्यां उपपन्नः कुक्षौ सिद्धार्थं तीर्थंकरः ।)
1
जिस रात्रि में ऐरवत क्षेत्र के प्रथम तीर्थंकर सिद्धार्थ भद्रा रानी के गर्भ में आये उस रात्रि में सुख पूर्वक सोती हुई भद्रा ये चौदह स्वप्न देखेगी । १०२ ।
उमुवि एरवर सु एवं चउसु विय भरहवासे स ।
''
1
उवण्णा तित्थयरा, हत्युत्तर जोग जुत्तेणं । १०३०। ( चतुःष्वपि ऐरवतेषु एवं चतुःष्वपि च भरतवर्षेषु । उपपन्ना तीर्थंकराः, हस्तोत्तरायोग युक्तन ।)
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३१० ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
इसी प्रकार शेष चारों ऐरवत और चारों भरत क्षेत्रों में, चन्द्र का हस्तोत्तरा नक्षत्र के साथ योग होने पर आठ तीर्थकर अपनी अपनी माता की कुक्षि में उत्पन्न होंगे ।१०३०। जो सो सेणियराया, कालं काऊण काल मासम्मि । रयणप्पभाए तीसे, उच्चहिचा य इहयम्मि ।१०३१। (यः स श्रेणिकराजा, कालं कृत्वा कालमासे । रत्न प्रभायां तस्यां, उद्वयं च इहके i) सीमंत नरगामओ उ , आउ परिपालिऊण तो भगवं । चउरासीति सहस्साणं, वासाणं सो महापउमो ।१०३२। (सीमंत नरकात्तु . आयुः परिपाल्य ततः भगवान् । चतुरसीति सहस्राणां, वर्षाणां स महापद्मः ।)
भगवान् महावीर का परम भक्त राजा श्रेणिक था, वह अपनी प्राय पूर्ण होने पर काल धर्म को प्राप्त हो रत्नप्रभा नाम की में उत्पन्न हो वहां सीमन्त नरक की अपनी ८४,००० वर्ष की प्रायू पूर्णकर वह भगवान महापद्म के रूप में रानी भद्रा की कक्षि में गर्भ रूप से उत्पन्न होंगे ।१०३११-- १०३२। चेत्तस्स सद्ध तेरसि, चंदे हत्युत्तरेण जोगेणं । . सिद्धत्थ महा पउमा, जाया दस एकसमएणं ।१०३३॥ (चैत्रस्य शुक्ल त्रयोदश्यां, चन्द्रस्य हस्तोत्तरेण योगेन । सिद्धार्थ महापद्माः, जाता दश एक समयेन ।)
चैत्र शुक्ला चतुर्दशो को चन्द्र का हस्तोतरा के साथ योग होने पर सिद्धार्थ और महापद्म १० तीर्थ कर (दश क्षेत्रों में) एक ही समय में उत्पन्न होंगे ।१०३३॥ नाणा रयणा विचित्ता, वसुधारा निवडिया कलकलेती । गंभीर मडुर सहो य, दुदुभिताडियो गयणे ।१०३४। ... (नाना रत्न विचित्रा, वसुधारा निपतिता कल कलन्ती । गम्भीरमधुर शब्दश्च दुंदुमिताडितः गगने ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ३११
विविध रत्नों की कलकल करती हुई वसुधारा की वृष्टि हुई और गगनमण्डल में देवताओं द्वारा प्रताडित दुन्दुभियों का मधुरगम्भीर घोष गु ंजरित हो उठेगा । १०३४ ।
जाण विमाणारूढा, अह एंति तहि दिसा कुमारीउ । उड्ढमहोलोगम्मिय, वत्थव्वा तिरिय लोगे य । १०३५ । ( यान्ना विमानारूढा, अथ यन्ति तत्र दिशाकुमार्यः । उर्ध्व अधोलोके च वास्तव्याः तिर्यक् लोके च ।)
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7
तदनन्तर उर्ध्व अधः और तिर्यक् लोक में रहने वाली दिशा कुमारियां यान- विमानों पर आरूढ़ हो वहां आवेगी । १०३५ । जाण विमाण पभाए, रयणी आसि य सा दिवस भूया |
सुर- कण्णा हि समहियं सन्निय नगरे वि एरिच्छा | १०३६ । ( यान- विमान प्रभाभिः रजनी आसीत् सा दिवसभूता ! सुरकन्याभिः समधिकाः सर्वास्मिन् नगरेऽपि इदृशा ।)
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यान- विमानों के दिव्य प्रकाश के कारण वह रात्रि दिवस के समान प्रकाशमान होगी । समस्त शतद्वारा नगरी प्रकाश से जगमगा उठेगी। जिन - जन्मभवन में जहां कि दिक्कुमारिकाएँ स्वयं उपस्थित - होंगी वहां विशेष प्रकाश व्याप्त होगा । १०३६।
दसमुवि वासेसेवं, उप्पण्णा जिष्णवरा य दसचैव । जम्मण महो य सव्वो, नेयव्त्रो जाव घोसणयं । १०३७। (दशस्वपि वर्षेष्वेवं, उत्पन्ना जिणवरा च दश चैव । जन्म महश्च सर्वः, ज्ञातव्यः यावत् घोषणकम् ।)
इसी प्रकार दशों क्षेत्रों में दश तीर्थ कर (एक ही समय में) उत्पन्न होंगे। उनके जन्म महोत्सव का वर्णन ऋषभादि के जन्माबसर पर दिशा कुमारिकाश्रों के आगमन से लेकर देवेन्द्रों द्वारा को गई घोषणा तक उसो प्रकार समझना चाहिए, जैसा कि पहले उल्लेख कर दिया गया है । १०३७।
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[ तित्थोगाली पन्नइय
३१२ ]
अद्ध नवमा य मासा, वासा तिनव होंति वोक्कंता । दूसमसुम काले, तो उप्पण्णो महा पउमो । १०३८ । (अर्द्ध नवमा च मासा, वर्षाणि त्रीण्येव भवन्ति व्युत्क्रान्ता | दुःषम सुषमा काले, तत उत्पन्नो महा पद्मः । )
आगामी उत्सर्पिणी काल के दुष्षम सुषम नामक तृतीय मारक के तीन वर्ष और साढ़े आठ मास व्यतीत होने पर महापद्म तीर्थंकर का जन्म होगा । १०३८ ।
चुलसीति सहस्साई, वासा सत्तेव पंच मासा य ।
वीर महा परमाणं, अंतरमेयं तु विन्नेयं । १०३९ । ( चतुरसीति सहस्राणि वर्षाणि सप्तव पंच मासाश्च । वीर महापद्मयोरंतरमेतत्तु विशेयम् । )
भगवान् महावीर और महापद्म इन दोनों के बीच के काल का अन्तर ८४, ००७ वर्ष और पांच मास समझना चाहिए । १०३६। तुट्ठा उ देवीओ, देवा आनंदिया सपरिसग्गा । भयमि महाप मे, तरलोक्क सुहावहे जाते १०४०। (तुष्टास्तु देव्यः, देवा आनन्दिताः सपरि षतकाः । भगवति महापद्म े, त्रैलोक्यसुखावहे जाते ।)
त्रैलोक्य को सुख प्रदान करने वाले तीर्थकर भगवान् महापद्म के उत्पन्न होने पर देवियां बड़ी प्रसन्न होंगी और अपनी परिषदों सहित देव-देवेन्द्र प्रानन्द का अनुभव करेंगे । १०४० जायंमि महापउमे, पउम मणि कणगवर वासं । मुचंति देवसंघा, हरिसवसुल्ल सियरोमंचा । १०४१ | ( जाते महापद्म पद्ममणि - रत्न - कनकवरवर्षम् ।
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मुचन्ति देवसंघाः, हर्षवशोल्लसित रोमाञ्चाः )
भगवान् महापद्म का जन्म होने पर हर्षातिरेक से पुलकित हो देवों के समूह पद्ममणियों, रत्नों और स्वर्णमुद्रात्रों की बड़ी सुन्दर वर्षा करेंगे । १०४१ ।
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तित्थोगाली पन्नइय ]
जम्हा अम्हं नगरे, जायं मे इमस्स पुत्तस्स । परमेहिं महावासं, नाम से तो महा पउमो । १०४२। ( यस्मात् अस्माकं नगरे, जातं जन्मनि अस्य पुत्रस्य । पद्म : महद्वर्षं नाम अस्य अतो महापद्मः । )
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[ ३१३
महाराज सुमति नामकरण के समय अपने परिजनों के समक्ष कहेंगे -- "जिस समय हमारे नगर में इस पुत्र का जन्म हुआ उस समय पद्म मणियों की वर्षा हुई प्रतः इसका नाम महापद्म रखा जाता है । १०४२।
रिद्धित्थिमिय समिद्ध, भारहवासं जिनिंदकालम्मि । बहु अतिसय संपण्णं, सरलोगनिभं गुणसमिद्धं । १०४३। (ऋद्धिस्तिमित समृद्ध, भारतवर्षं जिनेन्द्रकाले । बह्वतिशयसंपन्नं सुरलोकनिभं गुणसमृद्धम् )
जिनेन्द्रों (तीर्थ करों) के समय में भरत क्षेत्र समस्त ऋद्धियों से भरपूर अत्यन्त समृद्ध, अनेक अतिशयों से सम्पन्न, गुणों का भण्डार और देवलाक के समान होगा । १०४३ ।
गामानगरभूया, नगराणि य देवलोग सरिसाणि ।
रायसमा य कुटुम्बी, वेसंमण सम्माय रायाणो । १०४४ ॥ - (ग्रामा नगरभूताः, नगराणि च देवलोकसदृशानि । राजसमाः च कुटुम्बिनः, वैश्रवण समाः च राजानः । )
उस उसम के ग्राम नगरों के समान, नगर देवलोक के समान, कुटुम्बी राजा के समान और राजा वैश्रवण के समान होंगे । १०४४ । भंगत्तासविरहितो, डमरुन्लोल भय डंडरहितो य । परचक्क ईति तक्कर अ, करभर विवज्जितो लोगो । २०४५ । (भंग त्रास विरहितः, डमर लोल्य-भय-दण्डरहितश्च । परचक्र - ईति तस्कर च करभार विवर्जितः लोकः 1)
* डमर - विप्लवः
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३१४ ]
तित्योगालो पइन्नय
उस समय लोग पारस्परिक द्वेष तथा त्रास से रहित, विप्लव, उथल-पुथल, भय, दण्ड, आतताई के आक्रमण, ईति-भीति (महामारी), और चोर लुटेरों के भय से विहीन तथा कर भार से उन्मुक्त होंगे । १०४५। अह वढति सो भगवं, सुमतिरायस्स संगतो धीरो । दासीदास परिवुडो, परिकिण्णो पीढमद्देहि ।१०४६। अथ वर्द्ध ते स भगवान् . सुमतिराज्ञः संगतः धीरः। दासीदासपरिवृतः, परिकीर्णः पीठमः ।)
सुमति नृपति के आनन्दवर्द्धक वे धैर्यशाली प्रभु महापद्म दासदासियों से घिरे हुए एवं सुखासनों पीठमई आदि पर सुशोभित हो बढ़ने लगेंगे ।१०४६। असित सिरतो सुनयणो, बिंबोट्ठो धवलदंती पंतीओ। .. वरपउमगब्भगोरो, फुल्लुप्पल गंधनीसासो ।१०४७।। (असित शिरजः सुनयनः, बिम्बोष्ठः धवलदन्तपंक्तीकः । वरपद्मगर्भगौरः, फुल्लोत्पलगन्धनिःश्वासः ।)
भगवान् महापद्म भ्रमर सन्निभ काली केश राशि; अति सुन्दर विशाल लोचन युगल बिम्ब फल तुल्य लाल-लाल अोष्ट-पुट, स्वच्छ धवल दन्त-पंक्तियों वाले, श्रेष्ठ पद्म के गर्भ के समान गौर वर्ण
और प्रफुल्लित नीलकमल के फूल की गन्ध के समान सुगन्धित श्वास निःश्वास वाले होंगे ।१०४७। जातीसरो उ भयवं, अप्परि वडिएहि तिहि उ नाणेहिं । कंतीहि य पुट्ठीहि य, अब्भहितो तेहिं मणुएहिं ।१०४८। (जातिस्मरस्तु भगवान् , अप्रतिपतितैत्रिभिस्तु ज्ञानः । कान्तिभिश्च पुष्टिभिश्च, अभ्यधिकः तेभ्यः मनुजेभ्यः ।)
वे प्रभु महापद्म जातिस्मर ज्ञान तथा कभी क्षीण न होने वाले मति-श्र ति-अवधि-इन तीन ज्ञान से युक्त तथा उस समय के सभी मनुष्यों की अपेक्षा अत्यधिक कान्ति एवं पुष्टि वाले होंगे ।१०४८)
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तित्थोगालो पइन्नय ]
अह तो अम्बा पितरो, जाणित्ता अहिय अट्ठवासागं । कय कोउगलंकारं, लेहायरियस्स उवर्णेति । १०४९ । ( अथ तौ अम्बापितरौ, ज्ञात्वा अधिक अष्टवर्षाकम् । कृत कौतुकालङ्कारं, लेखाचार्यस्य उपनयतः । )
तदनन्तर भगवान् महापद्म को माता-पिता आठ वर्ष से अधिक वय के जान कर कौतुकालङ्कारों से अलंकृत कर लेखाचार्य के पास ल े जायेंगे |१०४६ ।
सक्को य तस्समक्खं भयवंतमासणे निवेसित्ता ।
सदस्य लक्खणं पुच्छे, वागरणं अवयवा (ण) इंदं । १०५० । ( शक्रश्च तस्य समक्षं, भगवन्तं आसने निवेशयित्वा ।
ܕ
[ ३१५
शब्दस्य लक्षणं पृच्छेत् (प्रक्ष्यति ), व्याकरणं अवयवादीनां इन्द्र ं ।) देवराज शक्र ल ेखाचार्य के समक्ष ही भगवान् महापद्म को उच्च आसन पर आसीन कर उनसे शब्द का स्वरूप पूछेगा । तीन, ज्ञान के धारक बालक महापद्म इन्द्र को शब्द के लक्षण, अवयव आदि की विस्तार पूर्वक व्याख्या कर व्याकरण के गूढ रहस्य बतायेंगे । १०५०।
अह तं अंमापितरो, जाणित्ता अहिग अट्ठ वासागं ।
कय को उगलंकारं, रायभिसेगं तु काहिंति । १०५१ । ( अथ तं अम्बापितरौ, ज्ञात्वा अधिक अष्टवर्षाकम् ।
कृत कौतुकालंकारं ( रस्य), राज्याभिषेकं तु करिष्यन्ति ।)
तदनन्तर माता-पिता भगवान् महापद्म को आठ वर्ष से अधिक आयु का जानकर कौतुकालंकार करने के पश्चात् उनका राज्याभिषेक करेंगे । १०५१।
तिहि करणंमि पसत्ये महंत सामंतकुल पसूयाए । कारिंति पाणिगहणं, जसोयवर रायकण्णाए । २०५२। ( तिथि - करणे प्रशस्ते, महत् सामन्तकुलप्रसूतायाः । कारयन्ति पाणिग्रहणं, यशोदावरराजकन्यायाः ।)
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३१६ ]
[ तित्थोगालो पइन्नय
तत्पश्चात् माता-पिता शुभ तिथि और शुभ करण में महापद्म का बड़े सामन्त कुल में उत्पन्न हुई यशोदा नामक एक सुन्दर राज. कुमारी के साथ विवाह करेंगे :१०५२। भर हमि पढम राया, हय-गयरह-जोह संकुलं सेणं । तो माणि भद्द देवो, काहिति पुण्णभद्दो य १०५३। (भरते प्रथमो राजा, हय गज रथ योध संकुलं सैन्यम् । ततः मणिभद्रदेवः करिष्यति पूर्णभद्रश्च ।)
___ महापद्म आगामी उत्सपिणी काल में भरत क्षेत्र के प्रथम राजा होंगे। मणिभद्र और पूर्णभद्र देव उन राजा महापद्म के लिये अश्व-गज एवं रथारोही योद्धाओं की एक अति विशाल सेना संगठित करेंगे।१०५३। जम्हा देवा सेणं, पडियग्गंति उ पुच संगइया । तम्हा उ देवसेणो, देवासुर पूजितो नाम ।१०५४। (यस्मात् देवाः सैन्यं, प्रत्यग्रन्ति तु पूर्व संगतिकाः । तस्मात् तु देवसेनः, देवासुरपूजितः नाम )
पूर्व भव के मित्र देवों द्वारा सेना के संगठित किये जाने के कारण महापद्म का दूसरा नाम देवासुर पूजित देवसेन भी प्रसिद्ध होगा।१०५४। धवलं गयं महंत, सत्नंग पइद्वितं चउदंतं । वाहेति विमल जसो, नाम तो विमलवाहणोति १०५५। (धवलं गजं महान्तं, सप्तांगप्रतिष्ठितं चतुर्दन्तम् । वाहयति विमलयशः, नाम अतः विमलवाहन इति ।)
विमल यश के भागी राजा महापद्म सर्वांग सुन्दर चतुर्दन्त नामक एक महान एवं श्वेत रंग के हाथी पर आरोहण करेंगे इस लिये उनका तीसरा नाम विमलवाहन भी प्रसिद्ध होगा ।१०५५। । सो देव-पतिग्गहीओ, तीसं वासाई वसति गिहवासे । अंमापितीहिं भगवं, देवचि गतेहि पव्वदत्तो ।१०५६।
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तित्थोगाली पइन्नय]
[ ३१७
(स देव प्रतिगृहीतः, त्रिंशत् वर्षाणि वसति गृहवासे । अम्बापितृभ्यां भगवान् देवगतिं गताभ्यां प्रप्रजितः ।)
देवों द्वारा परिसेवित वे भगवान् महापद्म ३० वर्ष तक गृहवास में रहेंगे और मातापिता के स्वर्गस्थ होने पर वे प्रवजित होंगे।१०५६। संवच्छरेण होही, अभिनिक्खमणं तु जिणवरिंदाणं । तो अत्थ संपयाणं, दाणं पव्वत्तइ पढम सरंमि ।१०५७। (संवत्सरेण भविष्यति, अभिनिष्क्रमणं तु जिनवरेन्द्राणाम् । ... (तु) ततः अर्थसम्पदानां, दानं प्रवर्तते प्रथमसूर्ये ।). .
