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तित्योगाली पइन्नय ]
[ १३७ (एन्तं महर्द्धिकं प्रणि पतन्ति, स्थितमपि व्रजन्ति प्रणमन्तः । नापि यंत्रणा, न विकथा न परस्पर मात्सयं न भयम् ।)
समवसरण में पहले पाकर बैठे हुए अल्प ऋद्धि सम्पन्न देव मनुष्यादि अपने से अधिक ऋद्धि संपन्न को प्राते हुए देख कर नमस्कार करते और जो अल्पद्धिक बाद में आते हैं वे समवरण में पहले से बैठे हुए महद्धिकों को प्रणाम करते हुए अपने स्थान की ओर अग्रसर होते हैं। समवसरगा में उपस्थित हए प्राणियों को परस्पर न किसी से किसी प्रकार को यंत्रणा ही होती है न किसी प्रकार का मात्सर्य और भय ही । समवसरण एकत्रित हुए देव, देवी, मनुष्य एवं स्त्री वर्ग किसी प्रकार की विकथा नहीं करते ।४४५॥ बीयंमि होति तिरिया. तइए पागारमंतरेण जाणा। पागार जढे तिरिया वि. हुति पत्तय मिस्सा वा ।४४६। (द्वितीये भवन्ति तिर्यश्चा, तृतीये प्रकारान्तरेण यानाः । प्राकारजढे' तिर्यञ्चापि भवन्ति प्रत्येक मिश्रा वा ।)
- दुसरे प्राकार में तिर्यञ्च-पशु-पक्षी होते हैं। तीसरे प्राकार में देवों तथा मानवों के यान और प्राकार रहित अर्थात् प्राकार के बहिर्भाग में तिर्यञ्च भी होते हैं। कभी देव, मनुष्य, तिर्यञ्च सभो मिश्र रूप से और कभी केवल तिर्यञ्च, कभी केवल मनुष्य तथा कभी केवल देव हो देव रहते हैं ।४४६। । तित्थ पणामं काउं, कहेइ साहारणेण सद्दे णं ।। सव्वेमि सन्नीणं, जोयण नीहारिणा भगवं ।४४७। (तीर्थं प्रमाणं कृत्वा, कथयति साधारणेन शब्देन । सर्वेभ्यः संज्ञीभ्यः योजन नीहारिणा भगवान् ।)
__अष्ट महा प्रातिहार्यों से युक्त तीर्थकर भगवान सिंहासन पर आसीन होने के पश्चात तीर्थ को प्रणाम कर एक योजन की परिधि में सभी संज्ञी प्राणियों को सुनाई देने योग्य सहज स्वर में प्राणिमात्र के कल्याण के लिये देशना दते हैं ।४४७।
१ प्राकारजढे-प्राकाररहिते ।