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तित्योगाली पइन्नय ]
.. [ १३५ भवनपति, ज्योतिष्क और वानमन्तर ( व्यन्तर ) देव पश्चिमी द्वार से प्रवेश कर तीर्थकर भगवान् की तीन बार प्रदक्षिणा और उन्हें तीन बार प्रणाम कर तीर्थ को नमस्कार हो, केवलियों को नमस्कार हो. अतिशयधर साधुओं को नमस्कार हो, और शेष सब साधुओं को नमस्कार हो-यह उच्चारण कर उत्तर-पश्चिम दिशा भाग में यथास्थान अर्थात आगे भवनपति, उनके पीछे ज्योतिष्क देव और उनके पोछे व्यन्तर बैठ जाते हैं। वैमानिक देव, पुरुष और महिलाएं उत्तर द्वार से समवसरण में प्रवेश कर तीर्थकर को तीन बार प्रदक्षिणा के पश्चात् उन्हें तीन बार नमस्कार कर नमः तीर्थाय, नमःकेवलिभ्यो, नमोऽतिशायिसंयतेभ्यः और नमः शेषसाधुभ्यः कह कर उत्तर पूर्व दिशा में बैठ जाते हैं। इनमें आगे की आर वैमानिक देव, उनके पीछे पुरुष और पुरुषों के पीछे स्त्रियाँ बैठती हैं। इन देवदेवी-मनुष्यों के साथ उनकी निश्रा अर्थात् नेतृत्व में आये हुए शेष देव, देवो, मानव भी उनके पार्श्व अथवा पृष्ठ भाग में बैठते हैं । ४३६। पविसंति समहिंदा, उत्तरदारेण कप्पवासिसुरा । राया नर नारीगणा, जे वि देवा व णयराणं ।४४०। (प्रविशन्ति समहेन्द्रा, उत्तरद्वारेण कल्पवासिसुराः । राजानः नरनारिगणाः, येऽपि देवा वा नगराणाम् ।)
___ उत्तरी द्वार से इन्द्रों सहित वैमानिक देव, नरेन्द्र और नरनारी गण और नगरों के जो देव है. वे प्रवेश करते हैं ।४४०। एगयमुत्तरदारं, कप्पवह अंगणाउ अणगारा । बीय पुरच्छिमिल्लेणं, पविसन्ति नाणामणिकिरणोदारणं ।४४१ । (एककमुचरद्वारं, कल्पपत्यंगनाः अनगाराः । द्वितीय पुरश्चिमिल्लेन, प्रविशन्ति नानामणिकिरणो द्वारेण ।)
कल्पवासी देवों को देवियाँ भी उत्तरी द्वार से प्रवेश करती हैं। अनेक मरिणयों की किरणों से शोभायमान दूसरे पूर्वीय द्वार से मुनिगण प्रवेश करते हैं ।४४१॥ पुवदारं आगच्छंति अइ सुन्दरेण दारेण दक्खिणिल्लेणं । भवणवइ वाणमंतर, जोइसियाणं च देवीओ।४४२।