प्रवजित होने से पहले एक वर्ष तक प्रतिदिन सूर्योदय के पश्चात् एक प्रहर तक स्वर्ण-मुद्राओं का वर्षीदान देंगे और इस प्रकार लोकान्तिक देवों द्वारा किये गये निवेदन से एक वर्ष पश्चात् भगवान महापद्म का अभिनिष्क्रमण होगा।१०५७।
सिंघाडग तिग चउक्क, चच्चर* चउमुह महापह पहेसु । दारेसु पुरवराण', रत्थामुह-मज्झयारेसु ।१०५८। (शृंगाटक-त्रिक-चतुष्क, चत्वर-चतुर्मुख महापथ-पथेषु ।...... द्वारेसु पुरवराणां, रथ्यामुख-मध्यकारेषु ।) _ सिंघाड़े के आकार के त्रिपथों (तिराहों), चतुष्पथों (चौराहों), जिस स्थान से बहुत सी गलियों में माने जाने के मार्ग हो: जिन स्थानों से चारों दिशाओं में जाया जा सके, राजपथों, श्रेष्ठ नगरों की प्रतोलिकाओं (घुमाव वाले द्वारों), गलियों के मुहानों एवं मध्यवर्ती भागों में--1१०५८।
* चच्चर-चत्वर=बहुरथ्यापातस्थानम् ।
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३१८: ]
araरिया घोसिज्जर, किमिच्छयं दिज्जए बहुविहीए । सुर असुर देव दाणव- नरिदंमहियाण निक्खमणे । १०५९ । ( वरवरिका घोष्यते किमिच्चिकं दीयते बहुविधिभिः । सुरासुर देवदानव नरेन्द्र महितानां निष्क्रमणे ।
,
[ तित्थोगाली पइन्नय
" वर मांगो-वर मांगो, सुरों असुरों, देवों, दानत्रों और नरेन्द्रों द्वारा पूजित जिनेश्वरों के महाभिनिष्क्रमण के अवसर पर यथेप्सित अनेक प्रकार से (का) दान दिया जा रहा है - इस प्रकार की निरन्तर बार-बार घोषणाएं की जाती हैं ( जायेंगी) । १०५६ । एगा हिरण कोडी, अव अरगुणगा सयसहस्सा ।
सुरोदयमाईयं दिज्जइ जा पायरासाओ । १०६०।
( एका हिरण्य कोटी, अष्टौ चैव अन्यूनानि शतसहस्राणि । सूर्योदयादि दीयते यावत् प्रातराशात् 1)
जिनेश्वरों द्वारा प्रतिदिन सूर्योदय से ल ेकर प्रात कालीन भोजन वेला तक एक करोड़ ग्राठ लाख (१०८०००००) स्वर्णमुद्राओं का दान दिया जाता है । १०६०
तिण्णेव य कोडिसया, अट्ठासीयंत्ति होंति कोडीओ ।
1
असि च सय सहस्सा, एयं संवच्छरे दिण्णं । १०६१ । ( त्रीण्येव कोटि शतानि, अष्टाशीति इति भवन्ति कोटयः । अशीतिश्च शतसहस्राणि, एतावत् संवत्सरे दत्तम् ।)
एक वर्ष तक प्रतिदिन तीर्थंकर भगवान् द्वारा जो दान दिया जाता है, उसमें कुल मिला कर ( वर्ष भर में) तीन अरब, अठ्यासी करोड़ और अस्सी लाख (३८८८००००००) स्वर्ण मुद्राओं का दान दिया जाता है । १०६१।
'वरवरिया -- वरवरिका = वरं याचध्वं वर यांचध्वमित्येवं घोषणा समय परिभाषया वरवरिकोच्यते ।
0 किमि च्यिं किमिच्छिकं कः किमिच्छति ? यो यदिच्छति तस्य तद्दानं समय परिभाषयेव किमिच्छिक मुख्यते ।
HN BOY
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तित्यो गाली पइन्नय ]
एवं नवसु वि खेच सु, तित्ययरा दाउ' संवच्छर दाणं । हत्थुत्तराहिं नव वि. निक्खिता खाय कितीया । १०६२। ( एवं नवस्वपि क्षेत्रेषु, तीर्थंकरा दत्वा संवत्सरं दानम् । हस्तोत्तरायां नत्र अपि, निष्क्रान्ताः ख्यात कीर्तयः । )
&
इसी प्रकार शेष क्षेत्रों में भी प्रसिद्ध कीर्तिशाली तीर्थ कर एक वर्ष तक दान देकर चन्द्र का हस्तोत्तरा नक्षत्र के साथ योग होने पर अभिनिष्क्रमण करेंगे । १०६२।
हत्थु राहिं भगवं, सयदारे खचियो महासत्तो ।
वज्ज रिसह संघयणो, भवियण विबोहे तो पउमो । १०६३ । (हस्तोत्तराया भगवान् शतद्वारे क्षत्रियः महासत्त्वः । वज्रर्षभ - संहननः भविकजन विधोधकः पद्मः 1)
,
महासत्वशाली क्षत्रिय, वज्र ऋषभ नाराच संहनन धारी, भव्य जीवों को प्रतिबोध देने वाले भगवान् महापद्म को हस्तोत्तरा नक्षत्र में शतद्वार नगर में - ।१०६३।
'सारस्सय माइच्चा वही, वरुणा य गद्दतोया य । तुसिता अव्वावाहा, अगिज्जा चेव रिट्ठा य । १०६४ | सारस्वन आदित्या वह्निः, वरुणा च गर्दतोया च । तुसिता अव्याबाधा, अग्राह्या चैव अरिष्टा च ।)
[ ३१६
सारस्वत, प्रादिस्य, वह्नि, वरुरण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, अग्राह्य और अरिष्ट - १०६४/
एते देव निकाया य, भगवं बोहिंति जिष्णवरिदं तु ।
सव्त्र जग जीव हिययं भरावं तित्थं पवतेहि । १०६५ |
,
,
( एते देवनिकायाश्च भगवन्तं बोधयन्ति जिनवरेन्द्र तु । सर्वजगजीवहितकं, भगवन् तीर्थं प्रवर्तय ।)
ये नौ देवनिकाय (लोकान्तिक देव) समस्त संसार के प्राणियों का हित करने वाले भगवान महापद्म को (बोधयन्ति - विज्ञापयन्ति)
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३२० ]
[ तित्थोगाली पइन्नय विज्ञापित करते हैं- "भगवन् ! तीर्थ का प्रवर्तन कीजिये' ।१०६५॥ एवं अभिथुणन्तो, बुद्धो फुल्लारविंद सरिसमुहो । लोगंतिय देवेहि, सयदारंमि य महा पउमो ।१०६६। (एवं अभिस्तूयमानः, बुद्धः फुल्लारविन्द सदृशमुखः । लोकान्तिक देवैः, शतद्वारे च महापद्मः ।)
लोकान्तिक देवों द्वारा शतद्वार नगर में इस प्रकार की स्तुति की जाने पर कमल के खिल पुष्प के समान नेत्रों वाले भगवान् महापद्म बुद्ध-(विज्ञप्त) हुए अर्थात् प्रभु को तीर्थ--प्रवर्तन का ध्यान आयेगा ।१०६६। मणपरिणामो य कतो, अभिनिक्खमणमि जिणवरिदेण । देवेहिं य देवीहिं य, समंतओ उच्छुयं गयणं ।१०६७। (मन परिणामश्च कृतः, अभिनिष्क्रमणे जिनवरेन्द्र ण । देवश्च देवीभिश्च, समन्ततः उत्सृतं गगनम् ।)
भगवान महापद्म अपने मन में अभिनिष्क्रमण का दृढ़ निश्चय करेंगे और देवों तथा देवियों द्वारा आकाश दिव्य घोषों से गुजरित कर दिया जायेगा ।१०६७। भवणवइ वाणमंतर, जोइसवासी विमाणवासी य । धरणियले गयणयले, विज्जुज्जो ओ क ओ खिप्पं ।१०६८। (भवनपतिः वाणव्यन्तर, ज्योतिषवासी विमानवासीभिश्च । धरणितले, गगनतले, विद्यु दुद्योतः कृतः क्षिप्रम् ।)
भवनपति, वाणमन्त्रर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव तत्क्षण पृथ्वीतल पर और आकाश में बिजली का प्रकाश करेंगे ।१०६८। जेलु नलिणिकुमारं, रज्जेठवित्तं महापउमो । उत्त्तकणगवण्णो, मगसिर बहुलस्स दसमीए ।१०६९। (ज्येष्ठं नलिनिकुमारं, राज्ये स्थापयित्वातं महापद्मः । उत्तप्त कनकवर्णः, मार्गशीर्ष बहुलस्य दशम्याम् ।)
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तित्थोगाली पइन्नय )
[ ३२१
प्रतप्त स्वर्ण के समान वर्ण वाले भगवान् महापद्म अपने ज्येष्ठ पुत्र नलिनीकुमार को राज्य सम्हला कर मार्गशीषं कृष्णा दशमी के दिन - 1१०६६।
(१०७० तथा १०७१ संख्याके द्वो गाथे प्रतौ न स्तः)
[ स्पष्टीकरण:- इससे आगे की गाथा के आगे हमारे भण्डार की प्रति में १०७२ संख्या लिखी हुई है । हमें आशंका थी कि कहीं लिपिक द्वारा २ गाथायें छोड़ तो नहीं दी गई हैं पर आहोर स्थित श्री राजेन्द्रसूरी जी महाराज के भण्डार से उपलब्ध प्राचीन प्रति को देखने से हमारी वह आशंका निर्मूल सिद्ध हुई । इस गाथा के पश्चात् हमारे भण्डार की प्रति में जो गाथा उल्लिखित है वही गाथा श्रहोर भण्डार की प्रति पें भी है और उस पर गाथा संख्या अनुक्रमशः ठीक और सही है। वस्तुतः एक भी गाथा लिखने में छूटी नहीं है । ]
पाईण गामिणीए, अभिणि विट्ठाए पोरिसि छायाए । विजएण मुहुत्तेणं, सो उत्तर फग्गुणी जोगे । १०७२। (प्राचीनगामिन्यां, अभिनिविष्टायां पौरुषी छायायाम् । विजयेन मुहूर्त्तेन, स उत्तरा फाल्गुनी योगे ।)
चतुर्थ प्रहर की वेला में छाया जब पूर्व दिशा की ओर अभिनिविष्ट होगी, उस समय चन्द्र का उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के साथ योग होने पर विजय मुहूत में - 1 १०७२।
2
चंदप्पभ्राय सीता, उवणीया जम्म मरणमुक्कस्स 1
आस च मल्लदामा, जल थलय दिव्व कुसुमेहिं । १०७३ | ( चन्द्रप्रभा च सीता, उपनीता जन्म-मरण मुक्तस्य । आसक्त मल्लदामा, जलस्थलैजं दिव्य- कुसुमैः ।)
उन जन्म-मरण से विमुक्त होने वाले भगवान् महापद्म के लिए जल एवं स्थल-स्थल पर उत्पन्न हुए दिव्य पुष्पों एवं उनकी मालाओं से सर्वतः सुसज्जित चन्द्रप्रभा नाम की पालकी लाई जायगी । १०७३।
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३२२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
पण्णासमायामा, धरणणि वीसाय पणवीसायाया । छव्वीसइतुस्सेहा, सीता चंदप्पभा भणिया ।१०७४। (पञ्चाशदायामा, धपि विंशतिश्च पंचविशत्यायाता । षड्विंशत्युत्सेधा, सीता चन्द्रप्रभा भणिता ) ___ वह चन्द्रप्रभा नाम वाली पालकी ५० धनुष लम्बी, मध्य में २५ और शेष आगे पीछे के भागों में २० धनुष चौड़ी तथा छत्तीस धनुष ऊँची बताई गई हैं । १०७४।। सीयाए मज्झयारे, दिव्वं मणिरयणकणग बिंबइयं । सीहासणं महरिहं, सपाय पीढं जिणवरस्स ।१०७५। (सीतायाः मध्यद्वारे, दिव्यं मणिरत्नकनकविम्बितम् । सिंहासनं महाध्य , सपादपीठं जिनवरस्य ।)
उस चन्द्रप्रभा शिबिका के बीचोबीच उन भगवान महापद्म तीर्थंकर के लिये पादपीठ सहित दिव्य मणियों, रत्नों एवं स्वर्ण से निर्मित एक महा मूल्यवान सिंहासन होगा ।१०७५॥ आलइय भाल मउडो, भासुर बोदी [१] पलंबवणमालो। सियवत्थ संनियत्थो, जस्ल य मोल्लं सयसहस्सं ।१०७६। (आललित भालमुकुटः, भासुर बोंदि प्रलम्बवनमालः । सितवस्त्र सन्न्यस्तः, यस्य च मूल्यं शतसहस्रम् ।)
सुविशाल भाल पर अति ललित मुकुट धारण किये हुए, प्रकाशमान देह छबि वाले आजानु विशाल वनमालाओं से विभूषित एवं लाख स्वर्ण-मुद्राओं के मूल्य वाले श्वेत वस्त्र को धारण किये हुए-१०७३। छट्टणं भत्तणं, अज्झवसाणेण सोहणेण जिणो। लेसाहि विसुज्झतो, आरुमती उत्तमं सीयं ।१०७७ (षष्ठेन भक्त ने, अध्यवसायेन शोभनेन जिनः । लेश्याभिः विशुद्ध्यमानः, आरोहति उत्तमां सीताम् ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ३२३
षष्ठ भक्त ( बला) किये हुए प्रतिविशुद्ध अध्यवसायों ( परिणामों) एवं ल ेश्याओं से युक्त भगवान् महापद्म उस चन्द्रप्रभा पालकी पर प्रारूढ़ होंगे । १०७७
1
सीहासणे निसन्नो, सक्कीमाणेहिं दोहि पासेहिं ।
वीयंति चामरेहिं मणिकणगविचित्त दंडेहिं ॥ १०७८ ।
,
( सिंहासने निवण्णः शक्र शानाभ्यां द्वयोर्पार्श्वयोः । वीजयंति चामरैः, मणिकनकविचित्रदण्डैः । )
पालकों के मध्य भाग में स्थित सिंहासन पर प्रभु महापद्म आसीन होंगे। उनके दोनों पावों में खड़ शक्र तथा ईशानेन्द्र स्वर्ण एवं मणियों से विनिर्मित दण्डों वाले चामर उन पर दुरायेंगे । १०७८ ।
पुव्विं ओखि माणुसेहिं संहिट्ठ- रोमकूवेहिं ।
पच्छा वहति सीयं असुरिंद सुरिंद नागिन्दा १०७९ ।
9
( पूर्वतः उत्क्षिप्ता (व्यूढा ) मानुषैः संहृष्टरोमकूपैः । पश्चात् वहन्ति सीतां असुरेन्द्र सुरेन्द्रनागेन्द्राः । )
,
4
भगवान महापद्म की उस पालकी को आगे की ओर से हर्षा - तिरेक के कारण रोमाञ्चित हुए मनुष्य और पीछे की ओर से असुरेन्द्र, सुरेन्द्र और नागेन्द्र वहन करेंगे । १०७
चलचवल कुंडलधरा, सच्छंद विउब्विया भरणधारी ।
देविंद दाणविंदा, बहंति सीयं जिणवरस्स | १०८० । (चल चपलकुण्डलधराः, स्वछन्द विकुर्वीत आभरणधारिणः । देवेन्द्र दानवेन्द्राः, वहन्ति सीतां जिनवरस्य । )
निरन्तर चलायमान रहने के कारण चंचल कुण्डलों को धारण करने काल े, वक्रिय लब्धि द्वारा यथेप्सित विनिर्मित आभरणों को धारण किये हुए देवेन्द्र तथा दानवेन्द्र तीर्थंकर प्रभु की पालको उठाते हैं । १०८०
वणसंडोव्य कुसुमिओ, पउमसरो वा जहा सरयकाले । सोहइ कुसुमभरेणं, इय गगणवलं सुर गणेहिं । १०८१ ।
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३२४ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(वनखण्ड इव कुसुमितः पद्मसरो वा यथा शरत्काले । शोभते कुसुमभरेण, एवं गगनतलं सुरगणः ।)
जिस प्रकार प्रफुल्लित सुविशाल पुष्प बन अथवा शरद् ऋतु में पद्म-सरोवर यत्र तत्र-सर्वत्र खिले फूलों से सुशोभित होता है, उसी प्रकार सुरों एवं सुरबालाओं के समूहों से व्याप्त वहां का गगन मण्डल बड़ा सुशोभित हो उठता है ।१०८१। अह सिद्धत्थवणं व जहा, अमणवणं सणवणं असोगवणं । चूतवणं व कुसुमियं, इय गयणयलं सुरगणेहिं ।१०८२। (अथ सिद्धार्थवनं वा यथा, अशनवनं सणवनं अशोकवनम् । चूतवनं वा कुसुमितं, एवं गगनतलं सुरगणैः ।)
देव-देवी वन्द से व्याप्त गगन मण्डल इस प्रकार शोभायमान होने लगेगा मानो सिद्धार्थ वन, अशनवन, सरण वन, अशोक वन,
और आम्रवन एक साथ ही वहां कुसुमित हो उठे हों । १०८२। अलसिवणं व कुसुमितं, कणियारवणं व चंपयवणं वा । तिलगवणं सुकुसुमियं, इय गयणयलं सुरगणेहिं ।१०८३। (अलसिवनं वा कुसुमितं. कर्णिकारवनं वा चम्पकवनं वा । तिलकवनं सुकुसुमितं, एवं गगन-तलं सुरगणैः ।)
देवों एवं अप्सराओं के समूहों से व्याप्त वहां का गगन मण्डल उस समय ऐसा शोभायमान हो रहा होगा, मानो अलसी, कनेर, चंपक और तिलों के वन विविध सुन्दर पुष्पों से भरे पूरे हो लहलहा रहे हों । १०८३। वरपडहभेरि झल्लरि, दुंदुहि संखसतेहिंतुरीहिं । घरणि यलगयणयले, तुरिय निनाओ परम रम्मो १०८४। (वर पटह-भेरि-झल्लरि-दुंदुभि-शंख शतैः तुरीभिः । धरणितल गगनतले, तूर्य निनादः परम रम्यः )
सैंकड़ों अत्युत्तम पटहों भरियों झल्लरियों, दु'दुभियों शङ्खों एवं तूर्यों के कर्णप्रिय अतिरम्य निनाद धरातल पर और गगन मण्डल में होने लगेंगे ।१०८४।
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तित्थोगालो पइन्नय ।
| ३२५
एवं सदेवनण्यासुराण, परिसयाए परिवुडो भगवं । अभिथुव्वंतो गिरा हिं. मज्झं मज्झेण सतवारं ।१०८५/ (एवं सदेवमनुजासुराणां, परिषदया परिवृतः भगवान् । अभिस्तूयमानः गिराभिः, मध्यं मध्येन शतद्वारस्य ।)
इस प्रकार देवों, मनुष्यों एवं असुरों की परिषदों द्वारा परिवृत्त एवं स्तुति वचनों से स्तूयमान भगवान् महापद्म शतद्वार नगर के मध्यवर्ती मुख्य मार्गों में-१०८॥ अणवरय दाणसीलो, नलिणकुमारेण परिवुडो वीगे। उज्जाणं संपत्तो*, नामेणं पउमिणी संडं ।१०८६। (अनवरत दानशीलः, नलिनकुमारेण परिवृतः वीरः । उद्यानं संप्राप्तः (सन्), नाम्ना पद्मिनी खण्डम् ) ।
.. निरन्तर दान देते हुए तथा नलिन कुमार से सेवित वीरवर पद्मिनी खण्ड नामक उद्यान में पधारेंगे ।१०८६। ईसाणाए दिसाए, उइण्णो उत्तमाओ सीयाओ । सयमेव कुणइलोयं सक्को से पडिच्छाई केसे ।१०८७'
त्रिर्मिकुलकम्। (ईशानायां दिशायां, उत्तीर्ण उत्तमायाः सीतायास्तु । स्वयमेव करोति लोचं, शक्रः तान् प्रतीच्छति केशान्० )
प्रभू महापद्म पद्मिनी खण्ड नामक उस उद्यान में ईशान दिशा में पहुंचने पर पालकी से नीचे उतर कर स्वयमेव पंचमुष्टि-लुञ्चन करेंगे। शक उन लुञ्चित केशों को ( अपने उत्तरीय में ) ग्रहण करेगा।१०८७
* तारांकित शब्देषु भविष्यत् काले भावीना भावानामवश्यंभावीत्वात् वर्त
मानवत् प्रयोग: कृतो भाति । 0 शक्रस्तान् प्रतिच्छति केशान्-- शक्रस्तान के शान् स्वकीयोत्तरीये गृहणा
तीत्यर्थः ।
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३२६ ]
जिणवरमरणुण्णविचा, अंजणघणरूयगव्भमर संकासा । केसा खणेण नीता, खीर सरीस नाम यं उदहिं । १०८८ । (जिनवर मनुज्ञाप्य, अंजन घन रुचक भ्रमर संकासा । केशा क्षणेन नीता क्षीर-सरिदीश नामकं उदधिम् ।)
[ तित्थोगाली इन्नय
