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तित्थोगाली पइन्नयन
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"श्रो सनत्कुमारेन्द्र ! तुम श्रमणसंघ के शरण्य बनो। यह वैयावृत्य (श्रमण श्रमणी की सेवा) का सुअवसर है"-इस प्रकार बोलती हुई साध्वियाँ बाढ़ से सुरक्षित रहेंगी।६६६। आलोइय तिसल्ला, समणीओ पच्चक्खाइऊण उज्जुत्ता । उत्थिप्पिहिति धणियं, गंगाए अग्गवेगेणं ६७०। आलोचितत्रिशल्याः श्रमण्यः प्रत्याख्यात्वा उद्युक्ताः । उत्थाप्स्यन्ते धणियं [तूण], गंगाया अग्रवेगेन ।)
तीनों प्रकार के शल्यों को आलोचना की हुई प्रत्याख्यान कर पण्डितमरण के लिये उद्यत साध्वियाँ गंगा के तीव्र वेग द्वारा शीघ्र ही पानी से बाहर पहुँचा दो जायेंगी । ६७०। केई फलगविलग्गा, वच्चंति समण समणीण संघाया । आयरियादीय तहा, उत्तिन्ना बीय कूलंमि ।६७१। (केचित् फलकविलग्नाः व्रजन्ति श्रमणश्रमणीनां संघाताः । आचार्यादयस्तथा, उत्तीर्णाः द्वितीय कूले ।)
- श्रमणों एवं श्रमणियों के कतिपय समूह तथा प्राचार्य आदि लक्कड़ों और लकड़ी के पाटियों पर बैठ कर तट पर पानी से पार उतरे ।६७१। नगरजणो वि य बूढो, केइ लद्ध ण फलग खंडाई । समुतिन्ना बीयतडं, केइ पुणतत्थ निहण गया ।६७२। (नगरजनोऽपि च बूहितः, केचित् लब्ध्वा फलकखण्डानि । समुत्तीर्णाः द्वितीय तटं, केचित्पुनस्तत्र निधनंगताः ।)
उस भयंकर बाढ में (बहत बडी संख्या में) नगर-निवासी भी डूब गये। जिन लोगों के हाथ काष्ठ के पट्टे लग गये वे तो तैर कर जल-प्रवाह के दूसरे तट पर पहुँच गये किन्तु अधिकांश लोग वहीं मृत्यु के ग्रास बन गये । ६७२। रणो य अत्थजायं, पाडिवस्तो चेव कक्कि राया य । एयं हवा हु [ण] बुड्ढं, बहुयं बूढं जलोहेण ।६७३।