________________
१३४ ]
| तिस्थोगाली पइन्नय तदनन्तर तीर्थ-अर्थात् प्रथम और शेष गणधर, अतिशेषसंयतअर्थात् केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चौदह पूर्वधर से ह पूर्वधर तक, खेलौषधि प्रामौषधि जल्लौषधि के धनी मुनी, वैमा. निक देवो की देवियां, श्रमरिणयां, भवनपतियो व्यन्तों और ज्योतिषी देवो की देवियां--ये सब पूर्व द्वार से प्रवेश करते हैं। (ज्येष्ठ गणधर भगवान् को तीन बार प्रणाम कर उनके पास दक्षिण-पूर्वी दिशाभाग में बैठ जाते हैं। शेष गणधर भी इसी प्रकार प्रभु को वन्दन कर प्रथम गणधर के पार्श्व अथवा पीठ को अोर बैठ जाते हैं ।४३७। केवलिणो ति उण जिणे, तित्थ पणामं च मग्गओ तेसिं । मणमाई विनमंता, वयंति सट्ठाण सट्ठाणं ।४३८। (केवलिन इति पुनर्जिनाः, तीर्थ प्रणामं च मार्गितः तेभ्यः । मनःपर्यवादि ज्ञानधरा अपि विनमन्तः, व्रजन्ति स्वस्थान-स्वस्थानम् ।)
केवली तीर्थंकरों की तीन बार प्रदक्षिणा और तीर्थ को प्रणाम कर गणधरों के पीछे की ओर बैठ जाते हैं। मनःपर्यवज्ञानी से लेकर साधारण संयत तक तीथं करों, तीर्थ एवं अपने आगे बैठे हए सभी विशिष्ट संयतों को क्रमशः नमस्कार कर अपने से बड़े वर्ग के पीछे अपने-अपने स्थान पर जाकर बैठ जाते हैं। वैमानिक देवों को देवियाँ तोथंकर से लेकर माधु तक को प्रणाम कर साधु वर्ग के पृष्ठभाग में खड़ी रहती हैं। श्रमणियां भी तोर्थ कर से लेकर साधूनों तक को विधावन्दन कर वैमानिक देवियों के पीछे की ओर खडी रहती हैं। इसी प्रकार भवन वासी, व्यन्तर और ज्योतिष्क देवों की देवियाँ दक्षिण द्वार से. प्रवेश कर तीर्थकर को तीन बार प्रदक्षिणा और तीन बार वन्दन कर दक्षिण और पश्चिम दिशा के बीच के नैऋत्य कोण में अनु क्रमशः भवनवासी देवियों के पीछे व्यन्तर देव जाति की तथा उनके पोछे ज्योतिष्क देवों की दवियाँ खड़ी रहती हैं ।४३८। भवणवति जोइसिया, बोधव्या वाणमंतर सुरा यं । वेमाणिए य मणुया, पयाहिणं जं च निस्साए । ४३९। (भवनपति ज्योतिष्काः, बोधव्याः वानमन्तरं सुराश्च । वैमानिकाश्च मनुजाः, प्रदक्षिणां (कृत्वा) यया निश्रया ।)