शक्र प्रभु महापद्म की प्राज्ञा प्राप्त कर काजल, कालो बादल, रुचक तथा भ्रमर के समान काले उन लुश्चित केशों को क्षण मात्र में क्षीर सागर में डाल लौट आयेगा १०८८
दिव्यो मणस्स घोपो तुरिय निनाओ य सक्क वयणेणं । खिपामेव निलुको, ताहे पडिवज्जइ चारित्र | १०८९ । (दिव्यो मनुष्यघोषस्तुरहीनिनादश्च शक्रवनेन । क्षिप्रमेव निलुप्त, ततः प्रतिपद्यते चारित्रम् )
तदनन्तर शक्र के कथन से तत्काल देवों तथा मनुष्यों द्वारा किये जाने वाले जयघोष और तूर्य प्रादि वाद्यों की ध्वनि बन्द हो जायगी और प्रभु निर्ग्रन्थ चारित्र ग्रहण करेंगे । १०८ ।
काऊण नमोक्कारं, सिद्धाणमभिग्गहं तु सो गिहे । सव्वं मे अकरणिज्जं पावंति चरितमारूढो । १०९० ।
•
(कृत्वा नमस्कारं, सिद्धभ्योऽभिग्रहं तु स गृह्णेत् । सर्व मे अकरणीयं पापमिति चारित्रमारूढः । )
1
वे सिद्धों को नमस्कार कर यह प्रतिज्ञा करेंगे :- "मेरे लिये सब प्रकार के पाप अकरणीय हैं" ( अर्थात् मैं यावज्जीव अब किसी प्रकार का पाप नहीं करूँगा ) और इस प्रकार की प्रतिज्ञा द्वारा वे चारित्र (पंच महाव्रत ) ग्रहण करेंगे । १०६०
तिहिं नाणेहिं समग्गा, तित्थयरा जाव होंति गिहवासे । पडिवण्णम्मि चरित्ते, चउनाणी जाव उमत्था । १०९१ । (त्रिभिर्ज्ञानैः समग्राः तीर्थंकराः यावत् भवन्ति गृहवासे । प्रतिपन्न चारित्रे, चतुर्ज्ञानी यावत् छद्मस्था ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ।
. [ ३२७
सभी तीर्थंकर माता के गर्भ में अवतरण करते समय के च्यवनकाल से ले कर चारित्र ग्रहण करने से पूर्व के गृहस्थ काल तक मति, श्र ति और अवधि इन तीन ज्ञान के धारक होते हैं। चारित्र ग्रहण करते ही उन्हें मनःपर्यव नामक चौथा ज्ञान भी हो जाता है
और छद्मस्थ काल में कैवल्योपलब्धि से पूर्व तक वे चार ज्ञान के धनी रहते हैं । १०६१। नवसुवि वासेसेवं, सिद्धत्थादी जिणिंद चन्दाउ । हत्युत्तराई सव्वे, मिगसिर बहुलस्स दसमीए ।१०९२। . (नवस्वपि वर्षेष्वेवं, सिद्धार्थादि जिनेन्द्र चन्द्रास्तु । हस्तोत्तरायां सर्वे, मृगशिर बहुलस्य दशम्याम् ।)
(चारित्रमारोक्ष्यन्ते इति शेषः) ___ इसी प्रकार शेष ६ क्षेत्रों में भी सिद्धार्थ आदि तीर्थंकर मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन हस्तोत्तरा नक्षत्र के योग में अभिनिष्क्रमण कर प्रवजित होंगे । १.०६२।। बारस चेव य वासा, मासा छच्चेव अद्ध मासो य । पउमादीण दसण्हवि, एसो छउमत्थ. परियाओ ।१०९३। (द्वादश चैव च (तु) वर्षाः, मासाः षड्चैव अर्द्ध मासश्च । पद्मादीनां दशानामपि, एषः छमस्थ पर्यायः ।)
महापद्म प्रादि दशों ही तीर्थंकरों का १२ वर्ष, ६ मास और १५ दिन का छद्मस्थपर्याय रहेगा ।१०६३। एवं तवोगुणरतो, अणु पुव्वेणं मुणी विहरमाणो। वज्जरि सह संघयणे, सत्तेव य होंति रयणीओ १०९४, (एवं तपोगुणरतः आनुपूर्व्या मुनिः विहरमानः। .. वज्रर्पभ संहननः, सप्तैव च भवति रत्नीकः ।।
इस प्रकार सात रत्नी (मुड हाथ ) लम्बे, वज्र ऋषभ नाराच संहनन वाले , तपश्चरण और श्रमरण-गुणों में अनुरक्त भगवान् महा. पद्म अनुक्रमशः अप्रतिहत विहार करते हुए—।१०६४
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३२८]
। तित्थोगाली पइन्नय
वइसाह सुद्धदसमीए, केवलं नाम साल हेट्टमि । छट्टणक्कडुय सओ, उप्पण्णं जंभिया गामे ।१०९५। (वैशाख शुद्धदशम्यां. केवलं नाम सालस्य अधः । षष्ठेन उत्कुट सतः, उत्पन्न जम्भिका ग्रामे )
वैशाख शुक्ला दशमी के दिन ज़म्भिका नामक ग्राम के बाहर शालवृक्ष के नीचे उकडू ( गोदोहिका ) आसन से बैठे हुए बैले की तपस्या से केवल ज्ञान प्राप्त करेंगे ।१०६५ सेसाणंपि नवण्हं, एवं वइसाह सुद्धद समीए। हत्युत्तराहिं नाणं, होही जुगवं जिणंदाणं !१०९६। . (शेषानामपि नवानां, एवं वैशाख शुद्ध दशम्याम् । हस्तोत्तराभिर्ज्ञानं, भविष्यति युगपजजिनेद्राणाम् )
इसी प्रकार शेष द क्षेत्रों के ६ ( प्रथम ) तीर्थीकर भी वैशाख शुक्ला दशमी के दिन हस्तोत्तरा नक्षत्र के योग में एक साथ (एक हो समय में) केवल ज्ञान प्राप्त करेंगे ।१०६६। उप्पणमि अणते, नट्ठमिउ छाउमाथिए नाणे। . राइए संपत्तो, महसेणवणं तु उज्जाण १०९७ (उत्पन्ने अनन्ते, नष्टे तु छामस्थिके ज्ञाने । रात्रौ सम्प्राप्तः, महासेन वनं तु उद्यानम् ।)
अनन्त ज्ञान अनंत दर्शन और अनन्त चारित्र के उत्पन्न होने और छात्थिक ज्ञान के नष्ट होने पर जम्बू द्वीपस्थ भरत क्षेत्र के आगामी उस्सपिणी काल के) प्रथम तीर्थंकर भगवान् महापद्म रात्रि के समय में ही विहार कर महासेन वन नामक उद्यान में समवस्त होंगें । १०६७' अमरनर राय महिओ, पत्तो धम्मवर चक्कवदितं । बीयम्मि समोसरणे, पावाए मज्झिमाए उ ।१०९८१ (अमरनरराजमहितः, प्राप्तः धर्मवर चक्रवर्तीत्वम् । द्वितीये समवसरण, पावायां (अपायायां) मध्यमायां तु ।)
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तित्थोगाली पइन्नय
[३२६
सुरेन्द्रों एवं नरेन्द्रों द्वारा पूजित प्रभु महापद्म मध्यम पावा नगरी में हुए दूसरे समवसरण में (चतुर्विध तीर्थ का प्रवर्तन कर) धर्मचकवर्ती प्रवर के पद से विभूषित होंगे ।१०६८। एक्कारस वि गणहरा, सव्वे उन्नय विसाल कुलवंसा । पावाए मज्झिमाए, समोसढा जण्णवाडम्मि ।१०९९। (एकादशाऽपि गणधराः, सर्वे उन्नत-विशाल कुलवंशाः । पावायां मध्यमायां, समवसृता यज्ञवाटे ।)
उन्नत कूल एवं विशाल वंश के उनके सभी ग्यारह गणधर मध्यम पावा में अनुष्ठित होने वाले यज्ञ की यज्ञशाला में एकत्र होंगे ।१०६६। पढमेत्थ कुम्भसेणो, नामेणं गणहरो महासत्तो । वज्जरिसभसंघयणो, चउद्दस पुब्बी महावीरो ।११००। (प्रथमोन कुम्भसेनः नाम्ना, गणधरः महासत्त्वः । वज्रर्षभ संहननः चतुर्दशपूर्वी महावीरः ।)
महापद्म तीर्थंकर के उन ग्यारह गणधरों में प्रमुख एवं प्रथम गणधर काम कुम्भसेन होगा, जो महासत्त्वशाली, वज्रऋषभ संहनन के धनी चतुर्दश पूर्वधरं और महान् धीर वीर होंगे ।११००। चइसाहसुद्ध एक्कारसीए, तह पढम पोरिसीए उ। हत्थुत्तर पय कमलेः गणिपिडगस्स भाणिहि अत्थं ।११०१। (वैशाखशुद्ध कादश्यां, तथा प्रथम पौरुष्याम् तु । हस्तोत्तर पदकमले, गणिपिटकस्य भणिष्यति अर्थम् ।)
__ वैशाख शुक्ला एकादशी के दिन प्रथम प्रहर में, हस्तोत्तरा नक्षत्र के योग में भगवान् महापद्म गणिपिटक (द्वादशांगी) के अर्थ का उपदेश करेंगे ।११०१। एवं तित्थुप्पत्ती. दससुवि वासे सु होइ नायव्वा । एक्कारस वि गणहरा, नव गणावि तस्स एमेव ।११०२।
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३३० ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(एवं तीर्थोत्पत्तिः, दशस्वपि वर्षेषु भवपि ज्ञातव्या । एकादशोऽपि गणधराः, नवगणा अपि तस्य एवमेव !) ____ इस प्रकार दशों क्षोत्रों में तीर्थ की उत्पत्ति होगी-यह जानना चाहिए। इसी प्रकार (भ० महावीर के धर्मतीर्थ के समान) उन तीर्थकर महापद्म के भी ग्यारह गणधर और ६ गणधर होंगे ।११०२ सोहि, यसं, सब्भावो, ववहारो अगरुया खमा सच्चं । आउग उच्चचाई, दससु वि वासेसु वड्ढेति ।११०३। (शोधिः यशः सद्भावः व्यवहारश्च अगुरुता क्षमा सत्यम् । आयुः उच्चत्वादीनि दशस्वपि वर्षेषु वर्धन्ते ।)
तदनन्तर उस काल में शोधि (सब प्रकार की शुद्धता), यशकोति सद्भाव अथवा आगमज्ञान, व्यवहार, अगुरुता (निरभिमानता), क्षमा, सत्य, आयु और देह की ऊँचाई-ये सब चीजें दशों क्षेत्रों में उत्तरोत्तर बढ़ती रहेंगी ।११०३। चन्दसमा आयरिया, खीरसमुद्दोवमा उवज्झाया । साहु साहुगुणाविय, समणीओ समिय पावाओ ।११०४। चन्द्रसमा आचार्याः क्षीरसमुद्रोपमा उपाध्यायाः।। साधवः साधुगुणा अपि च श्रमण्यस्तु शमित पापाः ।)
उस समय आचार्य चन्द्रमा के समान सौम्य, शीतल, सुखद, उपाध्याय क्षीर सागर के समान अगाध ज्ञान-गुरण सम्पन्न, साधु सभी श्रेष्ठ गुणों के धारक, श्रमणियां निष्पाप-विशुद्ध--।११०४। ससिलेहव्व पवित्तिणि, अम्मापियरो य देवय समाणा । माइसमा विय सासू. सुसरावि य पितिसमा हु तया ।११०५। (शशिलेखेव प्रवर्तिनी, अम्बापितरौ च दैवतसमानौ । मातृसमापि च श्वश्र , श्वशुरा अपि च पितृसमाहुः तदा ।)
__ प्रतिनियां चन्द्रलेखा के समान, माता-पिता देवदम्पती तुल्य, सास माता के समान ममतामयी और श्वसुर पिता तुल्य स्नेह मूर्ति होंगे ।११०५॥
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तित्थोगाली पइन्नय 1
धना विहिन्नू, विणयच सच्च सोय संपण्णो । गुरुसाहुपूयरओ, संदार निरतो जणो तइया | ११०६ । धर्माधर्मविधिज्ञः विनयत्वसत्यशौचसम्पन्नः ।
गुरुसाधुपूजारतः, स्वदारनिरतः जनः तदा । )
,
[ ३३१
उस समय के मानव धर्म तथा श्रधर्म के भेद को भली-भांति जानने वाले, विनय, सत्य एवं शौच सम्पन्न, गुरु और साधु जनों की पूजा में तत्पर और स्वदार संतोषी होंगे । ११०६।
अच्छय सविण्णाणो, धम्मे य जणस्स आयरो तइया । विज्जा पुरिसा, पुज्जा, वरिज्जइ कुलं च शीलं च । ११०७ । ( अच्छति च सविज्ञानः, धर्मे च जनस्य आदरस्तदा । विद्यापुरुषाः, पूज्याः, वरीय ते कुलं च शीलं च । )
उस समय के लोग विज्ञान सम्पन्न और धर्म के प्रति प्रादर भाव रखने वाले होंगे। उस समय विद्यासम्पन्न पुरुषों का पूजासत्कार किया जायगा और कुल तथा शोल को सर्वाधिक महत्त्व दिया
जायगा ।११०७ ।
एवं कुसुमसमिद्ध े, जणवय देसंमि विहरइ भगवं ।
9
नवसु विवासे सेवं विहरति जिणा जिणा विंति । ११०८ | ( एवं कुसुमसमृद्ध, जनपद- देशे विहरति भगवान् ।
नवस्वपि वर्षेष्वेवं विहरन्ति जिना : (इति) जिनाः ब्रुवन्ति ।)
1
इस प्रकार फूलों से लहलहाते हुए जनपदों में भगवान् महापद्मविचरण करेगे । शेष 8 क्षेत्रों में भी जिनेश्वर इसी प्रकार विचरण करेंगे - ऐसा जिनेश्वर फरमाते हैं । ११०८ ।
सुबहुहिं केवलिहिं य, मणपज्जेव ओहि नाण इड्ढीहिं । समणगण संपरिवुडा, विहरंति जिणा तिहुयणिंदा । ११०९ । (सुबहुभिः केवलिभिश्च, मनः पर्यवावधि ज्ञान - ऋद्धिभिः । पण संपरिवृताः, विहरन्ति जिनाः त्रिभुवनेन्द्राः ।)
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[ तित्थोगाली पइन्नय
बहुत
से केवलियों, मनः पर्यवज्ञान और अवधिज्ञान की ऋद्धि से सम्पन्न श्रमणों के समूह से परिवृत्त सेवित वे त्रिभुवननाथ तीर्थंकर (अपने अपने क्षेत्रों में) विचरण करें गे । ११०६ । वड्ढति जणवयवंसो, * नलिणिकुमार रायवंसो उ । सब्भावो वि य वड्ढति, एवं कालाणुभावेण १११० । (वर्द्धते जनपदवंशः, नलिनीकुमार राजवंशस्तु । सद्भावोऽपि च वर्द्धते, एवं कालानुभावेन । )
३३२ ]
--
इस प्रकार उत्सर्पिणी काल के ऊर्ध्वगामी वर्द्धमान काल प्रभाव से, जनपदों की संख्या -श्री-समृद्धि नलिनी कुमार का राजवंश और सद्भाव ( आगमज्ञान - सम्यग्ज्ञान ) की उत्तरोत्तर अभिवृद्धि होगी । १११०
C
निविय कम्मजालो, कत्तिय बहुलस्स चरम रातीए । सिज्झिहिति नाम पउमो अण्णाए पावा नगरीए । ११११ ।
,
( निष्ठापित कर्मजाः, कार्तिक बहुलस्य चरम रात्रौ । सेत्स्यति नाम पद्मः, अन्यायां अपापा नगर्याम् । )
अन्त में जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के आगामी उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर महापद्म कार्तिक की मास के कृष्ण पक्ष की अन्तिम रात्रि में शेष अघाती चार कर्मों के जाल को भी पूर्णतः समाप्त कर अपर अपापा नगरी में सिद्ध, बुद्ध एवं मुक्त होंगे । ११११ ।
नव विवासे से सिद्धत्थादीय जिणवरिंदाउ |
,
साइंमि जोग - जुत्ते, कत्तिय बहुलस्स अंतम्मि १११२ । ( नवस्वपि वर्षेष्वेवं, सिद्धार्थादयश्च जिनवरेन्द्रास्तु | स्वाती योगयुक्त, कार्तिक बहुलस्य अन्ते ।)
1
इसी प्रकार ढाई द्वीप के शेष चार भरत तथा पांच ऐरवत-इन क्षेत्रों में भी सिद्धार्थ आदि उत्सर्पिणी काल के 8 प्रथम तीर्थंकर
* प्राहोर ग्रामस्थ श्री राजेन्द्रसूरि ग्रन्थागारादुपलब्ध प्रतो तु 'वड्ढति जिरणवयरणवसो " - इति पाठः विद्यते ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ३३३
भी कार्तिक मास के कृष्णापक्ष की अन्तिम रात्रि में चन्द्र का स्वाति नक्षत्र के साथ योग होने पर सिद्ध अर्थात् संसार से मुक्त होंगे ।१११२।
(माहोर मे प्राप्त प्रति में ऊपर को गाथा का अन्तिम अर्द्ध भाग और यह गाथा लिपिक के प्रमाद से छूट गई है और इसके परिणाम स्वरूप आगे की बहुत सी गाथाओं में पूर्व की गाथा के साथ आगे की गाथाओं के अन्तिम भाग जोड दिए गए हैं।) एसा उ मते (ए) भणिता, पउम जिणिदस्स संकहा पुण्णा । एत्तो परं तु जाणह, जिणंतरा चेव पडिलोमे ।१११३। (एषा तु मया भणिता, पद्मजिनेन्द्रस्य संकथा पुण्या । इतः परं तु जानीहि, जिनान्तराणि चैव प्रतिलोमानि ।)
यह मेंने भगवान महाद्म तीर्थंकर को पवित्र कथा का कथन किया। इसके पश्चात् प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के २४० तीर्थंकरों का अन्तर काल है उसी को प्रतिलाम (उल्टे क्रम) से आगामी उत्सपिरणी काल के २४० तोथंकरों का अन्तराल-काल समझना चाहिए ।१११३। ते चेव जम रिक्खा. ते वि य मासा तिही उ ता चेव । आउग उच्चचाई, वन्ना रुक्खा वि ते चेव ।१११४। (ते चैव जन्म-ऋक्षाः, तेऽपि च मासाः तिथयस्तु ताश्चैव । आयु उच्चत्वादिनि, वर्णाः वृक्षा अपि ते चैव )
प्रवर्तमान अवसर्पिणी काल के २४० तीर्थंकरों के जो जन्म (च्यवन, जन्म, अभिनिष्क्रमण, केवल-ज्ञान, तीथ-प्रवर्तन, मोक्षगमन) आदि के नक्षत्र: मास और तिथियां उनकी प्रायु, शरीर की लम्बाई, शरोर केवर्ण एवं चैत्य वृक्ष आदि थे-वे ही आगामी उत्सपिणी काल
२४० तीर्थ करों के भी होंगे ।१११॥ नवरं पडिलोमाई, तित्थोगालीए वीर भणियाई। तित्थगरे आगमिस्से, नाम नामहि केत्तेहि १११५॥
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३३४ }
"
( नवरं प्रतिलोमानि तीर्थोद्गालिकेवीर भणितानि । तीर्थंकरान् आगमिष्यतः नाम नामभि: कीर्तयिष्यामि ।)
[ तित्योगाली पइत्रय
इस अवसर्पिणी काल के २४० तीर्थ करों के अन्तराल. आयु उत्सेध आदि का जो अनुक्रमशः वर्णन किया गया है, जिनेश्वर महावीर ने व्यतिक्रम अर्थात् प्रतिलोमात्मक अनुक्रम से वही अन्तर प्रायु उत्सेध आदि आगामी उत्सर्पिणी काल की दश चौकीसियों के तीर्थंकरों का भी तीर्थ - प्रोगाली ( प्रवाहों ) में बताया है । अब मैं आगामी उत्सर्पिणी काल के तीर्थङ्करों का नामस्मरण - पूर्वक कीर्तन
करूंगा ।१११५।
महा पउमे हिय सुरदेवे सुपासे य सयंपर्भे ।
1
सव्वाशुभूति अरहा देवगुतो य होहिहि । १११६ । (महापद्मः हि च सुरदेवः सुपार्श्वश्च स्वयं प्रभः । सर्वानुभूति अर्हत् देवगुप्तश्च भविष्यति ।)
महापद्म ( १ ) सुरदेव (२), सुपाश्वं (३), स्वयंप्रभ ( ४ ),
सर्वानुभूति जिन (५) देवगुप्त (६) और -- ।१११६ | उदग पेढाल पुय पोट्टिले सत्त गीत्तिय । मुनिसुव्वतेय अरहा सत्वभाव विउजिये । १११७ |
(उदक: पेढालपुत्रश्च प्रोट्टिलः शतकीर्तिश्च ।
1
मुनि सुव्रतश्च अर्हत् सर्वभाव विदो जनाः । )
