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________________ [ तियोगाली पइन्नय ५२ ] ( स्नापयित्वा विधिना, जनन्यः दशापि मण्डिताः विधिना | लघुकैर्जिनवरेन्द्राः, दिव्याभरणैः मनंति [ मंडन्ति ] ।) दशों जिन- जननियों को विधिपूर्वक नहला कर उन्हें शृंगार चातुरी के साथ दिव्य वस्त्राभूषणों से अलंकृत करती हैं । वे छोटे छोटे दिव्य आभरणों से उन नवजात तीर्थङ्करों को भी विभूषित करती हैं । १७० अह उत्तरिल्ल भवणं; नेउ सीहासणे निवेसिता । हरिचंदण कट्ठाई आणेउ नन्दणवणाओ । १७१ । (अथ उत्तरिल्लं भवनं; नीत्वा सिंहासने निवेशयित्वा । हरि चन्दनकाष्ठानि आनेतु ं नन्दनवनात् । ) तदनन्तर वे उन्हें उत्तर दिशा में बनाये गये भवन की चतुः शाला में ले जाकर सिंहासन पर आसीन करती हैं और नन्दनवन से हरित चन्दन (सरस गोशीर्ष चन्दन की लकड़ियाँ लाकर । १७१ । समिहाओ काऊणं ! अग्गिहोमं करेंति पययाउ । भूतीकम्मं काउं, जिणाणरक्खं अह करेंति । १७२/ ( समिधान् कृत्वा, अग्निहोत्रं कुर्वन्ति प्रयतास्तु | भूतिकर्म कृत्वा, जिनानां रक्षामथ कुर्वन्ति ।) उनकी समिधा बनाती हैं। तदनन्तर वे यत्नपूर्वक हवन करने के पश्चात् भूतिकर्म कर तीर्थङ्करों की श्रनिष्टों से रक्षा करती हैं । १७२। तित्थयर कन्नमूले, मणिमय पासाण वट्टएर मसि । आफोडेंति भणेत्तिय, महिहर आऊ भवंतु जिणा । १७३ । १ हरि चंदरण - देशी - कुङ कुमे, देशी शब्द नाम माला, सर्ग ८, गाथा ६५ । तद्धि नात्रोपयुक्तम् । प्रत्र तु सरस-गोशीषं चन्दनार्थे शब्दमेतत् प्रयुक्त प्रतिभाति । २ वृत्तको - पाषाणवृतगोल का वित्यर्थः ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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