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तित्थोगाली पइन्नय ]
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दिव्वं रयण विचित्र पेच्छंति महांसुयं परमरम्मं । निवज्जवज्जसारं, विज्जुज्जल चंचल-पडागं ।१०८। (दिव्यं रत्नविचित्रं, प्रेक्षति महांशुकं परमरम्यम् । निर्वद्यवज्रसारं, विद्युदुज्ज्वल-चंचलपताकम् ।)
__ आठवें स्वप्न में वे विविध दिव्य रत्नों से जटित, परम रम्य, महांशुक (अनूपम वस्त्र विशेष) से निर्मित, उत्तमवज्र की सारभूत; बिजली की झलक के समान उज्ज्वल प्रकाशमान चंचल पताका जिसमें लगी हुई है, ऐसे- ।१०८। तुङ्ग गयण विलग्गं, धरणियल पइट्ठियं महाकायं । आगासमुवमिणेउं, ठियं महिंदज्झय पुरओ १०९। (तुङ्ग गगनविलग्न, धरणितलप्रतिष्ठितं महाकायम् । आकाशमुपमेतु , स्थित महीन्द्रध्वज पुरतः।।)
मानों आकाश को मापने के लिये उत्तुंग गगन के उपरितन छोर को स्पर्श करते हुए, पृथ्वीतल पर प्रतिष्ठित महान विशालकाय महेन्द्र ध्वज को अपने सम्मुख स्थित देखा ।१०६। हेमंत बाल दिणयर, समप्पभं सुरभिवारिपडिपुण्ण । दिव्य कंचण-कलसं, पउमु-पिहाणं तु पेच्छति ।११०। (हेमन्त बाल-दिनकरसमप्रभ सुरभिवारिपरिपूर्णम् । दिव्यं कंचनकलशं, पद्म-पिधानं तु प्रेक्षन्ति ।)
. हेमन्त ऋतु के उदीयमान सूर्य के समान नयनाभिराम प्रभावाले, सुगन्धित जल से परिपूर्ण, पद्म के पिधान से ढके हए दिव्य कंचन कलश को उन जिन-जननियों ने नौवें स्वप्न में देखा।११०। फलिह-सरिच्छच्छजल सउणगण निसेवियं मणभिराम । वियसिय पउम सरं तं, पेच्छंति उ हरिसिय-मणाउ ।१११। [स्फटिकसदृशाच्छजलं, शकुन गणनिसेवितं मनोऽभिरामम् । विकसित पद्मसरं तं; प्रक्षन्ति तु हर्षित मनास्तु ।