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________________ [ तित्थोगाली पइन्नय २०८ ] (राज्ञश्च अर्थजातं, प्रातीपत्रतश्चैव कल्कि राजा च । एतेन ब्रूडिताः बहुकं ब्रूडितं जलौघेन । a राजा का धन, प्रातपव्रत आचार्य और कल्की राजा - ये नहीं बहे, शेष सब कुछ प्रबल जल प्रवाह में बह गया । ६७३ । पासंडाविय वण्हा (बहुआ), बूढा वेगेण काल संपत्ता | चोवरंतिज्जे वा [१] पविरल मणुयं च संजाया [ i ] ।६७४। ( पाषण्डापि च बहुकाः ब्रूडिता वेगेन कालं सम्प्राप्ताः । चोवरं [१] अंतरीप इव, प्रविरल मानुष्कं च संजातम् । ) बहुत से पाखण्डी भी उस बाढ के वेग में बह कर मर गये । समस्त क्षेत्र चोइवर ( ? ) अन्तरीप की तरह अति स्वल्प मानव आबादी वाला बन गया । ६७४ । सो अथ पडित्यो मझ होही जसो य कित्ती य । तंमि य नगरे बूढे, अण्णं नगरं निविसिहीति । ६७५ । (स अर्थ प्रतिस्तब्धः मह्यं भविष्यति यशश्च कीर्तिश्च । तस्मिन् नगरे वहिते, अन्यं नगरं निवेशयिष्यति ) अपार संपत्ति के गर्व में मदोन्मत्त वह चतुर्मुख - मेरा यश और कीर्ति फैलेगी- यह विचार कर उस नगर के बह जाने पर अन्य नगर बसायेगा ६७५। अह सव्वतो समंता, कारेही पुरवरं महारम्मं । आरामुज्जाणजुयं, विरायते देवनगरं व ६७६ । ( अथ सर्वतः समन्तात्, कारयिष्यति पुरवरं महारम्यम् । आरामोद्यानयुतं विराजते देवनगरं वा । ) वह उद्यानों एवं प्रारामों से युक्त सभी प्रकार से प्रति सुरम्य समचतुरस्र एक श्रेष्ठ नगर बसायेगा, जो कि देवनगर के समान सुशोभित होगा । ६७६ ।
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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