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तित्थोगाली पइन्नय ]
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ओहीए उवउत्ता, जाये दट्टण जिणवरे तो ते । पचलिय कुंडलमउला, आसणरयणं पमोच्चीय ।१८८ (अवधिज्ञाने उपयुक्ताः जातान् दृष्टवा जिनवरान् तु ते । प्रचलित-कुण्डलमौल्य, आसनरत्नं प्रमुच्य ।)
अवधिज्ञान के उपयोग द्वारा नवजात तीर्थ करों को देखते ही चमचमाते चपल कुण्डल-मुकुटधर देवेन्द्र अपने आसन रत्न से उतर कर ।१८८। अह सत्तट्ठ पयाई. अणु (अभि) गच्छिवाण जिणवरे वरदे । अंचत्ति वामजाणु, इयरं भूमीए निहुँ १८९। .. (अथ सप्ताष्ट पदानि, अभिगत्वा जिनवरान् वरदान् । अञ्चन्ति वामं जानु, इतरं भूमौ निढ्य ।)
जिनेन्द्र जिस दिशा में विद्यमान हैं, उस अोर सात आठ पद जिनेन्द्रों के अभिमुख जाकर वाम जानु को मोड़कर तथा दक्षिण जानु को भूमि पर टिका ।१८६। पणमंति सिरेण जिणे, पुणे पुणो पागसासणेपयया । उऊंण भणंतिय, वयणमिणं नेगमेसिसुरे ।१९०। (प्रणमन्ति शिरसा जिनान् , पुनपुनः पाकशासनाः प्रयताः । उत्थाय भणन्ति च, वचनमिदं नैगमेषि-सुरान् ।)
___ मस्तक झुकाकर वे इन्द्र बार बार बड़े यत्न के साथ जिनेन्द्रों को प्रणाम करत हैं और तदनन्तर उठकर नैगमेषी देवों को इस प्रकार के वचन बोलते हैं । १६०। पंचसु एरवए सु, पंचसु भरहेसु दस जिणा जाया । काहामो अभिसेयं, करेह विदियं सुरगणाणं ।१९१। (पंचसु एरवतेषु, पंचसु भरतेषु दश जिनाः जाताः । करिष्यामोऽभिषकं, कुरुश्व विदितं सुरगणानाम् ।)