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[ तित्थोगाली पइन्नय विज्ञापित करते हैं- "भगवन् ! तीर्थ का प्रवर्तन कीजिये' ।१०६५॥ एवं अभिथुणन्तो, बुद्धो फुल्लारविंद सरिसमुहो । लोगंतिय देवेहि, सयदारंमि य महा पउमो ।१०६६। (एवं अभिस्तूयमानः, बुद्धः फुल्लारविन्द सदृशमुखः । लोकान्तिक देवैः, शतद्वारे च महापद्मः ।)
लोकान्तिक देवों द्वारा शतद्वार नगर में इस प्रकार की स्तुति की जाने पर कमल के खिल पुष्प के समान नेत्रों वाले भगवान् महापद्म बुद्ध-(विज्ञप्त) हुए अर्थात् प्रभु को तीर्थ--प्रवर्तन का ध्यान आयेगा ।१०६६। मणपरिणामो य कतो, अभिनिक्खमणमि जिणवरिदेण । देवेहिं य देवीहिं य, समंतओ उच्छुयं गयणं ।१०६७। (मन परिणामश्च कृतः, अभिनिष्क्रमणे जिनवरेन्द्र ण । देवश्च देवीभिश्च, समन्ततः उत्सृतं गगनम् ।)
भगवान महापद्म अपने मन में अभिनिष्क्रमण का दृढ़ निश्चय करेंगे और देवों तथा देवियों द्वारा आकाश दिव्य घोषों से गुजरित कर दिया जायेगा ।१०६७। भवणवइ वाणमंतर, जोइसवासी विमाणवासी य । धरणियले गयणयले, विज्जुज्जो ओ क ओ खिप्पं ।१०६८। (भवनपतिः वाणव्यन्तर, ज्योतिषवासी विमानवासीभिश्च । धरणितले, गगनतले, विद्यु दुद्योतः कृतः क्षिप्रम् ।)
भवनपति, वाणमन्त्रर, ज्योतिष्क और वैमानिक देव तत्क्षण पृथ्वीतल पर और आकाश में बिजली का प्रकाश करेंगे ।१०६८। जेलु नलिणिकुमारं, रज्जेठवित्तं महापउमो । उत्त्तकणगवण्णो, मगसिर बहुलस्स दसमीए ।१०६९। (ज्येष्ठं नलिनिकुमारं, राज्ये स्थापयित्वातं महापद्मः । उत्तप्त कनकवर्णः, मार्गशीर्ष बहुलस्य दशम्याम् ।)