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________________ [ तित्थोगाली पइन्नय (पूर्वद्वारमागच्छन्ति, अतिसुन्दरेण द्वारेण दक्षिणिल्लेन । भवनपतिवानमन्तर, ज्योतिष्कानां च देव्यः ।) ____ भवन पति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की देवियां अतिसुन्दर दक्षिणी द्वार से पूर्व द्वार की ओर पाती हैं ।४४२१ जे भवणवई देवा, अवरदारेण तेउ पविसंती। तेणं चिय जोइसिया, देवा दइया जणसमग्गा ।४४३ (ये भवनपति-देवाः, अपरद्वारेण ते तु प्रविशन्ति । तेनैव हि ज्योतिष्काः, देवाः दयिताः जनसमग्राः ।) जो भवनपति देव हैं. वे पश्चिमी द्वार से समवसरण में प्रवेश करते हैं। उसी पश्चिमी द्वार से ज्योतिष्क देव और सभी नर-नारीगण प्रवेश करते हैं ।४४३। एक्केकिय दिसाए, तिगं तिगं होइ संनिविट्ठतु । आइचरिमे विमिस्सा, थी पुरिसासेसपत्तेयं ।४४४। (एकैकस्यां दिशायां, त्रिकं त्रिकं भवति सन्निविष्टं तु । आद्य चरमे विमिश्राः, स्त्री पुरुषा शेष प्रत्येकम् ।) पर्युक्त पूर्व-दक्षिण अादि चारों दिशाओं में से प्रत्येक में तीन-तीन वर्ग एकत्र होते हैं। जिस प्रकार पूर्व-दक्षिण दिशा में (१) संयतों का वर्ग, (२) वैमानिक दवियों का वर्ग तथा (३) श्रमणी वर्ग। दक्षिण-पश्चिम दिशा में-(१) भवनवासी देवों की देवियों का वर्ग, (२) ज्योतिष्क देवों की देवियों का वर्ग एवं (३) व्यन्त र देवों की देवियों का वर्ग। पश्चिमोत्तर दिशा में (१) भवनपति, (२) ज्योतिष्क तथा (३) व्यन्तर--ये तीन देवो के वर्ग और उत्तर-पूर्व दिशा में (१) वैमानिक देवों का वर्ग, (२) मनुष्यों का वर्ग तथा मनुष्यों की स्त्रियों का वगं । इनमें से पहले और चौथे इन दो त्रिको में स्त्री तथा पुरुष दोनों ही होते हैं। जबकि दूसरे त्रिक में केवल स्त्रियाँ और तीसरे वर्ग में केवल पुरुष ही होत हैं ।४४४। एतं महिड्ढियं, पणिवयंति ठियमवि वयंति पणमंता । ण वि जंतणा, न विकहा न परोप्पर मच्छरो न भयं ।४४५।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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