उदक् (७), पेढाल पुत्र (८) पोट्टिल ( 8 ), शतकीर्ति (१०), मुनि सुव्रत प्रत ( ११ ) - ये त्रिकालवर्ती भावों को देखने जानने वाल जिनेश्वर -- 1१११७
अममे णिक्कसाए य, निप्पूलाए य निम्ममे ।
चित्तगुतं समाही य, आगमिस्साए ते होहिति । १११८ ।
( अममः निष्कषायश्च निष्पुलाकश्च निर्ममः । चित्रगुप्तः समाधिश्च, आगमिष्यायां भविष्यन्ति ।)
मम (१२), निष्कषाय (१३), निष्पुलाक (१४), निर्मम ( १५ ) चित्रगुप्त (१६), समाधि ( १७ ) – ये आगामी चौबीसी के तीर्थंकर
तथा -- 1१११८।
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तित्थ गाली पन्नइय]
[ ३३५ संवरे अणियवट्टी य, विवागे विमलित्ति य । देवोववायए अरहा, समाहिं पडिदिसंतु मे ।१११९। (संवरः अनिवर्ती च विपाकः* (विजयः) विमल इति च । देवोपपातक अर्हत् . समाधि प्रतिदिशंतु मे ।) संवर (१८). अनिवर्ती (१६), विपाक (विजय) (२०), विमल (२१), देवोववाए (देवोपपातक) (२२), (हमें समाधि प्रदान करें)--१११६ । अणंतविजए तियए, एतेवुत्ता चउव्वीसं । भरहे वासंमि केवली, आगमस्साए होहिंति । ११२०।
। धम्पतित्थम्म देसगा। * ममवायांग तु विजयः इति पाठः । * अशुद्धयामिमायां गाथःया छन्दोभंग सुव्यक्त एव । तथापि गाथेयं विचारणीया परममहत्त्वपूर्णा च प्रति भाति । भरते भावी चतुर्विशत्याः यानि नामानि समवायांग समुल्लिखितानि सन्ति । समवायांगस्थानां गाथानां समीचीनतया पर्यालोचनानन्तरं सुस्पष्ट मनुभूयते यत्तासु गाथासु चतुर्विशति जिनानां स्याने त्रयोविंशतीनामेव जिनानां नामानि लिखितानि सन्ति । नामस्य तथा सख्यायाः पूर्ति हेतोः समवायांगस्थायाः त्रिसप्तति संख्यकाया गाथाया उत्तराद्ध पूर्त्यर्थमवकाशमस्तोत्यवधार्य 'सव्वभावविजिणे" इत्यन्तिम चरणस्य- 'सर्वमावविदो जिना:'- इति स्पष्टार्थ विहाय 'सर्व मावित जिनः' इत्यर्थो कल्पितः प्रतीयते ।
'तीर्थोद्गालिक प्रकीकस्य' विवेच्य गाथायां भाविन: चतुर्विंशतितमस्य जिनस्य 'तिव्वये' अथवा 'तियए' इति नाम दत्त स्यादित्याशक्यते । दृष्ट्यानया विदुषां विचारणीयैषा गाथा महत्त्वपूर्णा प्रतिभाति ।
पाहोर ग्रामस्थ राजेन्द्र सूरि प्रन्थागारात् प्राप्त प्रतावपि पूर्वोल्लेखानुसारतः लिपिकेन साद्ध का गाथा न लिखितेति स्पष्टमेव प्रतीयते । फलतश्च कतिपय गाथासु पूर्वाद मेकाया गाथायाः परार्द्धञ्च अपरया: गाथाया: विद्यते । तस्यां' 'मणंतविजय तया"-इति पाठः वर्तत ।
१११६ संख्य कायाः गाथायाः “समाधि प्रतिदिस तु मे"- इति चतुर्थ चरणस्थाने यदि "प्रणंत विजह तियए' एतादृशः पाठो यदि विधीयते तदा चे यं गाथा सुपाच्या भवत्येवम् :
एते वत्ता च उव्वीसं, भारहे वामम्मि केवली । पागमेस्साए होहिंति, धम्मतित्थस्स देसमा ।११२०॥
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३३६ ]
( अनंत विजय त्रियकू (१), एते उक्ता चतुर्विंशतिः । भारते वर्षे केवलिनः आगमिष्यायां भविष्यन्ति ।
,
[तियोगाली पइन्नय
अनन्त विचय ( २३ ) आगामी उत्सर्पिणी काल में देशक अथवा प्रवर्तक तीर्थ कर होंगे । ११२०/
। धर्मतीर्थस्य देशका | )
और तियए [ त्रियक् ? ] ( २४ ) - ये भरत क्षेत्र में चौबीस धर्मतीर्थ के उप
एतो परंतु वोच्छं, तित्थगगणं तु नाम संखेवं । एरवते आगमिस्से, सिरसा वंदित्त कित्तेहं । ११२१ | ( इतः परं तु वक्ष्ये, तीर्थकराणां तु नाम संक्षेपम् । ऐरवते आगामीनां शिरसा वन्दित्वा कीर्तयिष्येऽहम् ।)
'
अब इससे आग मैं आगामी उत्सर्पिणी काल के ऐरवत क्षेत्र में होने वाले तीर्थ करों को शिरः नमनपूर्वक वन्दन कर नामस्मरण के साथ संक्षेपतः कीर्तन करूँगा । ११२१
4
सिद्धत्ये पुण्ण घोसेय, महाघोसे य केवली ।
सुयसागरे य अरहा, समाहिं पडिदिसंत मे । ११२२ ।
(सिद्धार्थः पुण्यघोषश्च महाघोषश्च केवली ।
श्रुतसागरश्च अर्हत्. समाधिं प्रतिदिशंत मे । )
सिद्धार्थ ( १ ), पुण्य घोष (२) केवली महाघोष ( ३ ) अर्हत् श्रुतसागर (४) मुझे समाधि प्रदान करें । ११२२
सुमंगले अत्थसिद्ध य, निव्वाणे य महाजसे । धम्मज्झाए य अरहा, समाहिं पडिदिसंतु मे । ११२३ | (सुमंगलोऽर्थसिद्धश्च निर्वाणश्च महायशः । धर्मध्यातश्च अर्हत्, समाधिं प्रतिदर्शयतु मे ।)
,
सुमंगल (५), अर्थसिद्ध ( ६ ) निर्वाण ( ७ ), महायश ( ८ ), धर्मध्यात (E) अर्हत् मुझे समाधि प्रदान करें । ११२३। सिरिचंदे दढकेत्ते, महाचंदे य केवली । दीहपासे य अरहा, समाहिं पडिदिसंतु मे । ११२४ |
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तित्थोगाली पइन्नय )
__ [ ३३७ (श्रीचन्द्रः दृढकेतुश्च, महाचन्दश्च केवली । दीर्घपार्श्वश्च अर्हत्, समाधि प्रतिदिशन्तु मे IDENT
__ श्रीचन्द्र (१०), दृढकेतु केवलो (११), महाचन्द केवली (१२), अर्हत् दीर्घपाश्वं (१३), मुझे समाधि प्रदान करें ।११२४॥ सुव्बए य सुपासे य, अरहाय सुकोसले । यणंत पासी य अरहा, समाहिं पडिदिसंतु मे ।११२५। (सुव्रतश्च सुपार्श्वश्च, अर्हच्च सुकौशलः । अनन्त पासी (द्रष्टा) च अर्हत्, समाधि प्रतिदर्शयंतु मे ।)
सुव्रत (१४), अर्हत् सुपार्श्व (१५), सुकोशल (१६), अर्हत् अनन्त पासी (१७), मुझे समाधि प्रदान करें।११२५॥ [एषैव गाथा प्रतौ लिपिकप्रमादेनः समुल्लिखिता वर्तते]
[ ११२६ गाथांक में यही गाथा लिपिक दोष से पुनः लिख दी गई है- १.१२६।--] विमले उत्तरे चेव, अरहा य महाबले । देवाणंदे य अरहा, समाहिं पडिदिसंतु मे ।११२७।०
- समवायांगे तु गाथायामिमायां निर्दिष्टानि तीर्थकृतां नामानि निम्नरूपेण समुल्लिखितानि सन्तिः
सिरिचंदे पुष्फकेऊ, महाचंदे य केवली। सुयसायरे य अरहा, प्रागामिस्साण होक्खई ॥८८।।
० ११२२ तमाया: गाथायाः प्रारभ्य ११२७ तमा पर्यन्ताषु गाथाषु केवलं
एकविंशति तीर्थंकराणामेव नामानि समुल्लिखितानि सन्ति । अतः सुस्पष्टमेवैतद्यल्लिपिकेन लेखनकाले न केवलं समग्रा: गाथाः एव न लिखिता अपितु गाथानां क्रमेऽपि व्यतिक्रमः कृतः । पाठकानां हितार्यताद्विषयका: समवायांगसूत्रस्था गाथा पत्र समुल्लिख्यिन्ते:
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३३८]
(विमले उत्तरश्चैव, अर्हच्च महाबलः । देवानन्दश्च अर्हत्, समाधिं प्रतिदिशन्तु मे ।)
| तित्थोगाली पइन्नय
विमल (१८), उत्तर (१६), अर्हत् महाबल ( २० ) और अर्हत् देवानन्द (२१) मुझे समाधि प्रदान करें । ११२७ ।
[ इन गाथाओं में २४ के स्थान पर केवल २१ तीर्थंकरों के ही नाम हैं। बार-बार दुहराए गए -- " समाहिं पडिदिसंतु मे " - इस पद में तीन नाम लुप्त हो गए हैं। आहोर से प्राप्त प्रति में तीसरे तीर्थंकर महाघोष का नाम नहीं है, कि लिपिक की असावधानी से वह नाम नहीं लिखा गया है । ]
एते वृत्ता चउव्वीसं, एरवतंमि य केवली । आगमेसाए होहिंति, धम्म तित्थस्स देगा | ११२८। ( एते उक्ताश्चतुर्विंशति, एरवते च केवलिनः । आगामिन्यां भविष्यन्ति, धर्मतीर्थस्य देशकाः । )
ये जो २४ तीर्थं कर बताये गये है वे आग़ामी उत्सर्पिणी काल में ऐरवत क्ष ेत्र में धर्मतीर्थ की स्थापना करने वाले होंगे । ११२८ ।'
सुमंगले य सिद्धत्थे, रिणव्वा य महाजसे धम्मंज्झए य रहा, ग्रागमिस्सारण होक्खई ८७ सिरिचंदे पुप्फकेऊ, महाचंडेय केवली । सुय सागरे य रहा, श्रागमिस्सारण होक्खई ८८ सिद्धत्थे पुण्घो से य. महाघोसे य केवली । सच्चसेणे य रहा, श्रागमिस्सा होक्खई सूरसेणे य रहा, महासेणे य केवली । सव्वाणंदेय अरहा, देवउत्तेय होक्खई ॥६० सुपासे सुव्व रिहा रहे य सुकोसले । रहाणंतविजए, प्रायमिस्सारण होक्खई |ह १ विमले उत्तरे प्ररहा रहा य महाबले । देवादे य रहा, प्रागमिस्सारण होक्खई । ६२
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तित्थोगाली पइन्नय]
[३३९
एवं एते वुत्ता, जिण चंदा य केवली । एत्तो परं तु वोच्छं, भरहेरवएसु चक्किणो ।११२९। (एवं एते उक्ताः, जिनचन्द्राश्च केवलिनः । इतः परं तु वक्ष्यामि, भरतैरवतेषु चक्रिणः ।)
इस प्रकार इन केवली तीर्थ करों के सम्बन्ध में कथन किया गया। अब मैं भरत तथा ऐरवत क्षेत्र के चक्रवतियों के सम्बन्ध में कथन करूंगा ।११२६।। भरहे य दीहदंते य, गूढदंते य सुद्धदंते य । सिरिचंदे सिरिभूमी, सिरिसोमे य सत्तम ।११२९। (भरतश्च दीर्घदन्तश्च, गूढ दन्तश्च शुद्धदन्तश्च । श्रीचन्द्रः श्रीभूतिः, श्री सोमश्च सप्तमः ।) . भरत, दीर्घ दन्त, गूढदन्त, श्रीचन्द्र, श्रीभूति, सातवें श्री सोम-।११२६। (ब) पउमे य महापउमे, विमले तह विमलवायणे चेव । वरिट्ट बारममेवुत्ते, भरहपती आगमेस्साए ।११३०। (पद्मश्च महापाः विमलस्तथा विमलवाहनश्चैव । वरिष्ठो द्वादशमः उक्तः, भारतपतिः आगमिष्यायाम् ।)
पद्म महापद्म विमल, विमलवाहन और बारहवें वरिष्ठ ये आगामी उत्सर्पिणी काल में भरत क्षेत्र में (बारह ) चक्रवर्ती होंगे ।११३०। नवसुवि वासे सेवं, बारस बारसय चक्कवट्टीओ। एतेसिं तु निहीओ, वोच्छामि समासतो सुण सु ।११३१ ।
YB प्रस्तुत प्रतो अस्यापि गाथाया अने ११२८ संख्येव समुल्लिखितास्ति । • समवायांगे तु-'सिरिउत्त सिरिभूई'-इति पाठः । * "विमलवाहणे विपुलवाहणे चेव"-इति समवायांग सूत्र।
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३४०1
[ तित्थोगाली पइन्नय
(नवस्वपि वर्षेष्वेवं, द्वादश द्वादश च चक्रवर्तिनः [चक्रवर्तयः] एतेषां तु निधीन्, वक्ष्यामि समासतः शृणुत ।)
इस प्रकार ढाई द्वीप के पांच ऐरवत और शेष चार भरतइन क्षेत्रों में भी प्रत्येक में बारह-बारह चक्रवर्ती होंगे। अब मैं इन चक्रवतियों की निधियों का संक्ष पतः कथन करूंगा, उसे सुनिये ।११३१॥ नेसप्प पंड पिंगल, सव्वरयणवर तहा महापउमे । काले य महाकाले, माणवग महानिही संखे ।११३२। (नैसर्पः पाण्डुकः पिङ्गलः, सर्वरत्नवर तथा महापद्मः । कालश्च महाकालः, माणवकः महानिधिः शंखः ।)
नैसर्प, पाण्डक, पिङ्गल, सर्वरत्नवर, महापद्म, काल, महाकाल. माणवक और शङ्ख-ये चक्रवर्तियों की निधियां होती हैं।११३२। नेसप्पंमि निवेसा, गामागरनगर पट्टणाई तु । दोणमुहमडंबाणं, खंधाराणं गिहाणं च ।११३३। . . (नैसर्प निवेशाः, ग्राम-आकर-नगर-पत्तनानि तु । द्रोणमुख-मडम्बानि, स्कन्धावाराणि गृहाणि च )
नैसर्प निधि द्वारा निवेशों, ग्रामों, आकरों. नगरों. पत्तनों, द्रोणमुखों, मडम्बों, स्कन्धावारों और गृहों का (तत्काल) निर्माण किया जाता है ।११३३। गणियस्स य उप्पत्ती, माणुम्माणस्स जं पमाणं च । धण्णस्स य बीयाण य, उप्पत्ती पंडुए भणिया ।११३४। (गणितस्य च उत्पत्तिः, मान-उन्मानस्य यत् प्रमाणं च । धान्यस्य च बीजानां च, उत्पत्तिः पाण्डु के भणिता ।)
पाण्डुक निधि में गणित, मान, उन्मान, परिमारण, धान्य एवं बीज आदि की उत्पत्ति बताई गई है ।११३४।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[३४१
सव्याभरण विही, महिलाणं जाय होइ पुरिसाणं । आसाण य हत्थीण य, पिंगलग णिहिंमि सा भणिया ११३५। (सर्वाभरणविधिः . महिलानां या च भवति पुरुषाणाम् । अश्वानां च हस्तीनां च, पिंगलक निधौ सा भणिता ।)
पिङ्गलक निधि में महिलाओं एवं पुरुषों की सभी प्रकार की प्राभरण सामग्री, अश्वों एवं हाथियों की उपलब्धि होती है ।११३५।
रयणाणि सव्वरयणे, चोदसवि पवराईचक्कवट्टिस्स । उप्पज्जते य एगिंदियाणि. पंचेन्दियाई च + ११३६। (रत्नानि सर्वरत्ने, चतुर्दशान्यपि प्रवराणि चक्रवर्तिनः । उत्पद्यन्ते च एकेन्द्रियाणि, पंचेन्द्रियाणि च ।) - . सर्वरत्न निधि में चक्रवतियों के चौदहों श्रेष्ठ रत्न उत्पन्न होते हैं, जिनमें से अनेक एकेन्द्रिय एवं कतिपय पंचेन्द्रिय होते हैं ।१११६. वत्थाण य उप्पत्ती. निप्फत्ती चेव सञ्चभत्तीणं । रंगाण य धोवाण य, सव्याएमा (सव्वादेसा) महापउमे ।११३७। (वस्त्राणां चोत्पत्तिः. निष्पत्तिः चैव सर्वभक्तीनाम् । रंगाना रक्तानां]च धौताना[श द्धानां], आदेशाः महापद्म।)
महापद्म निधि में चक्रवर्तियों के लिए सब प्रकार के वस्त्रों: सब प्रकार के भोज्य व्यञ्जनों तथा उनके आदेश अथवा उनके द्वारा इच्छित सभी प्रकार की उपभोग्य वस्तुओं की उत्पत्ति होती है ।११३७ काले कालण्णाणं, नव्व पुराणं च तीसु वासेसु । । सिप्पसतं कम्माणि य. तिन्नि पयाए हियकराणि ।११३८।
+ एकेन्द्रियाणि च कादीनि सप्त, पञ्चेन्द्रियाणि सेनापत्यादीनि च सप्त ।
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३४२ }
। तित्थोगाली पइन्नय
(काले [कालनिधौ] कालज्ञानं, नव्यं पुराणं जचत्रिषु वर्षेषु = | शिल्पशतं कर्माणि च. त्रीणि प्रजायाः हितकराणि ।)
काल नामक निधि में वर्तमान वस्तु विषयों भावी तीन वर्षों के वस्तु विषयों का तथा अतीत तीन वर्षों के वस्तु विषयों का नवीन और पूरातन कालज्ञान तथा प्रजा के लिये हितकारी सैंकड़ों प्रकार के शिल्पों, कृषि वाणिज्यादि कर्मों एवं कालज्ञान की उत्पत्ति होती है ।११३८ः लोहाण य उप्पत्ती, होई महाकाले आगराणं च । रुप्पस्स सुवण्णस्स य, मणि मोत्ति सिलप्पवालाणं ।११३९। (लोहानां च उत्पत्तिः, भवति महाकाले आकराणां च । रूप्यस्य स्वर्णस्य च, मणिमौक्तिकशिला [स्कटिक] प्रवालानाम् ।)
महाकाल निधि में सभी प्रकार के लोहों, विविध खनिजों चांदी, सोना, मरिण, मौक्तिक, स्फटिक आदि शिलाओं एवं मूगों (प्रवालों) को उत्पत्ति होती है । ११३६. सेणाण य उप्पत्ती, आवरणाणं च पहरणाणं च । सव्वा य दंडनीति, माणगे रायनीती य ।११४०। (सैन्यानां च उत्पत्तिः, आवरणानां [संनाहानां], च प्रहरणानां च । सर्वा च दण्डनीतिः, माणवके राजनीतिश्च ।)
चक्रवतियों की माणवक नामक निधि में चतुरग सैन्यों, आवरणों ( शत्रु के शस्त्रास्त्रों से रक्षा करने वाले तनुत्राणों, कवचों, ढालों, प्रहार करने योग्य सभी शस्त्रों, अस्त्रों, सब प्रकार को दण्डनीतियों एवं राजनीति की उत्पत्ति होती है । ११४०।। नट्टविही नाउगविही, कव्यस्स चउ विहस्स उप्पत्ती । संखे महानिहिम्मि, होइ तुडियंगाणं च सव्वेसिं ११४१॥
-
= वर्तमानवस्तुविषय, अनागतवर्षत्रयविषयं प्रतीतवर्षत्रयविषयमित्यर्थः ।
त्रीणि-कालज्ञान-शिल्पशत-कृषिवाणिज्यादिकर्माणि च इत्यर्थः ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
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(नृत्य विधिः नाटकविधिः, काव्यस्य चतुर्विधस्य उत्पत्तिः । शङ्ख महानिधौ, भवति तूर्याङ्गाणां [मृदङ्गादीनां] च सर्वेषाम् ।)
चक्रवर्तियों की शङ्ख नामक महानिधि में सब प्रकार के नृत्यों की विधि, नाटकविधि चार प्रकार के काव्यों तथा सभी प्रकार के वाद्य-यन्त्रों की उत्पत्ति होती है । ११४१ । चक्कट्ठपट्टाणा, अट्ठस्सेहा य नव य विक्खंभा । बारसदीहा मंजूस, संठिया जान्हवी मुहे १९४२ (चक्राष्टप्रतिष्ठानाः अष्टौ उत्सेधाः नव च विष्कम्भाः । द्वादश दीर्घा मञ्जूषाः संस्थिताः जाह्नव्याः मुखे ।)
प्रत्येक निधि प्राठ-आठ चक्रों ( पहियों ) पर प्रतिष्ठित प्राठ योजन ऊँची, ६ योजन चौड़ी श्रौर बारह योजन लम्बी एक मंजूषा होती है, जो आठ चक्रों ( पहियों ) पर प्रतिष्ठित और गंगा के मुख में रहती हैं । ११४२ ।
