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का प्रागे की जिन-जिन गाथानों में उल्लेख किया गया है वहाँ सब जगह भविष्यत्काल का ही प्रयोग है । गाथा संख्या ८०८--
एयस्स पुव्वसुय सायरस्स, उदहिव्व अपरिमेयस्स।
सुणसु जह प्रथ काले, परिहाणी दीसते प्रच्छा ।। में प्रयुक्त 'जह', 'प्रथ', 'काले' और 'पच्छा' शब्द साधारण से साधारण विचारक के हृदय पर यही छाप अंकित करते हैं कि इस गाथा से पूर्व की घटनाएँ इस ग्रन्थ के प्रणयन काल से पूर्व घटित हो चुकी थीं और इस गाथा से प्रागे जिन घटनामों का उल्लेख किया जा रहा है, वे सब घटनाएं इस ग्रन्थ के प्रणयन से पश्चात घटित होंगी।
इन सब प्रमाणों से यह अनुमान किया जाता है कि यह रचना दशपूर्वधर काल भी है। पर इसका स्वरूप थोड़ा विकृत हो चुका है। नन्दीसूत्र के प्राद्य मंगल में उल्लिखित संघस्तुति की तीन चार गाथाएं प्रस्तुत ग्रन्थ में भी यथावत् रूपेण विद्यमान हैं। इन गाथाओं से यह सिद्ध नहीं किया जा सकता कि यह रचना वीर निर्वाण सं० १००० में स्वर्गस्थ हुए आर्य देवद्धि गणी के पश्चादवर्ती काल की है । क्योंकि इस ग्रन्थ में अनेक गाथाएं प्रक्षिप्त हैं, यह बात तो इस ग्रन्थ की अन्तिम गाथा से ही सिद्ध हो जाती है। इस ग्रन्थ में कुल मिलाकर गाथाओं की संख्या १२५६ प्रकित की गई है जब कि इस ग्रन्थ की समाप्ति के पश्चात् दी गई इस गाथा में इस की मूल गाथानों की संख्या १२३३ ही दी गई है।
इन सब तथ्यों से यही सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ का रचना काल वीर नि० सं० २१५ के पश्चात् का दशपूर्वधर काल है और नन्दी सूत्र के प्राद्य मंगल की जो याथाएं इसमें उल्लिखित है वे वस्तुतः इसमें पश्चाद्वर्ती काल में प्रक्षिप्त की गई हैं। भाष्यों, चूणियों प्रादि अन्य जैन वाङमय में जो इसकी गाथाएं उपलब्ध होती हैं वे निश्चितरूपेण इसी ग्रन्थ से प्राचीन काल में ली गई हैं।
____ इस ग्रन्थ की जो ताड़पत्रीय प्रति पाटन के भण्डार में है वह भी प्रति प्राचीन (संभवत: वि० सं० १४०० के पास पास की-मेरे पास निश्चित लेखन संवत् है पर इस समय मेरे से १०० माइल की दूरी पर है, प्रतः निश्चित तौर पर मैं इस समय नहीं लिख सकता) है । उस ताडपत्रीय प्रति के प्रशुद्ध लेखन से ह अनुमान किया जाता है कि शताब्दियों तक कर्ण और