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[ तित्थोगाली पइन्नय वे दशों तीर्थङ्करों की माताएं, गजराजों में श्रेष्ठ चार चार दांतों वाले श्वेत हस्तियों द्वारा लक्ष्मी का अभिषेक किया जा रहा है, इस प्रकार का चौथा स्वप्न देखती हैं । १०४। .. नाणारयण-विचित्त, वियसियकमलुप्पल-सुरभिंगंधिं । छप्पय गणोववेयं, दामं, पेच्छंति सुसिलिट्ठ । १०५। (नानारत्न विचित्र विकसित कमलोत्पल सुरभिगधिम् । .. षट्पद गणोपपेतं, दाम, प्रक्षन्ति सुश्लिष्टम् ।)
अनेक प्रकार के रत्नों के साथ गूथी गई, उसमें पिरोये गये अनेक प्रकार के कमलोत्पलादि में विकसित पुष्पों से मनमोहक सुगन्ध वाली और भ्रमरों के झुण्डों द्वारा सेवित अति कमनीय अपूर्व माला को वे जिन-जननियां पांचवें स्वप्न में देखती हैं । १०५। . उदयगिरिमत्थयत्थं, रस्सिसहस्सेहिं समणुगम्मतं । पेच्छति सुहपमुत्ता, कुमुदागरवोहगं चंद ।१०६। (उदयगिरिमस्तकस्थं, रश्मिसहस्त्रैसमनुगमन्तम् । प्रेक्षन्ति सुख प्रसुप्ता कुमुदाकर बोधकं चन्द्रम् ।)
तदनन्तर सुखभर निद्रा में सोई हुई वे दशों तीर्थङ्करों की माताएँ छठे स्वप्न में उदयाचल के उच्चतम शिखर पर स्थित, सहस्र किरणों के परिवार सहित बढ़ते हुए, तथा कुमुदवनों को प्रफुल्लित करने वाले चन्द्रमा को देखती हैं ।१०६। . एवं वियसियवयणा, रविमंडलमुज्जलं पगासंतं । पेच्छिंति अंबरगय, अब्भामत्थ ट्ठियं पुरओ ।१०७। (एवं विकसितवदनाः, रविमण्डलमुज्जवलं प्रकाशन्तम् । प्रेक्षन्ति अंबरगतं, अभ्रमस्तके स्थितं पुरतः ।)
इसी प्रकार प्रसन्नमुखी वे जिन-माताएं सातवें स्वप्न में आकाश के शिरोभाग पर स्थित उज्ज्वल सूर्यमण्डल को आकाश में अपने सम्मुख देखती हैं, जो कि समस्त संसार को प्रकाशित कर रहा है ।१०७। .