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के किसी तथ्य के निर्णय पर पहुंचने का प्रयास किया जाय तो वह निर्णय भी अनिर्णीत, अनिश्चित, प्रप्रामाणिक और अस्वीकार्य ही होगा।
मैंने भी अपने सामर्थ्य के अनुसार इस ग्रन्थ के प्रणेता का समय सुनिश्चित करने का पर्याप्त प्रयास किया है। इस ग्रन्थ की एक एक गाथा का पर्यालोचन करते समय मेरी दृष्टि अनेक ऐसी गाथानों पर पड़ी, जिन्हें मैंने इस समस्या के समाधान करने में प्रांशिक रूपेण प्राधार बनाने की वात सोची ।उनमें से गाथा इस प्रकार है:
भगवं कह पुवामो, नट्ठामो उवरिमाई चत्तारि । एवं जहा विदिट्ठ, इच्छह सम्भावतो कहिउं ॥७०३।।
अर्थात् - "भगवन् ! ऊपर के (ग्यारहवां, बारहवां, तेरहवां प्रोर चौदहवां, ये अन्तिम) चार पूर्व किस प्रकार नष्ट हो गये ? इस सम्बन्ध में प्रापने अपने विशिष्ट ज्ञान के द्वारा जैसा देखा-जाना है, वह कृपा कर मुझे बताइये ।"
. यह गाथा इस ग्रंथ के रचनाकाल के सम्बन्ध में किसी निर्णय पर पहुंचने के लिये सहायक सिद्ध हो सकती है। इस गाथा में प्रश्नकर्त्ता स्वाध्यायी श्रमण ने सर्वशास्त्र निष्णात अपने गुरु से केवल अन्तिम चार (ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें और चौदह) पूर्वो के नष्ट होने का कारण ही पूछा है । इससे यह सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ में उल्लिखित अज्ञातनामा प्रश्नकर्त्ता भ्रमण के समय में दश पूर्व यथावत् पूर्णरूपेण विद्यमान थे। यदि दश पूर्वो में से पांच, चार, तीन, दो अथवा एक भी पूर्व उसके समय में विद्यमान नहीं होता तो वह चार पूर्वो के नष्ट होने का कारण पूछने के स्थान पर नो, दश, ग्यारह, बारह अथवा १३ पूर्वो' के नष्ट होने का कारण इसमें निर्दिष्ट अपने अज्ञातनामा गुरु से पूछता। इससे स्पष्टतः यह सिद्ध होता है कि इस ग्रन्थ के प्रणयनकाल में १० पूर्व यथावत विद्यमान थे।
इस अनुमान की पुष्टि इस तथ्य से भी होती है कि प्रस्तुत 'तित्थोगाली पइन्नय' ग्रन्थ में भगवान् महावीर के आठवें पट्टधर प्रार्य स्थूलभद्र तक ही पट्टधरों के नाम का उल्लेख है। प्रार्य स्थूलभद्र के पश्चात किसी एक पट्टधर का भी इस ग्रन्थ में उल्लिखित पटपरम्परा में नहीं दिया गया है । यदि दशपूर्वधरों के पश्चाद्वर्ती काल में इस ग्रन्थ का प्रणयन किया जाता तो प्रार्य स्थूलभद्र के पश्चात हुए प्रार्य महागिरि, पार्य सुहस्ती, पार्य