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तित्थोगाली पइन्नय ]
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संजमतव तुबारयस्स, नमो सम्मत्त-पारियल्लस्स : अप्पडिचक्कस्स जओ, होउसया संघचक्कस्स ।८५१। (संयम तपस्तुम्बारकस्य, नमः सम्यक्त्व परियल्लस्य' । अप्रतिचक्रस्य जयः, भवतु सदा संघचक्रस्य ।)
सत्रह प्रकार के संयम तथा बारह प्रकार के (छह प्रकार के बाह्य एवं ६ प्रकार के प्राभ्यन्तर) तप रूपी तुम्ब एवं अरक वाले, सम्यक्त्व रूपी बाह्य, परिकर वाले और संसार में अपने प्रतिद्वन्द्वी चक्र से रहित ओ संघचक्र ! तुम्हें नमस्कार है, तुम्हारी सदा जय हो ।८५१॥ कम्मरय-जलोह-विणिग्गयस्स, सुयरयण दीहनालस्स । पंचमहव्वय-धिरकन्नियस्य, गुणकेसरालस्स ।८५२। (कर्मरजोजलौघविनिर्गतस्य, अ तरत्न दीर्घनालस्य । पंच महाव्रत-स्थिर कर्णिकस्य, गुणकेसरालस्य ।)
__ज्ञानावरणादि आठ कर्म रूपी रजोपूर्ण जलौघ से विनिर्गत अर्थात् प्रकट हुए, श्रु तरत्न रूपी दीर्घ नाल वाले, प्राणातिपात विरमण आदि पांच महाव्रत रूपी सुदृढ़ कणिका (मध्य गण्डिका) वाले, उत्तर गुण रूपी केसर वाले-८५२।। सावगजण-महुयरि-परिवुडस्स, जिण-सूर-तेय बुद्धस्स । संघ पउमस्स भई, समण गण सहस्स पत्तस्स |८५३। (श्रावकजन-मधुकर परिवृतस्य, जिन-सूर्य तेजो बुद्धस्य । संघ-पास्य भद्र, श्रमणगण सहस्रपत्रस्य ।)
श्रावक जन रूपी भ्रमरों से घिरे हुए, जिनेन्द्र भगवान् के केवल ज्ञान रूपी सूर्य के प्रकाश से प्रबुद्ध (खिले) और श्रमणगण रूपी सहस्र पत्रों वाले हे संघ-पद्म तुम्हारा कल्याण हो ।८५३। नवसुवि वासेसेवं, इंदो थोऊण समण संघं तु । ईसाणो वि तहविय, खणेण अमरालयं पत्तो ।८५४। १ पारियल्लं - बाह्यपुष्ठकस्य बाह्या भ्रमिरुच्यते ।