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________________ २२४ ] [तित्योगाली पइन्नय "पूर्वश्रु तक्रमधर ! भगवान् महावीर का वर्तमानकालिक समस्त संघ आपसे प्रार्थना करता है-याचना करता है कि आप पूर्वो को वाचना दें' ७२७१ सो भणति एव भणिए, अतिड्ढ किलिट्ठएण वायणाणं । न हु ता अहं समत्थो, इण्हि मे वायणं दाउं १७२८। (स भणति एवं भणिते, अतिऋद्ध-क्लिष्टत्वात् वाचनानाम् । न खलु तावदह समर्थः, एताषां भो वाचनां दातुम् । संघाटक के इस कथन को सुन कर भद्रबाह ने कहा-"पूर्वो की वाचनाएं गहन-गम्भीर, गूढार्थपूर्ण और नितान्त क्लिष्ट हैं अतः मैं इनकी वाचनाएं देने में समर्थ नहीं हूँ ।७२८। अप्प? आउत्तस्स, मज्झ किं वायणाए कायव्यं । एवं च भणियमेत्ता, रोसस्सवसं गया साहू ७२९। (आत्मार्थे आयुक्तस्य, मम किं वाचनया कर्त्तव्यम् (करणीयम्) । एवं च भणितमात्रा, रोषस्यवशं गताः साधवः ।) आत्मकल्याण में संलग्न मुझे वाचनाओं से क्या करना है। भद्रबाह इतना ही कह पाये थे कि संघातक के साधु. रोष के वशीभूत हो गये ।७२६। अह विण्णविंति साहू, हंतेवं पसिणपुच्छणं अम्हं । एवं भणंतस्स तुहं, को दंडो होइ तं भणसु ७३०। (अथ विज्ञपयन्ति साधवः, हंत ! एवं प्रश्न पृच्छनमस्माकम् । एवं भणतस्य तव, को दंडः भवति तद् भण |) तदनन्तर वे साधु भद्रबाहु को विज्ञप्त करते हुए कहते हैं-- "हमें दुःख के साथ आप से एक प्रश्न पूछना पड़ रहा है कि इस प्रकार को बात कहते हए आप किस दण्ड के भागी होते हैं ? आप हमें यह बता दीजिये ।७३०।। सो भणति एव भणिए, अविसनो वीरवयणे नियमेण । वज्जेयव्यो सुयनिण्हवोचि, अह सव्व साहूहिं ।७३१।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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