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________________ तित्योगाली पइन्नय ] [ २२३ समणस्स (सम्मस्स) भदबाहुस्स, नवरि चौदसवि अपरिसेसाई । पुवाई अण्णत्थय उ, न कहिंचिवि अस्थि पडिसारो ।७२४।। (श्रमणस्य भद्रबाहोः, नवरं चतुर्दशापि अपरिशेषाः । पूर्वाणि अन्यत्रं च तु, न कुत्रचिदपि अस्ति प्रतिसारः ।) समभावनिष्ठ भद्रबाहु को सम्पूर्ण चौदह पूर्षों का ज्ञान हृदयंगम एवं कण्ठस्थ है। अन्यत्र कहीं किसी को स्मृति में पूर्वो का ज्ञान नहीं है ।७२४। सो विय चोइस पुब्बी, बारसवासाई जोग पडिवन्नो । दिज्ज न वि दिज्ज वा, वायणं ति वाहिप्पउ ताव ७२५। (सोऽपिच चतुर्दशपूर्वी, द्वादशवर्षान् योगप्रतिपन्नः । दद्यात् न वा दद्यात् वा, वाचनामिति व्यजिगिप्यतु तावत् । किन्तु वे चतुर्दशे पूर्वधर भद्रबाहु बारह वर्ष की योग साधना में संलग्न हैं। ऐसी स्थिति में वे पर्वगत की वाचना दें या न दें-इस सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहा जा सकता। तथापि उन्हें विज्ञप्त तो कर ही देना चाहिए ।७२५।। संघाडएण गंतूणं, आणत्तो समणसंघवयणेणं । सो संघथेरपमुहेहि, गणसमूहेहिं आभट्ठो ।७२६। (संघाटकेन गत्वा, आज्ञप्तः श्रमणसंघवचनेन । स संघस्थविरप्रमुखैः, गण समूहैरापृष्टः ।) साधुओं के एक संघाटक ने भद्रबाहु के पास पहुंच कर उन्हें श्रमण संघ के वचनों में ही प्राज्ञप्त किया। गण समूहों के अग्रणी संघ स्थविरों ने भद्रबाहु से कहा--१७२६। तं अज्जकालिय यिणवरसंघो तं जायए सव्यो। पुब्बसुयकम्पधारय ! पुव्वाणं वायणं देहि ।७२७। (तद् अयकालिकः जिनवरसंघः त्वं याचते सर्वः । पूर्व श्रु तक्रमधारक ! पूर्वाणां वाचनां देहि ।)
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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