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[ तित्योगाली पइन्नय
हरिसियमणा सुरिंदा, जिणचंदे उयएतहिं दर्छ। जाया समहियसोहा, ससिव्वठ्ठण कुमुयवणे ।१८४। (हर्षितमनाः सुरेन्द्राः, जिनचन्द्रान् उदितान् तत्र दृष्ट वा । जाताः समधिकशोभाः, शशिमिव दृष्ट वा कुमुदवनाः ।)
हर्षितमना देवेन्द्रों ने जब वहां नवोदित जिनचन्द्रों के दर्शन किये तो तत्काल उनकी शोभा-कान्ति ठीक उसी प्रकार अत्यधिक बढ़ गई, जिस प्रकार कि चन्द्र दर्शन करते ही कुमुद बन की ।१८४। जणणि सहिए जिणिंदे, नमिऊण पयाहिणं काऊणं । करयल कयंजलिपुडा, विणयेण य पज्जुवासेंति ।१८५॥ (जननिसहितान् जिनचन्द्रान् नत्वा प्रदक्षिणां कृत्वा ।। करतलकृताञ्जलिपुटाः, विनयेन च पर्युपासन्ति ।)
माताओं सहित जिनेन्द्रों को नमस्कार कर और प्रदक्षिणा कर के वे सब हाथ जोड़े विनय पूर्वक उनकी पर्युपासना करने लगे
१८५ अह सोहम्मे कप्पे, विसयपतत्तस्स सुरवरिंदस्स । सक्कस्स नवरि दिव्वं, सहसा सीहासणं चलियं ।१८६। (अथ सौधर्मे कल्प, विषय प्रसक्तस्य सरवरेन्द्रस्य । शक्रस्य नवरं दिव्यं, सहसा सिंहासनं चलितम् ।)
तीर्थ करों का जन्म होते ही सौधर्म कल्प में दिव्य देवभोगों में प्रसक्त सुरवरेन्द्रः शक्र का दिव्य सिंहासन सहसा हिला।१८६। अह ईसाणे कप्पे, विसपसत्तस्स सुरवरिंदस्स । ईसाणस्स वि दिव्वं, सहसा सीहासणं चलियं ।१८७। (अथेशाने कल्पे, विषयप्रसक्तस्य सुरवरेन्द्रस्य । ईशानस्यापि दिव्यं, सहसा सिंहासनं चलितम् ।)
___ इसी प्रकार ईशान कल्प में विषयासक्त सुरश्रेष्ठों के अधिपति ईशानेन्द्र का सिंहासन भी सहसा चलायमान हुआ।१८७।