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बलिस्सह प्रादि दशपूर्वधर महान् प्राचार्यों का तथा वीर नि० सं० ५२५ के अासपास स्वर्गस्थ हुए अन्तिम दशपूर्वधर प्राचार्य श्रार्यवज्र का और साढ़े नव पूर्वो का ज्ञान प्राप्त करने वाले एवं अनुयोगों का पृथक्करण करने वाले प्रार्य रक्षित का कहीं न कहीं अवश्य ही उल्लेख किया जाता ।
मेरे इस अनुमान की पुष्टि करने वाले मौर भी अनेक प्रमाण इस ग्रन्थ में विद्यमान हैं । इस पूरे ग्रन्थ को पढ़ने से ग्रन्थकार की एक विशिष्ट शैली पाठक के समक्ष साक्षात साकार हो उठती है । जो जो घटनाएं इस ग्रन्थ के रचनाकाल से पूर्व घटित हो चुकी थीं उनके लिए ग्रन्थकार ने प्रत्येक धातु का भूतकाल का प्रयोग किया है। उदाहरण स्वरूप निम्नलिखित गाथाएँ चिन्तनीय एवं मननीय हैं
एतेण कारणेन, पुरिसजुगे प्रठमम्मि वीरस्स । सवराहेण परणट्ठाई, जाण चत्तारि पुव्वाई ||८०३ तं एवमंगवंसो नंदवंसो मरुयवंसो य । वराहेण पणट्ठा, समय
सज्झायवं सेण ||५०५
इन गाथानों पर गम्भीरतापूर्वक चिन्तन मनन करने तथा 'परगट्ठाई' और 'पराठा' शब्दों के भूतकाल के प्रयोग पर विचार करने से स्पष्टतः प्रतीत होता है कि इस ग्रन्थ के प्ररणयन से पूर्व ही चार पूर्व- स्वाध्याय वंश ( अनवष्टप तप, पारंचित तप प्रोर चार पूर्व ) और नन्दवश नष्ट हो गये थे । यहां जो 'मरुयवंस' के नष्ट होने का उल्लेख है वह शोध का विषय है । मौर्य वंश का द्योतक तो यह नहीं हो सकता क्योंकि इसमें न तो कहीं मौर्यवंश काही उल्लेख है प्रोर न मौर्य काल की आदि से लेकर अन्त तक की किसी एक भी घटना का ही ।
जो घटनाएँ इस ग्रन्थ के उल्लेख करते समय ग्रन्थकार
रचनाकाल तक घटित नहीं हुई हैं उनका सर्वत्र प्रत्येक धातु का भविष्यत काल का रूप दिया है । स्थूलभद्र के समय तक की घटनाओं के सम्बन्ध में भूतकाल का प्रयोग कर चुकने के तत्काल पश्चात् की गाथा संख्या ८०७ के 'होही अपच्छिमो किर, दसपुथ्वी धारथो वीरों'
इस अन्तिम श्रद्धभाग में 'होही' पर्थात् 'भविष्यति' शब्द प्रयोग स्पष्टतः यही प्रकट करता है कि इस ग्रन्थ के निर्माण के बहुत काल पश्चात् यह घटना घटित होगी । शेष पूर्वो के विच्छेद तथा एकादशांगी के हास