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[ तित्थोगाली पइन्नय
उस समय में चतुर्थ भक्त ( उवास ) और षष्ठ भक्त (बेला) ये उत्कृष्ट तप होंगे। आचार्य दुःप्रसह अष्टम भक्त (तेला) का तप करेंगे ८४७ |
सो दाहिण लोगवती, इंदो धम्मागुराग रत्तो य । आगंतूणं तइया, पुणो पुणो बंदते संघ | ८४८ | ( स दक्षिण लोकपतिः, इन्द्रः धर्मानुरागरतश्च । आगत्वा तदा, पुनः पुनः वन्दते संघ )
दक्षिण लोक का स्वामी सौधर्मेन्द्र धर्मानुराग में अनुरक्त हो वहां आकर बारम्बार संघ को वन्दन करता है--- ---1८४८० गुणभवण गहण सुरयणभरिय, दंसणविसुद्धरच्छागा | संघ नगर ! भद्द ते, अखंड चारितपागारा | ८४९ | (गुणभवनगहन ! श्रुतरत्नभृत ! दर्शन विशुद्ध रथ्याकः ! | संघनगर ! भद्र ं ते, अखंड चारित्र प्राकार ! )
पिण्ड विशुद्धि आदि अमित उत्तरगुणरूपी भवनों की विद्य मानता के कारण प्रति गहन ! आचाराङ्गादि अनेक सुखदाई श्रुतरत्नों से परिपूर्ण ! मिथ्यात्वादि कूड़ े कर्कट से रहित विशुद्ध दर्शन रूपी रथ्याओं वाले ! और अखण्ड चारित्र के प्राकार ( परकोटे ) से सदा सुरक्षित ! ओ संघ नगर ! तुम्हारा कल्याण हो । ८४६
भद्द सील पडागू सियस, तव नियम-तुरय जुत्तस्स | संघरहस्स भगवतो, सज्झाय सुनंदि घोसस्स । (भद्र शीलोच्छ्रित पताकस्य', तपोनियम तुरगयुक्तस्य । संघ - रथस्य भगवतः स्वाध्याय सुनन्दि घोषस्य ।)
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शोल रूपी उत्तरंग पताका वाले, तप और संयम रूपो आगामी अश्वों से युक्त अर्थात् जुते हुए और स्वाध्याय के सुमधुर स्वर रूपी सुन्दर नन्दी घोष वाले हे भगवत्स्वरूप संघ - रथ ! तुम्हारा कल्याण हो । ८५०।
१ प्राकृतशैल्या ऽन्यथोपन्यासः ।