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इन सब प्रभावों की स्थिति में भी मैंने अपनी स्वल्प बुद्धि के अनुसार इस ग्रन्थ को सवाग सुन्दर और विद्वद्भोग्य बनाने का पूरी लगन के साथ प्रयास किया है। मैं इस कार्य में कितना सफल हो सका है, इसका निर्णय तो पाठकों पर ही निर्भर करता है।
इतिहास में थोड़ी अभिरुचि होने के कारण विगत अनेक वर्षों से इस ग्रन्थ को उपलब्ध करने और पढ़ने की तीव्र उत्कण्ठा थी। मैंने यह भी अनुभव किया कि इतिहास के अनेक विद्वान्, कतिपय शोधार्थी मोर इतिहास में थोड़ी बहत भी अभिरुचि रखने वाले विज्ञ इस ग्रन्थ को पढ़ने के लिये लालायित रहे हैं । पर अद्यावधि इसका प्रकाशन न होने के कारण उनकी इसे पढ़ने ही नहीं देखने तक भी उत्कण्ठा अपूर्ण हो रही है। पिछले चार पांच वर्षों से इस ग्रन्थ के सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों के ये विचार भी पढ़ने को मिले कि यह ग्रन्थ न श्वेताम्बर परम्परा का है पोर न दिगम्बर परम्परा का ही, यह तो यापनीय परम्परा के समान किसी अन्य विलुप्त परम्परा का ग्रन्थ है। इतिहासप्रेमियों की इसे पढ़ने की जिज्ञासा को शान्त करने की इच्छा के साथ साथ यह ग्रन्थ किसी अन्य विलुप्त परम्परा का ग्रन्थ है, इस भ्रान्ति को दूर करने की प्रदृष्ट प्रेरणा भी न मालूम क्यों मेरे अन्तःकरण में स्फुरित हुई और उत्तरोत्तर बलवती होती ही गई। यह भी एक बहुत बड़ा कारण है कि अपनी सामर्थ्य से बाहर के इस ग्रन्थ के सम्पादन जैसे गुरुतर भार को अपने सिर पर वहन करने का मैंने साहस कर लिया।
इक्ष्वाकुवंश पर महाकाव्य का प्रणयन करते हुए महाकवि कालिदास जैसे समर्थ विद्वान् ने भी निम्नलिखित श्लोकार्द्ध द्वारा उस महान कार्य के निष्पादन के लिये अपने पापको अल्पमति बताते हुए कहा है:
'क्व सूर्यप्रभवो वंश, क्व मे प्रल्पविषया मतिः ।'
तो ऐसी दशा में अनादि अनन्त जिनेन्द्रवंश और उस जिनेन्द्र वंश द्वारा प्रतिपादित धर्मतीर्थ के प्रवाहों का विवरण प्रस्तुत करने वाले इस ग्रन्थ राज का सम्पादन प्रयास मेरे जैसे स्वल्पातिस्वल्पज्ञ अकिंचन व्यक्ति के लिये कितना हास्यास्पद है, इस विचारमात्र से ही किसी अन्य की तो क्या कहूं मैं स्वयं भी अपने पाप पर हंस पड़ता है। पर जो कार्य कर रहा हूँ वह प्रति श्रेष्ठ है, प्रति पुनीत है मौर कर्मकलुष को ध्वस्त करने वाला है, इस विचार से पुन: पाश्वस्त और प्रकृतिस्थ हो जाता हूँ।