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[ तित्थोगाली पइन्नय
पार्श्वनाथ को पूर्वाह में तथा शेष तीर्थंकरों को अपराह में केवलज्ञान प्रकट हुआ।४१८॥
[स्पष्टीकरण---यह गाथा परिवर्तित स्वरूप में पुनः दे दी गई है। देखिये गाथा संख्या ४०२ और उसका स्पष्टीकरण ] जे चेव जम्मरिक्खा, नाणुपत्तीए होति ते चेव । भणिया रिक्खा एचो, वोच्छामि तवं समासेण |४१९। (ये चैव जन्मऋक्षाः ज्ञानोत्पत्तः भवन्ति ते चेव । भणिताः ऋक्षा इतः वक्ष्यामि तपो समासेन)
___ तीर्थंकरों के जन्मनक्षत्रों और ज्ञानोत्पत्ति के नक्षत्रों का कथन कर दिया गया अब उनके केवलज्ञानोत्पत्ति के तप का संक्षेपतः कथन करूगा ।४१६। उसमस्स अट्ठमेणं, चउभत्तण वासुपज्जस्य । . केवलनाणुप्पत्तीः, सेसाणं छट्ठभत्ते ण ।४२०। (ऋषभस्याष्टमेन, चतुर्भक्त न वासुपज्यस्य । केवलज्ञानोत्पत्तीः, शेषानां षष्ठभक्त न ।)
तीर्थंकरों के केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय के तप :...
भगवान् ऋषभदेव को अष्टमभक्त (तेळे) के तप में, भगवान् वासुपूज्य को चतुर्थभक्त (१ उपवास) के तप में और शेष इकवीस तीर्थंकरों को षष्ठभक्त अर्थात् वेळे के तप में केवलज्ञान की उपलब्धि हुई ।४२०।
[स्पष्टीकरण :---प्रावश्यक मलय और सत्तरिसय गण की एतद्विषयक यह गाथा द्रष्टव्य है :---
"अट्ठमभत्तंमि कए, नाणमुसहमल्लि नेमि पासाणं ।
वसुपुज्जस्स चउत्थे, सेसाणं छट्ठभत्ततवे ॥"
श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थंकरों के केवलज्ञानतप के सम्बन्ध में यही मान्यता आज प्रचलित है । पूर्व में रहे यत्किचित् मान्यताभेद