________________
१३२ ]
[ तित्थोगालो पइन्नय
रत्नमय आभ्यन्तर प्राकार के मध्य भाग में (बीचों-बीच) चैत्यवृक्ष अर्थात् अशोकवृक्ष, उसके नीचे सर्वरत्नमय पीठ अर्थात् विशाल मंच, पोठ के ऊपर और अशोकवृक्ष के नीचे देवच्छंदक, देवच्छंदक में स्फटिक पादपीठ सहित सिंहासन, सिंहासन के ठीक ऊपर छत्रत्रयी, उसके दोनों पार्श्व में दो यक्षों के हाथों में दो चामर और धर्मचक्र आदि के अन्य जो जो करणीय कार्य हैं, उन्हें वानमन्तर (व्यन्तर) सम्पन्न करते हैं ।४३१॥ सूरुदय पच्छिमाए, ओगाहंतीए पुव्वओ एइ । दोहि पउमेहिं पाया, मग्गेण य होंति सत्तन्ने ।४३२। (सूर्योदये [प्रथमायां या] पश्चिमायां [पौरुष्यां] अवगाहमानायां पूर्वत एति । द्वयोः पद्मयोः पादौ, मार्गतश्च भवन्ति सप्तान्ये ।)
देवों द्वारा समवसरण की रचना सम्पन्न होने पर सूर्योदय के पश्चात् सामान्यतः प्रथम पौरुषी और कभी विशेष स्थिति में पश्चिम पौरुषी की वेला में तीर्थंकर भगवान् देवताओं द्वारा निर्मित दो पद्मों पर अपने चरण कमल रखते हुए पूर्व द्वार से प्रवेश करते हैं। उनके पीछे सात अन्य पद्म और रहते है। भगवान् के पदन्यास क पूर्व ही अन्तिम दो पद्म देवताओं द्वारा भगवान् के चरणों के नीचे रख दिये जाते हैं ।४३२। आयाहिणपुव्वमुहो, तिदिसि पडिरूवगाउ देवकया। जिट्ट गणीअण्णो वा, दाहिण पासे अदूरम्मि ।४३३। (आदक्षिणं पूर्वमुखः त्रिदिशं प्रतिरूपकास्तु देवकृताः । ज्येष्ठगणी अन्यो वा, दक्षिण पार्श्वे अदूरे ।)
तदनन्तर प्रभु अशोकवृक्ष की प्रदक्षिणा कर पूर्व की ओर मुख किये सिंहासन पर विराजमान होते हैं। शेष तीनों दिशाओं में देवों द्वारा निर्मित सिंहासनादि सहित प्रभु के प्रतिरूप प्रादुर्भूत होते हैं । भगवान् के पादपीठ के पास ही उनके ज्येष्ठ अथवा अन्य गणधर प्रभु को प्रणाम कर दक्षिण पूर्व दिग्भाग में बैठते हैं ।४३३।