वेडु लिय मणिकवाडा, कणगमया विविहरयणप डिपुण्णा । ससि सूर चक्कलक्खणा, अणुसमरयणोववत्तीय । ११४३ । (वैडूर्यमणिकपाटाः, कनकमयाः विविधरत्नप्रतिपूर्णाः । शशिसूर्यच कलक्षणा, अनुसम रत्नोपपत्तिकाः ) प्रत्येक निधि के वैडूर्य मरिण के कपाट होते हैं । वह स्वर्णनिर्मित, अनेक रत्नों से परिपूर्ण तथा रत्नों की परस्पर पूर्णत समान पत्तियों (चित्र पंक्तियों) से चित्रित होती है ११४३ । पलितोम ठितीया, निहिसरिनामा य तेसु खलु देवा । तेसिं ते आवासा, मणहर गुणरासि संपण्णा * * । ११४४ ।
योजनानीति शेषः ।
"
* प्रणुसम जुगबाहुवयंरेरणा य" स्थानांगसूत्र, स्थान है । अनुसमा प्रविषमाः ( जुगत्ति) यूप: नदाकारा वृत्तत्वाद्दीर्घत्वाच्च बाहवो द्वारशाखा वदनेषु मुखेषु येषां ते तथा -- इति अनुसमयुगबाहुवदनाः ।
*** स्थानाङ्ग े तु — " जेसि ते प्रवासा प्रक्केया प्राहिवच्चं च ॥" अर्थात्
-
येषा ते प्रवासाः । किं भूतास्ते देवा: ? अक्रेयाः - श्रक्रयणीयाः, श्राधिपत्यं स्वामित्वं च तेषु येषां देवानामित्यर्थः ।
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[तित्थोगाला पइन्नय
(पल्योपम स्थितिकाः, निधिसदृशनामानश्च तेषु खलु देवाः। तेषां ते आवासाः, मनोहर गुणराशिसंपन्नाः ।)
__एक पल्योपम की आयु वाले तथा उन निधियों के समान नाम वाले देवता उन निधियों में रहते हैं। मनोहर गुणराशियों से सम्पन्न वे निधियां हो उन देवों के आवास होतो हैं । ११४४। एए ते नवनिहिओ, पभूयधणकणगरयणपडिपुण्णा । अणुसमयमणुब्बयंति, चक्कीणं सतत कालंमि * ।११४५॥ (एते ते नवनिधयः, प्रभूतधनकनकरत्नप्रतिपूर्णाः । अनुसनयमनुव्रजन्ति, चक्रीन् सतत काळे ।)
ये, वो नौ निधियां हैं जो विपुल धन स्वर्ण. रत्नादि से परिपूर्ण रहती हैं । ये नौ निधियां चक्रवर्ती के सम्पूर्ण चक्रवर्तित्व काल में प्रतिक्षरण चक्रवर्ती का अनुगमन करती हैं ।।११४५ आउग उच्चत्ताई, वण्णा रिद्धी य गति विसेसाई। ओसप्पिणी इमीसे, समाई जा बंभदत्ताई।११४६। (आयु-उच्चत्वादि वर्णाः रिद्धयश्च गति विशेषाणि ।. अवसर्पिण्यामिमायां. समानानि यावत ब्रह्मदत्तः ।)
प्रवर्तमान अवसपिणी काल में प्रथम चक्रवर्ती भरत से लेकर अन्तिम चक्रवर्ती ब्रह्मदत्त के चक्रित्व काल तक इन : निधियों को प्रायू ऊंचाई, वर्ण, ऋद्धि और गति आदि विशिष्टताए समान रहती है ।।११४६ एवं एते वुत्ता, कित्तीपुरिसाउ चक्किणो सब्वे । एत्तो परं तुवोच्छं, दसार वंसुब्भवा. जेउ ११४७। (एवं एते उक्ताः, कीर्तिपुरुषास्तु चक्रिणः सर्वे । इतः परं तु वक्ष्यामि, दशाहवंशोद्भवाः ये तु ।) * स्थानांगे तु-'जे वसमुव गच्छंती, सव्वेसि चक्कवट्टीणं ।" इति पाठः ।
द्वितीय चरणो 'कणग' शब्दस्याप्य भावः ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
.. [ ३४५ ___ इस प्रकार कीर्तिशाली पुरुषों-सब चक्रवर्तियों के सम्बन्ध में कथन किया गया । अब मैं उन कीर्तिपुरुषों के विषय में कथन करूगा जो कि दशाहवंश में उत्पन्न होंगे ।११४७। नंदी य नन्दिमित्ते, सुन्दरबाहू य तह महाबाहू । अइबल महब्बले य, भद्दविण्हु विठ्ठति विठ्ठ य ।११४८। (नंदिश्च नन्दिमित्रः, सुन्दरबाहुश्च तथा महाबाहुः । अतिबलमहाबलश्च, भद्र-विष्णुद्विपृष्ठस्त्रिपृष्ठश्च ।) . नन्दी, नन्दिमित्र, सुन्दरबाहु, महाबाहु, अतिबल, महाबल, भद्र, द्विपृष्ठ और त्रिपृष्ठ-ये ६ वासुदेव अर्थात् त्रिखण्डाधिपति अर्द्ध. चक्री आगामी उत्सपिणी काल में जम्बूद्वीप के भरतक्षत्र में होंगे ।११४८। जयंत विजये भद्द, सुप्पभे सुदरिसणे य बोधव्वे । आणंदे नंदणे पउमे रामा संकरिसणे चेव ।११४९। (जयन्तः विजयः भद्रः सुप्रभः सुदर्शनश्च बौद्धव्याः । आनन्दः नन्दनः पद्मः, रामाः संकर्षणश्चैव ।)
जयन्त, विजय, भद्र, सुप्रभ, सुदर्शन, आनन्द,नन्दन, पद्म और संकर्षण -- ये ६ (उपरिचित वासुदेवों के ज्येष्ठ भ्राता) बलराम होंगे ।११४६। एतेसिं तु नवण्हं, पडिसच चेव तचिया जाणे । गरुय पडिवक्ख महणा तेसिं नामाणि मे सुणह ।११५०। (एतेषां तु नवानां, प्रतिशत्रवश्चैव तावन्तः जानीहि । गुरु प्रतिपक्ष महान्तः, तेषां नामानि मे शृणुत ।) . उन ६ वासुदेवों के उतने ही अर्थात् ६ प्रतिशत्रु (प्रतिवासुदेव) होंगे। वे भी महा पराक्रमशाली एवं महान् होंगे। मुझ से उनके नाम सुनिये :-११५०।। तिलए य जंघलोहे य, वइरजंधे य केसरी चेव । प.राए अपराजिय, भीम महाभीम सुग्गीवे ।११५१।
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[ तित्थोगाली पइन्नय
(तिलकश्च जंघलोहश्च, वनजंघश्च केशरी चैव । प्रहरको ऽपराजितः, भीमः महाभीमः सुग्रीवः ।)
तिलक, लोहजङ घ, वज्रजङ छ, केशरी, प्रहरक, अपराजित, भीम, महाभीम और सुग्रीव-११५१। - एते खलु पडिसत्त , कित्ती पुरिसाण वासुदेवाणं । सव्वे विचक्क जोही, सव्वे वि हता सचक्केहि = |११५२। (एते खलु प्रतिशत्रवः, कीर्तिपुरुषाणां वासुदेवानाम् । सर्वेऽपि चक्रयोद्धारः, सर्वेऽपि हताः स्वचक्र: ।)
कीर्तिपुरुष वासुदेवों के ये ६ प्रतिशत्र होंगे और अपने ही चक्रों द्वारा मारे जायेंगे ।११५२। एवं एते भणिता, उस्सप्पिणीए उ उत्तमा पुरि ।। . गरुय परक्कमपयडा, सम्मदिट्ठी चउप्पण्णं ।११५३। (एवमेते भणिता, उत्सर्पिण्यास्त्वृत्तमाः पुरुषाः । गरुत् पराक्रमप्रकटाः, सम्यग्दृष्टयश्चतुःपञ्चाशत् ।)
इस प्रकार आगामी उत्सपिणी काल में जो कीर्तिपुरुष होंगे, उनका कथन किया गया। वे चौवन कीर्तिपुरुष सर्वतः विख्यात, महा पराक्रमी और समदृष्टि होंगे।११५३। तेसीतिलक्ख णवणउति. सहस्सा नवमता य पणनउया। (वासा) मासा सत्तट्ठमा, दिणा य, धम्मो चउ समाए ।११५४। (व्यशीतिलक्ष नवनवति सहस्रा नवशताश्च पंचनवतिः । (वर्षाः) मासा सप्त अर्धाष्टम, दिनाश्च धर्मश्चतुः समायां ।)
तिरासी लाख निन्यानवे हजार नौ सौ पच्यानवें (पूर्वांग ?) साढे सात मास और पाठ दिन तक आगामी' उत्सर्पिणी काल के
= सम्वायांगे तु “सव्वे वि चक्कजोही, हम्मिाहिति सचक्के हिं।" अर्थात् सर्वेऽपि चक्रयोद्धारः हनिष्यन्ते-घानिष्यते व स्वचक्र: । भावी प्रतिवासु. देवेभ्यः भविष्यत्काल क्रिया प्रयोग एव समीचीनः ।
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तित्थोगाली पइन्नय ।
| ३४७
सुषम दुःषम नामक चतुर्थ प्रारक में धर्म ( धर्माचरण) विद्यमान रहेगा । (तदनन्तरं धर्मचरण रहित यौगलिक भोगयुग का प्रादुर्भाव - होगा ।। ११५४।
[ स्पष्टीकरण:-- ८३, ६६ ५- पूर्व हैं या पूर्वांग अथवा वर्ष - यह विचारणीय है । इस प्रश्न पर विचार करते समय ध्यान में रखना होगा कि इस अवसर्पिणी के सुषम दुःषम प्रारक के ८४ लाख पूर्व, ३ वर्ष और साढे आठ मास शेष रहने पर भगवान ऋषभदेव का जन्म हुआ । २० लाख पूर्व तक वे कुमारावस्था में रहे । ६३ लाख पूर्वं तक उन्होंने राज्य किया, १ लाख पूर्व तक साधक जीवन व्यतीत किया, १ हजार वर्ष कम १ लाख पूर्व तक वे तीर्थेश्वर रहे और इस प्रकार सुषम दुःषम प्रारक की समाप्ति १००३ वर्ष साढ़े आठ मास कम एक लाख पूर्व (काल) पहले ही धमतीर्थ का प्रवर्तन हो चुका था ।
जाव य पउमजिविंदो, जाव य विजओ वि जिणवरो चरिमो । इय सागरोवमाणं कोड़ा कोडी भवे कालो ११५५ । ( यावच्च पद्मजिनेन्द्रः, यावच्च विजयोऽपि जिनवरश्चरमः । एवं सागरोपमानां कोट्याकोटि ः भवेत् कालः । )
आगामी उत्सर्पिणी काल के प्रथम तीर्थंकर महापद्म से अन्तिम (२४ वें ) तीर्थ कर भगवान् विजय तक एक कोटाकोटि सागरोपम काल होता है । ११५५ ।
[ स्पष्टीकरण :- भगवान् ऋषभदेव से महावीर के निर्वारण तक का काल ४२ हजार वर्ष कम एक कोटाकोटि सागरोपम और ८४ लाख पूर्व था - इस तथ्य को दृष्टिगत रखते हुए यह गाथा भी विचारणीय है ||
उस्सप्पिणी इमीसे, दूसम सुसमा उ वणिया एसा । अरगो य गतो तड़यों, चउत्थमरगं तु वोच्छामि । ११५६ ( उत्सर्पिण्या इमायाः, दुःषम- सुषमा तु वर्णिता एषा । आरकश्च गतः तृतीयः, चतुर्थमारकं तु वक्ष्यामि ।)
ताराङ्किते द्व ेऽपि ( ११५४ - ५५ ) गाथे विचारणीये ।
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३४८ )
[ तित्थोगाली पइन्नय
आगामी उत्सपिरणी काल के दुःषम-सुषम प्रारक का यह वर्णन किया गया । तृतीय प्रारक का कथन समाप्त हुआ। अब मैं उत्सपिणी काल के सुषम-दुषम नामक चतुर्थ प्रारक के सम्बन्ध में कथन करता हूँ ।११५६। पलितोवम लोहड्ढ (१) परमाउं होइ तेसि मणुयाणं । उक्कोस चउत्थीए, पवड्ढमाणाउ रुक्खादी ।११५७। (पल्योपमं साद्ध (१) परमायुः भवति तेषां मनुष्याणाम् । उत्कर्ष चतुर्थी, प्रवर्द्ध मानास्तु वृक्षादयः ।)
उन (सुषम-दुःषम आरक के) मनुष्यों की उत्कृष्ट आयु एक पल्योपम होती है । ज्यों ज्यों इस चतुर्थ प्रारक का समय व्यतीत होता जाता है त्यों त्यों कल्पवृक्ष आदि बढ़ते - वृद्धिंगत रहते हैं ।११५७।
जह जह वड्ढइ कालो, तह तह बड्दंति कप्परुक्खादी। एकं गाउगमुच्चा, नर नारी रूव संपण्णा ।११५८। (यथा यथा वर्द्ध ते कालस्तथा तथा वद्धन्ते कल्पवृक्षादयः । एकं गाउकमुच्चा, नरनार्यः रूपसंम्पन्नाः ।)
ज्यों ज्यों समय बीतता जाता है, त्यों त्यों कल्पवृक्षादि की वृद्धि होती रहती है। एक गाउ (माप विशेष क्रोश) की ऊंचाई वाले उस समय के नर-नारीगण बड़े रूप सम्पन्न होते हैं । ११५८। मूलफलकंदनिम्मल, नाणा विह इट्टगंध रस भई । ववगतरोगातका, सुरू य सुर दु'दुहि थणिया ।११५९/ (मूलफलकंदनिर्मल, नानाविधेष्टगंधरसभोजिनः । व्यपगत रोगातंकाः, सुरूप-सुरदुंदुभिस्तनिताः ।)
उस पारक के मानव अनेक प्रकार के सुगन्धित गन्ध रस वाले निर्मल कन्द-मूल-फलों का उपभोग करने वाले, रोग अथवा आतंक विहीन, सुन्दर रूप-सम्पन्न और देवदुन्दुभि के निर्घोष के समान मधुर स्वर वाले होते हैं ।११५९।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
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[ ३४६
सच्छंद वण विहारी, ते पुरिसा ताय होंति महिलाउ । निच्चोउयपुष्फफला, ते विय रुक्खा गुणसमिद्धा ।११६०। (स्वच्छन्दवनविहारिणः, ते पुरुषास्ताश्च भवन्ति महिलास्तु । नित्य तुक पुष्पफलाः, तेऽपि च वृक्षाः गुणसमृद्धाः ।)
उस समय के नर एवं नारी- गण वनों में यथेच्छ विचरण करने वाले तथा कल्पवृक्ष भी सदा सब ऋतुओं के फलों से और गुणों से समृद्ध होते हैं ।११६०। कोड़ा कोडी कालो, दो चेव य होंति सागराणं तु । . सूसम दुसमा एसा, चउत्थ अरगम्मि अवक्खाया ।११६१। (कोटा-कोटी कालः द्वौ चैव च भवति सागरयोस्तु । । सुःषम दुःषमा एषा, चतुर्थ आरके अवख्याता ।) ... उत्सर्पिणी काल के उस चतुर्थ प्रारक में दो कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण काल होता है और वह सुषम-दुःषमा के नाम से विख्यात है ।११६१॥ एत्तो परं तु वोच्छं, सुसमाए किंचि एत्थ उद्दसं । जह होइ मणुय तिरियाण, कप्परुक्खाण य वुड्ढीओ ।११६२। (इतः परं तु वक्ष्यामि, सुषमायाः किंचिदत्रोदशं । यथा भवति मनुज तिर्यञ्चानां, कल्पवृक्षाणां च बद्धयः ।)
· अब मैं यहां आगामी उत्सपिरणी काल के सुषम नामक आरक में जिस प्रकार मनुष्यों, तिर्यञ्चों और कल्पवृक्षों की वृद्धि होती है, उसके सम्बन्ध में कुछ कथन करूंगा।११६२। जह जह वट्टइ कालो, तह तह वड्दति आउ दीहादी। उवभोगा य नराणं, तिरियाणं चेव रुक्खे सु ।११६३। (यथा यथा वर्धते कालः, तथा तथा वर्द्धन्ते आयु दीर्घतादि । उपभोगाश्च नराणां, तिर्यञ्चानाञ्चैव वृक्षेषु ।)
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३५० ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
ज्यों ज्यों काल आगे की ओर बढ़ता है, त्यों त्यों इन सब की आयु दोर्घता आदि तथा मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों के वृक्षों में उपभोग बढ़ते रहते हैं ।११६३।
अणिणि दीवसिहा तुडियंगा, भिंग
कोवीणे उदुसुहा चैव ।
आमोदा य पमोदा, चित्तरसा ( पत्थ) कप्परुक्खा य । ११६४ । (अनग्नाः दीपशिखाः त्रुटितांगाः, भिङ्गाः कोपीना ऋतुसुखा चैव । आमोदाश्च प्रमोदाः, चित्ररसाः प्रस्थाः कल्पवृक्षाश्च ।)
नग्ना दीपशिखा, त्रुटितांग भृंग, कोपीना, ऋतुसुखा, आमोदा, प्रमोदा चित्ररस और प्रस्थ-- ये दस प्रकार के कल्पवृक्ष उस समय में होते हैं । ११६४
वत्थाई अणिगणेस दीवसिहा तह करेंति उज्जोयं । तुडियंगेसु उज्झं, भिंगेतु य भायण विहीओ | ११६५३ (वस्त्रादि अनग्नेषु, दीपशिखाः तथा कुर्वन्ति उद्योतम् । त्रुटितांगेषु च गेयं, भृगेषु च भाजन विधयः । )
,
उस समय के मनुष्यों को अनग्ना नामक कल्पवृक्षों से . वस्त्रादि दीपशिखा नामक कल्पवृक्षों से प्रकाश, त्रुटितांगों से संगीत, भृंग नामक कल्पवृक्षों से सब प्रकार के भाजन पात्रादि - | ११६५ ।
कोबी आभरणं, उदुमुहे भोग वण्णग विहीओ । आमोएसु य वज्जं, मल्ल विहीउ पमोए सु । ११६६ । (कोपीने आभरणानि, ऋतु सुखेषु भोगवर्णक विधयः । आमोदेषु च वाद्यानि मल्लविधयः प्रमोदेषु ।)
,
कोपोन नामक कल्पवृक्षों से आभरणालंकार, ऋतुसुख नामक कल्पवृक्षों से विविध भोगोपभोग एवं श्रृंगार-प्रसाधन की सामग्री, आमोद नामक कल्पवृक्षों से वाद्य, प्रमोद नामक कल्पवृक्षों से मल्ल विधियाँ - | ११६६।
लिपिकेन प्रतौ प्रस्थ' इति प्रमादान्न लिखितम् ।
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तिथ्योगाली पइन्नय ]
[३५१
चित्तरसेसु य इट्ठा, नाणाविह साउ भोयण विहीओ। पत्था मंडवसरिसा, बोधव्या कप्परक्खेसु ।११६७। (चित्ररसेषु च इष्टा, नानाविध स्वादु भोजनविधयः । प्रस्था मण्डप सदृशाः, बोद्धव्या कल्पवृक्षेषु ।)
चित्ररस नामक कल्पवृक्षों से अनेक प्रकार के प्रभीष्टस्वादु भोजन प्राप्त होते हैं। प्रस्था नामक कल्पवृक्ष मण्डप के समान होते हैं ।११६७। जह जह वट्टति कालो, तह तह वड्ति आउ दीहादी । उवभोगा य नराणं, तिरियाणं व रुक्खेसु ।११६८। (यथा यथा वर्द्ध ते कालस्तथा तथा वर्धन्ते आयुदीर्घतादि । उपभोगाश्च नराणां, तिर्यञ्चानां चैव वृक्षेष ।)
. ज्यों ज्यों समय बीतता जाता है, त्यों त्यों आयु तथा शरीर की लम्बाई एवं मनुष्यों और तिर्यञ्चों को कल्पवृक्षों से प्राप्त होने वाली उपभोग्य सामग्री में उत्तरोत्तर वृद्धि होती रहती है ।११६८। दो गाउय + गुम्बिद्धा ते, पुरिसा तया होंति महिलाउ । दोन्नि पलिओवमाई, परमाऊं तेसि बोधव्यम् ।११६९। (द्वौ गव्यूतौ उद्विद्धाः ते पुरुषास्तदा भवन्ति महिलास्तु । द्वे पल्योपमे, परमायुस्तेषां बोद्धव्या ।)
उत्सपिणी के सुःषमा नामक उस पंचम प्रारक में पुरुषों एवं महिलाओं के शरीर की ऊचाई दो गाउ (कोस) और दो पल्योपम की आयु जाननी चाहिये । ११६६। एसा उवभोग विही, समासतो होइ पंचमे अरगे। कोडाकोडीनिण्णिउ, छ8 अरगं तु वोच्छामि ।११७०। + गाउय-गव्यूत । द्विधनुसहस्रप्रमाण क्षेत्र । प्रज्ञा० १ पद। चउहत्थं
पुण धनुहं दुन्निसस्साइ गाउयं तेसि । प्रवचन ५४ द्वार । क्रोशद्वये च, प्रोघ० ।
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३५२ ]
( एषा उपभोगविधिः, समासतः भवति पंचमे आरके | कोट्या कोट्यस्त्रीणिस्तु षष्ठ आरकं तु वक्ष्यामि ।)
"
[ तित्थोगाली पइन्नय
