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________________ तित्थोगाजी पइन्नय ] ( स भणति एवं भणिते, अविषण्णः वीरवचननियमेन । वर्जयितव्यः श्रतनिन्हव इति अथ सर्व साधुभिः । ) साधु संघाटक के इस कथन पर भद्रबाहु ने प्रभु महावीर के वचनों के नियमानुसार सहज स्वर में कहा - "सब साधुओं द्वारा ऐसे तनिव का परित्याग कर दिया जाना चाहिए । ७३१ । तं एवं जाणमाणो, नेच्छसि से पाडिपुत्रयं दाउ | तं ठाणं पसंते, कहे तं पासे ठवेहामी १ । ७३२/ (तदेवं जान्यमानः, न इच्छसि नः प्रतिपृच्छां दातुम् । तत्स्थानं प्राप्तं तव कथं तत् पार्श्वे स्थास्यामः । ) --' आप यह सब कुछ जानते 1 । [ २२५ संघाटक के साधुओं ने कहाहुए भी प्रतिपृच्छा -- -- वाचना देना नहीं चाहते ? आप (आप द्वारा बताये गये) उस ( त्याज्य निह्नव के) स्थान को हम आपको अपने साथ अथवा अपने हैं । ७३२। प्राप्त हो चुके हैं। अब पास कैसे रख सकते बारसविह संभोगे, वज्जए ते समं समण संघो । जन्ने जाइतो, न वि इच्छसि वायणं दाउ | ७३३। (द्वादशविधसंभोगान् वर्जयते तव समं श्रमण संघः । यद् ने' याच्यमानः नापि इच्छसि वाचनां दातुम् ।) आप प्रार्थना की जाने पर भी वाचना देना नहीं चाहते अतः श्रमण संघ आपके साथ बारह प्रकार के संभोगों का विच्छेद करता है । ७३३| सो भणति एवं भणिय जसमरितो अवसभीरुतो धीरो । एक्केण कारणं, इच्छं मे वायणं दाउ | ७३४ । (स भणति एवं भणिते, यशभूतः अयशभीरुकः धीरः । एकेन कारणेन, इच्छामि भवतां वाचनां दातुम् ।) १ नः श्रस्माभिरित्यर्थः ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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