________________
५४ ] :
[ तित्थोगाली पइन्नय
"तीर्थङ्करों के माता पिता और तीर्थङ्करों के प्रति यदि कोई मन से भी पापपूर्ण कृत्य करने का विचार करेगा तो यह निस्संदिग्ध है कि उस का शिर सौ टुकडे होकर फूट जायगा । १७६।" एवं उग्घोसेबुता, तो धत्तु जिणेस माहीए । ठावंति जम्मभवणे, सयणिज्जे हरिसिय मणाओ ।१७७) (एवं उद्घोषयित्वा ताः, ततः गृहीत्वा जिनेशमात न् । . स्थापयन्ति जन्मभवने, शयनीये हर्षितमनाः ।)
इस प्रकार की उद्घोषणा करके परम हर्ष मनाती हुई वे तीर्थकरों की माताओं को जन्म भवनों में उनको शय्याओं पर लाकर लिटा देतो हैं ।१७। परिवारे सव्वा तो, ते सिंगार हावकलियाओ । गायंति सवण सुहयं, सत्तस्सर सीभरं गेयं ।१७८। (परिवार्य सर्वास्ततस्ताः शृंगार हाव कलिताः । गायन्ति श्रवण सुखदं, सप्त स्वर सीभरं गेयम् ।)
तदनन्तर शृगार और हाव भाव की प्रतीक वे ५६ दिक्कुमारी महत्तरिकाएँ अपना सब दिशाकुमारियों के साथ एकत्र हो सप्तस्वरलहरियों से सम्मोहक और श्रवण सुखद मंगलगान गातो हैं । १७८। तत्तो जिण जणणीओ, महुरं गीयं दिसाकुमारीणां । सुणमाणेउ सहसा, निययाए संगयाताओ ।१७९। (ततः जिन-जनन्यः, मधुरं गीतं दिक्कुमारीणाम् । श्रू यमाणास्तु सहसा, निद्रया संगतास्ताः ।)
इसके पश्चात् दिशा कुमारियों के मधुर संगीत को सुनाती हुई तीर्थ करों की माताए सहसा निद्रा में निमग्न हो गई।१७६। ताहे भवणाहिबई वीसं, सोलस य वणयराहिवई । .. चन्दाइच्चाई गहा, सरिक्ख तारागण समग्गा ।१८०।