तीन कोटा - कोटि सागरोपम की स्थिति वाले सुषमा नामक पंचम आरक में, जैसा कि संक्षेपतः बताया गया - इस प्रकार की उपभोग विधि होती है । अब मैं उत्सर्पिणी काल के छुट्ट े आारक के सम्बन्ध में कथन करूंगा । ११७० ।
सुसम सुसमाए कालो, चचारि हवंति कोडिकोडी । इय सागरोवमाणं, काल पमाणेण नायव्वो । ११७१ । (सुषम- सुषमायां कालः, चत्वारि भवन्ति कोटिकोट्यस्तु । एवं सागरोपमानां, कालप्रमाणेन ज्ञातव्यः )
सुषम- सुषम नामक ( उत्सर्पिणी के षष्ठम ) आरक काल प्रमाण से चार कोटाकोटि सागरोपम का होता है । ११७१ जह जह वह कालो, तह तह बढेति आउ दीहादी । उपभोगा य नराणं, तिरियाणं चेक रुक्खे | ११७२ | ( यथा यथा वर्धते कालस्तथा तथा वर्द्धन्ते आयुदीर्घतादि । उपभोगाश्च नराणां तिर्यञ्चानां चैव वृक्षेषु )
"
ज्यों ज्यों समय आगे की ओर बढ़ता जाता है, त्यों त्यों मनुष्यों एवं तिर्यञ्चों की आयु, शरीर की ऊचाई तथा उन्हें कल्पवृक्षों से प्राप्त होने वाली भोग सामग्री की वृद्धि होती जाती है ११७२
सुसम सुसमाए मणयाणं, तिष्णेव गाउयाई उच्चतं । तिनि पलिओमाई, परमाउ तेसिं होड़ बोधव्वं । ११७३। (सुषम सुषमायां मनुजानां, तिस्त्र, एव गव्यूतयः उच्चत्वम् । त्रीण्येव पल्योपमानि परमायुस्तेषां भवति (इति) बोद्धव्यम् ।)
,
सुःषम-सुःषम नामक आारक में मनुष्यों के शरीर की ऊंचाई तीन गव्यूति (कोस) और उत्कृष्ट आयु ३ पल्योपम होती है, यह जानना चाहिये | ११७३ ।
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तिथ्योगालो पइन्नय ]
नयण मणर्कतरुवा, भोगुचम सव्वलक्खणधरा य । सव्वंग सुदरंगा, रतु प्पल पत्तकर चरणा ११७४। (नयनमनकान्तरूपाः भोगोत्तमसर्वलक्षणधराश्च । सर्वांग सुन्दराङ्गः, रक्तोत्पल पत्रकर चरणाः ।)
[३५३
आंखों और मन को अति प्रिय लगने वाले सुन्दर रूप वाले, भोगों के उपभोग योग्य सभी उत्तम लक्षणों को धारण करने वाले, अति सुन्दर अंग-प्रत्यंग वाल े रक्तकमल के पत्र के समान सुकोमल हाथ-पैर बालं – ११७४
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नग-नगर-मगर - सागर, चक्कंकुम वज्ज पच्चक्ख जुत्ता । सुपट्ठियवरचलणा, उन्नयतणु तंब नक्खा य । ११७५ । (नग - नगर - मकर- सागर चक्रांकुश वज्र प्रत्यक्ष युक्ताः सुप्रतिष्ठित वर चरणा, उन्नत तनु ताम्रनखाश्च ।)
पर्वत नगर मकर, सागर चक्र अंकुश और वज्र के प्रत्यक्ष ( सुस्पष्ट) लांछनों (लक्षणों) से युक्त, सुघड़ -- सुगठित सुन्दर चरणों उन्नत शरीर और ताम्रवर्ण के नखों वाले ॥। ११७५ ।।
सुसिलिड गूढ गुफा, एणी - कुरुविंदवत्तवर जंघा | समुग्ग-निमग्गगढ जारण, गयसुसण सुजाय सरिसोरू । ११७६ । (सुश्लिष्ट - गूढगुल्फा, एणी + कुरु विन्दा वर्त्तवर जंघाः । समुद्ग निमग्न गूढ जानवः, गजश्वसन सुजात सदृशोरवः । )
अति सुन्दर एवं गूढ (अप्रकट) घुटनों, टखनों आदि के जोड़ वाले, एगी ? कुरुविन्द - कद लिस्थम्भ के समान सुगठित प्रवर्त ( ढाल - उतार) सुन्दर जंघाओं वाले, उभार रहित सुदृढ़ घटने वाल े, गजराज की सूँड के समान ऊपरी भाग में स्थूल और अधोभाग में उत्तरोत्तर प्रतनु ( पतली ) जंघाओं वाल े ।। ११७६॥
* तद्ग्रन्थी घुटिके गुल्फी, पुमान्पाष्णिस्तयोरधः ।। १२१७ । इत्यमरः । + गोकर्ण पृशतैणयं रोहिताश्चमरो मृगाः । १००८ । इत्यमरः । * वनस्पति विशेषः । ‘कुरुविन्दो मेघनामा, मुस्ता मुस्तकम स्त्रियाम् । इत्यमरः ।
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३५४ ]
[ तित्थोगालो पइन्नय
वर वारण मत्तगती, वरतुरग सुजाय गुज्झ देसा य । वरसीहवट्टियकडी, वइरोवम देसमज्झा य ।११७७। वरवारणमत्त गतयः, वरतुरंगसुजातगुह्यदेशाश्च । वरसिंहवर्तित कटयः, वज्रोपम देशमध्याश्च ।)
श्रेष्ठ हस्तो के समान मत्त गम्भीर चाल, अच्छी जाति के उत्तम घोड़े के समान प्रच्छन्न गुप्तांगों वाल, केसरी के समान कटि और वज्र के समान त्रिवलि युक्त मध्य भाग (कटि एवं उदर) वाले।११७७॥ गंगावत्त पयाहिण, रवि किरण विबुद्ध कमल समनाभी। रमणिज्ज रोमराई, झस विहग सुजाय कुच्छीया ।११७८। (गंगावर्त प्रदक्षिण-रविकिरण विबुद्धकमलसमनाभयः । रमणीयरोमराजयः, झप-विहग सुजात कुक्षीकाः।) __गंगा प्रवाह के आवर्त अर्थात् भँवर के समान प्रदक्षिणा करती हुई सी और सूर्य की किरणों के द्वारा विबुद्ध अर्थात् प्रफुल्लित कमल के फूल के समान नाभि वाल, मनोरम रोमावलि वाल, मछली अथवा पक्षी के समान प्रछन्न कुक्षि वाले ॥११७६।। संगत पासा संणयपासा, सुदर सुजाय पासा वि । बत्तीस लक्खणधरा, उवइअ वित्थिण्णवर वक्खा ।११७९। (संगत पार्थाः सन्नत पार्थाः, सुन्दर-सुजात पार्था अपि । द्वात्रिंशल्लक्षणधरा, उपचित + विस्तीर्ण वरवक्षाः ।)
यथास्थान समुचित रूपेण सुगठित, क्रमशः अन्दर की ओर झुके हुए, सांचे में ढल हुए से पाश्वों, वाल बत्तीस लक्षणों के धारक एवं मांसल समुन्नत विशाल वक्षस्थल वाल ॥११७६ ।। पुरवर वर फलिह भुजा, घणथिर सुसिलिट्ठ बद्ध संधीया । वर पीवरंगुलितला. चउरंगुल कंबुसरिस गीवा ।११८०। * वज्रवत् वलित्रयोपेत मध्यभागाः । क्षीण कटश्चेत्यर्थः । + उपचित:- मांसलः ।
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तित्थोगाली पइन्नय ।
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[३५५
(पुरवर वर फलिह* भुजा, घन-स्थिर-सुश्लिष्ट बद्ध संधिकाः । वर पीवरांगुलितलाः, चतुरांगुल-कम्बुसदृश श्रीवाः ।)
समृद्ध एवं सुविशाल श्रेष्ठ नगर के द्वार की अर्गला के समान सुदृढ़ भुजाओं वाल, प्रगाढ़, सुदृढ़ सुस्थिर सुन्दर एव दृढ़तापूर्वक सधे एवं बंधे हुए शारीरिक सन्धियों वाल, मांसल होने के कारण उभरे हुए अंगुलितलों वाले, चार अंगुल लम्बी एवं शंख जैसी सुन्दर ग्रीवा (गर्दन) वाले ॥१८०॥ सुविभत्तः चित्त मंसू, पसत्थ-सद्ल विपुलवरहणुया। विबोट्ट-धवल दंता, गोखीरसरिच्छ दसन पभा ।११८१। (सुविभक्त-चित्रश्मथ (वन्तः), प्रशस्त शार्दूल विपुलवरहनुकाः । बिम्बोष्ठ-धवलदन्सा गोक्षीरसदृशदशनप्रभाः)
अच्छी तरह छटी अथवा बल खाई हई अलि सुन्दर तीखी मूछों वाले, सभी तरह सराहनीय सिंह की हनु के समान पुष्ट एवं बड़ी सुन्दर ठुड्डी वाल. बिंब फल के समान लाल ओष्टपुटों तथा गाय के दूध के समान धवल दंत पंक्तियों की प्रभा वाले ॥११८१॥ [तत्त] तवणिज्ज रत्तजीहा, गरुलायअ उज्जु तुग णासा य । वर पुंडरीय नयणा, आणामिय चाववर भुमआ।११८२। (तप्त) तपनीय रक्त जिह्वा, गरुडायत ऋजु तुंगनासाश्च । वर पुण्डरीकनयनाः, आनामित = चापवर भ्रवः।)
प्रतप्त स्वर्ण के समान लाल-लाल जिह्वा, गरुड़ की चोंच के समान आयत, सीधी, उन्नत तीखो नाक, श्रेष्ठ लाल कमल के फूल के समान प्रफुल्ल लोचनों, संधान हेतु कुछ झुकाये हुए श्रेष्ठ धनुष के समान भोंहों वाले ॥११८२॥
* वर फलिह-वरा अर्गला। = पानामित चाप-ईषद् नामित अर्थात् इषुना सन्नद्ध धनुः ।
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३५६ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय अल्लीण जुत्त सवणा, पीण सुमंसल पसत्थ सुकबोला। पंचमिचंद णिडाला, उडुवइ परिपुण्ण वरवयणा ।११८३। (आलीन युक्त श्रवणाः, पीन सुमांसल प्रशस्त. सुकपोलाः । पंचमीचन्द्रललाटा, उडुपति प्रतिपूर्ण वरवदनाः ।)
न तो चिपके हुए और न अधिक उभरे हुए अपितु उपयुक्त रूपेण उभरे हुए सुन्दर श्रवणों (कानों) वाले उभरे हुए मांसल एवं श्लाघनीय सुन्दर कपोलों वाले, शुक्ल पक्ष की पंचमी के चांद तुल्य ललाट बाल, पूर्णिमा के चन्द्र के समान मुख मण्डल वाले ॥११८३॥ छत्तु त्तमंग सोहा, घणनिचिय सुबद्धलक्खणो किण्णा। कूडागार सुसंठिय, पयाहिणावत्तवरसिरजा ।११८४। (छत्रोत्तमांग शोभाः, घन-निचित-सुबद्धलक्षणोत्कीर्णाः । कुटागार सुसंस्थित, प्रदक्षिणावर्त्तवरशिरजाः ।)
छत्र के समान सुशोभित शिर वाले, गिरिराज के उच्चतम शिखर पर संस्थित काल बादलों के समान घने तथा सँवरे हुए काल घ घराले बालों वाले ॥११८४॥ लक्खणगुणोववेया, माणुम्माण पडिपुण्ण सव्वंगा । पासाय दरिसणिज्जा, अभिरूवा चेव ते मणुया ।११८५॥ (लक्षण गुणोपपेताः, मानोन्मान प्रतिपूर्ण सर्वांगाः । प्रासाद वित्] दर्शनीया, अभिरूपाश्चैव ते मनुजाः ।)
___ सब प्रकार के शुभ लक्षणों एवं गुणो से युक्त, मान-उन्मान सहित परिपूर्ण अंगोंपांगों वाले प्रासाद के समान दर्शनीय उस सुःषम सुःषम प्रारक के मनुष्य अतीव सुन्दर होंगे ॥१५८५।। सुपइडिया चलणाउ, निच्चं पीणुण्णएहिं थणएहिं । ससि सोम दंसणाउ, ताणं मणुयाण महिलाओ ११८६।
* जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ती अष्टमी चन्देणोपमितं सुषम सुषमाया -मुत्पन्नानां मनुजानां
मुखारविन्दानि ।
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तित्योगालो पइन्नय
(सुप्रतिष्ठित चरणास्तु, नित्यं पीनोन्नतैः स्तनैः । शशि सोम दर्शनास्तु, तेषां मनुजानां महिलाः ।)
सुघड़ सुन्दर चरणों वाली तथा सदा (मृत्यु पर्यन्त) पीन एवं उन्नत पयोधरों वाली, उन पुरुषों की स्त्रियां भी चन्द्रमा के समान अति सौम्य एवं सुन्दर होंगी।११८६। एवं परिवट्टमाणो, लोए चंदेव धवल पक्खम्मि । सुसमसुममा तइया. तिरियाण वि सव्व सोक्खाई ।११८७। (एवं परिवर्तमाने, लोके चन्द्रव धवलपक्ष। . . सुषमं सुषमायांतदा, तिर्यञ्चानामपि सर्व सौख्यानि ।)
उस समय सुःषम सुःषम काल में शुक्ल पक्ष के चन्द्र की तरह बढ़ते हुए सौख्यपूर्ण लोक में पशु-पक्षो आदि तिर्यञ्चों को भी सब प्रकार के सुख उपलब्ध होंगे ।११८७। *समं वासति मेहो, होति सुसरसाइं ओसहि फलाई ।
ओसहिबलेण आऊ, वड्ढइ मणुयाण तिरियाणं ।११८८। (समं वर्षति मेघः, भवन्ति सुसरसानि औषधि-फलानि । औषधि बलेन आयुः; वर्धते भनुजानां नियंचानाम् ।) .
उस समय मेघ समुचित वर्षा करेंगे, औषधियां, फल आदि समोचीन रूप से सरस होंगे। पूर्णतः सरस उन औषधियों (वनस्पतियों) के बल अर्थात् प्रभाव से मनुष्यों तथा तिर्यञ्चों को प्राय बढ़ेगो ११८८। उस्तप्पिणी इमीसे, छट्ठो अरगोउ वण्णिओ एसो । रायगिहे गुणसिलए. गोयमादीणा समणाणं ।११८९। (उत्सर्पिण्यामिमायां, षष्ठोऽऽरकन्तु वर्णित एषः । राजगृहे गणशिलके, गौतमादि श्रमणेभ्यः ।) * तारांकिता गाथा विचारणीया । भोगभूमिकाले समं वर्षति पर्जन्य, इत्येता. दृशो समुल्लेख: सम्पूर्ण जैनवाङमये न जायते दृष्टिगोचर । एतादृशमुल्लेखं तु केवलमस्यां गाथायामैव दृश्यते ।
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३५८ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय राजगृह नगर के गुणशील नामक उद्यान में भगवान महावीर ने इन्द्रभूति आदि श्रमणों के समक्ष आगामी उत्सर्पिणी काल के षष्ठ प्रारक का यह उपयुक्त वर्णन किया ।११८६। ओसप्पिणि छब्भेया, एवं उस्सप्पिणी वि छर्भया । एवं बारस अरगा, निद्दिट्ठा वद्धमाणेणं ।११९०! (अवसर्पिणी षट भेदा, एवमुत्सर्पिण्यपि षड्भेदाः । एवं द्वादशारका, निर्दिष्टा वद्ध मानेन ।)
जिस प्रकार अवपिणी काल के छः भेद हैं उसी प्रकार उत्सपिणी काल के भी छः भेद हैं । इस प्रकार भगवान् वर्द्धमान ने काल. चक्र के १२ आरक बताये हैं ११६०। एवं तित्थोगालिं, जिणवरवीरेण भासियमुदारं । रायगिहे गुणसिलए, परमरहस्सं सुयमहग्धं ।११९१। (एवं तीर्थोद्गालिके, जिनवरवीरेण भाषितमुदारम् । राजगृहे गुणशिलके, परमरहस्यं श्रुतं महाय॑म् ।) ___ इस प्रकार भगवान महावीर ने राजगृह नगर के गुणशील उद्यान में भाषित परम रहस्यपूर्ण, उदार एवं बहुमूल्य श्रे त तीर्थप्रोगाली" का ।११६ । मिच्छत्व मोहियाणं, सद्धम परंमुहाण जीवाणं । सियवायवाहिराणं, तहकुस्सुइ पुण्णकण्णाणं ।११९२। (मिथ्यात्वमोहितानां, सद्धर्मपराङ मुखानां जीवानां । स्याद्वादबहिराणां, तथा कुश्रुतिपूर्ण कर्णानाम् ।)
-मिथ्यात्व से मोहित, सद्धर्म से विमुख, स्याद्वाद को न मानने वाले तथा जिनके कान कुशास्त्रों (मिथ्या श्र तों) के श्रवण से भरे पड़े हैं, उन जोवों को।११६२। परपरिवायरयाणं, कुलगणसंघस्सनिव्वुइ रयाणं । चारित दुब्बलाणं, मा हु कहेज्जाहि जीवाणं ।११९३।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
.. [३५९ (परपरिवादरतानां, कुलगणसंघस्य निर्वृतिरतानाम् । . चारित्रदुर्बलानां, मा खलु कथयेत् जीवानाम् ।)
दसरों की निन्दा में निरत, कुल, गण और संघ से सदा दूर रहने वाले और चरित्र-पालन में दुर्बल जीवों को, कभी कथन न करे ।११६३। बज्जाणं व जवाणं निग्घिणाण य निविसेसाणं । संसारसूयराणं, कहियंपि निरत्थ यं होइ ।११९४। (वज्रजडेभ्यः, निघणेभ्यश्च निर्विशेषेभ्यः। . संसारसूकरेभ्यः, कथितमपि निरर्थकं भवति ।)
बज्रजड़ों (नितान्त मूों), निर्लज्जों, निर्गुणों ओर संसार के कीचड़ में सूअर की तरह मग्न लोगों को तीर्थं प्रोगालो का कथन किया भी जाय तो वह सर्वथा निरर्थक ही होता है । ११६४। एयस्सि पडिवक्खा, जे जीवा पयइ भद्दग विणीया । पगईई मउयचित्ता, तेसिं तु पुणो कहेज्जा हि ।११९५। (एतेषां प्रतिपक्षाः, ये जीवाः प्रकृतिभद्रक विनीताः । प्रकृत्या मृदुचित्ताः, तेभ्यस्तु पुनः कथयेत् हि ।) ।
उपरि चचित लोगों के प्रतिपक्षी जो जीव भद्र प्रकृति के, विनीत और स्वभाव से ही कोमल चित्त बलि हैं, उन लोगों को तीर्थप्रोगाली का कथन करना चाहिये ।११६५।। सोऊण महत्थमिणं, निस्संद मोक्खमग्गसुचस्स । यचो मिच्छत्त परंमुहा, होहलद्धृण य सम्मत्त ।११९६। (श्रु त्वा महाथमेतं निस्यन्दं मोक्षमार्ग-सूत्रस्य । यस्मात् मिथ्यात्व-पराङ्मुखाः, भवन्तु लब्ध्वा च सम्यक्त्वम् ।) __मोक्षमार्ग सूत्र की पहिचान कराने वाले इस महान अर्थ भरे तीर्थ-प्रोगालो २ त की सुनकर इसके प्रभाव द्वारा मिथ्यात्व से पराङमुख होकर एवं सम्यक्त्व को प्राप्त कर ।११६६।
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३६० ]
[तित्थोगाली पइन्नय नाणं च चरित्रमुत्तम,-तुब्भे पुव्वपुरिसाणु दिण्णं । लग्गति जे य पुरिसा, मग्गं निव्वणगमणस्स ।११९७. ज्ञानं च चारित्रमुत्तमं, युष्मभ्यं पूर्वपुरुषानुदत्तम् । लग्नन्ति ये च पुरुषाः, मार्ग निर्वाणगमनस्य ।)
पूर्व पुरुषों द्वारा तुम्हें प्रदत्त अर्थात बताये हुए मोक्षगमन के मार्ग उत्तम ज्ञान और चारित्र में जो पुरुष अग्रसर होते हैं (वे धन्यहैं) ।११६७।
तह तह करेह सिग्धां, जह जह मुच्चह कसाय-जालेण : किसलदलग्गसंठिय, जललव इव चंचलं जीयं ।११९८। तथा तथा कुरुत शीघ्र तथा यथा मुच्यते- कषाय जालेन । किसलय दलाग्र संस्थित, जल लवेव च चंचल जीवितम् ।)
शीघ्रता पूर्व उस तरह के सब प्रयास करो, जिनके द्वारा कषायों के जाल से मुक्त हो सको क्योंकि किसो पौध के पत्ते पर पड़े जल-करण के समान जोवन अतोव चञ्चल अर्थात् क्षण विध्वंसी है।११६८। धण्णाणं तु कसाया, जगडिज्जंता वि अण्णमन्नं हिं । . नेच्छंति समुठेउ, सुणिविट्ठो पंगुलो जेव ११९९। धन्यानां तु कषायाः, जागृह्यमाना अपि अन्योन्यैः । नेच्छन्ति समुत्थातु, सुनिविष्टः पंगुलः यथैव )
