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________________ तित्योगाली पइन्नय ] [ २०६ पुणरवि आयतणाई, पुणरवि साहू य तत्थ विहरंति । सम्मं च बुटिकाओ, वासीहिति संतीय वट्टिहिति ।६७७) (पुनरपि आयतनानि, पुनरपि साधवस्तत्र विहरन्ति । सम्यक् च वृष्टिकायः वर्षिष्यन्ति शान्तिश्च वर्तिष्यते ।) उस नगर में पुनः प्रायतनों का निर्माण होगा, पुनः साधु गण वहां विचरण करेंगे. वहां आवश्यकतानुसार अच्छी वृष्टि होगी और शान्ति का प्रसार होगा।६७७। .. पडिएण वि कुंभेणं, किणं [ण्णं] तया य तहिं न होति । पण्णासं वासाई, होही य समुभवो कालो । ७८ (पतितेनापि कुम्भेन, कीर्ण तदा च तत्र न भवति । पञ्चाशत् वर्षाणि, भविष्यति च समुद्भवः कालः ।) .. उस समय किसी कलश के गिर पड़ने पर भी शब्द नहीं होगा अर्थात् पूर्ण शान्ति का साम्राज्य होगा और वह ५० वर्ष का काल अभ्युदय-समुन्नति का समय होगा ।६७८। पुणरवि य कुपासंडे, मेल्लाविहिति बला सलिंगाई । अइ तिब्बलोह पत्थो, समणेवि अभिहवेसि य ६७९/ (पुनरपि कुपासंडान् मेलापयिष्यति बलात् स्वलिंगानि । अतितोत्र लोभग्रस्तः, श्रमणानपि अभिद्रोष्यति च । . तदनन्तर वह पुनः पाखण्डियों को एकत्र कर बलपूर्वक उनके वेष उतरायेगा। अति तीव्र लोभ के वशीभूत हो वह पुनः साधुओं को संताप पहुँचावेगा।६७६। तइया वि कप्पववहार, धारओ संजतो तवाउचो । आणा दिट्ठी समणो, भविअसुचो पसंत मणो ।६८०। (तदापि च कल्पव्यवहारधारकः संयतः तपायुक्तः । आज्ञादृष्टिः श्रमणः, भावितसूत्रः प्रशान्तमनाः ।)
SR No.002452
Book TitleTitthogali Painnaya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKalyanvijay
PublisherShwetambar Jain Sangh
Publication Year
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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