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[ तित्थोगाली पइन्नय
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(मणि- कनक- रत्न चित्राणि समन्ततः तोरणानि विकुर्वन्ति । सछत्र - शालिभंजिक, मकरध्वज चिह्नसंस्थानानि ।)
वे देवगण उस भूमि के चारों ओर स्थान स्थान पर छात्रों पुतलिकाओं तथा कामदेव की आकृतियों से युक्त, तथा स्वर्ण-मरिरत्नों से निर्मित एवं चित्रित तोरणद्वारों की रचना करते हैं । ४२४ । विंट ठाईं सुरभिं, जलथलयं दिव्त्र कुसुममनीहारिं । पयरेंति समंतेणं, दसद्भवन्नं कुसुमवासं । ४२५ । (वृन्तस्थां सुरभिं, जलस्थलजं दिव्यकुसुमनिहरिम् । प्रकुर्वन्ति समन्ततः, दशार्द्ध वर्णां कुसुमवर्षाम् )
वे आभियोगिक देव पाँच वर्णों के पुष्पों की वर्षा करते हुए एक योजन पर्यन्त उस समवसरण - भूमि को, जल और स्थल दोनों ही प्रकार के प्रदेशों में उत्पन्न हुए वृन्तों (डंठलों) पर पत्तों के ऊपरी भाग में स्थित (तरोताजा) परम सुगन्धित दिव्य कुसुमों की निर्हारी बना देते हैं अर्थात् दिव्य कुसुमों की अनुपम सुगन्ध से समस्त वायु मण्डल सम्पूर्ण वातावरण को गमका (महका) देते हैं । ४२५ तत्तोय समंतेणं, कालागुरुकु दुरुक्कमी सेणं । गंधेण मणहरेणं, धूवघडीओ बिउव्वंति । ४२६ । (ततश्च समन्ततः, कालागुरु-कु दुरुकमिश्रण । गन्धेन मनोहरेण, धूपघटिकाः विकुर्वन्ति ।)
तदनन्तर आभियोगिक देवगण चारों ओर कृष्णागरु एवं कुन्दुरुक्क मिश्रित मनोहर सुगन्धित गन्धचूर्णों की (प्रत्येक द्वार पर तीन तीन ) धूप घटिकाओं ( धूपपात्रों) को सजा उन्हें प्रदीप्त करते हैं । ४२६ ।
song सीनाए, कलयलसद्दय सव्वओ सव्वं । तित्थगर- पायभूले, करेंति देवा नित्रयमाणा | ४२७ | (उत्कृष्ट सिंहनादान्, कलकल शब्दं च सर्वतः सर्वे । तीर्थंकर - पादमूले, कुर्वन्ति देवाः निपतमानाः । )