धन्यभाग्य प्राणियों के कषाय परस्पर एक दूसरे द्वारा जगाये जाते रहने पर भी अच्छी तरह सुख पूर्वक बैठे हुए पंगु की तरह उठने की इच्छा नहीं करते ।११६६ उवसाममुवणीयं, गुणमहयाजिणचरित्त सरिसं पि । पडिपाएंति कसाया, किं पुण सेसे सरागत्थे ।१२००। (उपशममुपनीतं, गुणमहत्तया जिनचरित्रसदृशमपि । प्रतिपातयन्ति कषायाः, किं पुनः शेषान् सरागस्थान् ।)
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तिथ्योगाली पइन्नय 1
[ ३६१
गुणों में महानता को दृष्टि से वीतराग के चरित्र की तुलना करने वाल े उपशम को प्राप्त चतुर्दश- पूर्वघर को भी कषाय नीचे की श्रोर गिरा देते हैं, राग में फंसे शेष लोगों की बात ही क्या है | १२०००
सामन्नमनु चरंतस्स कसाया जस्स उक्कडा होंति ।
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मन्नामि उच्छु पुप्फंच, निष्फलं तस्स सामइयं । १२०१ | ( श्रामण्यमनुचरतः, कषाया यस्य उत्कटाः भवन्ति । मन्ये इक्षुपुष्पमिव, निष्फलं तस्य सामायिकम् ।)
श्रमण धर्म का परिपालन करने वाले व्यक्ति के अन्तर भी यदि कषाय सक्रिय होते हैं तो उस व्यक्ति की सामायिक को मैं गन्ने के फूल के समान निष्फल ही मानता हूँ । १२० १॥
जं अज्जि यं चरितं, देसूणाए पुव्वकोडीए । तंपि कसाइयमेत्तो, नासेइ नरो मुहुत्तेणं । १२०२ । (यद् अर्जितं चारित्रं देशोनया पूर्वकोट्या । तदपि कषायितमात्रः, नाशयति नरो मुहूर्त्तेन ।)
किंचित् न्यून - एक करोड़ पूर्व काल तक - श्रमण धर्म का पालन कर जो चारित्र अर्जित किया जाता है, किसी भी एक कषाय को मन में उत्पन्न कर मानव एक ही मुहूर्त में उस समस्त चारित्र को नष्ट कर डालता है । १२०२ ।
उवसमेण हणे कोहं, माणं मद्दवया जिणे ।
मायं चाज्जव भावेणं, लोभं संतुट्टिए जिणे । १२०३ ।
( उपशमेन हन्यात् क्रोध, मानं मार्दवेन जयेत् ।
मायां च ऋजुभावेन, लोभं संतुष्टिना जयेत् । )
क्रोध को उपशम भाव अर्थात् शान्ति के द्वारा नष्ट करे, मान को मार्दवता - कोमलता से जीते, मांया को ऋजुभाव अर्थात् सरलता । से और लोभ को संतोष भाव से जीते । १२०३ ।
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३६२ ]
[ तित्योगाली पइन्नय
जह जह दोसोवरमो, जह जह विसयेसु होइ वेरगं । तह नायव्वं तं खलु, आसन्नं मे पदं परमं । १२०४ | ( यथा यथा दोषो परमः, यथा यथा विषयेषु भवति वैराग्यम् । तथा ज्ञातव्यं तत् खलु, आसन्नं मे पदं परमम् ।)
ज्यों ज्यों दोषों में अनिच्छा अर्थात् दोषों से दूर रहने की वृत्ति होती है और ज्यों ज्यों विषय कषायों के प्रति वैराग्य भावना जागृत होती है त्यों त्यों समझना चाहिये कि परमपद मोक्ष मेरे निकट आ रहा है | १२०४
दुग्गमभवकंतारे, भ्रममाणेहिं सुइरं पण हिं । दल्लहो जिणोवदिट्ठो, सोग्गइ मग्गो इमो लद्धो । १२०५. ( दुर्गम भवकान्तारे, भ्रममानैः सुचिरात् प्रणष्टैः । दुर्लभः जिनोपदिष्टः, सुगति मार्ग अयं लब्धः ।)
भव रूपी इस दुर्गम अटवी में भ्रमण करते करते चिरकाल से भटके - नष्ट हुए हमने, जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित सुगति का यह दुर्लभ मार्ग पाया है । १२०५ ।
इणमो मुगतिर पहो, सुदेसिओ उ जओ जिणवरेण ।
ते धन्ना जे एयं पहमणवज्जमोतिण्णा । १२०६ ।
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(एष मुक्तिगतिपथ:, सुदेशितस्तु यत् जिनवरेण । ते धन्याः- ये एतं पथ मनवद्यमवतीर्णाः । )
जो यह मोक्ष का मार्ग जिनवर ने उपदेश द्वारा दिखाया है, उस पर जो व्यक्ति अग्रसर हुए हैं, वे धन्य हैं । २०६ ॥
जाहे य पावियव्वं, इय परलोगे य होइ कल्लाणं । ताहे जिणवरभणियं, पडिवज्जह भावतो धम्मं । १२०७। ( यदा च प्राप्तव्यं. इह पर लोके च भवति कल्याणम् । तर्हि जिनवरभणितं प्रतिपयस्व भावतः धर्मम् ।)
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तित्थोगालो पइन्नय ]
[ ३६३ यदि यह चाहते हो कि चरम लक्ष्य की अथवा अभीप्सित सुवों को प्राप्ति तथा इस लोक और परलोक में कल्याण हो, तो जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित जिन धर्म को भाव पूर्वक ग्रहण करो।१२०७। खंती य मद्दवज्जव, मुत्ती तव संजमे य बोधव्वे । सच्चं सोयं अकिंचणं च, बंमं च जइ धंमो ।१२०८१ (क्षान्तिश्च मार्दवार्जव, मुक्तिः तपसंयमाश्च बोद्धव्याः । सत्यं शौचामकिंचनं च, ब्रह्म च यतिधर्मः ।)
क्षमा मार्दव (मृदुता), सरलता, कर्मबन्ध से मुक्त होने की भावना, तपश्चरण, संयम. सत्य भाषण प्राभ्यन्तर शुद्धि, अकिंचन भाव और ब्रह्मचर्य का पालन-इन्हीं को यति धर्म जानना चाहिये ।१२०८। जो समो सव्व भूतेसु, तसेसु थावरेसु य । धम्मो दसविहो तस्स, इति केवलि भासियं ।१२०९। (य समः सर्वभूतेषु, बसेषु स्थावरेषु च । धर्मः दशविधस्तस्य, इति केलि भाषितम् ।)
जो त्रस और स्थावर सभी प्रकार के प्राणियों में समभाव रखता है उसको दश प्रकार का धर्म प्राप्त है, यह त्रिकालदर्शी केवलज्ञानी भगवान् ने कहा है १२०६। जो दस विहं पि धम्म, सद्दहती सत्त तत्व संजुतं । सो होइ समादिट्ठी, संकादि दोसरहिओ य ।१२१०। (यः दशविधमपि धर्म, श्रद्दधाति सप्त तत्त्व संयुक्तम् । स भवति सम्यग्दृष्टिः, शंकादि दोष रहितश्च ।) ___ जो व्यक्ति सात तत्वों सहित दशों प्रकार के धर्म में श्रद्धा रखता . है, वह शंका, आकांक्षादि दोषों से रहित सम्यग्दृष्टि होता है ।१२१०। सम्म सण मूलं, दुविहं धम्म समासतो उत्त। जेट्टच समण धम्मं, सावग धम्मं च अणुजेडे ।१२११॥
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३६४ ]
[तित्थोगाली पइन्नय
(सम्यग्दर्शन मूलं, द्विविधं धर्म समासत उक्तम् । ज्येष्ठं च श्रमण धर्म , श्रावक धर्म च अनुज्येष्ठम् ।)
___सम्यक् दर्शन का मूल संक्षेपत; दो प्रकार का धर्म बताया गया है उन दो प्रकार के धर्मों में से ज्येष्ठ धर्म है श्रमण धर्म और उस ज्येष्ठ धर्म के पश्चात् दूसरा धर्म है श्रावक धर्म ।१२११। जा जिणवरदिट्ठाणं, भावाणं सदहणया सम्म । अत्तणओ बुद्धीयया, सोऊण व बुद्धि मंताणं ।१२१२। (या जिनवर दृष्टानां, भावानां श्रधनया सम्यक्त्वम् । आत्मनः बुद्ध या, श्रु त्वा वा बुद्धिमन्तेभ्यः ।) ____या तो त्रिकालदर्शी जिनेश्वरों द्वारा देखे-जाने एवं प्ररूपित भावों पर श्रद्धा करने से सम्यक्त्व की प्राप्ति होती है या तत्त्वदर्शी ज्ञान स्थावरों से सुनकर अथवा स्वयं की बुद्धि से तत्त्व चिन्तन द्वारा सम्यक्त्व प्राप्त किया जा सकता है ।१२१२। मिच्छाविगप्पिएसु य, अस्थिकुसासणोवदिट्ठसु । एतं मेव मितिरुई, सुद्ध त होइ संमत्तं ।१२१३। . (मिथ्या विकल्पितेषु च, अस्ति कुशासनोपदिष्टेषु । एतन्मैवमिति रुचिः, शुद्धं तद् भवति सम्यक्त्वम् ।)
मिथ्या विकल्पित कुशासनों द्वारा उपदिष्ट सिद्धान्तों में जो कुछ है, वस्तुतः वह वैसा नहीं है, इस प्रकार की रुचि होने पर शुद्ध सम्यक्त्व होता है । १२१३। एगते मिच्छत्त, जिणाण आणा य होइ णेगंतो । एगं पि असहिओ, मिच्छादिट्ठी जमालिव्व ।१२१४ (एकान्ते मिथ्यात्वं, जिनानामाज्ञा च भवति नैकान्तः । एकमपि अश्रद्दधतः, मिथ्याहष्टिः जमालीव ।)
वस्तुतः एकान्त में मिथ्यात्व है, जिनेश्वरों की आज्ञा अनेकान्त को स्वीकार करने की है। जिनेश्वर द्वारा प्ररूपित सिद्धान्तों में से
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तित्थोगाली पइन्नय]
[३६५ यदि कोई व्यक्ति किसी एक तथ्य पर भी अश्रद्धा करता है तो वह जमाली के समान मिथ्यात्वी होता है । १२१४। जिणसासण भत्तिगतो, वरतरमिहसील विप्पहीणो वि । न य नियमपरो वि जणो, जिणसासण बाहिरमतीओ ।१२१५॥ (जिनशासन भक्तिगतः, वरतर इह शीलविप्रहीनोऽपि । न च नियम परोऽपि जनः, जिनशासन बहिर्मतिस्तु ।)
जिन शासन के प्रति भक्ति रखने वाला व्यक्ति चाहे श्रेष्ठ शील से रहित अथवा नियमों से परे अर्थात् नियमों का पालन न भी करता हो तो भी वह जिन-शासन से बाहर मति वाला नहीं अर्थात् जिन शासन के अन्दर हो है ।१२१५॥ (क्यों कि) जह निम्मले पडे, पंडुरम्मि सोभाविणा वि रागेणं । सुंदर रागे वि कए, सुंदरतरिया हवई सोभा ।१२१६। (यथा निर्मले पटे पाण्डुरे, शोभा विनापि रागेण । सुन्दर रागे च कृते, सुन्दरतरा भवति शोभा ।)
जिस प्रकार एक निर्मल श्वेत वस्त्र में बिना रंग के भी शोभा अर्थात् सुन्दरता होती है और श्वेत वस्त्र पर कोई सुन्दर रंग चढ़ा देने पर उस वस्त्र की शोभा और बढ़ जाती है । १२१६। । एवमह निम्मले दरिसणंमि, सोभा विणावि सीलेण । सीलसहायम्मि उ दरिसणम्मि, अहिया हवइ सोभा ।१२१७/ (एवमथ निर्मले दर्शने, शोभा विनापि शीलेन । शीलसहाय्ये तु दर्शने, अधिका भवति शोमा ।) ____इसी प्रकार दर्शन के निर्मल होने पर उसमें शील के बिना भी शोभा होती है। उस निर्मल दृष्टि में यदि शील का पुट और लग जाय तो उसकी शोभा अधिक हो जाती है ।१२१७' भद्रेण चरित्ताओ, सुठ्ठयरं दसणं गहेयव्वं । सिझति चरणहीणा, देसणहीणा न सिझति ।१२१८।
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। तित्थोगाली पइन्नय (भ्रष्टेन चारित्रात्, सुष्टुतरं दर्शनं गृहीतव्यम् । सिद्धयन्ति चरणहीनाः, दर्शनहीना न सिद्धयन्ति ।)
यदि कदाचित् कोई व्यक्ति दुर्भाग्यवशात चारित्र से भ्रष्ट भी हो जाय तो उसे दर्शन को अच्छी तरह दृढ़ता पूर्वक पकड़ लेना चाहिए। क्यों कि चारित्र से होन व्यक्ति सद्ध (कर्मबन्ध से विमुक्त हो जाते हैं किन्तु दर्शन हीन व्यक्ति कभी सिद्ध नहीं होते ।१२१८ एत्थ य संका कंखा. वितिगिच्छा अन्नदिठिय पसंसा। परतित्थिय संथव्वो, पंच हासंति सम्मत्तं १२१९। (अत्र च शंकाऽऽकांक्षा, विचिकित्सा अन्य दृष्टिक प्रशंसा । परतीर्थिक संस्तवः, पञ्च हासन्ति सम्यक्त्वम् ।)
यहां (यह बात ध्यान में रखने योग्य है. कि) शंका आकांक्षा, विचिकित्सा (संशय), अन्य दर्शन को मानने वालों की प्रशसा और परतीथिकों की स्तुति-ये पांच दोष सम्यक्त्व का ह्रास करने वाले हैं । १२१६। संक्रादि दोसरहियं, जिण सासण कुमलयाइ गुण जुत्तं । एवं तं जं भणियं, मूलं दुविहस्स धम्मस्स १२२०।। (शंकादि दोष रहितं, जिनशासन कुशलतादि गुणयुक्तम् । एतत्तद्गद् भणितं, मूलं द्विविधस्य धर्मस्य ।)...
शंका, आकांक्षादि दोषों से सर्वथा दूर रहना और जिनशासन में प्रगाढ़ निष्ठा रखते हुए जिनाज्ञानुसार आचरण-प्रचार प्रसार आदि गुणों से युक्त कौशल प्रकट करना यही दो प्रकार के धर्म (श्रमण धर्म और श्रावक धर्म) का मूल बताया गया है ।१२२०॥ जिण सासणे कुसलया, पभावणा य तणसेवणा य । विरति भत्ती य गुणा, सम्मत्त दीवगा उत्तमा पंच ।१२२१। (जिन शासने कुशलता, प्रभावना च तृणसेवना च । ..... विरतिः भक्तिश्च गुणाः, सम्यक्त्वदीपका उत्तमा पञ्च ।)
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तित्थोगाली पइन्नय ।
[ ३६० - जिन शासन (जिनज्ञिापालन में कुशलता, प्रभावना, तृण सेवना (तप सेवना ?), विरक्ति और भक्ति-ये पांच उत्तम गुण सम्यक्त्व को प्रदीप्त (प्रकाशित) करने वाले हैं । १२२१॥ सव्वन्नू सव्व दरिसीय; वीतरागाय में जिणा । तम्हा जिणवस्वयणं, अवितहमिति भावतो मुणह ।१२२२। (सर्वज्ञाः सर्वदर्शिनश्चा, वीतरागश्च यज्जिनाः। तस्मात् जिनवरवचनं, अवितथमिति भावतः जानीहि ।)
क्यों कि जिनेश्वर भगवान् सवज्ञ-सर्वदर्शी और वीतराग होते हैं 'अत: जिनेश्वर भगवान की वाणी शाश्वत सत्य होती है यह दृढ़ आस्था भाव पूर्वक मानना चाहिये१२२२।'' । संमत्तउ नाणं, सियवाय समन्नियं महाविसमं । भावाभावविभावें, दुवालगंगंपि गणिपिडगं ।१२२३। (सम्यक्त्वात् ज्ञान, स्याद्वादसमन्वितं महा विषमम् । भावाभावविभाग, द्वादशांगमपि गणिपिटकम् ।)
___ सम्यक्त्व से स्याद्वाद सहित भाव अभाव और विभाव तथा द्वादशांग्यात्मक गणिपिटक का भी अति गहन ज्ञान प्राप्त होता है ।१२२३। जं अन्नाणी कम्म, खवेइ बहुयाहिवास कोडीहिं ।।। सं नाणी तिहि गुत्तो, खवेइ ऊसासमेत्तेण ।१२२४। (यद् अज्ञानी कर्म, अपयति बहुकाभिर्वर्षकोटीभिः । तद् ज्ञानी त्रिभि गुप्तः, क्षपयति उच्छ वास मात्रेण ।)
अज्ञानी व्यक्तिः जिस फर्मको अनेक करोड वर्षों के कठोर प्रयास से नष्ट करने में समर्थ होता है। उसी कर्म को मनगप्ति, वचन गुप्ति और कायगृप्ति- इन तीन गुप्तियों से गुप्त ज्ञानी व्यक्ति एक उच्छवासमात्र लेने जितने से समय में नष्ट कर डालता है । १२२४।
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३६८ ]
नाणाहिंतो चरणं. पंचहि समिइहिं तिहिं गतीहिं । एवं सीलं भणियं जिणेहिं तेलोक्कदंसी हि । १२२५/ (ज्ञानेभ्यः चरणं, पंचभिर्तमितिभिस्त्रिभिर्गुप्तिभिः । एतत् शीनं भणितं, जिनैस्त्रैलोक्यदर्शिभिः ।
[ तित्थोगाली पइन्नय
ज्ञान से पांच समितियों और तीन गुप्तियों सहित चारित्र की उपलब्धि होती है । त्रैलोक्यदर्शी जिनेश्वरों ने इसे शील बताया है । १२२५
सीले दोन्नि वि नियमा, सम्मत तह य होइ नाणं च । तिहं वि समाओगे, मोक्खो जिण सासणे भणिओ । १२२६ । (शीले द्वावपि नियमात् सम्यक्त्वं तथा च भवति ज्ञानं च । त्रयाणामपि समायोगे, मोक्षः जिनशासने भणितः । )
ܪ
शील में नियमतः सम्यक्त्व और ज्ञान दोनों ही होते हैं । जिन शासन में इन तीनों (शील, सम्यक्त्व और ज्ञान) के समायोग पर मोक्ष की प्राप्ति बताई गई है १२२६ ।
,
असरीरा जीव घणा, उवउत्ता दंसणे य नाणे य । सागारमणागारं लक्खणमेयं तु सिद्धाणं । १२२७ | ( अशरीराः जीवघना, उपयुक्ता दर्शने च ज्ञाने च । सागारमनागारं लक्षणमेतच सिद्धानाम् !)
अशरीरी अर्थात् रूपी, शरीर न होने के कारण केवल जीवस्वरूप – अतः एव घन, ज्ञान और दर्शन में उपयुक्त अर्थात् ज्ञान-दर्शन स्वरूप अथवा ज्ञान - दर्शन की सज्ञा वाले तथा सागार अणगारयह सिद्धों का स्वरूप है । १२२७ ।
सब विमाणाओ, सव्वोपरि सा उ थ्रुभिया । बारसहिं जोयणेहिं, इसिपभार पुढवीओ | १२२८ | (सर्वार्थ विमानात् सर्वोपरि सा तु स्तूपिका । द्वादशाभियोजन, ईषत्प्राग्भारा नाम पृथिवीतः । )
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[३६९
सर्वार्थसिद्ध विमान से १२ योजन ऊंची, लोक में सर्वोपरि अर्थात् लोक के अग्रभाग पर, ईषत्प्राग्भारा नाम की वह भूमि (सिद्ध शिला) छत्राकार में संस्थित है । १२२८|
निम्मल दगरय बन्ना, तुसार गौखीर हार सरिवन्ना । भणियाउ जिणवरेहि, उत्चाणम छत संठाणा | १२२९ । (निर्मल दगरजवर्णा, तुषारगौक्षीर हार सदृग्वर्णा । भणिता तु जिनवरैः, उचानकछत्र संस्थाना । )
जिनवरों द्वारा वह पृथ्वी, निर्मल जल की कणिका, तुषार, गाय के दूध की धार के समान वर्ण वाली और औधे किये हुए छत्र तुल्य संस्थान वाली बताई गई है । १२२६|
ईसीप भारांए, सीयाए जो यणंमि लोगंतो ।
बारसहिं जोयणेहिं. सिद्धी सव्वसिद्धा । १२३० । ( ईषत् प्राग्भारायाः सितायाः योजने लोकान्तः । द्वादशभिर्योजनैः, सिद्धिः [भुक्तिः ] सर्वार्थसिद्धात् । )
उस श्वेतवर्णा ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी अर्थात् सिद्धि अथवा मुक्ति से एक योजन ऊपर लोकान्त है । ( उससे आगे द्य ुलोक है) यह सिद्ध भूमि सर्वार्थ सिद्ध विमान से १२ योजन ऊपर है । १२३०
पणयालीस आयामा वित्थड़ा होइ सत सहस्साईं ।
.
