________________
तित्योगाली पइन्नय ]
(तीर्थंकर कर्णमूले, मणिमयपाषाण वर्तकौ कृष्णौ । आस्फोटयन्ति भणन्ति च महिधर-आयु-भवन्तु जिनाः ।)
तत्पश्चात् वे मणिमय काले पाषाण के दो गोल वृत्ताकार बाटो को तीर्थ करो के कर्ण मल के पास आस्फोटित (परस्पर टकराती) करती हुई कहती हैं-'हे जिनेन्द्र भगवान् ! आपकी महीधर-पर्वत के समान आयु हो ।१७३। रययमएहि हच्छं, अच्छर सा तंदुलेहि विमलेहिं । . तित्थयराणं पुरओ, करेंति अठ्ठट्ठ मंगलयं ।१७४। (रजतमयैः ह्रस्वं, अप्सराताः तंदुलैर्विमलैः। तीर्थंकराणां पुरतः कुर्वन्ति अष्टाष्टमंगलकम् ।)
इसके पश्चात् वे अप्सराए चाँदी के बने विमल चांवलों से शीघ्रतापूर्वक उन तीर्थङ्करों के सम्मुख आठ आठ अष्ट मंगलों का निर्माण करती हैं । १७४। जलथलय पंचवन्निय, सम्बोउ य सुरहि कुसुमकय पूयं । काउकोउग भवणे, चउदिसि घोसणं कासी ।१७५। (जल-स्थलश्च पंचवर्ण्यः, सर्वतश्च सुरभि कुसुमकृता पूजा । कृत्वा कौतुक भवनानि, चतुर्दिशाषु घोषणामकार्षन् ।) ___तदनन्तर उन्होंने जल एवं स्थल में उत्पन्न हुए. परम सुगन्धित पांच प्रकार के पुष्पों से नवधा भक्ति पूर्वक उनकी पूजा की। पूजा के पश्चात् अनेक प्रकार के कौतुक किये और फिर इस प्रकार की घोषणा की ।१७५। तित्थयर माइपिउणे, तित्थयगण य मणेण जो पावं । चित्तज्ज तस्सहुसिरं , फुट्टिही निस्संसयं सयहा ।१७६। (तीर्थकर-मातापित्रोः, तीर्थंकराणां च मनसा यः पापं । चिन्तयेत् तस्य हि शिरं, स्फुटिष्यति निस्सशयं शतधा ।)