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________________ तित्थोगाली पइन्नय ] [ १३१ तीर्थंकर भगवान् के चरण कमलों में साष्टांग प्रणाम करते हुए सभी देवसमूह हर्षविह्वल हो उत्कृष्ट सिंहनाद करते हैं और देवों के कलकल निनाद से दशों दिशाएं गूंज उठती हैं ।४२७। अब्भंतर-मज्झ-बहि, विमाण-जोइसिय-भवणवासिकया । पागारा तिण्णि भवे, रयणे कणगे य रयए य ।४२८। (आभ्यन्तर-मध्य-बहिः, विमान-ज्योतिष्क-भवनवासिकृताः । प्राकाराः त्रयो भवेयुः, रात्नः कानकश्च राजतश्च ।) क्रमशः वैमानिक, ज्योतिष्क और भवनवासी देवों द्वारा निर्मित आभ्यंतर मध्यस्थित तथा बाह्य ये तीनों प्राकार (क्रमशः) रत्नमय, स्वर्णमय और रजतमय होते हैं ।४२८॥ मणिरयण हेमया वि य, कविसीसा सव्व रयणिया दारा । सव्य रयणमयाब्विय, पडागधय तोरणा विचिता ।४२९। (मणि रत्न-हैमकापि च, कपिशीर्षाः सर्वरत्निकाः द्वाराः । सर्वरत्नमयापि च, पताक-ध्वजतोरणाः विचित्राः ।) उन तीनों प्राकारों के कपिशीस (बन्दरों के प्रिय प्राकाराग्रवर्गौलाकारवृत्त प्राकार शिखर) भी मणि रत्न-स्वर्ण निर्मित, सभी द्वार सर्वरत्नमय और स्वस्तिकादि विविध चिह्नों से शोभायमान पताकाए, ध्वजाए तथा तोरण-ये सभी सर्वरत्नमय होते हैं । ४२६ । प्रतावेव नास्ति ४३० __ [गाथा संख्या ४३० प्राप्त प्रति में नहीं है। संभव है लिपिक ने संख्या लिखने में कहीं त्रुटि की हो। चेइदुमपीढ छंदग, आसणछत्तं च चामराओ य । जं चऽणं करणिज्ज, करेंति तं वाणम [विं] त्तरिया ।४३१। (चैत्यद्र म-पीठ-छंदकासनछां च चामराणि च । यच्चान्यत् करणीयं, कुर्वन्ति तत् वानमन्तरिकाः।)
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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