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[ तित्थोगाली पइन्नय
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( नवस्वपि वर्षेष्वेवं, इन्द्रः स्तुत्वा श्रमण संघ तु । ईशानोऽपि तथैव च, क्षणेन अमरालयं प्राप्तः । )
शेष क्षेत्रों में भी सौधर्मेन्द्र तथा ईशानेन्द्र इसी प्रकार श्रमण संघ की स्तुति कर अपने-अपने सुरलोक को लौट गये । ८५४ |
दसवेतालय अत्थस्स, धारतो संजउ तवाउचो ।
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समणेहिं विप्पीणो, विहरिही एक्कगो धीरो । ८५५ । ( दशवैकालिक अर्थस्य, धारकः संयतः तपायुक्तः । श्रमणैर्विप्रहीणः, विहरिष्यति - एकको धीरः । )
दशश-वैकालिक सूत्र के अर्थ को धारण करने वाला संयम और तप में उद्यत वह धीर दुःप्रसह आचार्य श्रमणों से विहीन एकाकी ही विचरण करेगा । ८५५ ।
अट्ठव य गिहवासो, बारसवरिसाई तस्स परियातो ।
एवं वसति वासा, दुप्पसहो होहिंही वीरो । ८५६ | (अष्टावेव च गृहवासः, द्वादशवर्षाणि तस्य [श्रमण ] पर्यायः । एवं विंशतिवर्ण्यः, दुःप्रसभः भविष्यति वीरः । )
दुःप्रसह आचार्य आठ वर्ष तक गृहवास में और १२ वर्ष तक श्रमण पर्याय में रहेगा। इस प्रकार वह २० वर्ष की आयु वाला होगा | ८५६ | .
छज्जीवकाय हियतो, सो समणो संजमे तवाउत्तो ।
भत्ते पच्चक्खाते, गच्छिही अमरालयं वीरो |८५७ । (षड़ जीवकाय हितकः स श्रमणः संयमे तपसि आयुक्तः । भक्त प्रत्याख्याते, गमिष्यति अमरालयं वीरः 1)
षड्जीव निकाय का हितैषी वह वीर प्राचार्य दुःप्रसह संयम तथा तप में निरत रहता हुआ अन्त में अनशन कर सुरलोक को प्रयाण करेगा | ८५७।