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________________ २२२ ] [ तित्थोगाली पइन्नय मृत्यु से बचे हुए शेष साधु सुदीर्घ काल के पश्चात् उस समय एक दूसरे को देख कर यह अनुभव करने लगे मानो वे परलोक में जा कर पुनः जीवित हो लौटे हों । ७२० । ते बिंति एक्मेक्कं, सज्झाउ कस्स कित्तउ धरति । 1 हंदि हु दुक्कालेणं, अम्हं नट्ठो हु सज्झातो । ७२१ । ( ते वन्ति एकमेकं स्वाध्यायः कस्य कियान् धरति । ब्रु हंत ! इह तु दुष्कालेन, अस्माकं नष्टो हि स्वाध्यायः ।) वे परस्पर एक दूसरे से पूछते हैं कि किस किस को कितनाकितना आगम पाठ कण्ठस्थ हैं । हा ! दुष्काल के कारण हमें तो स्वाध्याय-अर्थात् आगम-पाठ विस्मृत हो गया है । ७२१। जं जस्स धरइ कंठे, तं तं परि यट्टिऊण सव्वेसिं । तीणेहिं पिंडिताई, तहियं एक्कार संगाई | ७२२ | ( यद् यस्य धरति कण्ठे, तचत् परावर्तयित्वा सर्वेषाम् । तैः पण्डितानि, तत्र एकादशांगानि ।) जिस जिस साधु को जितना जितना पाठ कण्ठस्थ था, उस उस पाठ को सुन कर सब के आगम पाठों का परावर्तन किया गया और इस प्रकार उन्होंने (ज्ञान स्थविरों ने) वहां ग्यारह अंगों का पाठ यथावत् क्रमबद्ध, सुनिश्चित, सुव्यवस्थित कर प्रत्येक अंग को पूर्णतः एकत्रित किया | २२ ते विंति सव्च सारस्स, दिठिवास्स नत्थि पडिसारे । कह पुव्वगण विणा य, पत्रयणं सारं घरेहामो । ७२३ । ( ते वन्ति सर्वसारस्य, दृष्टिवादस्य नास्ति प्रतिसार [प्रतिस्मारः ] कथं पूर्वगतेन विना च, प्रवचनसारं धरिष्यामः ।) एकादशांगी को सुव्यवस्थित करने के पश्चात् वे श्रमण कहते हैं - " सम्पूर्ण ज्ञान का सारभूत दृष्टिवाद तो किसी को स्मरण नहीं है । पूर्वगत ज्ञान के बिना हम सब प्रवचन के सार को किस प्रकार धारण कर सकेंगे ? ।७२३।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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