________________
तित्थोगाली पइन्नय ]
[ १२६
की जो आशंका हमने गाथा संख्या ४१७ के स्पष्टीकरण में व्यक्त को है, उस आशंका की इस गाथा से पुष्टि होती है ।]
उप्पणमि अणंते, नट्ठमिय छउमथिए नाणे । तो देव दाणविंदा, करेंति पूयं जिणिंदाणं ।४२१।। (उत्पन्न ऽनन्ते, नष्टे च छानस्थिके ज्ञाने । ततः देवदानवेन्द्राः, कुर्वन्ति पूजां जिनेन्द्राणाम् ।)
अनन्तज्ञान (केवलज्ञान) के उत्पन्न होने और छानस्थिक ज्ञान के नष्ट हो जाने पर तीर्थंकरों की देवेन्द्र तथा दानवेन्द्र पूजा करते हैं । ४२१। भवणबई वाणवन्तर, जोइसवासी विमाणवासी य । सविड्ढीए सपरिसा, कासी नाणुप्पायमहिमं ।४२२। (भवनपतिः वानमन्तर, ज्योतिषवासी विमानवासी च । सर्वर्द्ध या सपरिषदा, अकार्षन् ज्ञानोत्पादे महिमाम् ।)
भवनपति, वानमन्तर और ज्योतिष-मण्डल एवं विमानों में निवास करने वाले देव-देवेन्द्र ने अपनी समग्र ऋद्धि और परिषदों सहित केवलज्ञान की उत्पत्ति की महिमा की । ४२२३ मणि कणम-रयण चित्त, भूमिभाग समंतओ सुरभि । आजोयणंतरेणं, करति देवा विचित्तं तु ।४२३। (मणि-कनक-रत्नचित्र, भूमिभागं समन्ततः सुरभिः । आयोजनान्तरेण, कुर्वन्ति देवाः विचित्र तु ।)
कैवल्योपलब्धि के स्थल के चारों ओर एक योजन भूमि को देवों ने स्वर्ण, मणियों तथा रत्नों से चित्रित, सुगन्धियों से सुगन्धित और अद्भुत बना दिया ।४२३। मणिकणगरयण चित्त, समंतओ तोरणा वि उव्विति । सछत्त सालिभंजिय, मयरद्धयचिंध संठाणे ।४२४।