1
-
तंपि तिगुण विसेस, परिरओ होइ बोधव्वो । १२३१| (पंचचत्वारिंशत् आयामा, विस्तीर्णा [च] भवति शतसहस्त्राणि । तमपि त्रिगुण विशेषं परिरयो [ परिधिः ] भवति बोद्धव्यः ।)
* दगरय — उदकरजस् । पानीय करिणकायाम् । जी० ३ प्रति०, ४ उ० । उदकरेगी |
तथा च 'दगवासाय
दकप्रासाद - स्फटिकरज; - इत्यर्थोऽपि भवनि ।
3
स्फटिक प्रासादे, जं० १ वक्ष० वचनात्
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३७० ]
[ तित्थोगली पइन्नय
वह ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी ४५.०००० ( पैंतालीस लाख) योजन विस्तीर्ण और तीन गुना अधिक योजनों की परिधि वाली है - यह जानना चाहिये ।। १२३१ ॥
एगा जोयण कोडी, बायालीसं च सयं संहस्साइं । तीस च सहस्साईं, दोयसयाअ ऊणवीसाउ | १२३२ । ( एका योजनकोटि, द्वात्रिंशच्च शत सहखाणि । त्रिशच्च सहस्राणि द्वशते च एकोनविंशतिस्तु )
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उस पृथ्वी का, एक करोड़, बयालीस लाख, सौ उन्नीस योजन ॥१२३२।।
तीस हजार,
[अ] खेत समत्थ वित्थिन्ना, अट्ठ े व जोयणाई बाहल्लं । परिहायड़ चरिमंते, मच्छि य पत्तउ तरणुयतरी | १२३३ । ( क्षेत्र समस्त विस्तीर्णा, अष्टावेव योजनानि बाहल्या । परिहीयते चरमान्ते, मक्षिकापत्राचनुतरी ।)
दो
विस्तृत क्षेत्रफल और मध्य में प्राठ योजन बाहल्य (दीर्घ ताअथवा मोटाई) है । वह पृथ्वी मध्य भाग से चारों ओर उत्तरोत्तर पतली होते होते अन्त में मक्खी के पंख से अधिक प्रतली है । १२३३ । (अ)
गंतूण जोयणं तु परिहाइ अंगुल पहुच ।
,
संखतूल संनिगासा+, परंता होति पतणु सा । १२३३ । ( गत्वा योजनं तु, परि हीयते अंगुल पृथक्त्वं । शंखतूल संनिकाशा, परं परं तावत् भवति प्रतनु सा । )
मध्य भाग से लेकर वह शंख अथवा रूई के समान वर्ण वाली ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी क्रमशः एक एक योजन के अन्तर पर एक एक गुल प्रमाण पतली होते होते अंत में नितान्त पतली हो गयी है । १२३३। (ब)
+ शंख तथा प्रर्कत्लवत् श्वेतवर्णा ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
- [३७१ अज्जुएण सुवन्नगमयी, नामेण सुदंसणा पभासा य । संख तूल संनिगासा, छत्तागारा य सा पुढवी ।१२३४। .. (अर्जुनस्वर्णकमयी, नाम्ना सुदर्शना प्रभासा च । शंख-तूल सन्निकाशा, छत्राकारा च सा पृथ्वी ।)
अर्जुन स्वर्णमयी (श्वेत स्वर्णमयी- Made of Platinum) सुदर्शन प्रभानाम की वह सिद्धशिला पृथ्वी शंख अथवा रूई के समान श्वेत और औंध अथवा उल्टे किये हुए छत्र के आकार को है ।१२३४। ईसि पब्भाराए उवरि, खलु जोयणस्स जो कोसो । कोसस्स [य] छब्भाए, सिद्धाणो गाहण भणिया ।१२३५। । (ईषत् प्रारभाराया उपरि, खलु योजनस्य यः क्रोशः । क्रोशस्य [च] पड्भागे, सिद्धानामवगाहना भणिता ।)
ईषत प्राग्भारा पृथ्वी पर योजन के कोस भागों में से एक कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना बताई गई है ।१२३५॥ कहिं पडिहयां सिद्धा, कहिं सिद्धा पइट्ठिया ।। कहिं बोदि चइचाणं कत्थ गंतूण सिज्झई १२३६। (क्व प्रतिहताः सिद्धाः, क्व सिद्धाः प्रतिष्ठिताः ।। क्व शरीरं त्यक्त्वा, कुना गत्वा सिद्धयन्ति ।)
सिद्ध कहां प्रतिहत हुए हैं अर्थात् सिद्धों की गति कहां जाकर रुकी-अवरुद्ध हुई है ? सिद्ध कहाँ प्रतिष्ठित अर्थात् विराजमान हैं ? वे कहां से शरीर का त्याग कर, किस स्थान पर जाकर सिद्ध हैं ? ।१२३६। अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइट्ठिया । इहं बांदि चइताणं, तत्थ गंतूण सिज्झई ।१२३७। . ..
भाषाविज्ञान दृष्ट्यां प्राकृत भाषाया: 'बोंदि' शब्दस्यातन्तिकं महत्त्वं । पांग्ल भाषोया Body बाँडी शब्देन साद्ध मस्य साम्यं विचारणीयमस्ति ।
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३७२ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
(अलोके प्रतिहताः सिद्धाः, लोकाग्रे च प्रतिष्ठिता। इह बोन्दि (शरीर) त्यक्त्वा, तत्र गत्वा सिद्धयन्ति ।)
अलोक में सिद्धों की गति प्रतिहत (अवरुद्ध) हुई अर्थात् रुकी। वे लोक के (ऊपरी) अग्र भाग में प्रतिष्ठित हैं। यहां (तिर्यक लोक में) देह त्याग, वहां लोकान में जाकर सिद्ध होते हैं । १२३८। दीहं वा हस्सं वा, जं संठाणं तु आसि पुव्वभवे । तत्तो तिभाग हीणा, सिद्धाणोगाहणा भणिता ।१२३८) (दीर्घ वा ह्रस्वं वा, यत् संस्थानं तु आसीत् पूर्वभवे । तत्तः त्रिभागहीनाः, सिद्धानामवगाहनो भणिता ।)
पूर्व भव में, दीर्घ अथवा ह्रस्व जो भी शरीर का संस्थान था, उससे तीन भाग कम अर्थात् एक चौथाई अवगाहना कही गई है ।१२३८। जं संठाणं तु इहं, भवं चयन्तस्स चरिम समयम्मि । आसी य परासघणं, तं संठाणं तहिं तस्स ।१२३९) . (यत् संस्थानं तु इह, भवं त्यजतः चरम समये । आसीत् च प्रदेशघनं, तत् संस्थानं तत्र तस्य ।)
यहां अन्तिम काल में भव अर्थात् जन्म-मरण का अन्त करते समय शरीर के प्रदेश घन रूपी शरीर का संस्थान था वही संस्थान उस सिद्धयमान व्यक्ति का सिद्ध हो जाने पर वहां उस ईषत् प्राग्भारा पृथ्वी (सिद्धशिला) पर रहता है ।१२३६। उत्ताण उच्च पासिल्ल, उच्चट्ठियओनिसन्नओ चेव । , जो जह करेइ काली (कालं) सो तह उववज्जए सिद्धो ।१२४०। (उत्तान-उच्चपाश्विल, उच्चैस्थितःनिषण्णश्चैव । यः यथा करोति कालं, स तथा उपपद्यते सिद्धः । )
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[ ३७३
उत्तानासन, खड़े हुए किसी पार्श्व पर लेटे, ऊपर बैठे और पद्मासन से बैठे आदि जिस जिस श्रासन से जो सिद्ध यमान जीव जन्म मरण का अन्त करता है वह उसी आसन से ईषत्प्राग्भारा नामक सिद्ध भूमि पर सिद्धावस्था में संस्थित रहता है । १२४० ।
तिन्निसा तेतीसा, धणु ति भागो य होइ बोधव्वो । एसा खलु सिद्धाणं, उक्को सोगाहणा भणिता । १२४१ । ( त्रीणि शतानि त्रयत्रिशधनुत्रिभागश्च भवति बोद्धव्यः । एषा खलु सिद्धानामुत्कृष्टाऽवगाहना भणिता ।)
तीन सौ तेतीस धनुष और एक धनुष का तीसरा भाग - यह सिद्धों की उत्कृष्ट अवगाहना बताई गई हैं । १२४१ ।
चचारि रयणीओ, स्यणि तिभागूणिया य बोधव्वा । एसा खलु सिद्धाणं, मज्झिमोगहणा भणिया । १२४२ । ( चत्वारि रत्नयः, रत्नित्रिभागोनाश्च बोद्धव्या । एषा खलु सिद्धानां मध्यमाऽवगाहना भणिता ।)
,
एक तिहाई रत्नी कम चार रत्नी यह सिद्धों की मध्यम अवगाना बताई गई हैं । १२४२ ।
एगा य होइ रयणी, अट्ठ े व अंगुलाई साहीया । एसा खलु सिद्धाणं, जहम्न ओगाहणा भणिता । १२४३ । ( एका च भवति रत्निः, अष्टावेवांमुल्यः साधिकाः ।
एषा खलु सिद्धानां जघन्याऽवगाहना भणिता ।)
एक रत्नी और आठ अंगुल -यह सिद्धों की जघन्य (कम सेकम) अवगाहना बताई गई है । १२४३ (अ)
(ब) जत्थ य एगो सिद्धो, तत्थ अनंता मंत्ररयविमुक्का । अन्नोन्नं समोगाढा, पुड्डा लोगंता लोगंते । १२४३ |
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३७४ ]
[तित्थोगाली पइन्नय
(यत्र चैकः सिद्धा. तत्र अनन्ताः भवरजोविमुक्ताः ।। अन्योऽन्यं समवगाढाः. स्पृष्टाः लोकान्ताः लोकान्ते )
उस ईषत्प्राग्भारा पृथ्वी पर जहां एक सिद्ध है, वहां जन्ममरण रूपी भव की रज से सर्वथा विमुक्त अनन्त सिद्ध हैं। लोक (संसार) का अन्त कर देने वाले वे अनन्त सिद्ध लोकान्त अथात् लाक के अग्रभाग पर एक परस्पर एक दूसरे से समवगाढ़ और स्पृष्ट हैं । १२४३ (ब) फुसई अणंते सिद्धे, सव्व पदेसेहिं नियमसो सिद्धा । ते वि असंखेज्जगुणा, देस पदेसेहिं जे पुछा ।१२४४। (म्पृशन्ति अनन्तान् सिद्धान् सर्व प्रदेशैः नियमशः सिद्धाः । तेऽपि असंख्यात गुणिताः, देशप्रदेशैर्ये स्पृष्टाः।)
नियमतः सिद्ध अपने सर्व प्रात्म प्रदेशों से अनन्त सिद्धों को स्पर्श करत हैं. इनके अतिरिक्त उनके द्वारा जो सिद्ध उनके देश अर्थात् कतिपय आत्म प्रदेशों से स्पृष्ट हैं वे सर्वात्म प्रदेशों से स्पृष्ट सिद्धों से असंख्यात गुना अधिक हैं । १२४४। केवलनाणुवउत्ता, जाणंति सव्वभावगुणभावे । पासंति सब्बतो खलु, केवलदिट्ठी अणंताहिं ।१२४५। (केवलज्ञानोपयुक्ताः, जानन्ति सर्वभाव गुणभावान् । पश्यन्ति सर्वतो खलु, केवलदृष्ट्या अनन्ताभिः ।)
केवल-ज्ञान में उपयुक्त वे लोकालोक के त्रिकालवर्ती भूत, भविष्यत् और वर्तमान सभी भावों और गुणों को जानते तथा अनन्त केवल-दृष्टि द्वारा सब देखते हैं ।१२४५। न वि अस्थि माणुसाणं, तं सोक्खं न वि य सव्व देवाणं । जं सिद्धाणं सोक्खं, अव्वावाहं उबगताणं ।१२४६।
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तित्योगालो पइन्नय] (नाप्यस्ति मनुष्याणां, तद् सौख्यं नापि च सर्व देवानाम् । यत् सिद्धानां सौख्यं, अव्यावाधं उपगतानाम् ।)
अव्याबाधा मोक्ष में गये हुए सिद्धों को जो सुख है. वह सुख वस्तुतः न तो मनुष्यों में से किसी भी मनुष्य को प्राप्त है और न सब देवताओं में से किसी एक देव को ही ।१२४६। .. सुरगण सुह संमत्त, सव्वद्धा पिंडितं अणंत गुणं । न वि पावइ मुत्तिसुहं अणंताहिं विवग्गवग्गूहिं ।१२४७।। (सुरगण-सुखसमस्तं सर्वाद्धा-पिण्डितं अनत्तगुणम् । नापि प्राप्नोति मुक्तिसुखं, अनन्तैरपि वल्ग वल्गभिः ।)
संसार के समस्त देव समूहों के समग्र सुख को एकत्र कर उसे अनन्त गुणित किया जाय तो भी वह पिण्डीभूत देव सुख मुक्ति के सुख के अनन्तवें भाग के अनन्तवें भाग की भी तुलना नहीं कर सकता ।१२४७। सिद्धस्ससुहोरासी, सव्वद्धा पिंडिआ जइ हवेज्जा । सो-णंत भागभइओ, सव्वागासे न मायेज्जा ।१२४८। (सिद्धस्य सुखराशिः, सर्वाद्धापिण्डिता यदि भवेत् । स अनंत भागभजितः, सर्वाकाशे न मायेत् ।)
(दूसरी ओर) एक सिद्ध की सुख राशि यदि सब तरह से पिण्डीभूत की जाय और उसको अनन्त भागों में विभक्त किया जाय तो सिद्ध सुख का वह 'अनन्तवां भाग सम्पर्ण आकाश में भी नहीं मायेगा-नहीं समा सकेगा ।१२४८। जहनाम कोइ मेच्छो, नगरगणे बहु विहे वि जाणंतो। न वएइ परिकहेउ, उवमाए तहिं असंतीए ।१२४९।
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३७६ ]
[ तित्थोगाली पइन्नय
( यथा नाम कोऽपि म्लेच्छ:, नगर गुणान् बहुविधानपि जानन् । न शक्यते परिकथयितुं उपमायास्तत्र अभावात् ।)
जिस प्रकार कोई म्लेच्छ ( वर्षों तक एक समृद्ध नगर में राजा का अतिथि रहकर पुन अपने म्लेच्छ बन्धुनों के बीच म्ल ेच्छ देश में जावे तो वह नगर के बहुत से गुणों प्रथवा सुखों का भली भांति जानता हुआ भी उनका कथन करने में असमर्थ ही रहता है, क्यों कि उसके उस म्लेच्छ देश में नगर के गुरणों का अथवा सुखों का वर्णन करने के लिये कोई उपमा ही नहीं है । १२४६ ।
इय सिद्धाणं सोक्खं, अणोत्रमं नत्थि तस्स उवमंउ । किंचि विसेसेणेत्तो, सारिक्खभिणं सुणह वोच्छं १२५० । ( एवं सिद्धानां सौख्यं, अनुपमं नास्ति तस्य उपमा तु । किंचित् विशेषेण इतः सादृश्यमेतस्य शृणुत वक्ष्यामि । )
इसी प्रकार सिद्धों का सुख अनुपम है, उसको बताने के लिये समस्त संसार में कोई उपमा है ही नहीं । इस से मिलता जुलता पर कुछ विशेष दृष्टान्त मैं बताऊंगा, उसे सुनो। १२५० ।
जह सव्वकामगुणियं, पुरिसो भोत ण भोयण कोइ । aunt छुहाविक्को, अच्छेज्ज जहा अभिय तित्तो । १२५१ । ( यथा सर्वकामगुणिकं, पुरुषः क्त्वा भोजनं कोऽपि । तृष्णा क्ष ुधाविमुक्तः, तिष्ठेत् यथा अमित तृप्तः । )
जिस प्रकार कोई पुरुष पुष्टि तुष्टि आदि सबै प्रकार के गुणों से सम्पन्न अत्यन्त स्वादु भोजन खाकर तृष्णा तथा क्षुधा से विमुक्त हो पूर्णतः तृप्तावस्था में बैठता है । १२५१ ।
इय निच्चकालतिचा, अतुलं निव्वाणमुवगता सिद्धा ।
सासय मन्याचाहं, चिट्ठति सुही सुहं पत्ता | १२५२ ।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
[३७७
एवं नित्यकालतृप्ताः अतुलं निर्वाणमुपगताः सिद्धाः । शाश्वतमव्यावाधं, तिष्ठन्ति सुखिनः सुखं प्राप्ताः ।)
उसी प्रकार निर्वाण को प्राप्त हुए सिद्ध अतुलरूपेण नित्यकाल तृप्त हैं । वे शाश्वत अव्याबाध शिव-सुख को प्राप्त कर परमानन्द में विराजमान है १२५२। तत्थ वि य ते अभेदा, अवेयणा णिम्ममा णिसंगा य । संजोग बिप्पमुक्का, अपएसा निच्च एक संगणा ।१२५३। (तत्रापि च ते अभेदा, अवेदनाः निर्ममा निस्संगाश्च । संयोग विप्रमुक्ता, अप्रदेशा नित्यक संस्थाना ।)
वहां पर (सिद्ध क्षेत्र में) वे भेद रहित, वेदना रहित, ममत्व रहित निस्संग, संयोग से विप्रयुक्त प्रदेशों से रहित, नित्य एक ही संस्थान में स्थित-।१२५३। तिथिन्न सव्वदुक्खा, जाइ जरा मरण बंधणविमुक्का । अठवावाहं सोक्खं , अणुहोति सासयं सिद्धा ।१२५४। (निस्तीर्ण सर्वदुःखाः, जातिजरामरणबंधनविमुक्ताः । अव्याबाध सौख्यं, अनुभवन्ति शाश्वत सिद्धाः ।)
सब दुःखों से पार उतरे हए और जाति (जन्म), जरा, मरण के बन्धनों से विमुक्त सिद्ध अव्याबाध शाश्वत सुख का अनुभव कर रहे हैं ।१२५४। एसा य पय सहस्सेण, वन्निया समणगंधहस्थीणं । पुटठेणऊ रायगिहे, तित्थोगालीउ वीरेण ।१२५५। (एषा च पद सहस्रण, वर्णिता श्रमणगंधहस्तीभ्यः। पृष्टेन तु राजगृहे, तीर्थोद्गाली तु वीरेण ।)
भगवान् महावीर ने राजगृह नगर में, प्रश्न का उत्तर देते हुए श्रमणों में गन्ध-हस्तियों के समान श्रेष्ठ गणधरों को एक लाख पदों द्वारा इस तोर्थ-योगाली का वर्णन किया ।१२५५॥
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३७८ ]
[तित्थोगाली पइन्नय
सोउंतित्थोगालिं, जिणवरवेसहस्प वद्धमाणस्स । पणमह सुगइगयाणं, सिद्धाणं निहितट्ठाणं ।१२५६। (श्रुत्वा तीर्थोद्गालिं, जिनवरवृषभास्य वर्धमानस्य । प्रणमत सुगतिगतान्. सिद्धान् निष्ठिता र्थान् ।)
जिनेश्वरों में वृषभ तुल्य वर्धमान द्वारा वरिणत तीर्थ प्रवाहों को सुनकर सुगति-मुक्ति में विराजमान सर्वकाम सिद्ध सिद्धों को प्रणाम करो ।१२५६। भद सब जगुज्जोयगस्स, भद्दजिणस्स वीरस्स । भद सुरासुर नमं सियस्स, भदं धुअरयस्य १२५७/ (भद्र सर्व जगदुद्योत कस्य, भद्र जिनस्य वीरस्य । भद्रसुरासर नमस्यितस्य, भद्रं धुतरजसः ।)
केवल्यालोक से समग्र संसार को प्रकाशित करने वाले का भद्रकल्याण हो, जिनेन्द्र वीर का कल्याण हो, देवासरों द्वारा वन्दनीय का कल्याण हो कर्मरज को नष्ट कर देने वाले का कल्याण हो ।१२५७। गुण गहण भवण सुतरयण भरित दंसण विसुद्ध रत्थागा । संघनगर ! भईते, अक्खंड चारित्र पागारा ।१२५८। (गुण गहन भवन, श्रुतरत्न भरित दर्शन विशुद्ध रथ्याक ! संघनगर ! भद्रते, अखण्ड चारित्र प्राकारः ।)
अमित गुण रूपी भवनों से व्याप्त होने के कारण अति गहन ! आचारांगादि अनेक सुखद श्रुतरत्नों से परिपूर्ण ! मिथ्यात्व आदि कचरे से रहित विशुद्ध दर्शन रूपी रथ्याओं वाले ! और अखण्ड चारित्र रूपी प्राकार द्वारा सदा सुरक्षित प्रो संघ-नगर ! तुम्हारा कल्याण हो ।१२५८। जं उद्धित सुयाओ, अहव मतीए य थोव दोसेण । तं च विरुद्ध नाउ, सोहियव्वं सुयधरेहिं ।१२५९।
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तित्थोगाली पइन्नय ]
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(यदुद्धतं श्रु तात्, अथवा मत्या च स्तोक दोषेण । तच्च विरुद्धं ज्ञात्वा, शोधितव्यं श्रुतधरैः ।)
मैंने जो कुछ श्रुत से उद्ध त किया है अथवा अपनी बुद्धि से कहा है, उसमें मेरी मति के दोष समूहों के कारण रहे हुए शास्त्र विरुद्ध कथन का भान होते ही श्र तधर उसे शुद्ध कर ले।१२५६। तेतीसं गाहाउ दोन्नि सता उौं सहस्स मेगं च । तित्थोगालीए संखा, एसा भणिया उ अकेणं ।।। त्रयत्रिंशद् गाथास्तु, द्विशते तु सहस्रमेकं च । तीर्थोद्गालिके संख्या एषा भणिता तु अकेन ।। .
____ तीर्थ-प्रोगाली (तीर्थ के प्रवाह) में १२३३ गाथाएँ है। यह संख्या अंकों में बताई गई है । ॥ गाथा १२५९' ग्रंथान श्लोक १६६५ छ ।। इति श्री तीर्थोद्गालिक प्रकीर्णक नामा ग्रन्थो समाप्त ।। __॥ जैन जयतु शासनं, ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥
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जम्मणमरणजलोघं दुखयरकिलेससोगवीचीयं । इय संसार-समुह तरंति चदुरंगणावाए ।।
यह संसार समुद्र जन्म-मरण रूप जल प्रवाह वाला, दुःख, क्लेश और शोक रूप तंरगों वाला है । इसे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक्तप रूप चतुरंग नाव से मुमुक्षुजन पार करते हैं ।
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