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तित्थोगालो पइन्नय]
पहले स्वप्न में वे शंख एवं चन्द्रमा के समान नितान्त गौरवर्ण के, उभरे हुए पेणल स्कंधों वाले, सुन्दर तथा तीखे सींगों वाले देदोप्यमान वृषभ को अपने अपने मुख में प्रवेश करते हुए देखती हैं ।१०१॥
बीइयंमि भिंगकरड" सत्तंगपइट्ठियं धवल-दंतं । उत्थिय-करं गइंद, सुरिंद-नागप्पमं पुरओ । १०२ । (द्वितीये भृङ्गकरटं, सप्तांगप्रतिष्ठितं धवलदंतम् । उत्थित करं गजेन्द्र सुरेन्द्रनागप्रमं पुरतः ।)
दूसरे स्वप्न में (वे दशों जिन-माताएं) ऐरावत के समान सूड को ऊपर उठाए हुए, शुभ्र श्वेत दांतों एवं श्रेष्ठ सप्तांग वाले ऐसे सुन्दर गजराज को अपने सम्मुख देखती हैं, जिसके कपोलों के चारों ओर मदपान और मधुर गुजार करते हुए भ्रमरों के झुण्ड मंडरा रहे हैं ।१०२। विक्खिण्ण केसरसहं,' महुगुलियक्खं सुजायलांगूलं । हरिण-विवक्खं सक्खं, सुतिक्ख नहं तओसीहं १०३। (विकीर्ण केसरसखं, मधुगुलिताक्षं सुजात लांगलम् । हरिण-विपक्षं साक्षात् सुतीक्ष्णनखं ततः सिंहम् ।)
वे तीसरे स्वप्न में फलाई हुई केसर, मधु के समान पिंगलवर्ण की अखों, सुनिष्पन्न पूछ और तीखे नखों वाले मृगारि सिंह को अपने सम्मुख देखती हैं ।१०३। चउहि चउदंतेहिंय. नागवरिंदेहिं धवलदंतीहि । सिरि-अभिसेयं पेच्छंति, जिणवराणं तु जणणीओ ।१०४। (चतुर्भिश्चतुर्द तैश्च, नागवरेन्द्रर्धवलदन्तैः। श्री-अभिषेकं प्रक्षन्ति, जिनवराणां तु जनन्यः ।)
१ करड करट-किरति मदं-कृ-प्रटन् गज गजगण्डे । २ सह प्रव्यय-सा शब्दार्थ-प्राकृतत्वादनुस्वारम् । ३ सख-साक्षात् (अव्यय.) ।